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तिस्थोगाली पइन्नय ]
(धान्यं सप्तदशवर्णं, फलानि मूलानि सर्ववृक्षाणाम् । खजूर द्राक्षादाडिम, फणसा, त्रपुषी च वर्द्धन्ते ।)
सत्रह प्रकार के धान्य, सब प्रकार के वृक्षों के फल एवं मूल खजूर द्राक्षा, दाडिम, फनस एवं कर्कटी आदि की भी वृद्धि होती है । १०००
विहरति भरहवास, नरनारीउ जहिच्छियं रम्मं ।
दस विखेत्ते सेवं चउप्पया पक्खिणो चैव । १००१ ।
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( विहरन्ति भरतवर्षं नरनार्यः यथेच्छं रम्यम् ।
दशस्वपि क्षेत्रेष्वेवं, चतुष्पदाः पक्षिणश्चैव । )
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उस समय सुन्दर भरत क्षेत्र में नर-नारीगण यथेच्छ विहार करते हैं । इस प्रकार दसों (नवों) क्षेत्रों में नर-नारीगण, चतुष्पद और पक्षिगण अपनी इच्छानुसार विचरण करते हैं । १००१ ।
बासेंति अमय मेहा, चंदाइच्चाय सीय उण्ह सुहा । वासा देसा य सोमा, भूमी उदगं च महुराई । १००२। ( वर्षन्ति अमृतं मेघाः, चन्द्रादित्याश्च शीतोष्ण सुखाः । वर्षा : देशाश्च सोमाः, भूमिरुदकं च मधुरम् ।)
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बादल अमृत की वर्षा करेंगे, चन्द्र सुखद शीतलता एवं सूर्य सुहानी ऊष्मा पहुँचायेंगे । वर्ष ( आवर्त क्षेत्र) और देश-प्रदेश बड़े ही सौम्य तथा भूमि एवं पानो मधुर आस्वाद वाले होंगे । १००२ ।
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पुणरवि अ (सु) भिक्खभिक्खं, अमियरसरसोवमं महावासं । जेण इहं मणुयाणं, होर्हिति न रोगसंघाया । १००३ । (पुनरपि सुक्षिभिक्ष, अमृतरसरसोपमं महत् वर्षाम् । येनेह मनुजानां भविष्यन्ति न रोगसंघाताः ।)
* कर्कटी इत्यर्थः ।