Book Title: Sadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाका-पुरुष गुरुदेव तुलसी समणी कुसुमप्रज्ञा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी अनेक बार कहा करते थे, 'धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें लेकिन मैं साधक हूं और समाज-सुधारक हूं।' उनकी साधना व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अध्यात्म और साधना को सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का महनीय कार्य किया। 'साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' आर्चायजी की साधना और क्षमताओं का जीवंत इतिहास है। इस इतिहास को एकसूत्रता में पिरोना एवं इसकी विशद विवेचना करना बहुत दुस्साहस है। इस दुष्कर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञा ने जिस मनोयोग के साथ किया है, इससे उनकी लेखकीय प्रतिभा एवं क्षमता न केवल उजागर हुई है, बल्कि प्रतिष्ठित भी हुई है। मैं तो यही कहूंगा कि आचार्य तुलसी के दिवंगत होने के बाद उनकी स्मृति को स्थायित्व देने की दृष्टि से इससे अच्छी कोई श्रद्धाञ्जली नहीं होगी। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा को कोटिशः धन्यवाद देना चाहूंगा और अपेक्षा करूंगा कि उनका आगामी लेखन भी इसी भांति लोकोपयोगी एवं शाश्वत होगा। -राजेन्द्र अवस्थी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाका-पुरुष गुरुदेव तुलसी समणी कुसुमप्रज्ञा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं-341306 (राजस्थान) © जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 341306 ISB No. 81-7195-063-9 सौजन्य : पूज्य पिताश्री एवं मातुश्री धर्म-किरण बरड़िया, सरदारशहर की पुण्य स्मृति में पुत्र-सुख-शांति, अभय-पद्मा, राज निर्मला, अनोप-कांता, रवि-सरला, डॉ समीर-विनीता बरड़िया के आर्थिक सौजन्य से। चतुर्थ संस्करण : 2010 मूल्य : 80.00 (अस्सी रुपये) मुद्रक : कला भारती, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाका-पुरुष गुरुदेव तुलसी समणी कुसुमप्रज्ञा जैन विश्व भारती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहप्रसादो रसनाजयेन, मनःप्रसादः समताश्रयेण। दृष्टिप्रसादो ग्रहमोचनेन, पुण्यत्रयीयं मम देव! भूयात्॥ जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यम् 1 गुरुदेव तुलसी के जीवन का गुंफन अनेक तत्त्वों से हुआ। वे ज्ञानी थे, साधक थे, योगी थे, शास्ता थे और सिद्ध पुरुष थे । कुछ व्यक्ति प्रतिदिन योग की साधना करते हैं । सिद्धि-तत्त्व तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। कुछ व्यक्ति जन्म से योग-सिद्धि लेकर आते हैं और योग-सिद्ध पुरुष बन जाते हैं। गुरुदेव तुलसी का अवतार दूसरी श्रेणी का है । उनमें सहिष्णुता, विनम्रता, कृतज्ञता आदि सर्वोत्तम गुण सहज विकसित थे। उन्होंने वचन-सिद्धि की साधना नहीं की पर बहुत बार अनेक लोगों ने अनुभव किया कि उनमें वचन - सिद्धि की विलक्षण शक्ति है। हजारोंहजारों व्यक्ति उनके एक वचन को पाकर निहाल हो जाते थे । सिद्धि के बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है। वर्तमान जीवन में भी उन्होंने साधना के अनेक प्रयोग स्वयं किए और शिष्यों को प्रयोगों की प्रेरणा दी। जीवन के सान्ध्यकाल में भी आसन-प्राणायाम, ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रेक्षाध्यान- ये प्रयोग प्राय: निरन्तर चलते थे । 'समणी कुसुमप्रज्ञा' ने गुरुदेव की साधना के सूत्रों का संकलन कर पाठकों को एक महत्त्वपूर्ण संबल दिया है। इससे जनता को साधना की विशेष प्रेरणा मिलेगी। नोखा १५-१-१९९८ आचार्य महाप्रज्ञ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवम् जीवन जीना सामान्य बात है। अध्यात्मपूर्ण जीवन जीना महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट बात है। परम श्रद्धेय गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी बहआयामी व्यक्तित्व से संपन्न महापुरुष थे। उनके जीवन का केन्द्रीय आयाम था अध्यात्म। वे अध्यात्म के महान् उपदेष्टा और प्रखर प्रयोक्ता थे। पज्य गुरुदेव कुशल अनुशास्ता थे। उनकी अनुशासन शैली के अंग थे- वात्सल्य भाव और कठोरता। वे इन दोनों का प्रयोग करते थे। वत्सलता का प्रयोग करते तो कई बार प्रचुर मात्रा में वात्सल्य और स्नेह उंडेल देते और यदा कदा जब कड़ाई करते तो वह भी करीब-करीब पराकाष्ठा तक पहुंचने · वाली होती थी। इस कड़ाई के बावजूद भी उनमें बड़ी निर्मलता थी। उनमें कषाय का हल्कापन था, ऐसा प्रतीत होता है। ___ गुरुदेव तुलसी निर्मोह साधना के महान् साधक थे। संयोग-वियोग की स्थितियां उन्हें कम प्रभावित करती थीं। उनके जीवन-पथ में विरोध और अवरोध भी प्रचुर मात्रा में आए, परन्तु उनके साहस, शौर्य और सूझबूझ के सम्मुख प्रतिकूल स्थितियां भी अपना रास्ता बदल लेती थीं। ऐसे महान् व्यक्तित्व के धनी पूज्य गुरुदेव तुलसी के जीवन-संस्मरणों को आलोक-स्तम्भ और आदर्श के रूप में सामने रखा जा सकता है। ... समणी कुसुमप्रज्ञाजी साहित्यिक प्रगति में संलग्न हैं। उन्होंने गुरुदेव के साहित्य का अवगाहन किया है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने गणाधिपति तुलसी के जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर किया है। इससे पाठकों को आध्यात्मिक पथदर्शन और संपोषण प्राप्त हो, ऐसी मंगलकामना है। -युवाचार्य महाश्रमण तेरापंथ भवन, गंगाशहर २९-१०-१९९७ Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरम् एक सुदर्शन व्यक्तित्व की पहचान थी आचार्य तुलसी। एक ऊर्जस्वल व्यक्तित्व का नाम था आचार्य तुलसी। बाहर से जितने आकर्षक, भीतर से उतने ही पावन । एक बहुत बड़े समुदाय के सक्षम अधिशास्ता पर भीतर में प्रदीप्त आत्मानुशासन की अलौकिक आभा। जितनी कल्पना-प्रवणता, उतनी ही सृजनशीलता। धर्मसंघ की मौलिक परम्पराओं के जितने संपोषक, उतनी ही प्रयोगधर्मिता। सबसे बड़ी प्रयोगशाला थी उनका अपना जीवन। वैसे उन्होंने संघ को भी सजीव प्रयोगशाला बना दिया। उनके कुछ प्रयोग तो ऐसे हैं, जो दूसरों के लिए अज्ञात या अल्पज्ञात हैं। कुछ प्रयोगों की सूचना उनकी दैनंदिनी से मिल सकती है। वास्तव में वे एक प्रयोगधर्मा पुरुष थे। प्रयोगों की विभिन्न भूमिकाओं में एक भूमिका है साधना की। ग्यारह वर्ष की अपरिणत वय में जीवनभर साधना का संकल्प स्वीकार करने वाले किशोर का मन कितना फौलादी रहा होगा। उनका तारुण्य समय की परतों से कभी आच्छादित नहीं हुआ। उनकी साधना में प्रौढ़ता का निखार पग-पग पर परिलक्षित होता रहा। साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' पुस्तक में उनकी साधना के कुछ आयाम उद्घाटित हुए हैं। समणी कुसुमप्रज्ञा ने आचार्य प्रवर के साहित्य का अनुशीलन किया है। अपनी निष्ठा और तन्मयता से उन्होंने जितना लिखा है, वह वक्तव्य का बहुत थोड़ा सा अंश है। अशेष को रूपायित करना संभव भी नहीं है। फिर भी अभी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे कलमबंद किया जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक पाठकों को आचार्यश्री की साधना या प्रयोगधर्मिता की झलक भी दिखा सकी तो वह लेखिका की श्रद्धार्पणा का एक जीवंत उपक्रम बन जायेगी। -साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा भीनासर १९-१२-१९९७ Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का जीवन्त इतिहास साधना में अगाध क्षमता है, क्योंकि वह एकाक्षी है। साधना के एकाक्षी होने का प्रमाण कृष्ण की बांसुरी की रागात्मकता में मिलता है। दिन हो या अंधेरी रात, बांसुरी के स्वरों में सभी रागमय हो जाते हैं। तब अन्य विचार तिरोहित हो जाते हैं और स्वर के राग-केन्द्रों में जीवन की गति समाहित कर देते हैं। सूफी चिन्तक और साधक भी ऐसे ही जीवन्त पुरुष होते हैं। उनके जहां-जहां हस्ताक्षर पहुंचते हैं, वहां जड़ भी जीवित होकर जीवन की सांस लेने लगते हैं। अमिट हस्ताक्षर ही तो साक्षात् ब्रह्म हैं, जिसे वे मिल जाएं, - अभिलाषाएं शेष नहीं रहतीं। .. यही वह साधना है, जिससे छोटा-सा बालक तुलसी आगे चलकर न केवल देश में बल्कि समूची दुनिया में मानवतावादी धर्मगुरु के रूप में विख्यात हुआ। आचार्य श्री तुलसी एक तपस्वी एवं साधक पुरुष थे। इस शताब्दी के अग्रणी एवं सर्वपरिचित साधक के रूप में आचार्यश्री तुलसी सदा स्मरणीय रहेंगे। उनकी साधना के अनेक आयाम हैं, अनेक दिशाएं हैं और अनेक रूप . हैं। एक साधक के रूप में जितना क्रियाशील एवं सार्थक जीवन आचार्य तुलसी ने जिया है, वह अपने आपमें विलक्षण घटना है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने 'साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' शीर्षक से लगभग तीन सौ पचास पृष्ठों की पुस्तक लिखी है। चार खण्डों में करीब ६८ लेखों का इस पुस्तक में समावेश है। पुस्तक में आचार्य तुलसी की साधना के विविध आयामों की सूक्ष्म एवं गहन विवेचना लेखिका ने की है। एक ही विषय पर इतनी विपुल एवं विशाल सामग्री का प्रस्तुतीकरण सचमुच एक बड़ी घटना आचार्य तुलसी का व्यक्तित्व इतना विशाल एवं व्यापक था कि हम उन्हें केवल धर्मगुरु की सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि आज 'धर्म' शब्द साम्प्रदायिकता का प्रतीक बन गया है। आचार्य तुलसी अनेक बार कहा करते थे, 'धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें लेकिन मैं साधक हूं और समाजसुधारक हूं।' आचार्य तुलसी ने एक सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी अपने आपको धर्मगुरु कहलाने की बजाय साधनापुरुष कहलाना ज्यादा उपयुक्त Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना। उनकी साधना व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं थी। उन्होंने अध्यात्म और साधना को सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का महनीय कार्य किया। ___मैंने आचार्य तुलसी को बहुत निकटता से देखा, उनसे कई बार चर्चाएं की, उनके व्यस्त एवं क्रियाशील जीवन को देखने और परखने का मुझे अनेक बार अवसर मिला। जन-कल्याण एवं जन-जागरण को वे अपनी साधना का ही एक अंग मानते थे। इसीलिए उनकी साधना गिरिकंदराओं में कैद न होकर मानव-जाति के कल्याण एवं योगक्षेम के साथ जुड़ी हुई थी। उनकी साधना के स्वरों में कृत्रिमता नहीं, अपितु हृदय की वेदना एवं अनुभूति बोलती थी अत: सीधी हृदय पर चोट करती थी। उन्होंने कहा- 'साधु जीवन का स्वीकार ही सब कुछ नहीं है।' यही कारण है कि उन्होंने आध्यात्मिक विकास के नए-नए प्रयोग किये। अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान, जीवनविज्ञान जैसे उपक्रमों के साथ-साथ अनेक संस्थाएं एवं रचनात्मक उपक्रम प्रारंभ किये, जिनमें जैन विश्व भारती, अणुव्रत विश्व भारती, अणुव्रत महासमिति, आदर्श साहित्य संघ, जय तुलसी फाउण्डेशन आदि सार्वजनिक संस्थान हैं। आचार्यश्री तुलसी की साधना का ही प्रतिफल है कि न केवल शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, साधना एवं योग के क्षेत्र में बल्कि राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अनेक नये-नये कीर्तिमान स्थापित हुए। समण श्रेणी का प्रादुर्भाव भी उनकी गहन साधना की ही निष्पत्ति है। 'साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' आचार्यजी की साधना और क्षमताओं का जीवंत इतिहास है। इस इतिहास को एकसूत्रता में पिरोना एवं इसकी विशद विवेचना करना बहुत दुस्साहस है। इस दुष्कर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञा ने जिस मनोयोग के साथ किया है, इससे उनकी लेखकीय प्रतिभा एवं क्षमता न केवल उजागर हुई है, बल्कि प्रतिष्ठित भी हुई है। मैं तो यही कहूंगा कि आचार्य तुलसी के दिवंगत होने के बाद उनकी स्मृति को स्थायित्व देने की दृष्टि से इससे अच्छी कोई श्रद्धाञ्जलि नहीं होगी। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा को कोटिशः धन्यवाद देना चाहूंगा और अपेक्षा करूंगा कि उनका आगामी लेखन भी इसी भांति लोकोपयोगी एवं शाश्वत होगा। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी । लेखिका ने प्रस्तुत पुस्तक में व्यक्तिगत साधना के प्रयोग' खण्ड में आचार्य तुलसी की साधना के विभिन्न आयामों को विवेचित किया है, जिनमें-आहार संयम के प्रयोग, आसन-प्राणायाम, कायोत्सर्ग-साधना, जपसाधना, मौन-साधना, स्वाध्याय, खड़े-खड़े स्वाध्याय, ध्यान-साधना, अनुप्रेक्षा का प्रयोग, एकाग्रता एवं स्मृति का प्रयोग, उदारता एवं निस्पृहता का प्रयोग, कषायमुक्ति की साधना, आत्मचिन्तन एवं आत्मालोचन, भावक्रिया, अप्रमत्तता आदि हैं। आचार्य तुलसी के प्रायोगिक जीवन से मैं अत्यधिक प्रभावित रहा हूं। उन्होंने जो भी कहा, उसका पहले स्वयं प्रयोग किया। साधना का प्रारंभ प्रयोग से होता है। नित-नये प्रयोग कर उन्होंने नये-नये उन्मेषों का उद्घाटन किया। आचार्य तुलसी सफल प्रयोक्ता थे, इसलिए रूढ़ता उन्हें, किसी भी क्षेत्र में प्रिय नहीं थी। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में भी अनेक प्रयोग किये। उनका अभिमत था कि धर्म में यदि प्रयोग नहीं जुड़ेंगे तो वह निष्प्राण और रूढ़ हो जाएगा। धर्म को प्रायोगिक बनाने के लिए आचार्य तुलसी ने आगम-सम्पादन, साहित्य-सृजन, नैतिक उन्नयन एवं साधना के गहन प्रयोग जैसे कितने ही प्रयोग समाज के सामने प्रस्तुत किये। उनके हर प्रयोग से समाज एवं देश को नई दिशा और नया प्रकाश मिलता रहा है। मैं स्पष्ट तौर से कहूंगा कि गांधी के बाद आचार्य तुलसी ही ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन से समूचे देश और दुनिया को प्रभावित किया है। जब-जब राष्ट्र के सम्मुख साम्प्रदायिकता, प्रांतीयता, जातिवाद, भाषाई विवाद, लोकतांत्रिक मूल्यों का अवमूल्यन, राजनैतिक गिरावट, अशिक्षा, रूढ़िवादिता जैसी स्थितियां उभरीं, तब-तब आचार्य तुलसी ने • अपनी ऊर्जा एवं साधना के बल पर ऐसे समाधान प्रस्तुत किये, जिनसे न केवल समस्याओं के समाधान मिले, बल्कि समूचे राष्ट्र ने राहत की सांस ली। पंजाब समस्या, दक्षिण में भाषाई विवाद, संसदीय गतिरोध, चुनावशुद्धि अभियान ऐसी अनेक प्रमुख स्थितियां हैं, जो अपने समय में राष्ट्र के लिए कड़ी चुनौती के रूप में खड़ी हुई थीं। आचार्य तुलसी ने इनके समाधान-सूत्र प्रस्तुत कर अपनी साधना, सेवा और आध्यात्मिकता का परिचय दिया। साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' पुस्तक में साधना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ के संदर्भ में समाजधर्म, राजधर्म, नीतिधर्म, अर्थधर्म आदि सब मानवधमों की चर्चा है। जैन धर्म के आचार्य होते हुए भी आचार्य तुलसी की जितनी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं वैश्विक सूझबूझ थी, अन्यत्र दुर्लभ है । राजनीति में जब अणुबम की विशद चर्चा होने लगी और सभी देश अणुबम बनाने की होड़ करने लगे, तब आचार्य तुलसी ने संदेश दिया, 'अणुबम नहीं किन्तु अणुव्रत आवश्यक है।' इसी तरह जब समूची दुनिया' अर्थ के पीछे दौड़ रही थी, तब उन्होंने 'महावीर का अर्थशास्त्र' प्रस्तुत कर दुनिया को चौंका दिया । पूज्य आचार्य तुलसी की साधना और उससे जुड़ी अलौकिक घटनाओं को एक समग्र पुस्तक में समेटकर समणी कुसुमप्रज्ञा ने अप्रतिम कार्य किया है। आम पाठक के लिए यह पुस्तक पठनीय है, वहीं वाचकों एवं शोध विद्यार्थियों के लिए इसकी सामग्री अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं है। इस पुस्तक में आचार्य तुलसी के साधनामय जीवन की झांकी तो प्रस्तुत हुई ही है, साथ ही उनके विराट् व्यक्तित्व के विविध आयामों की झलक भी मिलती है। समणीजी का यह लेखन उद्देश्यपरक है । पुस्तक रोचक एवं पठनीय है। इसके विचार सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । यह पुस्तक हृदयग्राही एवं प्रेरक है क्योंकि यह सहज एवं सरल प्रस्तुति है, जो किसी भी हृदय को झकझोरने एवं आनन्दविभोर करने में सक्षम है । पुनः समणीजी के अथक श्रम हेतु उन्हें बधाई । - राजेन्द्र अवस्थी सम्पादक : कादम्बिनी मासिक १८- २०, कस्तूरबा गांधी मार्ग नई दिल्ली Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य भारतभूमि अनादिकाल से योग भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। तपस्वियों की गहन तपस्या के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान् महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृत्कृत्य किया था। साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोगसाधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी। साधना की यह गंगा बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जिस शलाकापुरुष में आत्मसात् हुई, उनका नाम था- आचार्य श्री तुलसी। जो एक गण के नायक थे तो साधना के महानायक, जिनमें 'योगः कर्मसुकौशलम्'का कर्मयोग, 'समत्वं योगमुच्यते' का समतायोग तथा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' का शान्तयोग समाहित था। उनके बारे में भूतपूर्व लोकसभा के अध्यक्ष शिवराज पाटिल की इस अनुभूति में अनेक अनुभूतियों का स्वर साक्षात् दृष्टिगोचर होता है- "संसार में पूर्णत्व को जो प्राप्त हैं, उन इने गिने व्यक्तियों में एक नाम गुरुदेव तुलसी का है, ऐसी मेरी मान्यता है। गुरुदेव तुलसी अध्यात्म के शिरोमणि हैं।" भारतीय परम्परा में संन्यस्त होना सबसे बड़ा योग है। गीता में श्रीकृष्ण पांडवों को संबोध देते हुए कहते हैं- 'यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव!' अर्थात् जो संन्यास है, वही योग है। इस दृष्टि से गुरुदेव श्री तुलसी ७२ वर्षों तक योगी का जीवन जीकर महाप्रयाण कर गये। उनका जीवन ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का समन्वय था। गीता में योगी को तपस्वी, ज्ञानी और पुरुषार्थी व्यक्ति से भी अधिक ऊंचा बताया है तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद् योगी भवार्जुन!॥ पूज्य गुरुदेव की दिव्य वाणी ने हजारों-लाखों को साधना के राजपथ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर प्रस्थित किया। उनके जादुई हाथों के स्पर्श ने न जाने कितने व्यक्तियों में नयी चेतना का संचार किया। उनके प्रेरक जीवन ने अनेकों की दिशा का रूपान्तरण किया। उनकी पावन सन्निधि अध्यात्म की नयी किरणें बिखेरती रहीं अतः वे साधक ही नहीं, लाखों साधकों के अनुशास्ता थे। लगभग ६० वर्ष तक उन्होंने नेतृत्व को साधना का कार्यक्षेत्र बनाया और कुर्सी के आपाधापी के युग में पद-विसर्जन कर निष्काम साधना की जीवन्त मिशाल स्थापित कर दी। गुरुदेव तुलसी ब्रह्मर्षि थे क्योंकि उन्होंने साधना के नए-नए प्रयोगों का आविष्कार किया। वे देवर्षि थे क्योंकि वे सबको ज्ञान का प्रकाश बांटते रहे। वे राजर्षि थे क्योंकि वे एक विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता थे तथा वे महर्षि थे क्योंकि वे सतत महान् की खोज में प्रयत्नशील रहे। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी पूज्य गुरुदेव की हर साहित्यिक कृति एवं आध्यात्मिक प्रयोगों के साथ जुड़ी हुई हैं। वे उन विरल व्यक्तित्वों में एक हैं, जिन्हें गुरु का अमित वात्सल्य और सतत निकट सन्निधि मिली। गुरुदेव की साधना के बिन्दुओं का रेखांकन वे इन सूत्रों में करती हैं* चैतन्य की अनुभूति का क्षण जीवन-परिमार्जन का क्षण * अहंकार और ममकार के विसर्जन का क्षण वर्तमान में जीने का बोध जागरण का प्रथम क्षण * मूर्छा की ग्रंथि तोड़ने का क्षण सृजन का क्षण ऐसे साधना के शिखर पुरुष की साधना को शब्दों में बांधा जाए, यह किस लेखनी की बिसात है? ___ आचार्य तुलसी को मैंने अनेक रूपों में देखा। वे मेरे गुरु थे, पथदर्शक थे तथा मेरी हर प्रवृत्ति के प्रेरक भी। उनका प्रोत्साहन मेरे जीवन का पाथेय बन गया। उन्होंने मुझे केवल संन्यस्त ही नहीं किया, अध्यात्मविकास के अनेक उपक्रमों से परिचित भी कराया। उनका नाम मेरी जीवन पोथी के हर पृष्ठ की हर पंक्ति पर अंकित है। प्रयत्न यही रहता है कि गुरुदेव की अभीक्ष्ण स्मृति बनी रहे। यही कारण है कि मेरा हर सृजन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी पूज्य गुरुदेव की स्मृति एवं उनकी शक्ति से जुड़ा हुआ है। अभीप्सा है सृजन का यह क्रम तब तक चलता रहे, जब तक जीवन की अंतिम सांस न खूट जाए। आचार्य महाप्रज्ञजी स्वयं योगी हैं। उनकी योग साधना ने प्रज्ञा के नए-नए आयामों को उद्घाटित किया है। उनका आशीर्वाद मेरे साहित्यिक पथ का आलोक है। युवाचार्यश्री महाश्रमणजी सहज साधक हैं, उनकी मृदु मुस्कान एवं मूक प्रेरणा ही मेरे लिए प्रेरक है। इस लेखन-यात्रा के हर दुर्गम पड़ाव पर, सुषुप्ति के अवसरों पर निरंतर गंतव्य की ओर अग्रसर करने में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की प्रेरणा और अमियपगा वात्सल्य बहुत मूल्याह रहा है। भविष्य में गुरुदेव के व्यक्तित्व के अन्य आयामों पर लिखने में उनकी प्रेरणा मेरे पथ को प्रशस्त करेगी अतः उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन नहीं, बल्कि वात्सल्यमय अभिप्रेरणा की अभीप्सा है। समय-समय पर मुनिश्री मधुकरजी स्वामी एवं मुनिश्री दुलहराजजी स्वामी का बहुमूल्य मार्गदर्शन भी मिलता रहा है। समणी नियोजिका एवं समस्त समणी परिवार की हार्दिक मंगलभावना भी बहुमूल्य रही है। . पुस्तक पढ़ते समय पाठक हर क्षण गुरुदेव की साक्षात् उपस्थिति का अहसास करते रहेंगे क्योंकि पुस्तक की सम्पन्नता के समय तक गुरुदेव की साक्षात् सन्निधि उपलब्ध थी। पुस्तक लिखते समय मुझे जिस अनिर्वचनीय अतीन्द्रिय आनंद की. अनुभूति हुई, वह अवक्तव्य है। आशा है पाठक भी इस पुस्तक को पढ़तेपढ़ते आनंद-सागर में निमज्जित हुए बिना नहीं रहेंगे। पुस्तक पढ़ते समय हर क्षण उन्हें इस बात का अहसास होता रहेगा कि वे चैतन्य के क्षीरसागर की कल्लोलों से अभिषिक्त हो रहे हैं, उनके भीतर जागृति अंगड़ाई ले रही है और आंतरिक रूपान्तरण करवट ले रहा है। यदि इस पुस्तक को पढ़कर कुछ व्यक्ति भी चैतन्य के संस्पर्श का अनुभव कर सकें तो श्रम की सार्थकता होगी। पुस्तक का तृतीय संस्करण अनेक लोगों को योग-साधना की ओर प्रेरित करेगा। इसी विश्वास के साथ...... . -समणी कुसुमप्रज्ञा २३ दिसम्बर, १९९७ जैन विश्व भारती लाडनूं, (राजस्थान) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r " 3.9 विषयानुक्रम १... साधना का उद्देश्य लक्ष्य के प्रति समर्पण * विजातीय तत्त्वों से युद्ध प्रतिस्रोत गमन में उत्साह * कलात्मक जीवन जीने का प्रशिक्षण * चैतसिक निर्मलता का विकास एकाग्रता का अभ्यास पापभीरुता का विकास २. सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता ३. अध्यात्म के प्रयोक्ता व्यक्तिगत साधना के प्रयोग * आहार-संयम के प्रयोग आसन-प्राणायाम * कायोत्सर्ग की साधना जप-साधना मौन-साधना स्वाध्याय खड़े-खड़े स्वाध्याय ध्यान-साधना अनुप्रेक्षा का प्रयोग * एकाग्रता एवं स्मृति का प्रयोग * उदारता एवं निस्पृहता का प्रयोग एकान्तवास के प्रयोग। * कषायमुक्ति की साधना * आत्मचिंतन एवं आत्मालोचन भावक्रिया अप्रमत्तता संघीय साधना के प्रयोग Mmm WG ०७." Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . १२६ १२७ १३० १३४ १३४ १३६ . १३७ १३८ कुशल साधना * प्रणिधान कक्ष * भावितात्मा साधना क्रम सामूहिक प्रशिक्षण का प्रयोग * साधना के विशेष प्रयोगों की प्रेरणा सामूहिक प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन * सायंकालीन प्रार्थना का प्रारंभ * अर्हत् वंदना का शुभारंभ *निकाय-व्यवस्था • अभ्यर्थना पत्र * नवाहिक आध्यात्मिक अनुष्ठान आध्यात्मिक प्रशिक्षण शिविर . उपासक संघ शिविर . उपासक दीक्षा ..योगक्षेम वर्ष .अणुव्रत आंदोलन .प्रेक्षाध्यान जीवन-विज्ञान .अहिंसा सार्वभौम ध्रुवयोग की साधना बृहद् मंगलपाठ * व्यक्तित्व-निर्माण का प्रयोग ४. साधना की निष्पत्तियाँ सत्यनिष्ठा * आत्मबोध * सम्यग्दर्शन * निष्काम कर्म अनाग्रह * अपनी कमजोरी स्वीकार करने की क्षमता १४९ १४९ १५० १५१ १५२ १५५ १५६ १६५ १७२ १७६ १८३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अप्रतिबद्धता अभय साम्ययोग अनासक्ति सहजता सहिष्णुता कर्म और अकर्म में संतुलन • सहजानंद की अनुभूति सरलता विनम्रता * निश्चय और व्यवहार का समन्वय आस्थाबल ज्ञाता-द्रष्टाभाव विधायक दृष्टिकोण दृढ़ संकल्प प्रदीप्त पौरुष * संतुलन आत्म- -जागृति आत्म-संयम आत्मानुशासन अहिंसक वृत्ति लाघव विदेह साधना अतीन्द्रिय क्षमता उपसंहार प्रयुक्तं ग्रंथ सूची १९६ २०१ २०८ २१७ २२५ २३१. २३८ २४२ २४९ २५४ - २६० २६२ २७० २७४ २८० २९२ ३०१. ३०५ ३१३ ३१६ ३२१ . ३२५ ३२८ ३३३ ३४१ ३४४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य पौराणिक कथा के अनुसार भृगु ने अपने पिता वरुण से कहा'भगवन्! मैं ब्रह्मज्ञान पाना चाहता हूँ अत: आप मुझे कोई सरल रास्ता सुझाएं।' पिता ने उसे तपोमार्ग का निर्देश दिया। कठिन तपस्या की समाप्ति पर उसने पिता से कहा-'पिताश्री! अन्न ही ब्रह्म है।' पिता ने कहा'पुत्र! अभी तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचे हो अत: दुबारा तप करो।' दूसरी बार तप की समाप्ति पर उसने कहा- 'प्राण ही ब्रह्म है।' इस बार के उत्तर से भी पिता संतुष्ट नहीं हुए। वरुण पुन: कठोर तपस्या में संलग्न हो गया। तप में उसे अनुभव हुआ कि मन ही ब्रह्म है।' पुनः तप करने पर "विज्ञान ही ब्रह्म है' ऐसी अवधारणा पुष्ट हुई। पिता ने पुत्र से कहा'पुत्र! अभी मंजिल प्राप्त नहीं हुई है, पुनः तप करो।' इस बार तप की सम्पन्नता पर वरुण का मुख अलौकिक तेज से दमक रहा था। उसने कहा- 'पिताश्री! आनंद ही ब्रह्म है।' पिता ने पुत्र को गले लगाते हुए कहा- 'बेटा! तुम्हारी खोज पूरी हुई। आनंद का अर्थ है-अध्यात्म की प्राप्ति। तुम्हारी आत्मा की खोज पूर्ण हुई।' ___आत्मा की खोज अनादिकाल से चल रही है और तब तक चलती रहेगी जब तक मनुष्य का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। साधना के क्षेत्र में दूसरों द्वारा की गई खोज का महत्त्व नहीं होता। हर साधक जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करके नए-नए अनुभव प्राप्त करता है। साधना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर कोऽहं से सोऽहं तक की यात्रा में सन्निविष्ट है। गुरुदेव तुलसी द्वारा रचित 'प्रेक्षा संगान' में उद्गीत पद्य इसी सत्य की ओर इंगित करने वाले हैं जिज्ञासा अस्तित्व की, है पहला सोपान। हर साधक पहले करे, कोऽहं की पहचान॥ कोऽहं कोऽहं में सदा, रहे हृदय बेचैन। मिले साधना-पथ स्वयं, बेचैनी की देन॥ अस्तित्व की खोज और उसे पाने की अकुलाहट व्यक्ति को साधना की ओर प्रस्थित करती है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का अनुभव था कि बेचैनी के चरम शिखर पर पहुँचने पर साधना-पथ स्वयं मिल जाता है तथा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी भीतर छिपे आनंद, शक्ति और चेतना के प्रवाह का अनुभव सहज हो जाता है। साधक अपनी जीवन-यात्रा में इन उद्देश्यों को सम्मुख रखकर साधना को आगे बढ़ाता है— १. लक्ष्य के प्रति समर्पण २. विजातीय तत्त्वों से युद्ध ३. प्रतिस्रोतगमन में उत्साह ४. कलात्मक जीवन जीने में प्रशिक्षण चैतसिक निर्मलता का विकास ५. ६. एकाग्रता का अभ्यास ७. पापभीरुता का विकास। २ लक्ष्य के प्रति समर्पण लक्ष्य-निर्धारण साधक को भटकने से बचाता है । जिस साधक का कोई लक्ष्य नहीं होता, उसका जीवन बिना पतवार की नौका के समान होता है। पूज्य गुरुदेव का अभिमत था - 'जो साधक अपने लक्ष्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाता है, वह सब कुछ पा लेता है। बीज अपने अस्तित्व को खोता है, तभी अंकुरित हो पाता है। बूंद अपने अस्तित्व को खोती हैं, तभी समंदर बन पाती है। इसी प्रकार साधक और साधना में अद्वैत घटित होता है, तभी परम सत्य का साक्षात्कार होता है । 'गुरुदेव श्री तुलसी के शब्दों में लक्ष्य एक कवच है, जिसे पहनकर व्यक्ति कहीं भी चला जाए तो वह बुराइयों से बच सकता है। लक्ष्य के प्रति समर्पण के विषय में स्वामी विवेकानंद के विचार उद्धरणीय हैं- "यदि जीवन में अभीष्ट सफलता चाहते हो तो एक आदर्श को लो, उसका चिंतन-मनन करो, उसी को अपने सपने में पा लो और उसी को अपना जीवन बना लो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, स्नायुतंत्र एवं समूचे अंग प्रत्यंगों को उसी आदर्श के विचार से ओतप्रोत कर दो और अन्य विचारों को एक तरफ हटा दो। फिर देखो सफलता कैसे तुम्हारे कदम चूमती है ?" साधना के पथ पर प्रस्थित व्यक्ति को हमेशा ऊँचे लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए। " दीर्घं पश्यत मा ह्रस्वं परं पश्यत माऽपरं " दीर्घ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य को देखो ह्रस्व को नहीं, उत्कृष्ट को देखो साधारण को नहीं, उपनिषद् की यह वाणी लक्ष्य की विशालता एवं व्यापकता की ओर इंगित करती है। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि साधक का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए आत्मबोध एवं आत्मोदय। मेरे सामने अनेक कार्य हैं लेकिन सबसे प्रथम कार्य है- व्यक्तिगत साधना। मैं कहीं भी रहूं और कुछ भी करूं, इस लक्ष्य को विस्मृत नहीं कर सकता। इसी बात की प्रेरणा उन्होंने पंचसूत्रम् में दी- .....----- नाहाराय न पानाय, नाश्रयाय न वाससे। अस्माभिः स्वीकृता दीक्षा, न प्रतिष्ठोपलब्धये॥ आत्मोदयाय साधुत्वमस्माभिः स्वीकृतं शुभम्। तेनात्मनि दृढ़ा श्रद्धा, समुन्नेया मुमुक्षुभिः॥ अच्छा भोजन, स्वादिष्ट पेय, भव्य अट्टालिका एवं मूल्यार्ह कपड़ों के लिए साधक घर नहीं छोड़ता। साधना का मुख्य लक्ष्य होता है- अस्तित्व बोध एवं आत्मोदय। आत्मोदय में जो सुख है, आनंद है, वह शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। विवेकानंद के शब्दों में- "साधक सदैव इस भाषा में सोचता है कि आत्मा ही मेरा सर्वोच्च आदर्श है। अपने प्रकृत स्वरूप की अनुभूति ही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है। एक सोने की थैली साधक का आदर्श कभी नहीं बन सकती। एक आदर्श के लिए और केवल उसी एक आदर्श के लिए जीवित रहो। उस आदर्श को इतना प्रबल, इतना विशाल एवं महान होने दो, जिससे मन के अंदर और कुछ न रहने पाए, मन में अन्य किसी के लिए भी स्थान न रहे, अन्य किसी विषय पर सोचने के लिए समय ही न रहे।""प्रेक्षासंगान' में गुरुदेव तुलसी ने इसी सत्य का संगान किया है छोड़ बहिर्मुखता बनें, अन्तर्मुख आलीन। जीवन में वह जोड़ता, है अध्याय नवीन॥ लक्ष्य-निर्धारण के बाद भी यदि दृढ़निष्ठा या इच्छाशक्ति पत्रल नहीं होती तो लक्ष्य विस्मृत हो जाता है और सफलता दूर चली जाती है। खलील जिब्रान कहते हैं कि- 'तुम भले हो जब तुम अपने लक्ष्य की ओर दृढ़ता और साहसपूर्ण पैर बढ़ाते हो। लेकिन तब भी तुम बुरे नहीं हो, जब Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी तुम उस तरफ लँगड़ाते - लँगड़ाते जाते हो। लंगड़ाते हुए जाने वाले लोग भी पीछे की तरफ नहीं जाते।' गुरुदेव श्री तुलसी अनेक बार कहते थे- 'जो लक्ष्य बन जाता है, उस तक पहुँचे बिना अटकना या रुकना मेरा स्वभाव नहीं है ।' लक्ष्य के प्रति डाँवाडोल आस्था वालों को भी वे प्रेरणा देते रहते थे कि स्वीकृत मार्ग पर निष्ठापूर्वक चलते रहो, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, मंजिल अवश्य मिलेगी। कुछ दूर चलने पर भी मंजिल दिखाई न दे तो भी लौटने की बात मत सोचो क्योंकि सही ढंग से किया गया प्रयत्न कभी निष्फल नहीं होता। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, गति में श्लथता मत आने दो।" लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दृढ़निष्ठा ही नहीं, धैर्य और कष्टसहिष्णुता भी अनिवार्य है। पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट अभिमत था कि कष्टों से घबराकर सीधा और सरल रास्ता खोजने वाले व्यक्ति मंजिल की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाते। वे कभी बढ़ भी जाते हैं तो उन्हें पुनः लौटना पड़ता है । काव्य की इन पंक्तियों में वे यही संबोध देना चाहते हैं ४ सुख में तो सब दिखलाते हैं, अपना-अपना स्वत्व । किन्तु कष्ट में जो खिल जाए, उसका बड़ा महत्त्व ॥ लक्ष्य-निर्धारण होने के बाद जीवन की दिशा में परिवर्तन घटित हो जाता है । व्यक्ति की जो तन्मयता पदार्थ के प्रति होती है, वह स्वतः अस्तित्व की ओर मुड़ जाती है । पूज्य गुरुदेव का चिंतन था कि उत्कट चाह जगने के बाद अन्तर्यात्री बनने में कोई बाधा नहीं रहती । व्यक्ति चलते समय, बैठते समय, खड़ा रहते समय और लेटते समय भी अन्तर्यात्रा कर सकता है। वह अकेला हो या समूह में, गांव में हो या जंगल में, किसी भी अवस्था में अपने भीतर जा सकता है। मूल तत्त्व है सही दिशा का निर्धारण और उस ओर संकल्पपूर्वक प्रस्थान । विजातीय तत्त्वों से युद्ध 'जुद्धारिहं खलु दुल्लहं' अप्पाणमेव जुज्झाहि' महावीर की यह क्रान्तवाणी हर साधक के लिए चेतावनी है। पूज्य गुरुदेव द्वारा महावीरवाणी से अनूदित ये काव्य पंक्तियाँ हर साधक में साहस, पौरुष और विजय की भावना भरने वाली हैं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य समर अगर करना हो कर तू, अंतरंग अरि को संहर तू, दुर्लभ समर योग्य सामग्री, पौर-पौर में पौरुष भर तू, बनना है उदग्र अभियानी, आयारो की अर्हत् वाणी। सामान्य व्यक्ति बाह्य युद्ध में अपने वीरत्व को प्रकट करता है, वहाँ साधक अपने आपसे युद्ध करके दुर्जेय अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। महावीर कहते हैं- दुर्जेय दस लाख शत्रुओं पर विजय पाना उतनी बड़ी विजय नहीं है, जितनी अपनी एक आत्मा को जीतना। गुरुदेव श्री तुलसी साधकों को आत्मयुद्ध की प्रेरणा देते हुए कहते हैं *"युद्ध के योग्य अवसर दुर्लभ है। ऐसा दुर्लभ अवसर पाकर व्यक्ति पीछे न हटे। वह आगे बढ़े और संघर्ष करे- अपनी दुर्बलताओं के साथ, असत् प्रवृत्तियों के साथ तथा निषेधक भावों के साथ। इस संघर्ष का अंत एक-दो दिन या एक-दो महीने में नहीं होगा, यह शाश्वत संघर्ष है। इसे तब तक करते रहना है, जब तक असत् की सर्वथा निवृत्ति न हो जाए।" *"यदि कत्ले आम करना है तो आत्मा के उन शत्रुओं का करो जो तुम्हारे ही हथियारों से तुम्हारे पर कब्जा किए हुए हैं तथा जो तुम्हें पतन की ओर खींच रहे हैं।" *"मनुष्य में ही ऐसी क्षमता है कि वह आत्मयुद्ध करके चैतन्य का अनुभव कर सकता है। जो साधक अपने विजातीय तत्त्वों से लड़ना नहीं जानता, वह साधक अन्तर्यात्रा की ओर प्रस्थान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा पर विजय पाने वाला समूचे संसार का विजेता बन जाता है।" प्रतिस्रोतगमन में उत्साह बुभूषा (कुछ होने की इच्छा) हर साधक की नैसर्गिक चाह होती है। कुछ होने के लिए साधक को महावीर वाणी के निम्न पद्य सदैव स्मृति में रखने आवश्यक हैं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६ अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होडकामेणं ॥ अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ सामान्य व्यक्ति अनुस्रोत के पथ पर आगे बढ़ते हैं लेकिन 'भवितुकाम' व्यक्ति का प्रतिस्रोत में चलना अनिवार्य है। यद्यपि यह सत्य है कि प्रतिस्रोत का मार्ग संघर्ष, कठिनाई और बाधाओं का मार्ग है और अनुस्रोत का मार्ग सरल और सुकर है पर प्रतिस्रोत के पथ पर चलने वाला अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेता है, जबकि अनुस्रोत में बहने वाला प्रवाह के साथ बहकर अपने अस्तित्व को समाप्त कर देता है। नियंत्रण की शक्ति का विकास करने के लिए प्रतिगमन आवश्यक है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि परीषहों को सहना, पदयात्रा करना, श्रमशील रहना, आवेग पर विजय पाना, निष्कषाय रहना, कष्टों को शान्तभाव से सहना और वैराग्य की वृद्धि करना- - ये सब प्रतिस्रोतगमन के उपाय हैं। इनमें भी उत्कृष्ट कोटि का सुख है लेकिन इसके लिए अतिरिक्त क्षमता और साहस की जरूरत रहती है। बिना मनोबल और धृति के व्यक्ति प्रतिस्रोत में संचरण नहीं कर सकता । मनःस्थिति जब परिस्थिति के अनुसार बन जाती है, उस स्थिति में व्यक्ति प्रतिस्रोत में चलने का साहस नहीं कर पाता । परिस्थिति को अपने अनुकूल ढालने वाला ही प्रतिस्रोत में गमन कर सकता है। प्रतिस्रोत गमन करने वाला विलासिता को ठोकर मारकर चलता है। विलासी एवं सुविधावादी साधक प्रतिस्रोतगमन का साहस नहीं कर सकता। मन की अविश्रान्त गति पर प्रश्नचिह्न उपस्थित करके उसका समाधान प्रस्तुत करते हु गुरुदेव तुलसी कहते हैं आए कैसे हाथ में, मन की सही लगाम । उलटी गति का अश्व यह, लेता नहीं विराम ॥ तन मन के पीछे चले, तो साधक कीहार । तन मन अनुगामी रहे, खुले साधनाद्वार ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य स्वामी विवेकानंद दृढ़ आत्मविश्वास के साथ कहते हैं- " जो आराममय और विलासमय जीवन की इच्छा रखते हुए आत्मानुभूति की चाह रखता है, वह उस मूर्ख के समान है, जिसने नदी पार करने के लिए, एक मगर को लकड़ी का लट्ठा समझकर पकड़ लिया । " गुरुदेव तुलसी कहते हैं कि साधना का निर्मल जलाशय तभी तक सुखकर और हितकर है, जब तक उस पर सुविधाओं की शैवाल नहीं जमती । आत्मनिष्ठ साधक का ध्येय होता है आए हुए कष्टों को सहन करना, आत्म-धर्म समझकर उनका स्वागत करना तथा कष्ट-सहन से होने वाली क्षणिक दुःखानुभूति 1 अम्लान रहना । ७ कलात्मक जीवन जीने का प्रशिक्षण साधक का हृदय साधना का प्रयोगस्थल होता है और जीवन कला की प्रयोगशाला । गुरुदेव तुलसी की विचार - सरणि में आत्मा में रहना सबसे बड़ी कला है। जो इस कला को जान लेता है, वह केवल जीने की ही नहीं, मरने की कला भी सीख लेता है। कुछ लोग साधक जीवन को नीरस मानते हैं, यह एकांगी दृष्टिकोण है। साधना और कला - दोनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। जीवन यदि कलात्मक है तो उसमें स्वतः सामंजस्य, समरसता और सरसता उत्पन्न हो जाती है । यही साधना है । अस्तव्यस्तता और फूहड़पन अव्यवस्थित चित्त के द्योतक हैं। 1 प्लेटो ने कला पर यह आक्षेप लगाया था कि इससे हमारी दूषित वासनाएं और मनोवृत्तियाँ उत्तेजित एवं पुष्ट होती हैं। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का मंतव्य है कि कला मुझे प्रिय है, किन्तु जिस कला में श्लीलता की सीमाएं टूटती हैं, उसे मैं मान्यता नहीं दे सकता। फूहड़पन को मैं कतई पसंद नहीं करता । विचारों को उत्तेजित करने वाली कला का प्रदर्शन कला का दुरुपयोग है। कला तो एक साधना है। उसका व्यवसायीकरण होने से साधनापक्ष और कलापक्ष- दोनों ही गौण हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं" कला द्वारा बाह्य में ही सौन्दर्य पैदा नहीं किया जाता, जीवन के अंतरतम की सजावट या परिष्कार भी कलात्मक जीवन द्वारा ही संभव है। गुरुदेव तुलसी कला को कला के लिए या मनोरंजन के लिए न मानकर उसे जीवन के लिए उपयोगी तथा अध्यात्म का साधन मानते थे । वे खाने, पीने, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी सोने, जागने, बोलने आदि जीवन की हर क्रिया के साथ कला का सम्बन्ध जोड़ना चाहते थे। उनकी दृष्टि में वही कला कला है, जो सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के पथ पर आगे बढ़ाने वाली हो, जिससे अध्यात्मशक्ति का विकास हो, जो संयम और अनुशासन का पाठ पढ़ाती हो तथा जो ज्ञान और आचरण का सामंजस्य करने वाली हो। जीवन एक कला है' इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेव की काव्य-पंक्तियों में निहित उक्ति-वैचित्र्य द्रष्टव्य है* नीतिशास्त्र निर्णेतावां री, आ ही नेक सला। जबरन जोग सधे नहीं तुलसी, जीवन एक कला॥ * सभी कलाएं हैं विकलाएं, पण्डित सभी अपंडित हैं। नहीं जानते कैसे जीना, केवल महिमामंडित हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचन्द कहते हैं- 'स्वाभाविकता से दूर होकर कला अपना आनंद खो देती है। थोड़े ही कलाविद् हैं, जो इस मर्म को समझते हैं।' चैतसिक निर्मलता का विकास पुनन्तु मा देवजनाः, पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि, जातवेदः पुनीहि मा॥ "देवजन मुझे पवित्र करें, मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करे, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करे।" यजुर्वेद में की गयी पवित्रता की यह कामना हर साधक के लिए काम्य है। साधना के पथ पर अविराम गति से वही साधक आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त ही अध्यात्म की गहराई तक पहँच सकता है। चैतसिक निर्मलता के बिना बाह्य क्रियाकाण्ड एवं उपासना-पद्धतियाँ व्यर्थ हो जाती हैं। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के शब्दों में- 'साधना का अर्थ है चित्त की निर्मलता का वह प्रतिबिम्ब, जो हमारे व्यवहार पर पड़ता है। चित्त के तैजस की वह रश्मि, जो हमारे अंत:करण को आलोक से भर देती है।' कषाय से कलुषित चित्त को साधना के जल से ही प्रक्षालित किया जा सकता है। चित्त निर्मल हो जाए तो समता का अवतरण सहज हो जाता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं- "निर्मल हृदय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। .......पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य।" सामान्य व्यक्ति इस भाषा में सोच सकता है कि मैं अकारण दूसरों को सहन क्यों करूं? लेकिन एक साधक मानसिक पावित्र्य के कारण गालियों की बौछार एवं प्रतिकूलता में भी यही चिंतन करता है कि परिस्थितियों एवं कष्टों का उपादान मैं स्वयं हूँ अत: बाह्य निमित्तों से अप्रभावित रहना ही साधना की तेजस्विता है। गुरुदेव श्री तुलसी की ये अभिव्यक्तियां इन्हीं भावों की संवादी हैं• आत्मा सुख-दुःख का कर्ता है, स्वयं वही उपभोक्ता। अपना शुभ अपने द्वारा, जीवन के बनो प्रयोक्ता॥ • 'कंकर की मार खाकर पत्थर मारने वाले बहुत हैं। पर शक्ति होने पर भी जो सामने वाले पर पत्थर नहीं मारता, यह मन की पवित्रता की दिशा में एक प्रयोग है।' . चैतसिक निर्मलता के लिए साधक को हजरत मुहम्मद पैगम्बर की यह शिक्षा सतत स्मृति में रखनी चाहिए-'अच्छा काम करने की मन में आए तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम्हारी जिंदगी अगले क्षण समाप्त हो सकती है अतः काम तुरन्त शुरू कर दो। इसके विपरीत अगर बुरे कामों का विचार आए तो सोचो कि मैं अभी वर्षों जीने वाला हूँ। बाद में कभी भी उस काम को पूरा कर लूंगा।' . चित्त को मलिन करने वाले तत्त्व हैं-राग, द्वेष और अपरिमित आकांक्षाएं। साधना का उद्देश्य है- इन्द्रिय विषयों का प्रयोग करते हुए भी उनमें राग, द्वेष की तरंग नहीं उठने देना। बर्टेड रसेल अपने अनुभूत सत्यों की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते हैं-"अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ ध्रुव सत्य देखे हैं- पहला यह है कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। निरंकुश इच्छाएं चेतना पर हावी होकर जीवन को असंतुलित और दुःखी बना देती हैं।" एक साधक आवश्यकता एवं आकांक्षा में Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी भेदरेखा करना जानता है। इसलिए इच्छाएं उसे गलत दिशा में प्रवृत्त नहीं होने देतीं। पूज्य गुरुदेव की यह चेतावनी हर साधक को गहराई से अनुप्रेक्षा करने की प्रेरणा देती है-"आवश्यकताओं की असीमा जीवन में घोर अपवित्रता लाती है। इसे जो सोच नहीं सकते वे विश्वास मानकर चलें और जो सोच सकते हैं, वे अनुभव की कसौटी पर कसकर देखें।" पूज्य , गुरुदेव की दृष्टि में मानसिक पवित्रता के लिए चार बातें अपेक्षित हैं * चरित्र, संयम और साधना की सही प्रक्रिया। * क्रिया में पूर्ण जागरूकता का बोध। दृढ़ संकल्प और एकाग्रता। * वातावरण की शुद्धता। ' चैतसिक निर्मलता सधने के बाद साधक चाहे एकान्त में रहे या समूह में, चित्र देखे या प्रवचन सुने, मनोनुकूल भोजन पाए या रूखासूखा, कोई भी स्थिति उसके मन में विक्षेप पैदा नहीं कर सकती। वह अपनी मानसिक पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखता है। वह पवित्रता कर्म को भी सदैव पवित्र रखती है, क्योंकि विचार आचार को प्रभावित करता है और आचार विचार बनता है अतः बुरे विचारों से आक्रान्त होकर अपने आदर्शों को छोड़ना सबसे बड़ी कमजोरी है। एकाग्रता का अभ्यास जीवन की सफलता का बहुत बड़ा रहस्य एकाग्रता में निहित है। केवल साधना के क्षेत्र में ही नहीं, शिक्षा, कला, वाणिज्य, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में सफलता के लिए एकाग्रता एवं तन्मयता की मूल्यवत्ता है क्योंकि समग्रता में जो शक्ति होती है, वह उसके विभक्त होने में नहीं होती। आइंस्टीन जब अपनी प्रयोगशाला में होते, तब काम में इतने तल्लीन बन जाते कि उन्हें न भूख का अहसास रहता न प्यास का। चित्त भी जब अखंड और समग्र रहता है, तभी वह शक्ति-सम्पन्न बनता है। खंडित चित्त की शक्तियाँ बिखर जाती हैं और जीवन भारभूत तथा निकम्मा बन जाता है। स्वेट मार्डन का कहना है कि व्यक्ति के असफल एवं दुःखी होने के दो कारण हैं-१. अपनी योजनाओं के लिए पक्के निश्चय की कमी तथा उन पर काम करते समय बार-बार दुविधा या चंचलता का अनुभव। