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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] एवं संघयणाई, बलवीरियाई तहेव आउंच । सदरस रूव गंधा, फासा अहियं पवति । ९९३ । ( एवं संहननानि, बलवीर्यादि तथैव आयुश्च । शब्दरसरूपगन्धाः, स्पर्शा अधिकं प्रवर्द्धन्ते ।) इस प्रकार दसों क्षेत्रों में संहनन, बल, वीर्य, आयु, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श आदि की उत्तरोत्तर उन्नति एवं अभिवृद्धि होगी । ६३ । [ २६६ पीति पणओ नेहो, सब्भावो सोहियं च विणओ य ! लज्जा य पुरिसकारो, ज सोय कित्तीय वडढंति । ९९४ | (प्रीतिः प्रणयः स्नेहः सद्भावः शोभिकं च विनयश्च । लज्जा व पुरुषकारः यशश्च कीर्तिश्च वर्द्धन्ते ।) इस प्रकार मनुष्यों में प्रीति प्रणय, स्नेह. शुद्धभाव, विनय, लज्जा पौरुष-पराक्रम, यश और कीर्ति की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होगी । ६६४ जहह वह कालो, तहातहा रूवसील परिबुडी । दो रयणीओ मणुया, आरम्भे अंत छच्चेव । ९९५ । ( यथा यथा वर्तते कालः, तथा तथा रूपशीलपरिवृद्धिः । द्वौ रत्निकाः मनुजाः आरम्भे अन्ते षड् चैव ।) ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायेगा, त्यों-त्यों रूप, शील आदि की वृद्धि होती जायेगी और मनुष्यों के देह की ऊंचाई जो आरम्भ में दो मुण्ड हाथ होगी वह क्रमशः बढ़ते-बढ़ते ६ मुण्ड हाथ हो जायेगा || एवं परिमार्ण, लोए चंदेव धवल पक्खमि । तेसिं मणुयाण तया, सहसच्चिय होई मणसुद्धी । ९९६ । ( एवं परिवर्तमाने, लोके, चंद्रोव धवल पक्षे । तेषां मनुजानां तदा, सहसा चिद् भवति मनः शुद्धिः ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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