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प्रकाशकीय
हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि भारतीय एवं पाश्चात्य जैन नेतर विद्वान् विगत एक शताब्दी से जिस ग्रन्थरत्न "तित्थोगाली पइन्नय" (तीर्थोद्गारिक अथवा तीर्थोग्गाली प्रकीर्णक) की तीव्र उत्कण्ठा के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे, उस ग्रन्थराज को भारतीय पुरातन संस्कृति के प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। किन-किन सुविशाल एवं महान द्वीपों के किन-किन भाग्यशाली विशाल क्षेत्रों में जैन धर्म का पुनीत प्रवाह प्रनादि काल से सदा एक सा प्रविच्छिन्न अबाध गति से कल-कल निनाद करता हुमा कोटि-कोटि ही नहीं, असंख्य भी नहीं अपितु अनन्तानन्त भव्य प्राणियों के कलिमल को धोता चला आ रहा है, अनन्तकाल तक. धोता ही चला जायगा तथा किन-किन महान् द्वीपों के किन-किन प्रतिविशाल भूभागों में धर्मतीर्थों का किस-किस समय उद्गम होता है, कब तक वह तीर्थ प्रवाह प्रमन्द गति से प्रवाहित होता रहता है तथा वह तीर्थ-प्रवाह कब किस प्रकार कितने समय के लिए तिरोहित हो जाता है, इन सब तथ्यों शाश्वत सत्यों का विवरण बड़े ही संक्षेप में पर नितान्त सहज सुबोध प्रति सुन्दर शैली में दिया गया है। ..
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.. . ... यदि संक्षेप में कहा जाय तो यह ग्रन्थ जैन धर्म के विराट स्वरूप का सजीव शब्द चित्र है । हमें यह देख कर बड़ा माश्चर्य हो रहा था कि इस प्रकार के अनमोल ग्रन्ध का प्रकाशन मुद्रण प्रणाली का प्राविष्कार होते ही किस