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य चंचल मन की स्थिति का चित्रण गुरुदेव तुलसी की इन काव्य-पंक्तियों में पठनीय है चंचल मन ही हर मानव को, दर-दर भटकाता है। मन पर संयम करने वाला, पग-पग सुख पाता है। एकाग्रता का अर्थ है- जिस समय जो कार्य करना है, चित्त पूर्णतया उसी में लगा रहे । एकाग्रता एक चोर में भी होती है, कामान्ध में भी होती है पर वैसी एकाग्रता साधक को लक्ष्य के दर्शन नहीं करा सकती। जिस एकाग्रता के साथ चित्त की निर्मलता, जागरूकता एवं पवित्रता जुड़ती है, वही कामयाबी बनती है। पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि जो एकाग्रता चैतन्य या अपने अस्तित्व के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करती है, वही एकाग्रता साधना की दृष्टि से बहुमूल्य है और इससे जो संतोष मिलता है, वह करोडों उपलब्धियों में भी नहीं मिल सकता। चंचलता के कारण भीतरी आनंद का अनुभव नहीं हो सकता। स्वामी विवेकानंद का अभिमत है कि मनुष्य और पशुओं में मुख्य भेद केवल चित्त की एकाग्रता शक्ति का तारतम्य ही है। पशु में एकाग्रता की शक्ति का विकास नहीं होता इसलिए उसे जो कुछ सिखाया जाता है, उसे वह भूल जाता है। वह अधिक समय तक किसी बात पर स्थिर नहीं रह सकता। किसी भी कार्य की सफलता और अत्युच्च प्रवीणता एकाग्रता का फल है। गुरुदेव श्री तुलसी विद्यार्थी साधु-साध्वियों को अनेक घटना प्रसंगों से एकाग्रता और स्थिरता का प्रतिबोध देते थे। पादविहार करते हुए पूज्य गुरुदेव ने एक बार भाखड़ा नांगल से निकलने वाली नहर पर विश्राम • किया। सुरम्य दृश्य देखकर पूज्य गुरुदेव वहाँ शान्त सुधारस के स्वाध्याय में तल्लीन हो गए। गीत सम्पन्न होने के बाद जब गुरुदेव ने आँखें खोली तो उनकी दृष्टि बहते जल-प्रवाह पर पड़ी। बहते जल में स्वयं का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं दिया। इस घटना को संबोध का माध्यम बनाते हुए गुरुदेव ने फरमाया-"जिस प्रकार चंचल जल-प्रवाह में अपना प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं पड़ता, वैसे ही चलित या चंचल चित्त में आत्मदर्शन नहीं हो सकता। स्वरूप-दर्शन तो निश्चल और निर्मल मन में ही हो सकता है।" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ___वि.सं. २०१३ सरदारशहर का प्रसंग है। एक दिन संध्याकालीन प्रतिक्रमण के समय गुरुदेव ध्यान में तल्लीन थे। अचानक एक छिपकली पीठ पर चढ़ गई पर गुरुदेव ने ध्यान नहीं तोड़ा। ध्यान पूरा होने पर ध्यान दिया कि दाहिने हाथ पर छिपकली चढ़ गई थी।सामान्य व्यक्ति तो मक्खी या मच्छर का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकता। साधक का लक्ष्य होता है- चंचल एवं विक्षिप्त चित्त को एकाग्र करना किन्तु मात्र पुस्तकीय ज्ञान से चित्त की चंचलता को कम नहीं किया जा सकता। साधना के विविध प्रयोग एवं दृढ संकल्प चित्त की चंचलता को कम करने के निमित्तभूत बन सकते हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को मनोनिग्रह का प्रशिक्षण देते हुए कहते हैं- "अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येन च गृह्यते" अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से मन को एकाग्र किया जा सकता है। 'मनोनुशासनम्' में पूज्य गुरुदेव ने ये ही प्रयोग निर्दिष्ट किए हैं। उत्तराध्ययन में मन रूपी घोड़े को वश में करने के लिए ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित हुई है। . स्वामी विवेकानंद ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि साधारण व्यक्ति और महान् व्यक्ति में यही अंतर होता है कि महान् व्यक्ति का चित्त एकाग्र होता है और साधारण व्यक्ति का मन चंचल होता है। ज्ञान का भंडार केवल चित्त की एकाग्रता की चाबी द्वारा ही खोला जा सकता है। पूज्य गुरुदेव की भावक्रिया साधना प्रकर्ष पर थी अत: एकाग्रता की शक्ति उन्हें सहज प्राप्त थी। एकाग्रता के कारण उनके मन, वचन और कायाये तीनों योग इतने समाहित हो चुके थे कि विक्षेप की स्थिति का सामना उन्हें बहुत कम करना पड़ा। . ... उदयपुर कलामण्डल के कलाकार दयाराम ने गुरुदेव के समक्ष विचित्र नृत्य का प्रदर्शन किया। उसने सिर पर एक के ऊपर एक करके पाँच गिलास रखे फिर थाली के किनारे पर खड़े होकर नृत्य किया। दूसरी बार गिलास पर पाँच छह हाँडियाँ रखकर उसी प्रकार प्रदर्शन किया। उसे देखकर गुरुदेव ने अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा -'व्यक्ति अपने मन और शरीर को कितना बाँध सकता है, स्थिर रख सकता है। काश! ऐसी स्थिरता साधना के क्षेत्र में आ जाए। आत्मोपलब्धि के लिए Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य इतनी एकाग्रता सध जाए तो कल्याण का रास्ता बहुत जल्दी प्रशस्त हो सकता है।' एक आत्मलक्षी साधक ही घटना प्रसंग से ऐसी प्रेरणा ले सकता है। पापभीरुता का विकास परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि।परेहि न त्वा कामये "ओ मन के पाप! चल दूर हट, मुझे क्यों निन्दित सलाह दे रहा है ? मैं तुझे नहीं चाहता।" अथर्ववेद का यह सूक्त हर साधक के लिए प्रेरणा दीप है। गुरुदेव श्री तुलसी कहते हैं-'जिस व्यक्ति के मन में पाप के प्रति ग्लानि हो, पाप हो जाने पर मन में टीस पैदा होती हो, जो यह अनुभव करता हो कि मैंने कुछ खो दिया है, वह आध्यात्मिक है।' पाप को पाप मानने वाला व्यक्ति निश्चित ही एक दिन पाप से मुक्त हो जाएगा किन्तु छिपकर किया गया पाप जिंदगी भर काँटे की भाँति चुभता रहता है। ... पापभीरुता साधक को कृत पापों के प्रति अनुताप से भरती है, जिससे वह भविष्य में असत् एवं अकरणीय से निवृत्त हो सके। भारतीय ऋषि-महर्षियों का स्पष्ट अभिमत रहा है कि पाप के प्रति ग्लानि के अभाव में आत्म-विकास का स्वप्न ही नहीं लिया जा सकता। खोखली जड़ वाले वृक्षों की भाँति पाप में आसक्त साधक चिरकाल तक प्रतिष्ठा और सम्मान का जीवन नहीं जी सकता। इसलिए पापभीरु साधक सदैव इस भाषा में सोचता है कि कोई मेरे गलत कार्य को देखे या न देखे, पर मैं स्वयं तो अपने पाप को देख ही रहा हूँ अत: मुझे कोई ऐसा कार्य नहीं करना है, जिससे मेरी आत्मा का पतन या अहित हो। "आयंकदंसी न करेड पावं"- पाप में आतंक देखने वाला कभी पाप नहीं करता। महावीर की यह प्रेरक वाणी सदैव उसके स्मृतिपटल पर गूंजती रहती है। पापभीरुता का फलित है- अहिंसा, करुणा और आत्मौपम्य : : भाव का विकास। पापभीरु व्यक्ति दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर किसी के अहित की कल्पना भी नहीं कर सकता। षड्जीवनिकाय के जीवों के प्रति उसका गहरा तादात्म्य जुड़ने के कारण उनके कष्ट की कल्पना भी उसे रोमांचित कर देती है। काव्य की इन पंक्तियों के माध्यम से गुरुदेव तुलसी यही प्रतिबोध देना चाहते हैं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १४ लगती हैं अपने लिए, जो बातें प्रतिकूल। उन्हें दूसरों के लिए, मत समझो अनुकूल॥ पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की पापभीरुता का एक घटना प्रसंग अनेक साधकों को आत्मौपम्य और करुणा का सक्रिय प्रशिक्षण देने वाला है। पूज्य गुरुदेव जब जोबनेर पहुँचे तो वहाँ गाँव के बाहर बांडी नदी थी। गुरुदेव ने विहार किया तब नदी का पानी बह चुका था लेकिन पानी टिके रहने के कारण वहाँ हरियाली (हरित वनस्पति) हो गयी थी। लोगों ने कहा-'गाँव में जाने का दूसरा रास्ता नहीं है। इसी रास्ते से ही आपको जाना होगा। आगे कुछ कदम चलने के बाद रास्ता साफ है।' हरियाली सजीव होती है अतः हरियाली पर कदम रखने की कल्पना से ही पूज्य गुरुदेव के मन में कम्पन का अनुभव होने लगा। कहीं एक अंगुलि टिकाने जितना स्थान भी खाली नहीं था। अन्य मार्ग न होने के कारण शास्त्रीय मर्यादा का स्मरण कर गुरुदेव आगे बढ़े। कुछ दूर चलने पर गुरुदेव के मन में उथल-पुथल मच गई। उस समय गुरुदेव ने मानसिक संकल्प किया, यदि अधिक दूर तक इसी रास्ते पर चलना पड़ा तो कल उपवास करूँगा। . इधर गुरुदेव ने संकल्प किया उधर रास्ता साफ दिखाई देने लगा। निरपराध पंचेन्द्रिय प्राणियों को मौत के घाट उतारने वाले एवं पर्यावरण का अनावश्यक दोहन करने वालों के लिए यह घटना अत्यन्त प्रेरक है। साधना के पथ पर प्रस्थित साधक इन पड़ावों को पार करता हुआ आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रस्थान करता है। उसकी हर प्रवृत्ति आत्मलक्षी हो जाती है। शुद्ध चैतन्य का अनुभव साधक को सारी संवेदनाओं से ऊपर उठा देता है। फिर उसका एक मात्र लक्ष्य होता है-स्वयं को शांति मिले, जनता को शांति मिले, सारे संसार को शांति मिले और प्राणिमात्र को शांति मिले। ___ साधक अंधकार को चीरता हुआ स्वयं प्रकाश बन जाता है। जैसे सूर्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मशाल की जरूरत नहीं रहती वैसे ही आत्मज्ञान होने पर साधक के लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता। उसके जीवन में बुद्धि और हृदय के बीच होने वाला संघर्ष मिट जाता है। उसकी सारी क्रियाएँ हृदय से शासित एवं अनुप्राणित होती हैं क्योंकि बुद्धि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का उद्देश्य तर्क से अभिप्रेरित होती है और हृदय अंत:स्फुरित होता है। केवल बुद्धिप्रधान हृदयशून्य साधक अन्त:स्फुरित नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धि ज्ञान दे सकती है पर अंत:स्फुरणा हृदय से ही संभव है। अंतःस्फुरणा होते ही साधक समभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है। फिर संसार की सारी अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियाँ साधक के लिए दृश्य होती हैं। वह द्रष्टा होने के कारण उनका भोग या संवेदन नहीं करता। विवेकानंद कहते हैं "मैं साक्षी हूँ, इस भाव में जब तक तुम प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, तब तक . प्राणायाम या योग की भौतिक क्रियाएँ आदि किसी काम की नहीं। यदि अत्याचारी तुम्हारी गर्दन पकड़ ले तो तुम कहो 'मैं आत्मा हूँ' कोई भी बाह्य वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती। यदि मन में बुरे विचार उठे तो बार-बार यही दुहराओ कि मैं आत्मा हूँ। मैं साक्षी हूँ, मैं नित्य शुभ तथा सदा आनंदस्वरूप हूँ।" समस्त जड़ पदार्थों से मुक्त होकर आत्मा के द्वारा आत्मा का संस्पर्श यही साधना का सबसे बड़ा प्रयोजन है।" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता - अध्यात्म किसी भी समाज की अमूल्य धरोहर होती है। उसका मूल्य त्रैकालिक है। महात्मा गाँधी के शब्दों में अध्यात्म-बल एक शाश्वत बल है। वह हमेशा रहने वाला है क्योंकि वह सत्य है।' वैज्ञानिक प्रगति अध्यात्म के अभाव में विध्वंसक बन जाती है। किसी भी संस्कृति से यदि अध्यात्म को निकाल दिया जाए तो वह दरिद्र एवं मूल्यहीन बन जाती है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में-"आत्मनिष्ठ चैतन्य का जागरण अध्यात्म है। वह केवल मुक्ति का ही पथ नहीं, शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और है रूपान्तरण की सजीव प्रक्रिया।" . गुरुदेव तुलसी ने धर्म और अध्यात्म को मंदिर और मस्जिद से निकालकर उसे जीवन-व्यवहार में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया। उनकी धर्मक्रान्ति ने अध्यात्म को व्यावहारिक बनाने का प्रयास किया। उनकी दृष्टि में जो धर्म जीवन-परिवर्तन की दिशा नहीं देता, मनुष्य के व्यवहार में जीवंत नहीं होता, वह धर्म नहीं, सम्प्रदाय है, क्रियाकाण्ड है, उपासना है। वे उन धार्मिकों को देखकर हैरान थे, जो पचास वर्ष से धर्म करते रहे किन्तु जीवन में परिवर्तन नहीं आया। उनकी दृष्टि में वही व्यक्ति अध्यात्म की कसौटी पर खरा उतरता है, जो अशांति में से शांति को, अपवित्रता में से पवित्रता को, असंतुलन में से संतुलन को तथा अंधकार में से प्रकाश को ढूंढ़ निकालता है। मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य डॉ. खूबचन्द बघेल द्वारा लिखित पत्र की ये पंक्तियाँ पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक व्यक्तित्व की साक्षात् प्रमाणपत्र हैं-'महात्मा गाँधी, अरविन्द घोष और महर्षि रमण के पश्चात् मैं आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त श्रेष्ठ पुरुषों के दर्शन पाने के लिए लालायित था पर मुझे ऐसा लगता था कि शायद उनकी टक्कर का आदमी अब संसार में नहीं रहा। परन्तु गुरुदेव श्री तुलसी को देखने के बाद मुझे प्रतिक्षण यह प्रतीत होता है कि इनकी गणना भारत के श्रेष्ठतम आध्यात्मिक पुरुषों में होनी चाहिए।' गुरुदेव तुलसी की उदग्र आकांक्षा थी कि सबका आध्यात्मिक विकास हो तथा सबमें चैतन्य का अवतरण हो। आत्मस्थ और स्थितप्रज्ञ मानस की ही परिणति थी कि उन्होंने स्व और पर की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। उनके उदार मानस ने पर को स्व में तथा स्व को पर में इतना सन्निविष्ट कर लिया था कि हर जाति, कौम एवं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता वर्ग का व्यक्ति उनके चरणों में आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करने चला आता था। उनकी ये उक्तियाँ इसी सार्वजनिक व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हैं * मैं पांव-पांव चलकर गाँव-गाँव पहुँचूंगा और जनता को जीवन के लक्ष्य से परिचित कराता रहूँगा। * मैं तो हर वर्ग के बुरे लोगों का इंतजार करता हूँ। कोई आए तो उनका परिवर्तन एवं रूपान्तरण करूँ और अध्यात्म की प्रेरणा दूं। ___ मैं स्वयं पूरे अर्थ में आत्मवान् बनकर अपने धर्म-परिवार एवं सम्पूर्ण मानव जाति को आत्मवान् बनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं रहना एकान्त में और करना सबके बीच में चाहता हूँ । चाहे वह ध्यान का क्षेत्र हो या कर्म का। मैं समूह चेतना को जगाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे जो जागृति मिली है, वह औरों को भी मिले। * क्या सूरज के अभाव में दीपक अपने सामर्थ्यानुसार संसार का तिमिर दूर नहीं करता? इसी विश्वास को लेकर अध्यात्म का संदेश लिए मैं घर-घर, गाँव-गाँव और नगर-नगर में घूम रहा हूँ। 'मैं समूह से मुक्त होकर किसी भी आदर्श की बात करूं, इसमें विशेषता क्या है? कोई भी व्यक्ति अपने आपको समूह से अलग कर बड़ी-से-बड़ी विचार-क्रान्ति की बात कर सकता है। किन्तु वह क्रान्ति आएगी कहां से? समूह में से ही तो हमें उस क्रान्ति को प्रकट करना होगा? अकेला व्यक्ति क्रान्ति की बात अवश्य कर सकता है, क्रान्ति नहीं कर सकता। इसलिए धर्म की क्रान्ति के लिए, धर्म को तेजस्वी बनाने के लिए हमें समूह को साथ लेकर चलना होगा। जिस विचार-क्रान्ति को समूह का समर्थन मिलेगा, वही सफल हो सकेगी। इसलिए समूह से अलग छिटककर किसी भी ठोस परिणाम की मुझे आशा नहीं।" गुरुदेव तुलसी ने अपने व्यक्तित्व को इतना व्यापक एवं उदार बना लिया था कि कोई भी सीमा उन्हें घेरे में बांध नहीं सकी। वे एक सम्प्रदाय के अनुशास्ता थे पर साम्प्रदायिकता से कोसों दूर थे। जीवन के आठवें दशक में आचार्यपद का परित्याग कर वे सम्पूर्ण मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान की भावना से जुड़ गए। यदि वे केवल धर्मगुरु ही बने रहते तो सीमा में बँध जाते क्योंकि आज धर्म शब्द साम्प्रदायिकता का Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १८ प्रतीक बन गया है। वे प्रायः कहते थे–'धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें लेकिन मैं साधक हूँ और समाज-सुधारक भी हूँ।' इस युग में अध्यात्म और साधना को सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का बहुत बड़ा श्रेय पूज्य गुरुदेव को जाता है। जिस समय लोग अध्यात्म की उपेक्षा करने लगे थे उस समय उन्होंने एक व्रत लिया कि अध्यात्म के प्रति जनता में गहरी अभिरुचि जागृत करनी है। सन् १९८७ में दिल्ली प्रवेश पर स्वागत का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-'हमने अपने जीवन में दो काम करने का प्रयत्न किया है। पहला काम है-अध्यात्म की प्राचीन संस्कृति को नवीनतम रूप में प्रस्तुति देना। दूसरा कार्य धर्म और सम्प्रदाय दो हैं, एक नहीं, इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति करना। सन् १९५४ में प्रदत्त प्रवचन का अंश उनकी तीव्र आध्यात्मिक तड़प का साक्षी है-"मेरा बहुत वर्षों का एक स्वप्न था, कल्पना थी कि जिस प्रकार नाटक, सिनेमा को देखने, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को खाने में लोगों का आकर्षण है, वैसा ही या उससे भी बढ़कर आकर्षण धर्म व अध्यात्म के प्रति जागृत हो। लोगों को धर्म व अध्यात्म की बात सुनने का निमंत्रण नहीं देना पड़े, बल्कि आन्तरिक जिज्ञासावश और आत्मशांति की प्राप्ति के लिए वे स्वयं उसे सुनना चाहें तथा धर्म और अध्यात्म को जीना पसन्द करें।' उनकी उदन आकांक्षा थी कि भारत भले ही भौतिक विकास में अन्य देशों से पीछे रह जाए पर वह पुनः विश्व का आध्यात्मिक गुरु बने। यहाँ से निकलने वाली अध्यात्म की किरणें समूचे विश्व को उद्भासित करें। अपनी इस आकांक्षा को वे इन शब्दों में व्यक्त करते थे-'मेरे जीवन की सबसे बड़ी साध है कि मैं अध्यात्म को तेजस्वी और ओजस्वी देखू। जिस दिन ऐसा होगा मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा। यदि ऐसा नहीं होगा तो न जाने इस दुनिया की क्या गति होगी? लोग दुर्दिन की कल्पना करते हैं किन्तु मैं अध्यात्म के अभाव को ही बड़ा दुर्दिन मानता हूँ।' __ पूज्य गुरुदेव ने अनेक बार अपने जन्मदिवस को भी अध्यात्मजागृति दिवस के रूप में मनाया। ६३वें वर्ष प्रवेश के उपलक्ष्य में सुधर्मा सभा में जनता को अध्यात्म की प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने फरमाया"आज आप लोग मेरे जन्मदिन को अध्यात्म-जागृति दिवस के रूप में Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता मना रहे हैं। अध्यात्म जागृति से मेरा तात्पर्य आत्मा के जागरण से है। जब तक आत्मा जागृत नहीं होगी, हम सारी रात खड़े-खड़े पहरा लगाते रहें और संयम, त्याग, अध्यात्म की बात करते रहें पर लाभ क्या होगा? आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी आत्मा को सदैव जागृत रखें।" पूज्य गुरुदेव के भगीरथ प्रयत्नों से अध्यात्म को तेजस्वी और प्रखर होने का अवसर मिला। जीवन के सान्ध्यकाल में उनका संतोष इन शब्दों में प्रकट हुआ- "मैं बिना किसी अतिश्योक्ति के कह सकता हूँ कि अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा कार्यक्रम पूरे विश्व में महत्त्वपूर्ण माना जा रहा . है। इस काम को और आगे बढ़ाना है, यह मेरा संकल्प है। मैंने चिंतन किया है कि अब मुझे अध्यात्म के व्यापक क्षेत्र में काम करना है इसलिए धर्मसंघ का दायित्व अपने उत्तराधिकारी को सौंप रहा हूँ।" कुछ बौद्धिक लोग अध्यात्म को केवल आत्मवादियों के लिए आवश्यक मानते हैं पर इस संदर्भ में गुरुदेव का मानना था कि अध्यात्मवाद आत्मवादी के लिए जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक एक संसारी एवं अनात्मवादी प्राणी के लिए है, क्योंकि उसके बिना समाज, राष्ट्र और परिवार का कोई व्यवहार सुचारु रूप से नहीं चल सकता। तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से आध्यात्मिक चर्चा करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा- "अध्यात्म राष्ट्र की सबसे ऊंची सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति की सुरक्षा किसी भी मूल्य पर होनी चाहिए जिस देश में अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति रहते हों, वह देश बहुत सी बुराइयों से सहज ही बच जाता है। अध्यात्महीन बौद्धिकता जीवन के विकास का नहीं, बल्कि ह्रास का कारण बनती है। गीत के एक पद्य में अध्यात्म की महिमा उजागर करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं. वैज्ञानिक युग में जीने का, बस उसको अधिकार मिला। जिसको जीवन के विकास का, आध्यात्मिक आधार मिला। आचार्य-पद विसर्जन के बाद उनकी अध्यात्म के प्रचार-प्रसार की तड़प और अधिक तीव्र देखी गई। पद-विसर्जन के अवसर पर प्रदत्त यह वक्तव्य उनके इसी संकल्प की पुष्टि है-'मेरे नए कार्यक्रम की नाभिकीय प्रेरणा है- अध्यात्म। मैं स्वयं अध्यात्म के गंभीर प्रयोग करना Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी चाहता हूँ और उसे व्यापक बनाने के प्रयास में अपनी शक्ति का.नियोजन करना चाहता हूँ। अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे से अलग रहकर अपूर्ण ही रहेंगे। मेरा प्रयत्न रहेगा कि इनमें सामंजस्य स्थापित हो। इस दृष्टि से कहीं भी कोई कार्यक्रम चलेगा, उसमें मेरा सक्रिय योगदान रहेगा।' भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था किन्तु आज उसने 'जगद्गुरु' होने की पहचान खो दी है। भारतीय संस्कृति में अपसंस्कृति एवं विकृतियों का मिश्रण देखकर पूज्य गुरुदेव अत्यन्त चिंतित थे। उनकी तीव्र अभीप्सा थी कि भारतीय जनता के समक्ष पुनः अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को प्रस्तुत किया जाये, जिससे जनता के मन में अध्यात्म के प्रति आकर्षण जग सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसको उज्जीवित और पुरस्कृत कर भारत अपने खोए गौरव को पुन: उपलब्ध कर सकता है। पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में अध्यात्म को पुनः प्रतिष्ठित करने में निम्न उपाय कामयाब हो सकते हैं आध्यात्मिक लोगों से सतत सम्पर्क। * आध्यात्मिक मूल्यों का बार-बार श्रवण। * श्रुत मूल्यों के बारे में गहरी जानकारी। ज्ञात तत्त्वों का मनन और निदिध्यासन। जन-कल्याण एवं जन-जागरण को वे अपनी साधना का ही एक अंग मानते थे। इसीलिए उनकी साधना गिरिकंदराओं में कैद न होकर मानव-जाति के कल्याण एवं योगक्षेम के साथ जुड़ी हुई थी। जब कभी उनके सामने यह प्रश्न आता कि आप अपनी साधना को प्रखर करने हेतु जंगल में क्यों नहीं जाते, गाँवों एवं शहरों में ही क्यों घूमते रहते हैं ? इसके समाधान में वे कहते थे- “जिस प्रकार आत्मचिंतन, स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि मेरी साधना के अंग हैं, उसी प्रकार जन-कल्याण व जन-उत्थान भी मेरी साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मैं केवल स्वयं उठने और तैरने का ही पक्षपाती नहीं हूँ, बल्कि इसके साथ-साथ दूसरों को उठाने और तैराने का भी प्रबल हिमायती हूँ। निर्जन एकान्तवास में केवल अपना हित साधा जा सकता है, औरों का नहीं। मेरी मान्यता है कि जिसके पास उत्कृष्ट साधना-बल हो वह जन-जागृति के पुनीत कार्य में भी अपना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता सहयोग दे सकता है'। उक्त विचार उनकी जनकल्याण के प्रति तीव्र आकांक्षा को व्यक्त कर रहे हैं। वे उसी साधक की साधना को महत्त्वपूर्ण मानते थे जो स्वयं अकेला ही उत्थान के पथ पर आगे न बढ़ता हुआ औरों को भी विकास एवं प्रगति की राह पर आगे बढ़ाने की प्रेरणा दे। उनका कवि मानस इसी संकल्प को दोहराता रहता था सदा मनोबल बढ़े हमारा, सदाचार पनपाने में। रात्रिंदिन हो लगन हमारी, तरने और तराने में। गुरुदेव श्री तुलसी समय-समय पर गोष्ठियों के माध्यम से संघ एवं समाज के सदस्यों में साधना की विशेष रुचि जागृत करते रहते थे। उनकी प्रेरणा इतनी मार्मिक एवं वेधक होती थी कि हर साधक के हृदय में ऊर्ध्वारोहण की अभीप्सा जागने लगती थी। उनके स्वरों में कृत्रिमता नहीं, अपितु हृदय की वेदना एवं अनुभूति बोलती थी अतः सीधी हृदय पर चोट करती थी। यहाँ उनके प्रेरक वाक्यांशों को उद्धृत किया जा रहा है, जो किसी भी साधक हृदय में उथल-पुथल मचाने के लिए पर्याप्त हैं 'मेरे मन में बार-बार आता है कि साधु जीवन का स्वीकार ही सब कुछ नहीं है। आध्यात्मिक विकास के लिए नए-नए प्रयोग होने चाहिए। हमारा संघ अनुशासित है, व्यवस्थित है, मर्यादित है किन्तु अब तक भी अध्यात्म की प्रयोगशाला नहीं बन पाया है। मैं प्रायोगिक जीवन में विश्वास करता हूँ। इतने बड़े समूह में सब व्यक्ति प्रयोगधर्मा हों, यह संभव नहीं है, फिर भी एक वातावरण बने। जिनकी प्रयोग करने में रुचि एवं क्षमता हो, उनको रास्ता मिलना चाहिए।' *'हमारे साधु-साध्वियाँ सोचें कि वे कितना काम शरीर का करते हैं और कितना काम आत्मा का? सुंदरता के लिए कपड़ा पहनते हैं तो शरीर का काम करते हैं, स्वाद के लिए खाते हैं तो शरीर का काम करते हैं और शरीर को बढ़िया बनाने का काम करते हैं तो शरीर की गुलामी करते हैं। अगर स्वाध्याय, ध्यान, जप, सेवा, तप और विनय करते हैं तो समझिए आत्मा का काम करते हैं।' * 'हम साधु बने हैं पर किसी के दबाव या प्रभाव से नहीं, अपने विवेक से बने हैं। विवेक से होने वाला काम औपचारिक नहीं हो सकता। साधुत्व हमारी साधना है, मंजिल नहीं है। हमारी मंजिल है Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी वीतरागता। वीतराग बनने के लिए दृष्टिकोण को निरन्तर आध्यात्मिक बनाये रखना जरूरी है। धर्म-शासना के पचासवें वर्ष में मैं अपने धर्मसंघ में एक विशेष मोड़ देखना चाहता हूँ। वह मोड़ नितान्त आध्यात्मिक हो। आध्यात्मिकता, श्रमशीलता और यथार्थजीविता हमें विरासत में प्राप्त है। हम इनकी उपेक्षा न करके इनमें कुछ अधिक उत्कर्ष लाएंयह अपेक्षा 'यदि हम जागरूक हैं तो एक कदम भी देखे बिना नहीं चलेंगे, प्रमार्जन किये बिना नहीं बैठेंगे, विचारे बिना नहीं बोलेंगे, समय का दुरुपयोग नहीं करेंगे, दूसरों से जैसी अपेक्षा रखेंगे, वैसा स्वयं बनने का प्रयास करेंगे, हमारा संघ प्रगतिशील संघ है, पर हमें एक बात का सदैव ध्यान रखना है कि हम युग के प्रवाह में न बह जाएं। हमें अपनी अध्यात्म भावना को सदा जागृत रखना है और साधना में उत्कर्ष लाने हेतु नए-नए प्रयोग करते रहना है।' * 'एक व्यक्ति अध्ययनशील तो नहीं है पर साधनाशील है। उससे मैं प्रसन्न ही हूँ। एक अध्ययनशील तो है पर साधनाशील नहीं, मुझे वह व्यक्ति प्रिय नहीं और एक अध्ययनशील भी नहीं और साधनाशील भी नहीं तो वह किसी काम का नहीं।' उनकी इन प्रेरणाओं को 'दिनकर' की इन काव्य पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा सकता है हूं जगा रहा आलोक अरुण बाणों से, मरघट में जीवन फूंक रहा गानों से। मैं विभा-पुत्र जागरण गान है मेरा, जग को अक्षय आलोकदान है मेरा॥ एक अन्तरंग गोष्ठी में प्रदत्त अग्रांकित जीवन-सूत्र हर साधक के भीतर आध्यात्मिक आकर्षण एवं रुचि पैदा करने में प्रेरणास्रोत बनकर मस्तिष्क-परिष्कार में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं* महान बनने का प्रयत्न करो, पर महत्त्वाकांक्षी मत बनो। अनुकूल और प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में अपना धैर्य मत खोओ। अकरणीय कार्य हो जाने पर उसे न छिपाओ, न झुठलाओ। साधना से प्रतिकूल आचरण हो जाए तो वहां से उसी क्षण Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता अपनी आत्मा को हटाकर यह संकल्प करो कि ऐसी भूल दूसरी बार नहीं होगी। दूसरों की आलोचना करने या सुनने में समय का अपव्यय मत करो। किसी भी बात को पचाने की क्षमता का विकास करो। . व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के व्यामोह में न फंसकर जन-जन में संघीय एवं आध्यात्मिक भावना भरो। गुरुदेव केवल गोष्ठी या प्रवचन के माध्यम से ही अध्यात्म की प्रेरणा नहीं देते वरन् वे सामान्य प्रसंग को भी आध्यात्मिक प्रतिबोध का माध्यम बना लेते थे। यहाँ कुछ घटना-प्रसंगों का उल्लेख किया जा रहा है, जो उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण के स्वयंभू प्रमाण हैं * दक्षिण यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव बाहुबलीजी पधारे। पहाड़ पर चढ़ते ही बाहुबली की सौम्य एवं शान्त मूर्ति को देखकर प्रेरणा की सौसौ धाराएं उनके मुख से प्रवाहित हो उठीं-'हमने स्वेच्छा से साधना का पथ स्वीकार किया है। सामने बाहुबली की प्रतिमा से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। जिस प्रकार यह प्रतिमा धूप, छाया, आँधी और तूफान में अविचल खड़ी है, उसी प्रकार हमें भी अपने साधना पथ पर अनवरत अविचल होकर बढ़ते रहना चाहिए। चाहे कितनी ही विपरीत परिस्थितियाँ सामने क्यों न आएं, हमें विचलित नहीं होना है।' * मेवाड़ के एक गाँव में गुरुदेव प्रवचन कर रहे थे। स्थानाभाव के कारण कुछ भाई चौकियों पर तथा कुछ भाई नीचे गली में बैठे थे। गुरुदेव का ध्यान उबड़-खाबड़ चट्टानों पर अटक गया। प्रवचन में ही प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा-'कहीं ऊंची, कहीं नीची जिधर देखो उधर चट्टानें ही चट्टानें हैं। खेतों की बाड़ें पत्थर की, रास्ते भी पथरीले, कितने कठोर हैं ये पत्थर! कहीं आपके हृदय भी इतने कठोर तो नहीं हैं ? कठोर हृदय में शिक्षामृत की बूंदे नहीं टिक सकतीं इसलिए आप लोगों को ग्रहणशील बनने के लिए मृदु बनना होगा।' मेवाड़ में आतमा गाँव पधारने पर चतुर्विध धर्मसंघ को प्रतिबोध देते हुए आपने कहा-'आज हम आतमा आए हैं। आज क्या आए हैं हम तो पहले से ही यहीं थे। आज तो वे लोग भी यहाँ पहुँच गए हैं, जो Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४ 3 सामान्यतः बाहर घूमते रहे हैं। बाहर घूमने वाले लोग भटक जाएं, यह बात समझ में आती है पर जो वर्षों से आत्मा में वास करते हैं, वे क्यों भटकें ? सुरेन्द्रनाथ जैन दिगम्बर विद्वान् थे । वे गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए और बोले—'दस वर्षों से दिगम्बर ग्रंथों का स्वाध्याय कर रहा हूँ । राजवार्तिक, समयसार आदि अनेक ग्रंथ पढ़ लिए पर आत्मतत्त्व पर जो निर्विकल्प विश्वास होना चाहिए, वह नहीं हो पाया है।' पूज्य गुरुदेव ने ' समाहित करते हुए कहा - 'आत्मतत्त्व का ज्ञान एवं उस पर विश्वास पुस्तकों से नहीं हो सकता। पुस्तकें तो केवल बाह्य ज्ञान देती हैं। आत्मोपलब्धि अध्यात्म-साधना से होती है । भले ही कोई ग्रंथ न पढ़ें पर आत्मसाधना करने वाले को आत्मदर्शन अवश्य होगा । केवलज्ञान की प्राप्ति पुस्तकों से नहीं, साधना से होती है । केवलज्ञान के लिए कहीं कॉलेज में भरती नहीं होना पड़ता, उसके लिये एकान्त में बैठकर अपनी आत्मा को पढ़ना होता है। गर्म तवे पर पानी की दो बूँदे चंद क्षणों में मिट जाती हैं, राजस्थान की धधकती बालू पर पानी की कुछ बूँदे असर नहीं दिखा सकतीं, वैसे ही ज्ञान दो बोल सीखने मात्र से आत्मसाक्षात्कार होना कठिन है, ' पूज्य गुरुदेव मुख से आत्मतत्त्व का विश्लेषण सुनकर सुरेन्द्रकुमारजी विस्मय विमुग्ध हो गए और भावविह्वल होकर बोले-' इतने बड़े तत्त्व की बात इतने सरल ढंग से आपने समझा दी। मेरा ज्ञानी होने का मद क्षणभर में उतर गया । आपकी वाणी सुनकर मुझे ऐसा लगा कि हजार शास्त्र पढ़े पंडितों से एक साधक की वाणी हजार गुना अधिक प्रभावी होती है । ' रूपक के माध्यम से आत्मोपलब्धि की प्रक्रिया को 'व्यवहार. बोध' में निबद्ध करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं तपे जमे मंथान से, मंथन फिर नवनीत । यही सयाने समझ ले, आत्ममिलन की रीत ॥ 'आयारो' के प्रथम सूत्र का काव्यमय अनुवाद हर आत्मजिज्ञासु साधक के लिए प्रतिदिन मननीय है - कोऽहं ? अरे ! कहां से आया ? और कहां जाऊंगा ? नहीं ज्ञान यह सबको होता, कैसी स्थिति पाऊंगा ? Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता स्वयं स्वयं की जातिस्मृति से, अथवा ज्ञानी के मुख से सुन, ज्ञात हुआ-संसरणशील मैं, सुख का दुःख का वरणशील मैं, दिग्-दिगन्त संचरणशील मैं, मैं उपपात-मरणधर्मा हूँ, कृतकर्मा हूँ, मैं अतीत में था, अब हूँ, भविष्य में बना रहूँगा, सोऽहं-सोऽहं का संगानी वही प्रत्यभिज्ञा-सन्धानी आयारो की अर्हत् वाणी॥ अपने अनुयायियों के समक्ष गुरुदेव समय-समय पर ऐसे प्रश्न उपस्थित करते रहते थे, जिससे वे स्वयं के भीतर झांक सकें तथा अपनी वृत्तियों का अनुमापन कर सकें। वे प्रेरणा देते हुए कहते थे–'हर व्यक्ति स्वयं को तोले कि उसका जीवन किस-किस की परिक्रमा कर रहा है १. शांति की अथवा क्रोध की? २. नम्रता की अथवा अभिमान की? ३. संतोष की अथवा आकांक्षा की? ४. ऋजुता की अथवा दंभ की? ५. अनाग्रह की अथवा दुराग्रह की? ६. वीरता की अथवा दुर्बलता की?' इसी संदर्भ में आत्मतुला पर आधारित यह प्रश्नावली भी अंतश्चेतना को झकझोरने वाली है-'व्यक्ति स्वयं अपनी वृत्ति की तुला पर तुल सकता है। उसकी वृत्तियों में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उभार है या नहीं? वह किसी की प्रतिकूल हरकत को सहन कर सकता है या नहीं? वह अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार कर सकता है या नहीं? यदि उसे दुर्बलताओं का अहसास हो जाता है तो वह उनसे मुक्त होने का प्रयास करता है या नहीं? इन सब बिन्दुओं, कसौटियों पर जो खरा उतरता है, वह अपनी सन्तता को उजागर कर सकता है। अन्यथा संत बनने के लिए कोई सर्टिफिकेट तो मिलता नहीं है, जिसे दिखाकर सन्तपना प्रमाणित किया जा सके।' Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६ अध्यात्म का सही मार्गदर्शन करने वालों की आज सर्वत्र कमी नजर आ रही है। समाज-सेवा या शारीरिक-सेवा करने वाले बहुत व्यक्ति मिल सकते हैं पर अपनी आत्मा का उत्थान करके दूसरों को सही दिशा में प्रस्थित करने वाले विरल होते हैं। महात्मा गाँधी ने एक उद्घोष दिया था कि हमें शरीर के चिकित्सक के बजाय आत्मा के चिकित्सकों की आवश्यकता है क्योंकि शरीर की चिकित्सा करने वाले डॉक्टरों की लम्बी कतार है। मनश्चिकित्सक भी सुलभ हैं पर आत्मा की चिकित्सा करने वाले दुर्लभ मिलते हैं।' पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक चिकित्सक थे। उन्होंने जीवन में लाखों लोगों का भाव-परिष्कार करके उनमें नये आत्मबल और आत्मविश्वास का संचार किया था। एक बार गुरुदेव की सेवा में एक नेत्र चिकित्सक उपस्थित हुआ। उसने गुरुदेव को कहा-'भारत में मैंने हजारों लोगों की आँखों का ऑपरेशन किया है, क्या इससे मुझे ईश्वर प्राप्त हो जाएगा?' गुरुदेव ने स्पष्ट उत्तर देते हुए कहा-'नेत्र-चिकित्सा करके आपने मानवीय कर्तव्यों का पालन किया है पर ईश्वर-प्राप्ति के लिए आपको अन्तशोधन करना होगा। जब तक कषाय या उत्तेजना शान्त नहीं होगी, वीतरागता का उदय नहीं होगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकेगी।' इस उत्तर को सुनकर डॉक्टर का चेहरा खिल उठा। उसने कहा-'आज तक बहुत संतों के संपर्क में आया हूँ। मैंने यह जिज्ञासा उनके सामने अनेक बार रखी पर आप जैसा आध्यात्मिक मार्गदर्शक मुझे नहीं मिला। वस्तुत: आत्मिक उत्थान के लिए बाह्य क्रिया नहीं वरन् आंतरिक विशुद्धि आवश्यक है।' लाडनूं प्रवास में डॉ. आर. के विग, डॉ. कान्ता छाजेड़ एवं डॉ. अरुणा गुरुदेव की पावन सन्निधि में पहुंचे। उन्होंने गुरुदेव को निवेदन किया कि हम सुजानगढ़ नेत्र-चिकित्सा शिविर के लिए आए हए थे। यहाँ आपसे आध्यात्मिक पाथेय प्राप्त करने हेतु आए हैं। पूज्य गुरुदेव ने डाक्टरों पर एक गहरी दृष्टि डाली और प्रश्न के माध्यम से प्रतिबोध देते हुए कहा- 'आप बाह्यदृष्टि के साथ लोगों को अन्तर्दृष्टि देते हैं या नहीं?' डाक्टर लोग इस रहस्यमय प्रश्न को पकड़ नहीं पाए। उनके चेहरे पर उभरे असमंजस को देखकर गुरुदेव ने ईसामसीह के जीवन से संबंधित एक घटना सुनाते हुए कहा-'ईशु क्राइस्ट ने एक बार किसी नेत्रहीन व्याक्त को चक्षु दे दिए। उसने नेत्रों का गलत उपयोग करना शुरू कर दिया। एक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता दिन क्राइस्ट ने उसकी आँखों में वेश्या के प्रति रागदृष्टि को देखा। ईसा ने उसे उलाहना देते हुए कहा-'क्या मैंने तुम्हें इसीलिए दृष्टि दी थी?' भाई ने तपाक से उत्तर देते हुए कहा-'आपने मुझे बाह्य दृष्टि तो दी पर अन्तर्दृष्टि नहीं दी। अन्तर्दृष्टि के अभाव में तो वह बाह्य की ओर ही आकृष्ट होगी।' घटना का उपसंहार करते हुए गुरुदेव ने चिकित्सकों को मार्मिक प्रतिबोध देते हुए कहा-'बाह्य दृष्टि देना ठीक है पर अन्तर्दृष्टि का दान महत्त्वपूर्ण है। अन्तर्दृष्टि के अभाव में बाह्यदृष्टि का दान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता।' डॉक्टरों ने प्रसन्नमुद्रा में बद्धाञ्जलि कहा-'यह कार्य तो आप ही कर सकते हैं। हमारी ऐसी क्षमता कहाँ?' गुरुदेव ने फरमाया-'व्यसनमुक्ति और अणुव्रत-ये दो आँखें आप अपनी चिकित्सा के साथ और जोड़ दें। फिर आपकी चिकित्सा सर्वांगीण हो जायेगी।' इस प्रेरक प्रतिबोध से डॉक्टरों को अध्यात्म की एक नयी दिशा मिल गयी और उनके चेहरे हर्षोत्फुल्ल हो गए। - इसी संदर्भ में एक और घटना का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा।९ दिसम्बर १९७८ को गुरुदेव हरिकेपत्तन गाँव में विराज रहे थे। वहाँ सरदार निरंजनसिंह जी गुरुदेव के उपपात में पहुँचे और दीन स्वरों में बोले-'गुरुजी! मैं वर्षों से अध्यापक हूँ। मुझे राष्ट्रीय अवार्ड भी मिला है पर अनेक वर्षों से मैं मूत्रावरोध की बीमारी से परेशान हूँ, आप कोई नुस्खा बताएं, जिससे मैं स्वस्थ हो जाऊं।' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए सरदारजी को समाहित करते हुए कहा-'सरदारजी! हम शरीर की नहीं, मन की और आत्मा की चिकित्सा करते हैं। हमारे पास अध्यात्म का टॉनिक है, उससे आपकी शारीरिक बीमारी मिटेगी या नहीं, हम नहीं कह सकते, पर इससे आपको मानसिक शांति अवश्य मिलेगी।' पूज्य गुरुदेव ने उसे आध्यात्मिक प्रवंचन के साथ नवकार महामंत्र के जप का निर्देश दिया। गुरुदेव के उद्बोधन को सुनकर सरदारजी का वदन कमल की भाँति खिल उठा। ऐसा प्रतीत हुआ मानो व्याधि की पीड़ा उन्हें कभी थी ही नहीं। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने अपने सत्प्रयासों से अध्यात्म को जीवन्त बनाया। वे अनेक बार इस अनुभव को प्रकट करते थे कि मुझे श्मशान की शांति में विश्वास नहीं, चैतन्यपूर्ण शांति में विश्वास है। उन्होंने स्वयं अध्यात्म का स्वाद चखा और अपनी दिव्यवाणी से लाखों लोगों को Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८ उस मार्ग पर प्रस्थित किया। उन्होंने जनता को यह प्रशिक्षण दिया कि आध्यात्मिकता किसी धर्मग्रंथ या धर्मस्थान में बंदी नहीं हो सकती। उसका अनुबंध अंतश्चेतना की क्रांति से है । व्यक्ति भौतिक शक्ति को प्राप्त करने जितना परिश्रम करता है, उसका शतांश भी यदि आध्यात्मिक शक्ति को जागृत करने में लगाए तो विश्व का नक्शा परिवर्तित हो सकता है।" अध्यात्म की अनुपम मशाल थामे उम्र के नवें दशक में भी गुरुदेव तुलसी आध्यात्मिक प्रेरणा देने में स्वयं को तरुण समझते थे। उनके द्वारा प्रज्वलित अध्यात्म की दीपशिखा युग-युग तक मानव-जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी, यह अतिरंजना नहीं है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता साधना का प्रारम्भ प्रयोग से होता है। नित नए प्रयोग करने वाला साधक अपने जीवन में नये-नये उन्मेषों का उद्घाटन करता रहता है। वेश बदलकर संन्यास ग्रहण करने मात्र से कोई भी व्यक्ति अध्यात्म की ऊंचाइयों पर आरोहण नहीं कर लेता। कोई भी सिद्धान्त तभी फलदायी बनता है, जब उसका प्रयोग किया जाता है। प्रयोग विहीन सिद्धान्त प्रभावहीन एवं अर्थशून्य बन जाता है। सिद्धान्त का प्रयोग करके परीक्षण करने से वह अपना अनुभव बन जाता है अतः पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि धर्म में यदि प्रयोग नहीं जुड़ेंगे तो वह निष्प्राण और रूढ़ हो जायेगा। धर्म को नित्य नवीन और आकर्षक बनाए रखने के लिए उसे प्रायोगिक बनाना आवश्यक है। धर्म को प्रायोगिक बनाने के संबंध में उनकी यह चेतावनी तथाकथित धार्मिकों को भी कुछ सोचने को मजबूर करती है-'धर्म के क्षेत्र में आज प्रयोग की सर्वाधिक आवश्यकता है। अन्यथा उसके टिकने की संभावना क्षीण होती जा रही है। केवल घिसे-पिटे परम्परावादी सिद्धान्तों के आधार पर अब धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। एक धार्मिक को या धर्माधिकारी को यह स्पष्ट रूप से सिद्ध करना होगा कि धर्म से अमुक-अमुक लाभ होता है। अन्यथा आगे आने वाली पीढ़ी धर्म से मुख मोड़ लेगी।' . महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी गुरुदेव के प्रायोगिक जीवन से बहुत प्रभावित हैं। उनका कहना है कि पूज्य गुरुदेव की अध्यात्म निष्ठा असाधारण थी। संघ-संचालन की महती जिम्मेवारियों के बीच जब भी उन्हें एकांत मिलता, वे अपने अनुभव के खजाने को बढ़ाने के लिये निरन्तर प्रयोग करते रहते थे। प्रायोगिक जीवन उनकी निजी पसंद था। वे किस समय कौन-सा प्रयोग कर लेते, यह उनके निकट रहने वाले भी नहीं जान पाते।" प्रशासनिक और आध्यात्मिक- दोनों क्षेत्रों में उन्होंने नये प्रयोग किये और नये अनुभव पाये। उर्वर चिन्तन, प्रायोगिक सोच एवं साधना की गहरी तड़प के संदर्भ में 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में व्यक्त निम्न वक्तव्य अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है- "२२ मार्च, १९६५ को पश्चिम निशा में एक चिन्तन आया, सहज आया, जो सर्वथा नया था। वह यह कि कुछ काल की अवधि तक मैं गण के भार से मुक्त होकर अबाध साधना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३० करूं। वह अवधि पांच वर्ष की हो। किसी एक योग्य शिष्य पर पाडिहारिय रूप में शासन-संचालन का भार रखकर वैसा करूं। ऐसी शिष्य सम्पदा मेरे पास है जरूर, पर यह काम सर्वथा नया है। ऐसा करने में कहीं गण का अहित तो नहीं है ? यह सब चिन्तन का विषय है। __ पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि साधना का प्रयोग मनुष्य पर न. करके यदि पशुओं पर किया जाए तो अधिक सफल हो सकता है क्योंकि पशु की अपनी कोई धारणा नहीं होती। उन्हें जो कुछ समझाया जाता है, वे उसी का अनुकरण करते हैं। पर पता नहीं इस मनुष्य की खोपड़ी में क्या भरा है, जो वह इतना ग्रहणशील नहीं हो पा रहा है। पूज्य गुरुदेव सफल प्रयोक्ता थे, इसलिए रूढ़ता उन्हें किसी क्षेत्र में प्रिय नहीं थी। वे कहते थे–'रूढ़ जीवन जीने में आनंद की उपलब्धि नहीं हो सकती। मेरे अभिमत से साधना के क्षेत्र में तो किसी प्रकार की रूढ़ता होनी ही नहीं चाहिए। रूढ़ पद्धति से भावी प्रगति में अवरोध आ जाता है। इसलिए प्रयोग और अनुभव के क्षेत्र को खुला रखकर स्वीकृत पद्धति के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए।....जीवन के हर क्षेत्र में नवीनता और नये उन्मेष देखना मेरी अभिरुचि का विषय है।' पूज्य गुरुदेव ने एक गोष्ठी में संतों को प्रतिबोध देते हुए कहा- "जैसे पातञ्जल योग के अनेक अभ्यासी और प्रयोक्ता साधक मिलते हैं, वैसे ही मैं चाहता हूँ कि जैन योग के भी साधक पैदा हो।" मुनि श्री मीठालालजी स्वामी को संघ मुक्त होकर विशेष साधना करने की अनुमति देना भी उनके उदार एवं क्रांतिकारी प्रयोगों में एक प्रयोग कहा जा सकता है। उस समय गुरुदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा- 'दूर होते हुए भी मेरा आशीर्वाद सतत तेरे साथ है। तेरी साधना का यह क्रम शताब्दियों में भी नहीं हुआ है। तेरी साधना शीघ्र फलवती बने तथा इस भौतिक चकाचौंध के युग में आध्यात्मिकता का आलोक जगे। इससे संघ का ही नहीं किन्तु आत्म-धर्म का विकास भी सम्भव है।" आचार्यश्री ने पुनः दोहे की भाषा में कहा अभय अरुज अविकार मन, निर्विकल्प संकल्प। लो सौ-सौ शुभ कामना, तुलसी हर्ष अनल्प। स्वस्वरूप की साधना, तेरी अतुल अभीष्ट। 'तुलसी' निश्चित सफलता, महामना मुनि मिष्ट॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता "क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" कालिदास की यह उक्ति गुरुदेव का आदर्श सूत्र थी इसीलिये वे सदैव मनोहारी और रमणीय बने रहे। धर्म, अध्यात्म और समाज के क्षेत्र में उनके प्रयोगों की लम्बी सूची देखकर पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने कहा'ये नए प्रयोग आचार्य तुलसी ही क्यों कर रहे हैं ? अणुव्रत, आगमसंपादन, साहित्य-सृजन, समणश्रेणी आदि कितने प्रयोग उन्होंने समाज के सामने प्रस्तुत कर दिए। अन्य सम्प्रदायों में ऐसा क्यों नहीं हुआ?' इस प्रश्न का उत्तर गुरुदेव की इस अभिव्यक्ति में खोजा जा सकता है-'निरन्तर प्रयोग करने का उत्साह प्रगति का पहला सूत्र है, इसलिए मैं प्रयोग में अधिक विश्वास करता हूँ। मैंने अपने जीवन में और धर्मसंघ में अनेक प्रकार के प्रयोग किये हैं। प्रत्येक प्रयोग से मुझे नई दिशा और नया प्रकाश मिलता रहा है।' . शारीरिक स्वास्थ्य की प्रतिकूलता में भी गुरुदेव साधना परक प्रयोगों को प्रमुखता देते थे। कलकत्ता से राजस्थान लौटते हुए पूज्य गुरुदेव के घुटनों में दर्द हो गया। लगभग तीन हजार किलोमीटर की यात्रा थी। गुरुदेव का मनोबल अत्यन्त प्रबल था। लेकिन घुटनों में दर्द के कारण चलना कठिन लगने लगा। मदनचंदजी गोठी ने गुरुदेव को निवेदन किया"आप प्रयोग के लिए जयाचार्य विरचित विघनहरण गीत का स्वाध्याय एवं अभि रा शि को नमः मंत्र का प्रतिदिन जप करें, इससे आपको लाभ मिलेगा।" गीत एवं जप के स्वाध्याय का यह प्रयोग गुरुदेव को रुचिकर लगा। श्रमण सागर द्वारा प्रतिलिपि किए गए गीत का उन्होंने प्रतिदिन स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया। स्वाध्याय शुरु होने के दो चार दिनों में ही दर्द कपूर की भांति गायब हो गया। पूरी यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो गयी। पूज्य गुरुदेव के एक आध्यात्मिक प्रयोग की चर्चा उन्हीं के शब्दों में पठनीय है-'सन् १९९३ के राजलदेसर चातुर्मास में मेरे पाँव में साइटिका का दर्द हो गया। डॉक्टर ने पूर्ण विश्राम का परामर्श दिया। उस रूप में विश्राम का निर्देश मेरे जीवन का पहला प्रसंग था। दिन भर सोने की कल्पना ने मुझे निराश कर दिया किन्तु मैं शीघ्र ही संभल गया। मैंने सोचा–'निराशा किस बात की? डॉक्टर कहता है कि और कोई समस्या Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी नहीं है, केवल एक नस दबती है। विश्राम करने से यह स्थिति बदल जाएगी। ऐसे समय में मैं निषेधात्मक भावों में चला जाऊंगा तो दूसरों से क्या कहूंगा? मुझे इस स्थिति को स्वीकार करना है, विधायक भावों के साथ स्वीकार करना है। अपने चिन्तन को विधायक बनाने के लिए मैंने संस्कृत में एक पद्य की रचना की आनन्दो मे रोमणि रोम्णि, प्रवहतु, सततं मनःप्रसत्ति। स्वस्थः स्वस्थोऽहमिति च मन्ये, कायोत्सर्गे सुखं शयानः॥ - 'मेरे रोम-रोम में आनन्द प्रवाहित हो। हर पल मेरी मानसिक प्रसन्नता बनी रहे। यह पूर्ण विश्राम का समय मेरे लिए कायोत्सर्ग की विशेष साधना का समय है। कायोत्सर्ग में सुखपूर्वक शयन करता हुआ मैं स्वयं को स्वस्थ अनुभव कर रहा हूँ। स्वस्थता के इस अनुचिन्तन में मेरा धर्मसंघ भी सहभागी बना। स्वास्थ्य के प्रति की गई संघ की मंगलकामनाओं से मुझे पूरा बल मिला। मैं स्वस्थ हो गया। आध्यात्मिक प्रयोग के प्रति मेरी आस्था अधिक पुष्ट हो गई।' कायोत्सर्ग की भाँति मौन के प्रयोग का अनुभव भी उनकी डायरी के पृष्ठों में पठनीय है-'परिश्रम की अधिकता के कारण सिर में भार, आँखों में गर्मी, आज काफी बढ़ गई है। रात्रि के विश्राम से भी आराम नहीं मिला, तब सवेरे डेढ़ घण्टे का मौन किया और नाक से लंबे श्वास लिये। इससे बहुत आराम मिला। पुनः शक्ति-संचय सा होने लगा। चित्त प्रसन्न हुआ। मेरा विश्वास है कि मौन साधना मेरी आत्मा के लिए, मेरे स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छी खुराक है। बहुत बार ऐसे अनुभव भी होते रहते हैं। यह मौन साधना मुझे नहीं मिलती तो स्वास्थ्य संबंधी बड़ी कठिनाई होती। पर वैसा क्यों हो? स्वाभाविक मौन चाहे पाँच घंटे का हो, उससे उतना आराम नहीं मिलता, जितना कि संकल्पपूर्वक किए गए एक घंटे के मौन से मिलता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि संकल्प में कितना बल है। साधारणतया मनुष्य यह नहीं समझ सकता पर तत्त्वत: संकल्प में बहुत बड़ी आत्म-शक्ति निहित है। इससे आत्म-शक्ति का विकास होता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता ३३ अवश्य ही मनुष्य को इस संकल्पबल का प्रयोग करना चाहिए ।' पूज्य गुरुदेव ने आहार, विहार एवं जीवन-चर्या से सम्बन्धित भी अनेक प्रयोग किये। उनके आहार सम्बन्धी प्रयोगों की लम्बी श्रृंखला है। उन सबकी न व्यवस्थित सुरक्षा हो पायी है और न ही प्रस्तुति । महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी ने उनके आहार सम्बन्धी कुछ प्रयोगों को प्रस्तुति दी है। पूज्य गुरुदेव यदि किसी पुस्तक में जीवन संबंधी कोई नयी बात पढ़ते तो तत्काल उसका प्रयोग करने से नहीं चूकते। गुरुदेव तुलसी ने • आयुर्वेद का यह श्लोक पढ़ा नित्यं हिताहारविहारसेवी, समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः । दाता समः सत्यपरः क्षमावान्, आप्तोपसेवी स भवत्यरोगः ॥ इस श्लोक के बारे में अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा - 'जिस दिन मैंने इस श्लोक को पढ़ा, तब से बार-बार अपने जीवन में इन बातों का प्रयोग करता रहा हूँ। इससे मुझे लाभ की अनुभूति हुई है। अनुभवों के आधार पर मैं सबको परामर्श देना चाहता हूँ कि महर्षि चरक द्वारा परीक्षित इन तथ्यों का प्रयोग किया जाये तो स्वस्थ रहा जा सकता है।' एक बार पूज्य गुरुदेव ज्वर से आक्रान्त हो गए। भोजराजजी संचेती (मोमासर) ने गुरुदेव को निवेदन किया कि आप इस बार अन्य किसी प्रकार की औषधि का प्रयोग न करके स्वमूत्र का प्रयोग करें। बिना किसी आग्रह के गुरुदेव ने शिवाम्बु का प्रयोग किया। उसी के गरारे भी किए। प्रयोग से उन्हें बहुत लाभ हुआ। गुरुदेव के प्रयोगधर्मा व्यक्तित्व का सबसे बड़ा राज था- - उनकी ग्रहणशीलता । भयंकर से भयंकर विरोध में भी यदि उन्हें कोई उपयोगी या • महत्त्वपूर्ण बात मिलती तो ग्रहण करने में उनको कोई हिचक नहीं होती थी। उनका मानना था कि मेरे संयमी जीवन का सर्वाधिक सहयोगी और प्रेरक साथी कोई रहा है तो वह है- संघर्ष । यदि मेरे जीवन में इतना संघर्ष नहीं आता तो शायद मैं इतना मजबूत नहीं बन पाता । संघर्ष से मैंने बहुत कुछ सीखा है, पाया है। संघर्ष मेरे लिए अभिशाप नहीं, वरदान साबित हुए हैं"। उनकी इसी ग्रहणशीलता ने उन्हें नए-नए प्रयोगों की ओर उन्मुख किया है। आसन-प्राणायाम आदि के बारे में उनकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कि प्रारम्भ में मुझे कायोत्सर्ग एवं मुद्राओं की विधि का सम्यक् ज्ञान नहीं था लेकिन किसी श्रावक ने सुझाव दिया तो अच्छा लगा। मेरे अभिमत से ये प्रयोग साधना के साथ-साथ चिकित्सा का काम भी करते हैं। लम्बे विहारों के दौरान रात को जब कभी प्यास का अनुभव होता, जीभ को उलटकर खेचरी मुद्रा करने पर ऐसा अनुभव होता मानो भीतर से अमृत का झरना फूट पड़ा हो। मैंने अपने जीवन में अनेक बार ऐसे प्रयोग किए हैं और आनंद का अनुभव किया है।" - पूज्य गुरुदेव के प्रयोगों की गुरुता का एक हेतु था-अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय। आज भौतिक शक्तियों का अंधाधुंध विकास मानव को ऊपरी चकाचौंध तो दे रहा है पर इससे दूसरे खतरे बढ़ते जा रहे हैं। मानव के भीतर एक रिक्तता पनप रही है। अंत:करण की रिक्तता को आध्यात्मिक प्रयोगों द्वारा भरा जा सकता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन की तीव्र अभीप्सा थी कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय हो क्योंकि उनका मानना था कि धर्म-शून्य विज्ञान खतरनाक है और विज्ञानशून्य धर्म अंधविश्वास है अतः वैज्ञानिक को धार्मिक और धार्मिक को वैज्ञानिक बनना चाहिए। कोरी आध्यात्मिकता गुहावासी संन्यासियों के लिए उपादेय हो सकती है पर उससे हर व्यक्ति लाभान्वित नहीं हो सकता। कोरी वैज्ञानिकता वैज्ञानिकों के लिए ग्राह्य हो सकती है, पर उससे आम आदमी का काम नहीं चल सकता। आज अपेक्षा है अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की। क्योंकि दोनों का लक्ष्य है-सत्य की खोज में नई दिशाएं खोलना, प्रयोग करना, परीक्षण करना और निष्कर्ष निकालना।' धर्म को असाम्प्रदायिक एवं प्रायोगिक रूप देने के लिए उन्होंने जनता के समक्ष एक त्रिवेणी प्रस्तुत की- अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवनविज्ञान । इन प्रयोगों से निश्चित रूप से धर्म का ऊर्जस्वल और तेजस्वी रूप निखरकर सामने आया है। वे कहते थे–'धर्मग्रंथों एवं धर्मस्थानों में बंधा हुआ धर्म मुझे प्रिय नहीं है। मैं धर्म को लोक-जीवन में उतरा हुआ देखना चाहता हूँ।... मैं धर्म को किसी वर्ग या जाति-विशेष के लिए नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक मानता हूँ। मानवतावादी धर्म सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है इसलिए हमें धर्म को और अधिक नवीनता, वैज्ञानिकता, उपयोगिता एवं प्रायोगिकता के संदर्भ में प्रतिष्ठित करना है।' Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अध्यात्म के प्रयोक्ता अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ साधक ही दूसरों को अध्यात्म की प्रेरणा दे सकता है। गुरुदेव तुलसी का नेतृत्व इतना जागृत था कि कहाँ, किसको, कब और कितनी प्रेरणा देनी है, इसमें वे कभी नहीं चूकते थे। साधना में उत्कर्ष एवं तेजस्विता लाने हेतु वे अनेक उपक्रम एवं प्रेरणाएं संघ के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे। वे अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते थे–'नए प्रयोगों की जानकारी करना और उन्हें अमल में लाना मेरी रुचि का विषय रहा है। मैं स्वयं प्रायोगिक जीवन जीना चाहता हूँ और संघ में वैसा ही देखना चाहता हूँ। मेरी यह आंतरिक तड़प है कि जो साधुसाध्वियाँ विशेष साधना में लगना चाहते हैं, उन्हें मैं विशेष अवसर और विशेष सुविधा दं। सेवा केन्द्र की भाँति साधना केन्द्र की कल्पना भी मेरे मन में है। व्यवस्था ऐसी हो जिससे संघ पर भी ज्यादा भार न पड़े और विशेष साधना के इच्छुक साधकों को मौका भी मिलता रहे।' बीकानेर चोखले में पूज्य गुरुदेव ने ८ साधुओं को साधना के विशिष्ट प्रयोग करने की अनुमति दी। मुनि सुखलालजी, किशनलालजी आदि संतों ने दस दिन तक अलग रहकर मौन और ध्यान की साधना की। पूज्य गुरुदेव साधक संतों का उत्साह बढ़ाने के लिए एक दिन उनके स्थान पर पधारे। सबको मौन और साधना में मस्त देखकर गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए। पूज्य गुरुदेव समय-समय पर विशिष्ट साधना करने वाले साधुसाध्वियों को पत्र के माध्यम से भी प्रेरणा और प्रोत्साहन देते रहते थे। साथ ही उनके अग्रिम पथ को प्रशस्त करने का मार्गदर्शन भी प्रस्तुत कर देते थे। यहां साध्वी प्रमुखा लाडांजी, साध्वी श्री राजकुमारी जी 'नोहर,' साध्वी आशावतीजी एवं मुनि हर्षलालजी को दिए गए पत्रों की कुछ पंक्तियां क्रमशः उद्धरणीय हैं * लाडांजी! अपनी आत्मा को अपने विचारों को इतना पवित्र बनाना है कि कहीं कोई मलिनता की बू तक न रहने पाए। क्षांति, मुक्ति आर्जव, मार्दव से आत्मा को भावित करके भावितात्मा बनना है। 'जीवियासामरणभयविप्पमुक्का' बनकर सर्वथा निर्विचार बनकर अनशनपूर्वक समाधि सम्पन्न पण्डित मरण प्राप्त करेंगे, तब ही हम कृतकृत्य होंगे। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३६ *"तुम्हारी मौन एवं ध्यान-साधना वर्षों से अबाध गति से चल रही है, वह प्रशस्य है। यह साधना मुझे इसलिए पसंद है कि इसमें अकर्मण्यता नहीं है। साधना को कर्म के साथ जोड़ दिया गया है। तपस्या भी साथ-साथ चल रही है। ऐसी साधना हमारे संघ को शक्तिशाली बनाती है। मैं अपनी ओर से तुम्हारी साधना के प्रति पुनः पुनः शुभकामना करता *"साधु जीवन में उपशम का सबसे बड़ा स्थान है अतः उसकी उपासना होनी चाहिए। जब कभी भी आवेग आए तो 'उवसमेण हणे कोहं' इसका चिन्तन करना चाहिए और आवेग को शांत करते रहना चाहिए। प्राणायाम और संकल्प शक्ति से मन को एकाग्र करने का प्रयास करते रहना चाहिए।" "लक्ष्य को सफल बनाने में प्रयत्नशील रहो। मन को समाधिस्थ, तन को स्वस्थ एवं वचन को संयत रखो, यही साधना का मार्ग है।" (आचार्य तुलसी के पत्र भाग २ पृ. ३) कभी-कभी प्रसंग विशेष पर गुरुदेव पत्रों में जप और ध्यान के प्रयोग का निर्देश भी देते रहते थे।"तुम्हारे इकचालीसवें जन्मदिन के उपलक्ष में शुभाशीष। ॐ अ. सि. आ. उ. सा. नमः'-यह सिद्ध मंत्र-जाप तुम्हारे मनोबल को मजबूत बनाएगा। आत्मविश्वास, स्मृति एवं शक्ति को समृद्ध बनाएगा। तुम अपने दृढ़ संकल्प से गंतव्य पथ पर बढ़ती चलो, यही मेरा संदेश है। . अध्यात्म की जो संपदा उन्हें विरासत में मिली, उसका प्रायोगिक रूप वे अपने धर्मसंघ एवं सम्पूर्ण मानव जाति में साकार देखना चाहते थे। वे किसी साधक पर साधना का कोई प्रयोग थोपते नहीं, प्रत्युत् हार्दिक भाव से हृदयंगम करवा देते थे। इस संदर्भ में उनका मंतव्य था कि मैं अपनी साधना को किसी पर लादना नहीं चाहता इसलिये मुझे कभी निराशा नहीं होती। उनके द्वारा दिये गये प्रतिबोधों की ये झलकियाँ अनेक साधकों को सक्रियता से कुछ प्रयोग करने की प्रेरणा देने वाली हैं * 'साधु जीवन साधना का जीवन है। साधुत्व स्वीकृति के साथ ही साधना का प्रारम्भ हो जाता है। साधक को याद रहे कि तब साधना का Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ अध्यात्म के प्रयोक्ता अथ होता है, इति नहीं। अथ को इति मानने का ही परिणाम है कि साधक-साधिकाएँ अपने को कृतार्थ मानने लगते हैं। फलस्वरूप प्रगति तो दूर, गति भी अगति हो जाती है और पचासों वर्ष पश्चात् भी वे वहीं खड़े प्रतीत होते हैं, जहाँ कि साधना के प्रथम दिन खड़े थे।' * 'मैं अनेक बार सोचता हूँ कि जीवन में कोई ऐसा परिवर्तन आना चाहिए जो स्वयं मेरे लिये तथा दूसरों के लिये भी प्रेरणादायी हो। केवल ढर्रे का जीवन जीना, यंत्र की तरह निश्चित दिनचर्या का होना किसी भी चिंतनशील व्यक्ति को प्रिय नहीं होता। इस दृष्टि से मैंने अपने जीवन को उत्तरोत्तर संशोधित पाया है।' *'मैं भारतीय जनता से अनुरोध करूँगा कि वह आध्यात्मिकता को पुरानी पुस्तकों में, पुट्ठों में ही बन्द न रखे। उसे जीवन-व्यवहार में उतारने का प्रयत्न करे। जैसे भोजन के भजन मात्र से पेट नहीं भरता है, वैसे ही केवल साधना एवं अध्यात्म के रटन मात्र से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। उसे प्रयोग में उतारना आवश्यक है।' * 'यदि आप बदलना चाहते हैं तो प्रयोग के पीछे पड़ जाओ, पागल हो जाओ, धुन में खो जाओ, अन्यथा बदलाव होना मुश्किल है।' * 'मैं सभी शिविर-साधकों से कहना चाहता हूँ कि आप स्वयं समर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, फिर स्वयं को दुर्बल क्यों बना रहे हैं? आप भूल जाइए इस बात को कि सत्य की खोज हम क्यों करें? उसे तो तीर्थंकरों ने पहले ही खोज लिया। हम क्यों प्रयत्न करें? हमारे पूज्य अर्हतों ने जो कुछ खोजा और पाया, हम तो उसी के सहारे चलते रहेंगे। आप ऐसा सोच सकते हैं किन्तु मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि तीर्थंकरों ने कितना भी खोज लिया हो पर आपकी खोज बाकी है। आपके सामने तो अभी भी सघन तिमिर है। आप प्रयत्न करें, किसी के खोजे हुये सत्य पर रुकें नहीं। वह आपके काम नहीं आएगा। आपको अपने पुरुषार्थ से खोज करनी है। इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि आप स्वयं सत्य खोजें।' ___ आचार्य-पद का विसर्जन उनके जीवन का अनुपम आध्यात्मिक प्रयोग कहा जा सकता है। इस संदर्भ में उनके ये विचार पठनीय हैं * 'मैंने अपने जीवनकाल में आचार्यपद का विसर्जन कर किसी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी परम्परा का सूत्रपात नहीं किया है। इस संबंध में मैं अनेक बार कह चुका हूं कि यह मेरा अपना प्रयोग है। इसे परम्परा न बनाया जाए। आचार्य पद का विसर्जन करने के बाद में मैं अपने आपको हल्का अनुभव कर रहा हूँ। शासननियन्ता होने के कारण धर्मसंघ की प्रत्येक गतिविधि पर मेरी नजर अवश्य रहती है। किन्तु मुझ पर जो दायित्व था, उससे मैं सर्वथा मुक्त हूँ।' अनुशासन का भार आचार्य महाप्रज्ञ को देने के बावजूद आध्यात्मिक प्रेरणा देने के कार्य में वे कभी श्लथता का अनुभव नहीं करते थे। संघीय दायित्व से मुक्त होने के कारण वे इस कार्य में और अधिक समय लगाते थे। उनका यह संकल्प इसी बात की संपुष्टि करता है-'मैंने अपना दायित्व महाप्रज्ञजी को सौंप दिया है फिर भी ठहराव में मेरी रुचि नहीं है। मैं अब भी तत्परता से काम कर रहा हूँ। जीवन के आखिरी क्षण तक मैं इसी प्रकार काम करता रहूँ, आचार्य भिक्षु के पदचिह्नों पर चलता रहूँ और उनके द्वारा प्रज्वलित अध्यात्म की लौ का प्रकाश फैलाता रहूँ, यही अभीप्सा पूज्य गुरुदेव की उदग्र आकांक्षा थी कि अध्यात्म के आलोक से समस्त मानव जाति अभिस्नात हो इसलिए उन्होंने साहित्य के माध्यम से भी आध्यात्मिक पाथेय एवं प्रेरणा देने का प्रयास किया। अध्यात्म के अनेक प्रयोग उनके साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। श्रावक संबोध' में वे असहिष्णुता की समस्या का प्रायोगिक समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं सहिष्णुता हो, सहिष्णुता हो केवल रट से, सहनशील सहसा कोई कैसे बन पाए। हो प्रयोग 'तुलसी' प्रेक्षा-प्रयोगशाला में, परमाधामी पति भी परमात्मा बन जाए॥ सन् १९६२ में गुरुदेव ने योग विषयक मनोनुशासनम् ग्रंथ की रचना की, जिसमें योग विषयक ज्ञान और प्रयोग दोनों का समावेश किया गया। इसके अतिरिक्त अर्हत्वाणी, प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा, अध्यात्म पदावली आदि ग्रंथ भी विशुद्ध आध्यात्मिक एवं साधनापरक ग्रंथ हैं। व्यवहार बोध में उन्होंने अध्यात्म का व्यावहारिक एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया है। उनके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता महान चिंतन से प्रसूत शताधिक कालजयी कृतियाँ अध्यात्म की दिव्य ज्योति विकीर्ण करती हुई साधकों को आलोक प्रदान कर रही हैं। __सत्य की खोज चाहे वह पदार्थ जगत् की हो या आत्मजगत् की, प्रयोग के साथ निरन्तर अभ्यास आवश्यक है। एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है तो वह स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रयाण करता है। इसी प्रकार आत्मज्ञानी साधक भी स्थूल आलम्बन से सूक्ष्म आलम्बन की ओर आगे बढ़ता है। अभ्यास के बिना कोई भी प्रयोग पक नहीं सकता। यदि प्रयोग क्रमिक विकास के साथ होता है तो उसमें सफलता मिलती है, अन्यथा प्रयोगों की सफलता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का मंतव्य मननीय है-'भारोत्तोलन का अभ्यास करने वाले खिलाड़ी पहले पाँचसात किलो वजन उठाते हैं, फिर दस-बारह किलो उठाते है और अभ्यास को बढ़ाते-बढ़ाते चालीस-पचास किलो तक पहुँच जाते हैं। यही बात आत्मपरिशोधन के उपायों की है। कोई साधक साधना प्रारम्भ करते ही बहुत ऊंचे और सूक्ष्म प्रयोग करने लगे तो वह साधना में उपस्थित बाधाओं से घबरा जाता है, पीछे हट जाता है या अपना मार्ग बदल लेता है।' सन् १९६४ बीकानेर का प्रसंग है। तब तक प्रेक्षाध्यान पद्धति का प्रारम्भ नहीं हुआ था। गुरुदेव की प्रेरणा से संतों में सामूहिक ध्यान का उपक्रम प्रारम्भ हुआ। पद्मासन में बैठकर सभी साधु श्वास पर ध्यान केन्द्रित करते थे। श्वास आ रहा है और जा रहा है, इसको देखने में चित्त को एकाग्र किया जाता था। एक मुनि ध्यान में तंद्रा का अनुभव करने वाले साधुओं को जागृति का संकेत देने के लिए नियुक्त थे। उस समय के ध्यान का अनुभव लिखते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- "इस प्रायोगिक क्रम में समय कैसे निकल जाता, पता ही नहीं चलता। मेरी इच्छा थी कि संघ में विशाल पैमाने पर यह प्रयोग चलता रहे। इस संदर्भ में मेरा मन यही कहता है "साफल्यं प्राप्यये गुरुकृपात्" मैं गुरु-कृपा से अवश्य सफलता प्राप्त करूंगा।" ___अपने जीवन से संबंधित विशिष्ट दिवसों पर वे कुछ न कुछ प्रयोग ग्रहण करने का संकल्प अवश्य करते थे। वे कहते थे कि मुझे जो सत्य उपलब्ध हुआ है, उसे मैं प्रयोग की कसौटी पर कसता रहता हूँ और Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी अनुभूत प्रयोग को जनता के समक्ष प्रस्तुत करता रहता हूँ क्योंकि प्रायोगिक जीवन में विश्वास हुए बिना जीवन की कला नहीं सीखी जा सकती। उनके व्यक्तिगत जीवन के प्रयोगों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत की जा सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से उनके द्वारा किये गये सभी प्रयोगों की ऐतिहासिक दृष्टि से सुरक्षा नहीं हो पाई फिर भी उपलब्ध प्रयोगों का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। इनको प्रस्तुत करने का उद्देश्य इतना ही कि जनता को उनके प्रायोगिक जीवन की कुछ झलक मिल सके। इन विभिन्न प्रयोगों के पीछे गुरुदेव का एक ही दृष्टिकोण रहा- आत्मबोध, आत्म-जागरण एवं आत्म-नियंत्रण। यहाँ उनके व्यक्तिगत साधना के प्रयोगों की कुछ झलकियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं। आहार-संयम के प्रयोग साधना के साथ आहार का बहुत गहरा संबंध है। आहार जितना सात्त्विक और शुद्ध होता है, साधना के क्षेत्र में उतनी ही सहज गति हो सकती है। विषय-विरक्ति एवं मोह-विजय का प्रथम साधन है- खाद्यसंयम। इसलिए साधक खाने के लिए नहीं जीता वरन् जीने के लिए खाता है। साधारण आदमी स्वाद के लिए खाता है, वहाँ साधक भोजन को जीवन-निर्वाह का साधन मानता है। खाद्य-संयम और साधना में अविनाभावी सम्बन्ध स्थापित करते हुए गुरुदेव कहते हैं आत्म-साधना का यदि, करना हो प्रारम्भ। सुखद खाद्य-संयम करो, बन विरक्त अविलम्ब॥ उचित खाद्य-संयम बिना, गति होती अवरुद्ध। सेना सेनानी बिना, करे कहां तक युद्ध?॥ 'व्यवहार-बोध' में भी पूज्य गुरुदेव ने साधकों के समक्ष यही तथ्य प्रस्तुत किया है जीने का उद्देश्य आत्महित, साधन उसका यह तन है। .. हो इसका समुचित संपोषण, इसी दृष्टि से भोजन है॥ 'पूज्य गुरुदेव अतिमात्रा में, अधिक बार, अधिक द्रव्य खाना पसंद नहीं करते थे। उनका मंतव्य था कि अधिक द्रव्य खाने से कुछ न Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता कुछ अधिक खा लिया जाता है अतः कम द्रव्य खाकर मैं जितना संतुष्ट रहता हूँ, उतना अधिक द्रव्य लेकर नहीं रहता।' इसी कारण आचार्य बनने ४१ बाद लम्बे समय तक उन्होंने नौ द्रव्य (खाद्य पदार्थ) से अधिक न खाने का दृढ़ संकल्प निभाया। डायरी के पृष्ठ भी उनके पदार्थों के खाद्य-संयम की ओर इंगित करते हैं - * 'इस बार पर्युषण में सिर्फ सात द्रव्य लग रहे हैं। उनमें दूध, चीनी, फुलका, तोरई का साग, पानी तथा दो और कोई। कुछ मन पर काबू जरूर रखना होता है। बाकी बड़ा आनंद रहता है । १५ दिन में सिर्फ एक बार कढ़ाई विगय लगी। प्रतिदिन तीन विगय से अधिक चातुर्मास भर में शायद न लगी। बड़ा आनंद है।' 'इस बार आषाढ़ शुक्ला ११ से खाद्यसंयम चल रहा है। १३ द्रव्य के उपरांत प्रायः नहीं लगते । पानी भी इन्हीं में है। उपवास का पारणा करने में भी इतने द्रव्यों से काम चल जाता है। कठिनाई जरूर पड़ती है, क्योंकि किसी को पता नहीं है अतः आशंका जरूर हो रही है कि क्या बात 'है? मेरी इच्छा है कि चल सके तो चातुर्मास भर चलाएं।' अनेक मनोज्ञ द्रव्यों की उपस्थिति में भी उनके मानस में दशवैकालिक की निम्न गाथा तरंगित होती रहती थी जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वई । साहीणे चयई भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥ उक्त आगम वाक्य को चरितार्थ करने वाली यह घटना अनेक साधकों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करेगी। सन् १९५८ लखनऊ का 'घटना प्रसंग है। भोजन प्रायः समाप्ति पर था । गुरुदेव ने मोटे भुजिए के दो-तीन टुकड़े हाथ में उठाए । खाने के लिए हाथ कुछ ऊपर उठा पर आत्मचिंतन ने हाथ की गति को वहीं रोक दिया। दो क्षण पश्चात् भुजिए के टुकड़े गुरुदेव ने वापिस पात्र में रख दिए। पास में खड़े संत ने भुजिए न खाने का कारण पूछा। गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'क्या यह खाना आवश्यक है ? भोजन हो गया, पेट भर गया, उसके बाद यह खाना स्वादवृत्ति का ही एक रूप है। जीभ को संतोष देना साधक का ध्येय नहीं होना चाहिए। उसका ध्येय होना चाहिए शक्तियों को जागृत करना । ' Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी __ भोजन करके हाथ धोने के बाद कितनी ही मनोनुकूल या स्वास्थ्य के लिए हितकर चीज उपस्थित हो जाए पर गुरुदेव उसे ग्रहण नहीं करते थे। साधु-साध्वियों की अत्यन्त मनुहार या आग्रह होने पर भी वे अपने इस संकल्प को दृढ़ता से निभाते थे। कभी किसी के अनुरोध को स्वीकार भी करना पड़ता तो वह उन्हें रुचिकर नहीं लगता। कानपुर चातुर्मास का प्रसंग है। भोजन के अंत में गुरुदेव को पीपलपाक (मुखवास) के लिए प्रार्थना की गई पर गुरुदेव ने इंकार कर दिया। निषेध करने पर भी मुनिश्री के द्वारा बार-बार प्रार्थना की गई। तीव्र अनुरोध के आगे गुरुदेव को झुकना पड़ा। उन्होंने पीपलपाक का एक टुकड़ा अपने हाथ में लिया। टुकड़ा हाथ से छूटकर नीचे गिर गया। मुनिश्री ने दूसरा टुकड़ा ग्रहण करने का अनुरोध किया लेकिन गुरुदेव ने उसे लेने से इंकार करते हुए कहा-'प्रकृति खाने से इंकार कर रही है।' लगता है प्रकृति भी संयमी पुरुषों के विचारों के अनुकूल बन जाती है। ___ अस्वाद की साधना अनासक्ति से जुड़ी हुई है। जब तक साधक अनासक्ति का अभ्यास नहीं करता, तब तक हर अच्छे या बुरे पदार्थ में उसकी चेतना राग-द्वेष से संपृक्त हो जाती है। महावीर ने साधक को "बिलमिव पन्नगभूए' सूक्त के द्वारा अस्वाद वृत्ति की सुन्दर प्रेरणा दी है। जैसे सर्प इधर-उधर देखे बिना सीधा बिल में घुस जाता है, वैसे ही साधक बिना स्वाद लिए भोजन को चबाकर सीधा निगल जाए। भोजन के विषय में पूज्य गुरुदेव का मानस इतना सध गया था कि उनके लिए प्रिय-अप्रिय, रुचिकर-अरुचिकर, स्वाद-बेस्वाद जैसे प्रश्न गौण हो गए थे। दशवैकालिक के निम्न पद्य के साथ उनका इतना तादात्म्य हो गया था कि क्षण मात्र भी उसकी विस्मृति नहीं होती थी तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरंलवणंवा। एय लद्धमन्न?पउत्तं, महुघयं व भुंजेज संजए॥ ... साधुओं को अनेक बार साम्यभाव की प्रेरणा देते हुए वे कहते थे-'भिक्षा में कभी खट्टा मिलता है, कभी मीठा, कभी तीखा, कभी कड़वा और कभी कसैला। कभी सरस तो कभी नीरस, कभी मनोनुकूल तो कभी प्रतिकूल । साधना कहती है कि भिक्षा में जो मिले, उसे समभाव से Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता खाएं । मनोनुकूल भोजन की प्रशंसा करके खाना संयम को कोयला बनाना है। अमनोज्ञ भोजन की निंदा करके खाना संयम को धुंआ बनाना है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ भोजन को समभाव से खाना संयम को पुष्ट बनाना है।' संसार में ऐसे व्यक्तियों की संख्या अधिक है जो भोजन के इंतजार में जीवन के कई कीमती क्षणों को गंवा देते हैं। भोजन सामने आने के बाद लालसा का संवरण करना तो और भी अधिक कठिन है। लेकिन गुरुदेव के जीवन में ऐसे प्रसंग अनेक बार देखे जाते जब आहार का समय होने पर या आहार की पूर्व तैयारी कर लेने पर भी यदि गुरुदेव किसी को तत्त्व समझाने में व्यस्त होते या कभी किसी की वैयक्तिक समस्या के समाधान में स्वयं को डुबोए रहते तो वे आहार को गौण कर चालू प्रसंग को ही मुख्यता देते। जब संत भोजन के लिए निवेदन करते तो वे कहते'आहार को प्राथमिकता नहीं, कार्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। मुझे लोगों की बुराई छुड़ाने में जो रस मिलता है, वह भोजन में नहीं।' सन् १९५८ का घटना प्रसंग है। पात्र में दूध ठंडा हो रहा था। गुरुदेव पत्र पढ़ रहे थे। संतों ने निवेदन किया-'दूध ठंडा हो रहा है।' गुरुदेव ने फरमाया'दूध की अपेक्षा पढ़ना रुचिकर लगता है।' अनेक बार गुरुदेव जब काव्यसंरचना में तल्लीन रहते तो भिक्षा की झोली सामने पड़ी रहती पर वे साहित्य-सृजन में ही आनंद का अनुभव करते। उनके जीवन से यह स्पष्ट प्रतीत होता था कि अध्ययन, अध्यापन, प्रशिक्षण, ध्यान एवं स्वाध्याय में उन्हें जो रस मिलता, वह खाद्य-पदार्थों में नहीं। पूज्य गुरुदेव के खाद्य संयम का अभ्यास अनेक रूपों में प्रकट हुआ। आहार-संयम को उन्होंने अपनी व्यक्तिगत तपस्या का अंग तो बनाया ही, साथ ही साथ संघ या साधु-साध्वियों पर जब कभी विपत्ति के बादल मंडराए, गुरुदेव ने आत्मबल एवं संघबल बढ़ाने हेतु खाद्य-संयम के विशेष प्रयोग शुरू कर दिए। साधु-साध्वियों के सिंघाड़े जब प्रथम बार सौराष्ट्र में गए तो उन्हें स्थान, गोचरी आदि की दुविधा झेलनी पड़ी। साम्प्रदायिकता के कारण उन्हें क्षेत्रीय कठिनाई का सामना भी करना पड़ा। जब गुरुदेव को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने विगय-वर्जन एवं आहार-संयम का प्रयोग प्रारम्भ कर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी दिया। निकटवर्ती साधु-समुदाय ने इसका कारण जानना चाहा पर गुरुदेव मौन रहे। इस प्रयोग को उन्होंने तब तक चालू रखा जब तक संतों के कुशलक्षेम के संवाद उन्हें नहीं मिल गए। प्रयोग प्रारम्भ करने का प्रयोजन भी उन्होंने तभी प्रकट किया। इस घटना से सौराष्ट्र में विचरण करने वाले साधु-साध्वियां ही नहीं, सम्पूर्ण संघ अभिभूत एवं गद्गद हो गया। . ___ इसी प्रकार इंदिरा गांधी के शासनकाल में पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार की घटना घटी। उससे पंजाब का जन-जीवन आतंकित और अस्तव्यस्त हो गया। संचार व्यवस्था ठप्प हो गयी। उस समय पंजाब में अनेक साधु-साध्वियां विचरण कर रहे थे। गुरुदेव ने संकल्प किया, जब तक साधु-साध्वियों के सुख-संवाद नहीं मिलेंगे, दूध का प्रयोग नहीं करूंगा। उन दिनों गुरुदेव लाडनूं से जोधपुर की ओर विहार कर रहे थे। उम्र के हिसाब से विहार में थकावट आनी तो स्वाभाविक थी। साधु-साध्वियों ने दूध ग्रहण करने का आग्रहपूर्ण अनुरोध किया किन्तु गुरुदेव अपने संकल्प पर अडिग रहे। लाडनूं से नागौर तक यह संकल्प चला। यद्यपि नागौर से पूर्व पंजाब के साधु-साध्वियों के कुशलक्षेम के संवाद पहुंच गए थे किन्तु . जब तक एक-एक वर्ग के पूरे संवाद नहीं मिले, गुरुदेव ने दूध ग्रहण नहीं किया। दूध छोड़ने के पीछे उनका केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही नहीं रहा, मानवीय एवं करुणा का चिंतन भी रहा। सन् १९७५ में कलकत्ता एवं जयपुर समाज में आपसी वैमनस्य एवं टूटन की स्थिति उत्पन्न हो गई। समझाने पर भी समाधान की कोई रेखा दिखाई नहीं पड़ी। इस विग्रह के उपशमन हेतु गुरुदेव ने लगातार एक माह के एकाशन का प्रयोग किया। तपस्या का यह प्रयोग किसी पक्ष पर दबाव डालने के लिए नहीं किया गया था। महात्मा गांधी की भांति आत्मबल को बढ़ाने का एक अहिंसात्मक प्रयोग था, जो काफी अंशों में सफल रहा। ध्यान एवं योग की विशिष्ट साधना खाद्य-संयम के साथ जुड़ी हुई है। यदि साधक का आहार-विवेक जागृत नहीं है तो वह ध्यान की गहराई में उतरकर ऊर्ध्वारोहण नहीं कर सकता और न ही साधना में निखार ला सकता है अत: साधक को भोजन के प्रति अत्यधिक जागरूकता रखनी आवश्यक है। इस संबंध में गुरुदेव साधकों को दिशा-निर्देश देते हुए कहते थे–'साधक को अन्वेषण करते रहना चाहिए कि अमक पदार्थ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अध्यात्म के प्रयोक्ता का शरीर और मन पर क्या असर पड़ता है ? जिस पदार्थ को खाने से स्वास्थ्य और ध्यान में बाधा आए, उससे बचते रहना चाहिए। मेरा अनुभव है कि शाम को हल्का भोजन करने से शरीर में स्फूर्ति और मन में प्रसन्नता बनी रहती है। गरिष्ठ भोजन से आलस्य बढ़ता है और स्वाध्याय, ध्यान में मन नहीं लगता। इसी प्रकार जीवन के छह दशकों तक प्रातः नाश्ते का परिहार भी उनका विशिष्ट अनुभूत प्रयोग है। खाद्य-संयम का एक और अनुभव उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'मेरा अनुभूत प्रयोग है कि अन्न की अधिक मात्रा शरीर, मन और जीवन किसी के लिए लाभप्रद नहीं है । संतुलित, सात्विक और हल्का भोजन शरीर और मन दोनों को सशक्त बनाता है और उससे जीवनी शक्ति पुष्ट होती है । ' आचार्य महाप्रज्ञ गुरुदेव तुलसी के खाद्य-संयम की साधना से बहुत प्रभावित हैं । वे गुरुदेव के खाद्य-संयम के प्रयोगों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं - ' खान-पान के सम्बन्ध में गुरुदेव ने वाणी और मन पर जो नियंत्रण किया, वह आश्चर्य जैसा है। शाक में नमक अधिक या कम हो, दूसरी कोई वस्तु कैसी ही हो, उसके बारे में आहार कर चुकने से पहले कुछ कहना तो दूर की बात है किन्तु चेहरे पर अन्यथा भाव तक नहीं जताते । ' ... अमुक-अमुक वस्तु के खाने या न खाने से शरीर तथा मन पर क्या असर होता है, इसकी लम्बी सूची गुरुदेव के अनुभव में थी। संतों को भी अस्वादवृत्ति की प्रेरणा देते हुए उनका यही स्वर मुखर होता था'भोजन के सम्बन्ध में अधिक चर्चा करना, अच्छा-बुरा कहकर उसमें गृद्ध होना, नाक-भौंह सिकोड़ना, मैं गृहस्थ के लिए भी ठीक नहीं मानता, साधु लिए तो यह सर्वथा अवांछनीय है ।' गुरुदेव ने एकान्तवास एवं विशिष्ट प्रयोगों के अवसर पर खाद्यसंयम पर विशेष बल दिया, जिससे उनकी साधना से मिलने वाली निष्पत्ति सहज साध्य हो गई। हिसार प्रवास में गुरुदेव ने २७ दिन का एकान्तवास किया। अनुष्ठान में केवल सफेद द्रव्य लेने का ही संकल्प था । यद्यपि सफेद खाद्य पदार्थ अनेक होते हैं किन्तु पूज्य गुरुदेव ने केला और दूधइन दो पदार्थों को ही ग्रहण किया। उसकी मात्रा भी स्वल्प थी। दिन भर में Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ४६ तीन पाव दूध तथा दो या तीन केले। तत्कालीन खाद्य-संयम का अनुभव उनकी भाषा में ही पठनीय है-'प्रारम्भ में मुझे संदेह था कि मैं अन्न के बिना केवल दूध पर रह सकूँगा या नहीं किन्तु अन्न छोड़ने की कोई अन्यथा प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैं अपने आपको पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ और स्फूर्तिमान् अनुभव कर रहा हूं। शरीर थोड़ा कृश लगता है किन्तु शक्तियां बढ़ रही हैं और वजन बिल्कुल कम नहीं हुआ है। शौचक्रिया, निद्रा और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आया है। मुझे कुछ भी अन्यथा प्रतीत नहीं हो रहा है और न भोजन में किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा प्रतीत होती है।' बचपन से ही पूज्य गुरुदेव की खाद्य-संयम की साधना शुरू हो गई थी।अपने पुराने अनुभवों को याद करते हुए दिल्ली के एक प्रवचन में गुरुदेव ने फरमाया-'बचपन में हमें दूध तो कभी-कभी ही मिला करता था। जब कभी उपवास का पारणा होता या और कोई विशेष बात होती तब ही हम दूध पीया करते थे। मैं तो समझा करता था कि दूध भी क्या कोई सदा पीने की चीज होती है? इसी प्रकार मिष्ठान्न भी हम कभी-कभी खाते थे। पर मेरे मन में इसकी अतृप्ति कभी नहीं रहती थी।' बाल्यावस्था में दीक्षित होने पर भी खाने की किसी अच्छी चीज के प्रति उनका आकर्षण प्रकट नहीं हुआ। स्वल्पमात्रा में प्राप्त वस्तु को अपने पास अध्ययनरत साधुओं को खिलाकर ही गुरुदेव संतुष्टि एवं आनंद का अनुभव करते थे। उनके इस बड़प्पन एवं संयम ने उन्हें छोटी उम्र में ही प्रतिष्ठित कर दिया। विधिवत् खाद्य-संयम का प्रयोग गुरुदेव ने सन् १९४४ में प्रारम्भ किया। प्रथम चरण में पूज्यपाद ने एक वर्ष के लिए उन चीजों का परिहार किया, जिनके प्रति बचपन में उनके मन में कुछ आकर्षण था, जैसेरामखिचड़ी, पापड़ आदि। . स्वाद-विजय के लिए गुरुदेव ने कुछ समय के लिए मिर्च मसालों का परिहार किया। सामान्य व्यक्ति को नमक-मिर्च विहीन भोजन अरुचिकर या अमनोज्ञ लग सकता है किन्तु आत्मजयी साधक के लिए रसना का स्वाद उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता, जितना शरीर की पूर्ति के लिए भोजन करना। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ अध्यात्म के प्रयोक्ता पूज्य गुरुदेव का एक अन्न से अधिक अन्न न खाने का संकल्प भी अनेक महीनों तक चला। प्रायोगिक रूप से एक अन्न खाने का संकल्प इतना सरल नहीं है पर गुरुदेव के अटल मनोबल के सम्मुख सभी संकल्प सहज एवं सरल हो जाते थे। सन् १९६१ बीदासर चातुर्मास में किए गए खाद्य-संयम के प्रयोग उन्हीं की भाषा में पठनीय हैं * 'बीदासर पहुंचने से पहले ही मैंने खाद्य-संयम के कुछ प्रयोग करने की बात सोची थी। पहला प्रयोग श्रावण कृष्णा एकम को किया। उपवास के पारणे में पहले पानी में नींबू का रस लिया, फिर थोड़ासा दूध लिया। उस दिन अन्न, मिठाई आदि का सेवन नहीं किया। दिन में भी दूध, फल आदि हल्का आहार लिया। पेट ठीक रहा। तन्द्रा में कमी रही। रात्रि में दस बजे से साढ़े तीन बजे तक एक ही नींद आई। अन्नपरिहार का प्रयोग तीन दिन तक किया। किसी प्रकार की कोई कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। चित्त प्रसन्न रहा। अन्न के प्रति कोई आकर्षण पैदा नहीं हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि इस रूप में पन्द्रह दिन प्रयोग किया जाए तो भी कोई असुविधा नहीं होगी। फिर भी प्रथम प्रयोग तीन दिन का ही किया। समय-समय पर कुछ और प्रयोग करने का मानस बना।' __ * 'दो दिन बाद खाद्य-संयम की दृष्टि से भोजन में एक अन्न लिया। केवल गेहूं की रोटी ली। बाजरी, मोठ, मूंग, दाल, चावल आदि कुछ नहीं लिया। निराहार रहने में जितनी प्रसन्नता हुई, उतनी इस प्रयोग में नहीं हुई। मैं अन्न छोड़ना चाहता था पर वातावरण अनुकूल नहीं था। मैंने जब भी इस विषय में चर्चा की, एक ही तर्क दिया गया कि अन्न नहीं लेने से कमजोरी बढ़ेगी। मातुश्री की भी सहमति नहीं थी। एक अन्न वाला प्रयोग कुछ दिन किया, पर किसी को ज्ञात नहीं होने दिया। ज्ञात हो जाता तो उसे चलाना भी कठिन था। मुझे ऐसा लगा कि छोटे-से संकल्प को निभाने में भी कई दिक्कतें आ जाती हैं।' * अष्टमी के दिन एकाशन किया। एकाशन में एक समय भोजन करना होता है। उसमें अधिक खा लिया जाए तो एकाशन भी व्यशन बन जाता है। मैं अधिक खाना नहीं चाहता था पर आग्रह से कुछ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी अधिक खा लिया। दूसरों की दृष्टि में मेरा खाद्य-संयम काफी पुष्ट था, किन्तु मुझे उससे संतोष नहीं था। इसी दृष्टि से मैं कुछ प्रयोग कर रहा था।' __ सन् १९८२ में पूज्य गुरुदेव ने खाद्य-संयम के अनेक उपक्रम प्रारम्भ किए। इस वर्ष के दौरान गुरुदेव लाडनूं से राणावास चातुर्मास हेतु पधार रहे थे। बोरावड़ में अक्षय तृतीया के भव्य आयोजन के अवसर पर गुरुवर ने चीनी एवं गुड़ से बनी सब चीजों का परिहार कर दिया। तेरह वर्ष तक उनका यह प्रयोग अखंड रूप से चला। सामान्य मनोबल वाला व्यक्ति चीनी एवं चीनी से बनी चीजों के परिहार की बात सोच भी नहीं सकता। लोग वृद्धावस्था में पाचन शक्ति कमजोर हो जाने पर भी मिठाई छोड़ना नहीं चाहते। अनेक व्यक्ति तो मधुमेह जैसी खतरनाक बीमारी से पीड़ित होने पर भी मिठाई के प्रति आसक्ति को नहीं छोड़ पाते। वे इंसुलिन के इंजेक्शन या टेबलेट लेकर भी अपनी इस आसक्ति को पूरा करते हैं। - राणावास चातुर्मास में गुरुदेव ने चार मास के लिए दूध का परिहार किया। इस प्रयोग को बालोतरा और जोधपुर चातुर्मास में दो मास तथा आमेट में एक मास के लिए फिर पुनरुक्त किया। सावन मास में दूध न लेने का प्रयोग पिछले कई सालों से चल रहा था। प्रतिदिन जिस चीज को लेने की प्रकृति हो अथवा जो दैनिक जीवन के लिए अनिवार्य हो उसे एक साथ छोड़ देना अप्रतिबद्धता और अनासक्ति का महान् निदर्शन है। कई वर्षों तक गुरुदेव को आहार परोसने का सौभाग्य मुनि मधुकरजी को प्राप्त हुआ। वे गुरुदेव की अनासक्त साधना से बहुत प्रभावित हुए। उनका अनुभव है कि दो-तीन दिन लगातार किसी चीज को ग्रहण करने के बाद जब चौथे दिन वही चीज परोस दी जाती तो गुरुदेव उसे ग्रहण नहीं करते। . 'असणं असणकाले' आचारांग की इस उक्ति को उन्होंने अपने जीवन में पूर्णतया चरितार्थ किया। यही कारण है कि मध्याह्नकालीन भोजन के बाद सायंकालीन भोजन के बीच वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे। आमेट चातुर्मास के आखिरी महीने में गुरुदेव ने आहार-संयम का एक विचित्र प्रयोग किया। उस प्रयोग में दूध, दही आदि विगयपरिहार के साथ चुपड़ी चपाती भी काम में नहीं ली। भोजन की मात्रा भी अत्यन्त सीमित कर दी। प्रात: थोड़ी सी आछ, मध्याह्न एवं सायं भोजन में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता एक रूखी चपाती, केवल उबली सब्जी एवं थोड़े से चावल के अतिरिक्त गुरुदेव कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे। साधु-साध्वियों का आग्रह रहा कि इस प्रयोग से शारीरिक दुर्बलता आ सकती है अतः इस प्रयोग को सम्पन्न किया जाए पर अच्छा और उपयोगी मानकर गुरुदेव एक माह तक अनवरत उस प्रयोग को चलाते रहे। _ अस्वास्थ्य की स्थिति में भी पूज्य गुरुदेव खाद्य-संयम के प्रयोग को ही प्रमुखता देते थे। सन् १९६१ में गुरुदेव को प्रतिश्याय हो गया। संतों ने औषधि के लिए आग्रह किया। किन्तु गुरुदेव ने पूज्य कालूगणी द्वारा निर्दिष्ट प्रयोग प्रारम्भ किया। तीन दिन तक केवल मूंग की दाल और रूखी बाजरे की रोटी का प्रयोग किया। 'संस्मरणों के वातायन' में गुरुदेव अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं- "सहज रूप से खाद्य-संयम हो गया। मानसिक प्रसन्नता रही। मैंने प्रतिश्याय को वरदान माना। स्वास्थ्य में भी कुछ सुधार हो गया।" खाद्य-संयम के ऐसे अनेक प्रयोग गुरुदेव समय-समय पर करते रहते थे। • खाद्य-संयम के साथ तपस्या के विविध प्रयोग भी उनके जीवन में चलते रहे। प्रारंभ के अनेक वर्षों में गुरुदेव प्रतिवर्ष १० प्रत्याख्यान का प्रयोग करते रहे। गुरुदेव का अनुभव रहा कि इस छोटी सी तपस्या में बड़ी आत्मशांति मिलती है तथा विशेष रूप से किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। तेले (तीन दिन का उपवास) का प्रथम प्रयोग गुरुदेव ने आगमसंपादन का कार्य प्रारंभ करने से पूर्व किया। इस अनुष्ठान में गुरुदेव के साथ चतुर्विध संघ ने भी अपनी शक्ति का परीक्षण किया। हिसार में सत्ताईस दिन के एकान्त अनुष्ठान का समापन भी गुरुदेव ने तेले से किया। उपवास का प्रयोग तो गुरुदेव करते ही रहते थे। उनकी दृष्टि में उपवास का अर्थ केवल भूखे मरना नहीं, अपितु आत्मा के सन्निकट रहना था। सन् १९८१ में गुरुदेव की सन्निधि में राष्ट्रीय स्तर पर जयाचार्य निर्वाण शताब्दी का विराट् आयोजन मनाया गया। इस अवसर पर गुरुदेव ने प्रति माह दो उपवास करने का संकल्प लिया, जो तीन साल तक अनवरत चला। लगभग ७० वर्ष की उम्र में उपवास के दिन उन्होंने पन्द्रह-सोलह Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी किलोमीटर का विहार तो किया ही पारणे के दिन भी विहार के क्रम में कोई अंतर नहीं आया। लगभग ३-४ किलोमीटर का विहार करके नवकारसी आने के बाद ही गुरुदेव रास्ते में पारणा करते फिर आगे की ओर चल पड़ते। सन् १९५० में उन्होंने अष्टमी चतुर्दशी को एकाशन का प्रयोग आरम्भ किया। लम्बे-लम्बे विहार, दिन में तीन-चार बार प्रवचन फिर भी महीने के चार एकाशन का क्रम नियमित चलता रहा। साधु-साध्वियों का अनुरोध रहता कि यात्रा के दौरान श्रम बहुत होता है अतः एकाशन का प्रयोग छोड़ दिया जाए लेकिन गुरुदेव का संकल्पबल परिस्थिति के आगे घुटने टेकने को मजबूर नहीं होता। सन् १९६० का घटना प्रसंग है। अष्टमी का दिन था। दो विहार का क्रम निर्धारित था। संतों और साध्वियों ने निवेदन किया-'आज आपको एकाशन नहीं करना चाहिए। विहार के साथ तीन बार प्रवचन भी किया है, लोगों की भीड़ के कारण भी आपको अतिरिक्त श्रम हुआ है।' गुरुदेव ने दृढ़ता से कहा-'संकल्प को निर्बल नहीं बनाना चाहिए। परीक्षा के क्षण कभी-कभी आते हैं। फिसलन के निमित्त पग-पग पर हैं पर संकल्प तभी फलवान् बनता है, जब उसमें दृढ़ता आती है।' सन् १९७५ और १९७६ में जयपुर और लाडनूं चातुर्मास के सावन मास में गुरुदेव ने एक मासिक एकाशन का प्रयोग किया। तपस्या के प्रति उनका मानसिक उत्साह प्रवर्धमान रहा। चतुर्विध संघ की भावना को देखते हुए वे लम्बी तपस्या नहीं करते पर उनकी तपस्या के प्रति उत्कट इच्छा समय-समय पर प्रकट होती रहती थी। सन् १९९६ लाडनूं चातुर्मास में दो मुनि अठाई का तप कर रहे थे। प्रात:काल वे गुरुदेव की सन्निधि में प्रस्तुत हुए। उनकी तपस्या पर हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया-'मैंने तेले के ऊपर तपस्या नहीं की है किन्तु इच्छा होती है कि एक अठाई मैं भी करूं। महाश्रमणीजी के अठाई की हुई है। जयाचार्य ने भी बारह की तपस्या की थी। लोग मासखमण कर लेते हैं, वर्षीतप कर लेते हैं, गजब करते हैं । तपस्या भी क्षयोपशम के बिना संभव नहीं है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता 'मायण्णे असणपाणस्स' यह आगम-उक्ति गुरुदेव का आदर्श सूत्र थी अतः स्वादवृत्ति हेतु वे आहार की मात्रा का अतिक्रमण कभी नहीं करते थे। भोजन परोसने वालों को यह अनुभूति निरन्तर होती रहती थी कि गुरुदेव ऊनोदरी तप का अभ्यास कर रहे हैं। भोजन-वेला में कुछ प्रश्न सदैव उनके मानस में तरंगित रहते थे। वे प्रश्न उन्हीं की काव्यमयी भाषा में पठनीय हैं क्यों? कैसे? कितना? कहां?, कब भोजन करणीय। भोजन वेला में रहें, ये बातें स्मरणीय। ये प्रश्न यदि हर व्यक्ति के प्रश्न बन जाएं तो बार-बार या अधिक खाने से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है। यहां उनकी अस्वादवृत्ति एवं खाद्य-संयम के कुछ प्रयोगों की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की गयी है। ऐसा लगता है लिखा बहुत कम है, अलिखा बहुत रह गया है। आसन-प्राणायाम .. आसन सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है। योगासन के नियमित अभ्यास से चैतन्य केन्द्रों को जगाया जा सकता है। आसन से नाड़ीसंस्थान में खिंचाव आता है, जिससे उसकी लम्बाई बढ़ती है और कार्यक्षमता विकसित होती है। योगासन स्वास्थ्य-सुरक्षा के जागरूक प्रहरी हैं। इनसे शरीर का प्रत्येक अंग सुडौल और शक्ति सम्पन्न बनता है। योगासन कष्ट-सहिष्णुता के विकास में सहायक बनते हैं। यही कारण है कि निर्जरा के बारह भेदों में काय क्लेश के अन्तर्गत इनका समावेश होता है। जो लोग खाद्य-संयम, स्वादविजय और आत्मनियंत्रण के साथ नियमित रूप से योगासन करते हैं, उनके अस्वस्थ होने का कोई कारण नहीं है। पूज्य गुरुदेव अपना अनुभव व्यक्त करते हुए कहते थे कि यद्यपि यात्रा एवं अन्य कार्य-विस्तार के कारण कभी-कभी आसन-प्राणायाम में नियमितता नहीं रहती लेकिन प्रयोग के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आसन-प्राणायाम के जब भी जितने प्रयोग मैंने किए, वे पूरे फलवान रहे हैं।" ज्योतिकिरण में योगासन से होने वाले लाभों की सूची इस प्रकार है* अंगों का सक्रिय संचालन। अंगों में पर्याप्त लचीलापन। