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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] (दश कोट्या कोटिसागरनाम्नां भवन्ति पूर्णास्तु । अवसर्पिणीप्रमाणं, तथैव उत्सर्पिण्या अपि ।) सागरोपम नामक इस काल की दश कोटा-कोटि संख्या जब पूर्ण हो जाती है, तो उस काल को अवसर्पिणी-परिमारण काल कहते हैं। अवसर्पिणी काल के समान उत्सपिणी काल भी दश कोटाकोटि सागरोपम का होता है ।१४। ओसप्पिणी य उस्सप्पिणी य, दोनिवि अणाइनिहणाओ । न वि होई अति कालो, नवि होही सव्वसंखेवो ।१५। (अवसर्पिणी च उत्सर्पिणी च द्वेऽपि अनादिनिधने । नापि भवति अतिकालः नापि भवति सर्व-संक्षेपः ।) अवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणीकाल-ये दोनों अनादि काल से (इसी प्रकार) चले आ रहे हैं। इनके इस काल-परिमाण में न कभी किञ्चित्मात्र भी आधिक्य होता है एवं न कभी किञ्चित्मात्र न्यूनता ही ।१५। ते चेव कालसमया तासि वोच्छामहं समाणेणं । ओसप्पिणी अणुलोमा, पाडिलोमुस्सप्पिणी भणिया।१६। (तौ चैव काल समयौ तयोः वक्ष्याम्यहं समानेन । अवसर्पिणी अनुलोमा, प्रतिलोमा उत्सर्पिणी भणिता ।) ये काल के दो विभाग हैं। इनका मैं समान रूप से विवरण प्रस्तुत करूंगा। अवसर्पिणी काल अनुलोम अर्थात् ह्रासोन्मुख और उत्सर्पिणी काल प्रतिलोम अर्थात् उत्कर्षोन्मुख कहा गया है ।१६। छच्चेव काल समया हवंति ओसप्पिणीए भरहमि । तेसिं नामविभति, जहकम्मं कित्तइस्सामि ।१७) (षड् चैव कालसमयाः भवंति अवसर्पिण्याः मरते । तेषां नाम-विभक्ति, यथाक्रम कीर्तयिष्यामि ।) भरत क्षेत्र में अवस पिणी काल के छः विभाग होते हैं। उनके नाम और विभागों का मैं यथाक्रम से वर्णन करूंगा।१७।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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