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तिस्थोगाली पइन्नय
(धर्मे निरालोके, जिनमतदुःश्रद्दधाने लोके । प्रवाजयिष्यति शिष्यं दप्रसहं नाम नाम्ना )
वे नाइल नामक प्राचार्य, जिस समय लोगों में धर्म का प्रकाश धूमिल हो जायगा और लोग बड़ी ही कठिनाई से जिन मत में श्रद्धा करेंगे उस समय दुःप्रसह नामक व्यक्ति को अपने शिष्य के रूप में श्रमण धर्म की दीक्षा देंगे।८३०।। सो पुण संपतिकाले कामालोए सु देवलोगेसु । लोगहीति [लोहीतम्मि १] विमाणे, अच्छति य विमाणितो देवो
. ८३१। (स पुनः सम्प्रतिकाले, कालोकेषु देवलोकेषु । लोहित्यके विमाने अच्छति च वैमानिकः देवः ।) - वह, भावी दुःप्रसह आचार्य का जीव वर्तमान काल में (भ० महावीर की विद्यमानता के समय में) दिव्य काम-भोग पूर्ण देवलोकों के लोकहिती (लोहित ) नामक विमान में वैमानिक देव के रूप में रह रहा है ।८३१॥ सो सागर गंभीरो, देवा सागरोवमं तस्स । तचो चुओ विमाणा, आयाही मज्झ देसम्मि ।८३२। (स सागरगम्भीरः देवायुः सागरोपमं तस्य । ततः च्युतः विमानात्, आगमिष्यति मध्यदेशे ।)
वह देव समुद्र के समान गम्भीर तथा उसकी देवायु एक सागरोपम को है। देवायु पूर्ण होने पर वह देवलोक से च्यवन कर भरत क्षेत्र के मध्य देश में जन्म ग्रहण करेगा । ८३२॥ सो जाय अहवासो, दियलोय सुहं सुयं अणुगणंतो । पवज्जिहि दुप्पसहो. अपासट्ठो नाइलज्जेणं ।८३३। (स जात-अष्टवर्षः, देवलोकसुखं श्रुतं अनुगणयन् । प्रव्रजिष्यति दुःप्रसहः, अनुशिष्ट नाइलार्येण ।)