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी देह - ममत्व का अल्पीकरण । कष्ट - सहिष्णुता का विकास। ध्यान की पूर्व भूमिका | शरीरगत तनावों से मुक्ति । रोग मुक्ति का सफल साधन । श्वास- क्रिया पर नियंत्रण । मांसपेशियों पर नियंत्रण | हड्डियों में लचीलापन। पर्याप्त ऑक्सीजन का ग्रहण । स्राव - परिवर्तन का अचूक उपाय । ताजगी और स्फूर्ति का अमोघ साधन । आध्यात्मिक पुरुष होने के कारण पूज्य गुरुदेव शरीर को पुष्ट करने के लिए नहीं, अपितु चेतना के ऊर्ध्वारोहण हेतु पिछले ४० वर्षों से प्रतिदिन योगासन एवं प्राणायाम का अभ्यास करते थे । वे इसे खुराक के रूप में स्वीकार करते थे । प्रातः प्रातराश करने में उन्हें इतना आनंद का अनुभव नहीं होता, जितना आसन करने में होता था। सन् १९९६ लाडनूं सुधर्मा सभा में लोगों को प्रतिदिन योगासन की प्रेरणा देने के लिए अपना अनुभव सुनाते हुए उन्होंने कहा- 'मैं जिस दिन आसन-प्राणायाम नहीं करता, लगता है उपवास हो गया है। मैं आसन आज भी बच्चे की भांति करता हूं। मेरा शरीर उतना ही लचीला एवं स्फूर्ति से भरा है, जितना एक बच्चे का होता है। योगासन के अभ्यास से ही मुझे सतत तारुण्य का अनुभव होता रहता है। योगासन में सातत्य नहीं रहता तो वे इतने फलदायी नहीं बन सकते इसलिए मैं भाई-बहिनों को प्रेरणा देना चाहता हूं कि शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन अनिवार्य रूप से योगासन करने चाहिए।' H H ५२ + पूज्य गुरुदेव व्यस्त कार्यक्रम में भी आसन-प्राणायाम के क्रम को तोड़ना नहीं चाहते थे और न ही इसके समय की कटौती करना चाहते थे । किसी कारणवश जिस दिन आसन-प्राणायाम का अभ्यास नहीं होता, उन्हें रिक्तता की अनुभूति होती थी । उनका अनुभव था कि भोज्य पदार्थों से शरीर में जो गरमी और सक्रियता आती है, वह स्थायी नहीं होती है पर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता आसन-प्राणायाम से जों ऊष्मा और सक्रियता मिलती है, वह स्थायी होती है। इससे बौद्धिक और मानसिक क्षमताओं का अकल्पित विकास होता है। आसनों के समुचित प्रयोग से ऊर्जा संतुलित होती है, शरीर में हल्कापन आता है, मानसिक प्रसन्नता, स्फूर्ति एवं दीप्ति बढ़ती है, अतिरिक्त चर्बी समाप्त होती है और स्नायविक दृढ़ता बढ़ती है।' । बंगाल यात्रा का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव आसन-प्राणायाम का अभ्यास कर रहे थे। अचानक उड़ीसा से अनेक दर्शनार्थी भाई वहां पहुंच गए। दर्शन के बाद मुनि श्रीचंदजी ने दर्शनार्थी भाइयों को वहां बैठने का निषेध कर दिया। वहां से उठते हुए एक भाई बोला-'उठो भाइयों! यह गुरुदेव के नाश्ते का समय है।' आचार्य बनने के बाद लगभग ४० सालों तक गुरुदेव प्रातःकाल नाश्ते में कुछ नहीं लेते थे, प्रहर करते थे अत: मुनिश्री ने कहा-'यह समय आहार का नहीं है।' गुरुदेव ने तत्काल मुनिश्री की बात को संशोधित करते हुए कहा-'क्या आसन से खुराक नहीं मिलती? आसन से जो पुष्टता प्राप्त होती है, वह अच्छे से अच्छे भोज्य पदार्थ से भी नहीं मिल सकती।' पूज्य गुरुदेव ने साधु-साध्वियों के लिए सात ध्रुव योगों का निर्धारण किया, जिसमें एक है-योगासन। पूज्य गुरुदेव हलासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन, पवनमुक्तासन, उत्तानपादासन, पश्चिमोत्तानासन, उत्कटुकासन, नाभिदर्शन, गोदोहिकासन आदि आसन प्रतिदिन करते थे। इसके अतिरिक्त पेट की कुछ क्रियाएं एवं प्राणायाम का क्रम भी नियमित चलाते थे। ८३ साल की उम्र में भी उनकी आसन-प्राणायाम के प्रति सघन निष्ठा उन लोगों को प्रेरणा देती थी, जो जवानी में भी हाथ-पैर हिलाना नहीं चाहते। कायोत्सर्ग की साधना कायोत्सर्ग अध्यात्म साधना की आधारभूमि है। यह देहाध्यास से मुक्ति का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। जब तक शरीर के प्रति ममत्व रहता है, पकड़ रहती है, कायोत्सर्ग की साधना का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता। महावीर ने स्थान-स्थान पर मुनि के लिए कायोत्सर्ग करने का विधान किया है तथा इसे सब दुःखों से मुक्त होने का उपाय बताया है। कायोत्सर्ग आत्मा को निर्मल, पवित्र, निःशल्य और विशुद्ध बनाने की प्रक्रिया है। मुनि Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ५४ की सारी प्रायश्चित्त-विधि कायोत्सर्ग पर आधारित है। कायोत्सर्ग का वाच्यार्थ स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा-'कायोत्सर्ग का अर्थ हैशरीर का व्युत्सर्ग, शरीर की सार-संभाल का अभाव, शरीर के प्रति ममत्व का विसर्जन तथा भेद-विज्ञान की चेतना का विकास।' कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर और चेतना के संयोग का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। यही वह क्षण होता है, जब अहंकार और ममकार की ग्रंथि का भेदन होता है। कायोत्सर्ग के बारे में पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि सुरक्षा कवच या बुलेटप्रूफ जैकेट पहनने वाले को जैसे गोली लगने का भय नहीं होता, उसी प्रकार गहरे कायोत्सर्ग में जाने के बाद प्रतिकूल परिस्थितियों का प्रभाव क्षीण हो जाता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन में अनेक ऐसे प्रसंग घटित हुए जो इस अनुभव को सत्यापित करने वाले हैं। एक बार डॉक्टर घोड़ावत ने गुरुदेव के रक्तचाप का निरीक्षण करके कहा-"आपका ब्लडप्रेशर अधिक है।" गुरुदेव ने कहा-'डॉक्टर साहब! थोड़ी देर ठहरो मैं अभी कायोत्सर्ग करता हूं, उसके बाद आप पुनः निरीक्षण करना।' पांच-सात मिनिट कायोत्सर्ग के बाद डाक्टर ने पुनः निरीक्षण किया। रक्तचाप में कमी आ गयी। डॉक्टर साहब कायोत्सर्ग के प्रभाव को देखकर विस्मित हो गए। कायोत्सर्ग से सम्बन्धित एक और अनुभव जो उन्हीं की भाषा में पठनीय है-"एक शाम मुझे बेचैनी का अनुभव हुआ। प्रतिक्रमण के बाद लेटा पर बेचैनी कम नहीं हुई। मुनि मधुकर, महाश्रमण मुदित और आचार्य महाप्रज्ञ आदि सब आ गए। रात का समय था। मधुकरजी ने मसाज शुरू की। सोचा, आज रात भर बैठना पड़ेगा। अचानक कायोत्सर्ग करने की इच्छा हुई। मैंने कहा-'मसाज छोड़ो, अब मुझे कायोत्सर्ग करने दो। महाश्रमण ने कायोत्सर्ग का प्रयोग कराया। मैं गहरे कायोत्सर्ग में चला गया। रात को अच्छी नींद आ गई। प्रात:काल उठा तो आगम का वाक्य स्मृति में आ गया-'काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं।' पूज्य गुरुदेव कायोत्सर्ग का अभ्यास नियत काल के लिए ही नहीं करते, निरन्तर चालू रखते थे। उनकी कायगुप्ति की साधना इतनी सधी हुई थी कि ४-५ घंटे एक आसन में बैठने के बावजूद भी वे अपने आसन से विचलित नहीं होते थे। उनकी कायिक स्थिरता सदैव बनी रहती थी। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रेक्षाध्यान का प्रयोग प्रारम्भ होने से पूर्व भी वे कायोत्सर्ग की साधना के प्रति सजग थे। वे स्वयं स्वीकार करते थे-'जिस समय हमारे संघ में प्रेक्षाध्यान का प्रयोग शुरू ही नहीं हुआ था, उस समय भी मैं शिथिलीकरण, खेचरीमुद्रा आदि का प्रयोग करता था। दिन में तीन-चार बार प्रवचन करने के बाद थकान का अनुभव होने पर भी मैं घूमता-फिरता कायोत्सर्ग किया करता था।' गुरुदेव का अनुभव था कि कायोत्सर्ग औषधि है, अनुपान है और स्वास्थ्य का राजमार्ग है। इस पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति स्वस्थ जीवन जी सकता है।' सामान्य व्यक्ति छोटी-सी वेदना में बेचैन होकर हिम्मत खो बैठता है किन्तु कायोत्सर्ग की साधना अस्वास्थ्य में भी प्रसन्नता की अनुभूति को कम नहीं होने देती। कायोत्सर्ग साधना की ही फलश्रुति थी कि गुरुदेव किसी भी शारीरिक वेदना की स्थिति में उदविग्न नहीं हए। वे हर परिस्थिति को सहज रूप से स्वीकार करते थे। सोंडागांव में गुरुदेव को खांसी का प्रकोप हो गया। संतों ने निवेदन किया-'गुरुदेव! खासी आती है।' गुरुदेव ने काकु ध्वनि में उत्तर दिया-'खासी कहां है, थोड़ी-थोड़ी आती है। खासी का एक अर्थ अधिक भी होता है।' यह अर्थ सुनकर सारे वातावरण में उन्मुक्त हास्य बिखर गया। बीमारी को विनोद के रूप में स्वीकार करना जीवन की एक बहुत बड़ी कला है, जो बिना कायोत्सर्ग की साधना के संभव नहीं है। . कुछ लोग शिथिलीकरण, शवासन और कायोत्सर्ग को एक मानते हैं लेकिन इस संदर्भ में गुरुदेव का अभिमत था कि कायोत्सर्ग का अर्थ शिथिलीकरण नहीं, अपितु जागरूकता एवं स्थिरता के साथ शरीर और चैतन्य के भेद का अनुभव करना तथा शरीर के प्रति होने वाली मूर्छा और ममत्व का त्याग करना है। कायोत्सर्ग सधने के बाद शरीरगत एवं मनोगत सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। — सन् १९९६ के लाडनूं प्रवास में 'महावीर का स्वास्थ्य शास्त्र' प्रवचनमाला का आयोजन रखा गया। प्रवचनमाला के दौरान एक दिन का विषय था-'कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य'। पूज्य गुरुदेव ने कायोत्सर्ग का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा-'बीमारियां सबको सूंघती हैं किन्तु Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी जहां शरीर-प्रतिबद्धता है, बीमारी को प्रश्रय दिया जाता है, वहीं वे टिकेंगी। यदि व्यक्ति शरीर से निरपेक्ष हो जाए, कायोत्सर्ग की साधना साध ले तथा बीमारी को इज्जत और आदर न दे तो बीमारी आएगी पर दुःख नहीं देगी। उसकी शक्ति कमजोर हो जाएगी। मेरी दृष्टि में कायोत्सर्ग बीमारी से लड़ने की सबसे बड़ी शक्ति है।' - पीपाड़ का घटना प्रसंग है। जेठ का महीना था। आंधी-तूफान तेजी से चल रहे थे। गर्मी बहुत तेज पड़ रही थी। गुरुदेव का सारा शरीर फुसियों से भर गया। शरीर रक्ताभ हो गया। खुजलाहट भी होने लगी। संत गुरुदेव के लिए हेजलीन लाए और निवेदन किया-'यह लगाने से आपको आराम रहेगा।' गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए फरमाया-'भाई! यह तो अमीर लोगों की दवा है। हम तो अकिंचन फकीर हैं। हमारे ऐसी दवाइयां काम नहीं आ सकतीं। हमारी दवा तो जब वर्षा आएगी और ठंडी हवा चलेगी, तब अपने आप हो जाएगी।' देह के पोषण में लगा व्यक्ति ऐसी बात सोच ही नहीं सकता। काया के प्रति ममत्व का उत्सर्ग करने वाला साधक ही शरीर के प्रति इतना निरपेक्ष हो सकता है। ____ कायोत्सर्ग का साधक इन्द्रिय-सुखों से ऊपर उठकर निरपेक्ष सुख में रमण करता है। वह शरीर की प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाता है। उसका अधिकांश समय आत्मा की सन्निधि में बीतता है। वोसठ्ठचत्तदेहे' इस आगम पद को स्मृति में रखते हुए पूज्य गुरुदेव ने शरीर की सारसंभाल में अधिक रस नहीं लिया। वे मानते थे कि हमारा ध्यान जितना देहाश्रित होगा, शरीर पर टिकेगा, उतनी ही चंचलता बढ़ेगी। पूज्य गुरुदेव ने कायोत्सर्ग की साधना को व्यावहारिक बनाने का प्रयत्न किया अतः सामान्य व्यक्ति भी उनके इस प्रयोग से लाभान्वित होकर अपने जीवन में रूपांतरण घटित कर सकता है। जप-साधना ___ चंचल मन को स्थिर एवं केन्द्रित करने में जप सर्वोत्तम उपाय है। ध्येय को स्पष्ट करने एवं आंतरिक शक्ति को बढ़ाने में जप सहज एवं सशक्त साधन है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत तुकाराम मंत्रसिद्ध साधक थे। उनका मंतव्य था कि साधना का सरलतम उपक्रम है- जप। प्रभुदर्शन एवं Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ अध्यात्म के प्रयोक्ता आत्म-साक्षात्कार के लिए वनवास या अधिक श्रम की अपेक्षा नहीं है। मात्र जप-साधना से जन्म-जन्मान्तरों के पाप नष्ट हो जाते हैं, घर बैठे प्रभ मिल जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार जप धर्म की पहली सीढ़ी है। जप के माध्यम से ही मन के अनंत रहस्यों को पकड़ा जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जप सबसे सुगम आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जप के माध्यम से ध्यान और कायोत्सर्ग की स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। जो लोग जप की सीढ़ी को लांघकर सीधे ध्यान की स्थिति में पहुंचना चाहते हैं, वे प्रायः असफल हो जाते हैं।' पूज्य गुरुदेव ने अनेक मंत्रों को सिद्ध किया। जप के विषय में पूज्य गुरुदेव का आत्मविश्वास इस भाषा में व्यक्त हुआ–'मैं तो यह सोचता हूं कि साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए, आध्यात्मिक यात्रा को निर्बाध करने के लिए; अन्तर्जगत् में प्रवेश करने के लिए तथा भीतरी पवित्रता बढ़ाने की पहली प्रक्रिया है- जप। इसके प्रति अब अविश्वास के बाद एक नया विश्वास जाग रहा है।' जप-सिद्धि के लिए उनका अनुभव था कि यदि जप में आस्था हो, एकाग्रता हो, निरन्तरता हो और दीर्घकाल तक अभ्यास हो तो उसका परिणाम आता ही है। ___आज वैज्ञानिक जगत् में यह सिद्ध हो चुका है कि शब्द और चेतना के घर्षण से नयी विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं। लयबद्ध जाप से जप कर्ता के चारों ओर प्राणशक्ति के विशिष्ट प्रकम्पनों का जाल बिछ जाता है, जिससे व्यक्ति अपने भीतर नयी ऊर्जा का अनुभव करता है। उसका आभामण्डल शुद्ध हो जाता है। मंत्रशास्त्र के अधिकृत आचार्यों ने मंत्रसिद्धि के मुख्यतः तीन लाभ बताए हैं- निरामयता, निर्विकारता और निर्भयता। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि जप से मुख्यतः तीन निष्पत्तियां घटित होती हैं- आत्मविकास, आत्मशांति और आनंदप्राप्ति। ___ पूज्य गुरुदेव प्रतिदिन तो नियमित रूप से जप करते ही थे विशेष अवसरों पर भी उन्होंने अनेक मंत्रों को सिद्ध किया था। उनका मानना था कि अनुशास्ता को कुछ मंत्र सिद्ध करने चाहिए, जिससे वह अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सके। उसका आभामण्डल शुद्ध हो सके तथा तैजस शरीर अधिक शक्तिशाली बन सके। जप-साधना के विशिष्ट प्रयोग में Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी प्रकृति भी पूर्णतया उनके अनुकूल बन जाती थी। २७ मई, १९८२ का प्रसंग है। सुधरी में पूज्य गुरुदेव आचार्य भिक्षु के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा व्यक्त कर रहे थे। श्रोता उनके वचनामृत का पान कर अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव कर रहे थे। अचानक बादलों ने कुछ बूंदें बरसाईं। उस समय पौने बारह बज रहे थे। गुरुदेव के प्रवचन के प्रवाह को देखकर ऐसा लगता था कि आधा घंटा प्रवचन और चलता लेकिन प्रकृति का व्यवधान. देखकर गुरुदेव ने घड़ी की ओर दृष्टिपात किया। गुरुदेव ने फरमाया"कार्यक्रम का समय पूरा हो गया था। मैं नियमित समय का अतिक्रमण न करूं, इसलिए ये बूंदें गिरी हैं। गुरुदेव जब अपने आवास स्थल पर पहुंचे, तब आसमान साफ हो गया था तथा धूप निकल आयी थी। पिछले कई महीनों से गुरुदेव ठीक बारह बजे जप-साधना का प्रयोग करते थे। लगता है समय का अतिक्रमण न हो इसलिए प्रकृति ने यह उपक्रम किया।" पूज्य गुरुदेव किसी भी नए कार्य के शुभारम्भ में मंगल रूप में मंत्र-जाप अवश्य करते थे। कभी-कभी विशेष अवसरों पर वे मंत्रों का विशेष प्रयोग भी करते थे। उत्तरप्रदेश की यात्रा में मुनि मिलापचन्दजी को लू लग गयी। लू के प्रभाव से मूत्रावरोध हो गया और वे अचेत जैसे हो गए। उनके अग्रगण्य संत जसकरणजी भी गर्मी के कारण अस्वस्थ हो गए। उस रात दोनों मरणासन्न जैसी स्थिति में थे। मुनि मिलापचन्दजी और जसकरणजी अपनी अंतिम स्थिति जानकर गुरुदेव से एक दूसरे की समाधि का निवेदन करने लगे। उस स्थिति में गुरुदेव ने अपने रजोहरण से एक धागा तोड़ा और उसे मंत्रित करके मुनि मिलापचन्दजी के हाथों में बांध दिया। थोड़ी देर बाद ही मुनि मिलापचन्दजी का मूत्रावरोध खत्म हुआ और वे स्वस्थता का अनुभव करने लगे। सभी लोग गुरुदेव के इस प्रयोग से चमत्कृत हो गए। सन् १९८४ में नवरात्रि के दौरान उन्होंने जप का विशेष अनुष्ठान प्रारम्भ किया। चार मास तक निरन्तर एक घंटा अविचल रूप से जप का प्रयोग चला। जप के इस प्रयोग में एक ही प्रकार का अन्न तथा नौ द्रव्य से अधिक पदार्थों का सेवन नहीं किया। हिसार एवं जयपुर के एकांतवास में भी गुरुदेव ने जप के विशेष अनुष्ठान किए। जयपुर में किए जप-अनुष्ठान Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता के विषय में यह वक्तव्य अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है-'मैं तो बहुत बार यह सोचता हूं कि साधना करनी ही न पड़े, सहज हो जाए, यह स्थिति सुंदर है। साधना-काल में साधक ध्यान के साथ जप का प्रयोग भी करता है। जप के लिए एक मंत्र है 'सोऽहम्'। 'सोऽहम्' शब्द का उच्चारण बहुत स्थूल बात है। जो श्वास लें वह 'सोऽहम् में परिणत हो जाए, तब साधना . का क्रम आगे बढ़ता है। सोऽहं, सोऽहं, सोऽहं, के जप में इतनी तल्लीनता आ जाए कि सोऽहं, हंसोऽहं, में परिणत हो जाए। यह हंस क्या है ? परम हंस, परमात्मा ही तो है। चेतना जब निर्मल बन जाती है, हंस बन जाती है, विवेकी बन जाती है, तब ही साधना की निष्पत्ति आ पाती है। समस्या से पीड़ित कोई व्यक्ति जब गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होता था तो उसको भी वे मंत्र-जाप के लिए प्रेरित करते थे। चाहे वह शारीरिक-व्याधि की समस्या से पीड़ित हो या मानसिक रूप से परेशान हो, गुरुदेव द्वारा प्रदत्त-मंत्र का जाप उसके लिए रामबाण औषधि का कार्य करता था। कभी किसी शोक-संतप्त परिवार को संदेश देते समय भी वे मंत्र-जाप के निर्देश की बात नहीं भूलते थे। 'ॐ भिक्षु जय भिक्षु, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु, ॐ असि आ उ सा नमः आदि कुछ मंत्र तो उनके सिद्ध मंत्र थे अतः इन मंत्रों के जाप का निर्देश तो वे देते ही रहते थे। अभिनव सामायिक के क्रम में भी उन्होंने १५ मिनट जप का प्रावधान रखा। प्रायोगिक रूप से जब अभिनव सामायिक के क्रम में वे जप का प्रयोग करवाते थे तो जप की लयबद्धता और तल्लीनता करने वालों को ही नहीं, दर्शकों को भी बांध लेती थी। ५ सितम्बर, १९९६ को अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद् के अधिवेशन में हजारों युवकों को 'अ सि आ उ सा' एवं 'अ भी रा शि को नम:' का जाप करवाया। जप के बाद उसके माहात्म्य को प्रकट करते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'इस जप में तेरापंथ के विशिष्ट संतों की स्तुति है। इसके जप से अचिन्त्य चमत्कार घटित होता है इसलिए मैं स्वयं इस मंत्र के चमत्कार का प्रमाण हूं।' ताराचंदजी बैद की धर्मपत्नी कलकत्ती देवी बैद ने प्रसवकाल में पिपलामूल ली। परहेज न रखने से उसका विपरीत असर हो गया। उनको Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६० मिरगी के दौरे आने लगे। दौरे आने पर पूरा शरीर ऐंठ जाता। जीभ बाहर निकल जाती। गर्दन मुड़ जाती। दिमाग पर असर होने से स्मरणशक्ति भी कमजोर हो गयी। अनेक स्थानों पर चिकित्सा करवाने पर भी लाभ नहीं हुआ। ऐलोपैथिक दवा से उनकी हालत और अधिक गंभीर हो गयी। _ वि.सं. २०३० में उन्होंने पूज्य गुरुदेव के दर्शन किए। जैसे ही दर्शन किए, वहीं दौरा आ गया। उनका भाई उनको उठाकर ले गया। दूसरे दिन जब उसने गुरुदेव के दर्शन किए तो गुरुदेव ने फरमाया- 'तमको बहुत भयंकर रूप से दौरा आता है। ऐसे दौरे कितने वर्षों से आ रहे हैं?' बहिन ने कहा- 'लगभग २० वर्षों से मैं इससे परेशान हूं। देश-विदेश की अनेक दवाइयां लीं लेकिन कोई अंतर नहीं आया।' गुरुदेव ने करुणा बरसाते हुए कहा- 'प्रतिदिन 'ओम् शांति' का जाप करो फिर बताना कि दौरे आते हैं या नहीं?' घर आते ही बहिन ने छह महीने के लिए दवा के त्याग कर दिए और रात-दिन 'ओम् शांति' का जाप करने लगी। जप के प्रभाव से वह बहिन बिल्कुल स्वस्थ हो गयी। बहिन का कहना है कि जप तो पहले भी बहुत किए लेकिन गुरुदेव के मुख से प्राप्त मंत्र की शक्ति अनेक गुणा बढ़ गयी।' दिल्ली का प्रसंग है। प्रभुदयालजी डाबड़ीवाल वहां के प्रतिष्ठित व्यापारी थे। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि राजनीति में सक्रिय भाग न लेने पर भी अनेक राजनेता उनके पास आते और अपनी समस्या का समाधान प्राप्त करते थे। एक समय आया जब डाबड़ीवालजी बीमार हो गए। वृद्धावस्था में उनको पक्षाघात हो गया। उस समय लोगों का आवागमन भी कम हो गया। हमेशा लोगों की भीड़ से घिरा व्यक्ति यदि एकाकी हो जाए तो यह स्थिति उसे सह्य नहीं होती। यही स्थिति उनकी हुई। एकाकीपन उनको काटने लगा और मानसिक रूप से वे दःखी हो गए। पूज्य गुरुदेव दिल्ली प्रवास में उनको दर्शन देने पधारे। उनकी मानसिक पीड़ा को देखकर गुरुदेव ने उनको मंत्र का जाप करने का परामर्श दिया। उन्होंने पूरी निष्ठा से मंत्र का जाप किया। वे लगभग पूरे-पूरे दिन उस मंत्र का जाप करते। मंत्र के जाप से उनके जीवन का खालीपन दूर हो गया। उनका मन प्रसन्नता और शक्ति से आप्लावित हो गया। मंत्रदाता गुरु के प्रति उनका मानस अहोभाव से भर गया। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता ___ मंत्र-जप तभी फलदायी बनता है, जब वह तन्मयता एवं भावना से विधिपूर्वक किया जाए। जब जप और जपने वाले में अभेद एवं तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तभी मंत्र का अधिष्ठाता देवता शक्ति के रूप में प्रकट होता है। जो व्यक्ति अविधि से, अस्थिर मन से जल्दबाजी में जप करते हैं, उन्हें जप का समुचित लाभ नहीं मिल पाता। प्रेक्षा-संगान में पूज्य गुरुदेव ने इसी सत्य का संगान किया है जीवन भर जपता रहे, केवल शाब्दिक जाप। शाश्वत सुख उसको कहां?, होता क्रिया-कलाप॥ तन्मय हो तच्चित्त हो, और तदध्यवसाय। तदुपयुक्त तद्भावना, भावित हो व्यवसाय॥ जप-साधना में सबसे बड़े विक्षेप हैं-प्रमाद, आलस्य एवं मानसिक चंचलता। आलस्य और प्रमाद को तो गुरुदेव ने अपने पास फटकने तक नहीं दिया। यदि कभी उन्हें जप में प्रमाद का अनुभव हुआ तो तत्काल उनका आत्मबल और पौरुष जागरूक प्रहरी की भांति सजग हो जाता। प्रस्तुत उद्धरण जप के दौरान उनकी अप्रमत्तता और जागरूकता की अकथ कथा कह रहा है- 'आज मैंने जप-अनुष्ठान में जिस समय आलस्य का अनुभव किया, मैं खड़ा हो गया। खड़ा होने के बाद भी स्फुरणा नहीं आई। मन स्फूर्त नहीं होता है तो शरीर शिथिल हो जाता है। शरीर की श्लथता मन को प्रभावित करती है। शरीर की शिथिलता और मन की अस्थिरता समाप्त करने के लिए मैंने अपने इष्ट को प्रतीक रूप में खड़ा कर लिया। परिकल्पित इष्ट पर मन टिकाया और जप एकदम जम गया। पूरे जप में मन केन्द्रित रहा। शिथिलता और अस्थिरता समाप्त हो गई। पहले की अपेक्षा अधिक स्फूर्ति का अनुभव हुआ और अतिरिक्त आनंद की अनुभूति हुई।' __ पूज्य गुरुदेव का मंत्र-जाप का महत्त्व बताने का तरीका भी विलक्षण था। एक कुशल अध्यापक होने के नाते किसी भी वस्तु का प्रतिपादन कर उसे हृदयंगम करवाने में वे सिद्धहस्त थे। सन् १९७९ का घटना प्रसंग है। डल्ला नगर में कुछ बालमुनि गुरुदेव की सन्निधि में बैठे थे। गुरुदेव ने मुनियों को संबोधित करते हुए कहा- 'एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावपणासणो'- अर्थात् यह नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी वाला है, क्या यह बात सत्य है ?' बाल मुनियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर देते हुए कहा- 'केवल नमस्कार मंत्र से तो सब पापों का नाश नहीं होता।' गुरुदेव ने प्रतिप्रश्न किया- 'क्यों नहीं होता?' गुरुदेव के इस प्रश्न का उत्तर बालमुनि नहीं दे पाए। गुरुदेव ने उनके माध्यम से सभी साधुसाध्वियों को संबोध देते हुए कहा- 'हमें शास्त्रीय वाक्यों पर शंका नहीं करनी चाहिए। यह महामंत्र है, आगम में प्रतिपादित है अतः इसमें कल्पनां या अतिशयोक्ति जैसी कोई बात नहीं है। जप का सही फल प्राप्त करने के लिए शर्त एक ही है कि उसका सही प्रयोग हो। 'सब रोगों की एक दवा', 'सौ बीमार : एक अनार' आदि जो जनश्रुतियां हैं, वे अर्थहीन तो नहीं हो सकतीं। एक ही दवा कई रोगों को मिटा सकती है पर तभी जब चिकित्सक को उसके प्रयोग की सब विधियां ज्ञात हों। किस बीमारी में दवा का प्रयोग कैसे और किस पथ्य के साथ हो, यह ध्यान दिए बिना बढ़िया औषध भी यथेष्ट लाभ नहीं देती, वैसे ही किस प्रयोजन के लिए, किस विधि से नमस्कार महामंत्र का प्रयोग हो, इस तथ्य की जानकारी के अभाव में जपप्रयोग पर संदेह करना उचित नहीं होता।' ____ मंत्र एवं साधना की सिद्धि से गुरुदेव के नाम और वाणी में इतना चमत्कार पैदा हो गया था कि हजारों व्यक्ति उनके नाम-स्मरण मात्र से कष्ट से उबर जाते थे। प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्ति उनके मुख से मंगलमंत्र सुनते और जीवन में अकल्पित चमत्कार का अनुभव करते थे। वि.