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[ तित्थोगाली पइत्रय
उन स्तूपों के सम्बन्ध में उसके द्वारा पूछताछ की जाने पर लोग उसे बतायेंगे कि बल धन, रूप एवं यश-- सभी दृष्टियों से समृद्ध नंद नामक राजा यहां बहुत समय तक शासनारूढ रहा । ६३७। ते इहं हिरणं, निक्खितंसि बहुबलमत्तेणं । नणं तरंति अण्णे, रायाणी दाणि धितु ं जे | ६३८ ।
( न त्विह हिरण्यं निक्षिप्तं (अस्ति ) बहुबलप्रमत्तेन ।
न च नु तरन्ति अन्ये, राजान इदानीं ग्रहीतु ये ।)
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बलाधिक्य से प्रमत्त उस नन्द राजा ने इन स्तूपों में बहुत सा स्वर्ण गाड़ा था। अब इस स्वर्ण को लेने में कोई दूसरे राजा समर्थ नहीं हैं । ६३८ ।
तं वयणं सोडणं. खणेहीति समंतओ त धूभे ।
नंदस्स संतियं तं पडिवज्जह मो अहं हिरण्णं ६३९ ।
( तद्वचनं श्रुत्वा खनत इति समन्तात् ततः स्तूपान् ।
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नन्दस्य संचितं तत् प्रतिपद्यते सोऽथ हिरण्यम् ।)
लोगों के उस वचन को सुन कर वह उन पांचों स्तूपों को सब और से खुदवायेगा और नन्द राजा द्वारा संचित उस सम्पूर्ण स्वर्ण को ग्रहण कर लेगा । ६३ ।
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सो अत्थपथिद्धो, अण्ण नरिंदे तो वि अगणितो | अह सव्वतो महंत खणावही पुरवरं सव्वं ॥ ६४०
( स अर्थ प्रतिस्तब्ध अन्य नरेन्द्रान् तृणान्यध्यगणयन् । अथ सर्वतो महान्तम् खनापयिष्यति पुरवरं सर्वम् । )
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वह उस अपार अर्थ राशि को पा कर प्रतिस्तब्ध अर्थोन्मत्त होगा । उसकी अर्थ लोलुपता और बढ़ेगी। अब तो वह अन्य सभा राजाओं को तृरणतुल्य भी न गिनता अर्थात् मानता हुआ (इस) समस्त महान् नगर को सब और से खुदवायेगा | ६४०|
नामेण लोण देवी, गावी रूवेण नाम अइबुच्छा | धरणियला उन्भूया, दीसिही सिलामई गावी | ६४१ |