सं. २०२८ का चातुर्मास लाडनूं में था। गिरने के कारण सदासुखजी कोठारी के हाथ के अंगूठे में फैक्चर हो गया। जैन विश्व भारती के एक आवश्यक नोटिस पर उन्होंने बाएं हाथ से हस्ताक्षर कर दिए। नोटिस प्राप्त करने वालों को हस्ताक्षर संबंधी संशय हो गया तो कोठारीजी ने स्पष्टीकरण दिया। उन्होंने सोचा कि गुरुदेव के विराजने के काल में यदि अंगूठा ठीक नहीं हुआ तो अनेक कार्यों में कठिनाई आ सकती है। कोठारीजी दृढ़ आस्था के साथ गुरुदेव के पास पहुंचे और मंगल मंत्र सुनाने के लिए निवेदन किया। गुरुदेव ने मंगल मंत्र सुनने का कारण पूछा। उन्होंने कहा- 'मैं हाथ का पक्का पट्टा उतरवा सकू, इसलिए मंगलपाठ सुनने आया हूं।' गुरुदेव उनकी बात सुनकर मुस्कराने लगे और उत्तराभिमुख होकर मंगलपाठ सुना दिया। कोठारीजी ने अपने पुत्र विजयसिंह को आदेश दिया कि अब सीधे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ अध्यात्म के प्रयोक्ता अस्पताल चलकर पट्टा खुलवाना है। पुत्र को आश्चर्य हो रहा था पर कोठारीजी को गुरुदेव के मुख से सुने मंगलमंत्र पर पूरी आस्था थी। पुत्र ने हठपूर्वक कहा- 'एक महीने का पट्टा बंधा है अभी तो ४-५ दिन भी नहीं हुए हैं। आप कुछ दिन और ठहर जाएं। मेरे अनुरोध को स्वीकार करें कि पहले स्क्रीन करवा लें, फिर पट्टा खुलवाएं।' कोठारी जी बोले- 'पहले पट्टा खुलवा लें फिर स्क्रीन करवा लें। यदि ठीक नहीं होगा तो पुनः पट्टा बंधवा लेंगे।' पट्टा खोला गया। ऑपरेटर ने एक्सरे मशीन चलाई। देखा कि हड्डी क्रेक है ही नहीं। पूज्य गुरुदेव के मुख से सुने मंगल मंत्र का चमत्कार देखकर उनका पुत्र आश्चर्यचकित रह गया। ___ सामान्यतया किसी मंत्रपद का तन्मयता से बार-बार उच्चारण जप माना जाता है। पूज्य गुरुदेव ने अपने लम्बे साधनाकालीन अनुभव से जप को एक नयी परिभाषा दी, जो अनेक स्वाध्यायप्रेमियों के लिए आह्लादकारक है। वे कहते हैं- 'दो घंटे मुद्रा विशेष में अवस्थित होकर किसी मंत्र की साधना करना जप है तो घंटे भर तन्मय होकर स्वाध्याय करना, जनता के बीच बोलना, उसे तत्त्व-ज्ञान देना भी जप है।' - पूज्य गुरुदेव की जप-साधना अनेक लोगों को जप की दिशा में प्रस्थित करेगी तथा आन्तरिक शक्ति के विस्फोट में सहायक बनेगी, ऐसा विश्वास है। मौन-साधना भाषा व्यक्तित्व का आईना है। कौन व्यक्ति किस भाषा में बोलता है, इसके आधार पर उसके व्यक्तित्व का अंकन किया जा सकता है। मनुष्य के पास अपने अन्तर्भावों को प्रकट करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है- वाणी। बिना वाणी के सामाजिक व्यवहार नहीं चल सकता। भावसंप्रेषण के इस महत्त्वपूर्ण साधन का सम्यक् उपयोग करना बहुत बड़ी कला है। विवेकरहित मौन और संभाषण दोनों ही साधना में बाधक हैं। साधक को इस कला में अभिष्णात होना आवश्यक है कि कब बोलना चाहिए और कब मौन रहना चाहिए। पूज्य गुरुदेव इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते थे- 'बोलते-बोलते थक गए हो तो मत बोलो। मौन करते-करते थक गए हो तो सम्यक् बोलो।' Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६४ भारतीय ऋषि महर्षियों ने शांति और आनंद की उपलब्धि के लिए मौन की महिमा गाई है। आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं- 'मौन का अर्थ न बोलना ही नहीं है। मौन का अर्थ है- बोलने की अपेक्षा या बोलने की मांग को कम कर देना।' कहने का तात्पर्य यह है कि जहां एक शब्द से काम चल सकता हो, वहां दो शब्दों का प्रयोग न किया जाए। वचनगुप्ति के व्यावहारिक स्वरूप को प्रकट करने वाले दशवैकालिक नियुक्ति के ये पद्य मौन के बारे में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं वयणविभत्तिअकुसलो, वओगतं बहुविधं अजाणंतो । जइ वि न भासति किंची, न चेव वइगुत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्तीकुसलो, वओगतं बहुविधं वियाणंतो । दिवसमवि भासमाणो, अभासमाणो व वइगुत्तो ॥ अर्थात् जो वचन-विभक्ति में अकुशल है, बहुविध वाग्योग का विज्ञाता नहीं है, वह कुछ नहीं बोलने पर भी वाग्गुप्त नहीं होता तथा जो वचन - विभक्ति में कुशल है, अनेक प्रकार के वचोयोग का ज्ञाता है, वह दिन भर बोलता हुआ भी वाग्गुप्त होता है । परमार्थ पंचसप्तति में भी गुरुदेव ने इसी सत्य को काव्य में निबद्ध कर दिया है - मौन और वक्तव्यता, है वाणी का सार । निर्विचार सविचार से, खुलता मन का द्वार ॥ सत्य का साधक अपनी वाणी का प्रयोग बहुत जागरूकता से करता है । वह निश्चयकारिणी भाषा के प्रयोग से सदैव बचने का प्रयत्न करता है क्योंकि निश्चयकारिणी भाषा सत्य की सुरक्षा नहीं कर सकती । पूज्य गुरुदेव का वाक्प्रयोग इतना सधा हुआ था कि उसमें प्रायः स्खलना का प्रसंग नहीं आता था। वे शाश्वत सत्यों को आत्मविश्वास की भाषा में प्रकट करते पर व्यवहार में निश्चयकारिणी भाषा से बचते थे। दूसरों के द्वारा भी यदि भाषा का असम्यक् प्रयोग होता तो वे तत्काल उसे गलती का अहसास करवा देते थे । सन् १९६० का घटना प्रसंग है। गुरुदेव एक छोटे से गांव की पगडंडी से गुजर रहे थे । अस्पष्ट आवाज सुनकर कदम रोकते हुए उन्होंने पूछा - 'यह किसकी आवाज आ रही है ?' एक युवक ने उत्तर दिया Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता 'ग्रामीण बहिनें दलिया दल रही हैं।' तत्काल गुरुदेव ने उसकी बात पर टिप्पणी करते हुए कहा- 'क्या पता बहिनें आटा भी तो पीस सकती हैं। वाणी का यह प्रयोग असत्य भी हो सकता है अत: इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है- चक्की चल रही है। आटा, नमक, हल्दी या दाल कुछ भी पीसा जाए, यह वाणी का व्यापक प्रयोग है। इससे सत्य की अधिक सुरक्षा हो सकेगी।' प्रस्तुत घटना उनके सूक्ष्म वाणी-विवेक का स्पष्ट निदर्शन है। डायरी के पृष्ठों में उनकी भाषा समिति की सावधानी एवं उसके प्रति जागरूकता की तीव्र तड़प स्पष्ट रूप से पढ़ी जा सकती आज सवेरे जब सोकर उठा तब विचारों में उथल-पुथल सी थी। तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह का बड़े पैमाने पर कार्य प्रारंभ कर दिया गया है। साहित्य की विशाल योजना हमारे सामने है। श्रावक लोग भी एकमत से जुट गए। इसमें बहुत से काम गृहस्थों से संबंधित और सावध भी होंगे। वे सबके सब हमारे सामने आए बिना रहते नहीं। वहां चिंतन में, भाषा में, कहीं-कहीं समिति-गुप्ति में खंडन भी संभव हो सकता है। ऐसी स्थिति में साधु संघ के समक्ष कोई स्थिति न आए, यह भी कैसे संभव हो सकता है? अत: 'विवेगे धम्ममाहिए' इसी पथ पर चलना होगा। न समाज के आवश्यक काम बंद होंगे और न हमारी साधना भी। चित्त को समाधान मिला। हां,यह जरूर है कि भाषा-समिति की गलतियां अनेक बार हो जाती हैं। उनको प्रोत्साहन नहीं, वे खामी पेटे ही गिनी जाएंगी।' * 'मुझसे भाषा समिति व भावों की गलतियां कई बार हो जाती हैं। मैं बहुत महसूस भी करता हूं। मन में ग्लानि भी होती है, पर छद्मस्थता के कारण ऐसा हो जाता है। आशा तो यही है कि साधना अधिक विशुद्ध रहे और रहेगी भी।' ___ एक विशाल संघ के शास्ता होने के कारण सैकड़ों लोग उनकी उपासना में उपस्थित होते थे। गुरुदेव के मुख से एक शब्द सुनकर भी वे अपने लम्बे यात्रापथ के श्रम को भूलकर धन्यता का अनुभव करते थे इसलिए गुरुदेव को दिनभर बोलना ही पड़ता था। आचार्य-काल में तो प्रवचन आदि का भी अतिरिक्त श्रम हो जाता था। बोलने में जो ऊर्जा या Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६६ शक्ति का व्यय होता, उसकी क्षतिपूर्ति हेतु उनका मौन का उपक्रम अनेक वर्षों से नियमित चलता था । मौन के प्रति उनकी उदग्र आकांक्षा को इन शब्दों में जाना जा सकता है - 'शक्तिसंवर्धन के लिए मुझे मौन साधना करनी चाहिए। संघ के उत्तरदायित्व को देखते हुए जितनी करना चाहता हूं, उतनी नहीं हो पाती। मैं आत्म-विकास व लोक-जागरण के लिए जो कुछ करना चाहता हूं, वह साधना का ही अंग है पर मौन साधना की ओर मेरा झुकाव ज्यादा रहता है । ' इसी संदर्भ में मौन के बारे में उनका यह अनुभव पठनीय ही नहीं, मननीय भी है— 'जब कभी अधिक बोलने का प्रसंग आता है, थकान का अनुभव होने लगता है । वचनगुप्ति का प्रयोग करने से थकान दूर हो जाती है, यह मेरा अनुभूत प्रयोग है। मैं बहुत वर्षों से प्राय: प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन करता हूं। मौन से विश्राम मिलता है, आनन्द मिलता है पर कायोत्सर्ग के साथ किए जाने वाले मौन की महिमा ही अलग है। अपनी इस अनुभूति को शब्द देते हुए मैंने कहा मन्यते मौनमारामः, मौनं स्वास्थ्यप्रदं मतम् । कायोत्सर्गेण संयुक्तं, मौनं कष्टविमोचनम् ॥ को आराम मानता हूं, स्वास्थ्यप्रद मानता हूं । मौन के साथ कायोत्सर्ग का योग हो जाए तो वह सब प्रकार के कष्टों से छुटकारा दिलाने वाला हो जाता है ।' शेक्सपीयर का अनुभव भी इसी तथ्य का संवादी है— मौन आनंद का पूर्ण अग्रदूत है । ' आत्मदर्शन के लिए मौन का अभ्यास अत्यन्त अपेक्षित है। बिना मौन के चेतना के प्रकंपनों का अनुभव नहीं किया जा सकता। पाश्चात्त्य विद्वान् बेकन का कथन है कि मौन निद्रा के सदृश है। यह ज्ञान में नयी स्फूर्ति एवं शरीर में नयी शक्ति उत्पन्न करता है । महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन करते थे। उन्होंने अपना अनुभव लिखा है कि मौन में कार्यजा शक्ति द्विगुणित हो जाती है। गुरुदेव ने सन् १९५० में प्रतिदिन २ घंटे मौन का अभ्यास प्रारम्भ किया, वह लगभग नियमित रूप से चला। मर्यादा- महोत्सव एवं पट्टोत्सव आदि आयोजनों के अवसर पर मौन के क्रम में थोड़ा अवरोध आ जाता। सन् १९९५ से वे हर महीने की पहली Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ अध्यात्म के प्रयोक्ता 1 और सोलहवीं तारीख को रात और दिन का पूर्ण मौन रखते थे । मौन के दिन पूरा समय ध्यान, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग में ही व्यतीत करते थे। मौन के दौरान कभी-कभी अनेक बार बोलने के प्रसंग उपस्थित हो जाते लेकिन गुरुदेव का मौन दृढ़ संकल्प के साथ जुड़ा हुआ था। एक बार मौन के दौरान दिन में अनेक प्रसंग ऐसे उपस्थित हो गए, जब उनको बोलना अनिवार्य लगा लेकिन वे वाग्गुप्ति की अखंड साधना करते रहे । दूसरे दिन अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा - 'प्राय: मुझे मौन अच्छा लगता है पर कल का मौन कठिन रहा। अनेक बार लगा कि बोलना आवश्यक है पर संकल्प दृढ़ रखा और नहीं बोला।' यह सत्य है कि वे दृढ़ संकल्प के साथ महीने की पहली और सोलहवीं तारीख को मौन करते, पर जहां संघीय प्रभावना का प्रश्न आता अथवा संस्कृति की सुरक्षा के प्रसंग उपस्थित होते, वहां परिस्थिति-विशेष को देखकर मौन खोलने में उनका आग्रह भी नहीं था । जैन विश्व भारती संस्थान में 'राष्ट्रीय प्राकृत संगोष्ठी का आयोजन था । एक मार्च को उस गोष्ठी का समापन समारोह था। उस दिन गुरुदेव के मौन था । पर उस समापन समारोह में उन्होंने अपवाद को काम में लिया और विद्वानों को प्राकृत भाषा के विकास का प्रतिबोध दिया। इसी प्रकार सुजानगढ़ में एक अप्रैल को संघीय दृष्टि से गुरुदेव को मौन खोलना पड़ा। सामान्यतः लोग मौन तो करते हैं पर मौन में अव्यक्त वाणी से अपनी सारी बात समझा देते हैं। ऐसे लोगों के लिए गुरुदेव का प्रतिबोध है कि मौन करके भी संकेतों से बात करने से इतनी अधिक शक्ति का व्यय होता है, जितना बोलने से भी नहीं होता। गुरुदेव की मौन- -साधना बाध्यता से प्रेरित नहीं थी इसलिए मौन काल में वे आवश्यक संकेत भी नहीं करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में मौन तभी घटित होता है, जब निर्विचारता आ जाती है और व्यक्ति आत्म-स्वरूप में लीन हो जाता है ।' साधना की चरम अवस्था में वाणी समाप्त हो जाती है पर प्रारम्भिक अवस्था में मितभाषिता की साधना भी बहुत बड़ी कसौटी है । मितभाषिता का अभ्यास करने वाला ही आत्मा की गहराई में प्रवेश कर सकता है। अधिक बोलने से चित्त में विक्षेप उत्पन्न होते रहते हैं । मितभाषिता को Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६८ परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'मितभाषिता का मानदण्ड यही है कि व्यक्ति बोलने से पहले दो क्षण रुककर सोच ले कि कितना बोलना आवश्यक है ? अथवा बोलने के बाद यह समझने का प्रयास करे कि अभी उसके द्वारा जो बात कही गई है, वह नहीं कही जाती तो कौनसा काम रुकने वाला था। इस प्रकार विचारपूर्वक बोलना, बोलने के लिए कैसी भाषा का उपयोग करना, जोर से बोलना या धीरे बोलना आदि कई पहलू हैं, जो मितभाषिता का स्पर्श करते हैं।' 'मियं भासेज पण्णवं', 'मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता' ये सूक्त उनके आदर्श थे। वे समय पर मौन रहते थे, साथ ही आवश्यकता होने पर भाषा का मित प्रयोग भी करते थे। अनेक बार देखा जाता कि किसी भी विवाद को सुनते समय या समस्या पर सामूहिक विचारविमर्श करते हुए गुरुदेव प्रायः मौन भाव से सबकी बात सुनते रहते थे। पक्ष-प्रतिपक्ष को घंटों सुनने के बावजूद तब तक अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते, जब तक उन्हें बोलने का औचित्य समझ में न आ जाता। उनका मंतव्य था- 'सुनो ज्यादा, बोलो कम। सुनने के लिए कान दो हैं और बोलने के लिए जीभ एक। जहां एक शब्द या वाक्य से काम चल सकता है, वहां दस शब्दों या वाक्यों का प्रयोग समय और शक्ति- दोनों का अपव्यय है।' इस संदर्भ में महात्मा गांधी का अनुभव भी पठनीय है- 'मैं प्रतिक्षण अनुभव करता हूं कि मौन सर्वोत्तम भाषण है। अगर बोलना ही चाहिए तो कम से कम बोलो। एक शब्द से काम चले तो दो मत बोलो।' वाणी-संयम के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रश्नों को सदैव स्मृति में रखा जाए तो स्वत: जीवन की प्रयोगशाला में वाक्संयम के अनेक प्रयोग किए जा सकते हैं- 'वाक्संयम का जीवन पर क्या प्रभाव होता है ? नहीं बोलने से क्या उपलब्धियां हो सकती हैं ? उससे प्राणधारा को कैसे प्रभावित किया जा सकता है ? मानसिक विकल्पों और उलझनों को कम करने का क्या उपाय है? निर्विचारता की स्थिति कैसे उपलब्ध हो सकती है? ध्वनि-तरंगों का व्यक्तित्व-निर्माण में क्या योगदान हो सकता है? वचन-प्रयोग से होने वाले शक्ति-क्षय को कैसे बचाया जा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ . अध्यात्म के प्रयोक्ता सकता है ? इत्यादि प्रश्नों के संदर्भ में वागगुप्ति की महत्ता को समझकर उसके अनेक प्रयोग किए जा सकते हैं।' - जो नेता समय पर मौन रहना नहीं जानता, वह अपने अनुयायियों के मन में श्रद्धाभाव उत्पन्न नहीं कर सकता। दूसरों के प्रति अभद्र या आक्षेपात्मक वचन बोलने वाला स्वयं अपनी अभद्रता को प्रकट करता है। यद्यपि विरोध या प्रतिकूलता की स्थिति में मौन रहना अत्यन्त कठिन है पर पूज्य गुरुदेव को यह वरदान उनकी आत्मशक्ति से स्वतः प्राप्त था। समन्वय की साधना के लिए पूज्य गुरुदेव ने बहुत सहा। मौन की बहुत बड़ी साधना की। उनके मौन ने विरोध को भी अनुकूलता में ढाल दिया। मुंबई में हुए विरोध के समय मनःस्थिति का चित्रण उनकी डायरी के पृष्ठों में पठनीय 'आज व्याख्यानोपरांत मुंबई समाचार पत्र के प्रतिनिधि मि. त्रिवेदी आए। उन्हें प्रथम संपादक सोरावरजी भाई ने भेजा था। हमारा विरोध क्यों हो रहा है? उसे वे जानना चाहते थे और वे यह भी जानना चाहते थे कि एक ओर से इतना विरोध और दूसरी ओर से इतना मौन। आखिर क्या कारण है?' * 'आज मुंबई समाचार में एक मुनिजी का बहुत बड़ा लेख आया है। आक्षेपों से भरा हुआ है । भिक्षु-स्वामी के पद्यों को विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया। जघन्यता की हद हो गई। पढ़ने मात्र से आत्मप्रदेशों में कुछ गर्मी आ सकती है। औरों को गिराने की भावना से मनुष्य क्या-क्या कर सकता है, यह देखने को मिला। उसका प्रतिकार करना मेरे तो कम जंचता है। आखिर इस काम में (औरों को नीचा करने के काम में) हम कैसे बराबरी कर सकते हैं ? यह काम तो जो करते हैं, उन्हीं को मुबारक हो। अलबत्ता स्पष्टीकरण करना जरूरी है। देखें, किस तरह होगा? इधर में विरोधी लेखों की बड़ी हलचल है। दूसरे लोग उनका सीधा उत्तर दे रहे हैं। लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देख रहे हैं । अपना मौन बड़ा काम कर रहा है।' गुरुदेव ने अपने जीवन से यही शिक्षा सबको दी कि पहले सहो फिर उचित लगे तो कहो। अहंकारी और आग्रही आदमी को हित उपदेश Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ७० भी कर्णकट लगता है। ऐसे लोगों को उपदेश देने के संदर्भ में उनका मंतव्य काव्य की भाषा में पठनीय है• जो कोई चावे तो उण नै, हित उपदेश सुणा। - नहिं तो मौन राख तू भाई, मत ना जीभ चला। • हित शिक्षा यदि सुन कोई कोपै, तो तूं रीस न ल्या। करसी जिसी आगलो भरसी, तू मत मन मुरझा॥ एक इस्लामी कहावत है कि मुख से निकलने वाले हर शब्द को तीन फाटकों से होकर बाहर निकालना चाहिए। प्रथम फाटक पर पूछा जाए- 'क्या यह सत्य है ?' दूसरे फाटक पर पूछा जाए- 'क्या यह आवश्यक है ?' तीसरे फाटक पर पूछा जाए- 'क्या यह ठीक है?' पूज्य गुरुदेव मुंह से निकलने वाले हर वाक्य को तीन फाटक पर तो प्रश्न पूछते ही थे। वे चौथे फाटक पर फिर एक प्रश्न पूछते थे- 'क्या यह प्रासंगिक है?' इन चार फाटकों से उत्तरित होकर निकलने वाली उनकी वाणी इतनी परिष्कृत, हृदयग्राही और अमियपगी होती कि न सुनने वाला अघाता और न ही बोलने के बाद उन्हें कभी पश्चात्ताप का अनुभव होता। अनेक बार देखा गया कि उनकी कड़ी से कड़ी बात को भी लोग इतनी प्रसन्नता से सुनते कि मानो उन्हें जीवन-विकास का कोई राज प्राप्त हो रहा हो। "हे सागर, तेरी भाषा क्या है ?, 'अनंत' प्रश्न की भाषा, हे आकाश, तेरे उत्तर की भाषा क्या है?, 'अनंत' मौन की भाषा"॥ रविन्द्रनाथ टैगोर की उक्त काव्य-पंक्तियां पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व से बहुत साम्य रखती हैं। अनेक बार देखा, सुना और अनुभूत किया जाता कि व्यक्ति अनेक जिज्ञासाओं को लेकर पूज्य चरणों में उपस्थित होते पर उनके आभामण्डल के घेरे में प्रवेश करते ही उनकी सारी समस्याएं स्वतः समाहित हो जाती थीं। गुरुदेव की दृष्टि में दूसरों को बाधा पहुंचे वैसा बोलना भी वाणी का दुरुपयोग है। उनके जीवन का यह घटना प्रसंग इसी वैशिष्ट्य का स्पष्ट निदर्शन है। कानोड़ गांव से विहार कर पूज्य गुरुदेव आगे पधार रहे थे। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता उनके साथ सैकड़ों लोग नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। पूज्य गुरुदेव को ज्ञात हुआ कि जुलूस जिस मार्ग से आगे बढ़ रहा है, उस मार्ग में अन्य सम्प्रदाय के मुनियों का व्याख्यान हो रहा है। गुरुदेव दो क्षण रुके और श्रावकों को निर्देश देते हुए कहा- 'नारे बंद किए जाएं।' श्रद्धालुओं ने प्रश्न उपस्थित किया- 'हम किसी को बाधा पहुंचाना नहीं चाहते पर मन के उत्साह को कैसे रोकें?' गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा'तुम्हारी धर्म-सभा में साधु-साध्वियों का या मेरा प्रवचन होता हो, उस समय दूसरे लोग नारे लगाते हुए वहां से गुजरें तो तुम्हें कैसा लगेगा? किसी के कार्यक्रम में बाधा पहुंचे वैसा उत्साह या वाणी का प्रयोग मानसिक हिंसा का ही एक रूप है।' गुरुदेव की यह बात उनके अंत:करण को छू गयी और सब अनुयायी शांतभाव से आगे बढ़ने लगे। शांत जुलूस देखकर दर्शक तो आश्चर्यचकित हुए ही, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों पर भी इतना गहरा असर हुआ कि वे सहयोग की भावना प्रदर्शित करने लगे। मौन और संभाषण दोनों के मध्य सेतु बांधने वाले पूज्य गुरुदेव की वाग्गुप्ति की साधना प्रत्येक साधक को वाणी-विवेक का अभिनव बोधपाठ देने वाली है। स्वाध्याय मन को सबल एवं सक्षम बनाने का एक पुष्ट आलम्बन हैस्वाध्याय। चेतना पर आए आवरण को दूर करने एवं आत्मविद्या की उपलब्धि में स्वाध्याय एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। महात्मा गांधी के शब्दों में स्वाध्याय एक महकता गुलशन है, जिससे चित्त सदा प्रसन्न रहता है। पूज्य गुरुदेव स्वाध्याय को साधना का अभिन्न अंग मानते थे। उनकी दृष्टि में स्वाध्याय और साधना का गहरा सम्बन्ध है। एकांगी स्वाध्याय बौद्धिक विकास तक सीमित रह जाता है और एकांगी साधना साधक को रूढ़ बना देती है। स्वाध्याय को साधना का अंग बना लिया जाए, साधना में साधक मान लिया जाए तो नवोन्मेष की संभावना बनी रहती है। ध्यान की साधना हर एक न भी कर सके पर स्वाध्याय चंचल चित्त वालों के लिए भी सहज है। प्राचीन आचार्यों का मंतव्य रहा कि स्वाध्याय की लीनता ही धीरे-धीरे ध्यान में परिणत हो जाती है और उससे भीतर का परमात्मा प्रकट हो जाता है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ७२ स्वाध्यायाध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्यायध्यानसम्पत्त्या, परमात्मा प्रकाशते॥ स्वाध्याय को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'अपने आपको केन्द्र में रखकर अपने बारे में जानकारी पाने के लिए अपने द्वारा जो अध्ययन किया जाता है, वह स्वाध्याय है।' इस परिभाषा से स्वाध्याय के दो अर्थ फलित होते हैं• अपना अध्ययन, आत्मनिरीक्षण, अपनी पहचान एवं आत्मविश्लेषण। सत्साहित्य का वाचन और उसका मनन। पूज्य गुरुदेव दोनों प्रकार के स्वाध्याय से स्वयं को भावित करते रहते थे। वे अपने मन को स्वाध्याय के खंटे से बांधे रहते थे इसलिए वह कभी भटकने नहीं पाता था। मुनि जीवन में वे रात के प्रथम प्रहर में तीनतीन हजार श्लोकों का पुनरावर्तन कर लेते थे। मार्ग में चलते कभी दो मिनट का भी विश्राम होता तो वहीं स्वाध्याय या नयी गाथा सीखना प्रारम्भ कर देते थे। आचार्य बनने के बाद भी उनका स्वाध्याय का क्रम अविच्छिन्न चलता था। पूर्व रात्रि में जनसम्पर्क या प्रवचन आदि के कारण स्वाध्याय का समय नहीं मिलता पर पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय का क्रम अनिवार्यतः चलता था। कभी वे अकेले स्वाध्याय करते, कभी बाल संतों का सुनते तथा कभी सामूहिक स्वाध्याय भी करते। . 'संस्मरणों के वातायन' में व्यक्त अनुभव उनकी इसी परिष्कृत रुचि का संवाहक है- 'स्वाध्याय और ध्यान-साधना के अभिन्न अंग हैं। पश्चिम रात्रि में चार बजे उठने और स्वाध्याय करने की अच्छी आदत पूज्य कालूगणी ने डाल दी थी। यह मेरे लिए भी अनुकूल थी। सन् १९४९ जयपुर यात्रा में इस क्रम को और अधिक व्यवस्थित और पुष्ट करने के लिए मैंने एक घंटा खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का संकल्प स्वीकार कर लिया।' 'ज्ञान कंठा और दाम अंटा' यह प्राचीन काल की प्रसिद्ध उक्ति है इसलिए बहुश्रुतता के लिए आवश्यक है कि गंभीर ग्रंथों को कंठस्थ किया जाए। पूज्य गुरुदेव ने कंठस्थ के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता मुनि जीवन के ११ वर्षों में उन्होंने २० हजार गाथाओं को कंठस्थ किया, जो आज एक आश्चर्य का विषय है। जीवन के सांध्यकाल में भी उन्हें संस्कृत, प्राकृत या हिन्दी का कोई नया श्लोक पढ़ने या सुनने को मिलता तो वे तत्काल उसे डायरी में नोट करके कंठस्थ कर लेते। आचार्य पद का गुरुतर दायित्व निभाते हुए भी उन्होंने सैकड़ों गाथाएं कंठस्थ कीं। 'शान्तसुधारस' जैसा ग्रंथरत्न उन्होंने वि. सं. २००० में सीखा। एक दिन संतों ने श्रीचरणों में जिज्ञासा प्रस्तुत की- 'आचार्य बनने के बाद आपने कैसे कंठस्थ किया?' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'कंठस्थ करने में अवस्था और दायित्व का क्या संबंध? लगन और उत्साह होना चाहिए। लगन हो तो कभी और किसी भी अवस्था में सीखा जा सकता है।' प्रेरणा देने के लिए साध्वी सूरजकुमारीजी (छोटी खाटू) का उदाहरण देते हुए कहा- 'साध्वी सूरजकुमारी को आंखों से दीखता नहीं है, पूरा शरीर गठियावात से पीड़ित है फिर भी एक-एक पद सुनकर उसने व्यवहार बोध और अर्हत्वाणी सीख ली है। कंठस्थ करने में सबको उत्साह रखना चाहिए, जिससे बुद्धि पैनी बनी रहे, अन्यथा बुद्धि को भी जंग लग जाता है।' __ स्वाध्याय का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है-शुद्ध उच्चारण। जिसे प्राचीनकाल में संहिता कहा जाता था। पूज्य गुरुदेव उच्चारणशुद्धि पर बहुत ध्यान देते थे। वे अनेक बार कहते थे कि यदि कोई मेरे सामने अशुद्ध उच्चारण करता है तो मेरे कानों में शूल की भांति खटकता है। बाल मुनियों, मुमुक्षु बहिनों एवं समणीजी को वे प्रतिदिन उच्चारणशुद्धि का अभ्यास करवाते थे। कभी-कभी तो एक ही शब्द का वे तब तक उच्चारण करवाते रहते, जब तक उच्चारण पूर्ण शुद्ध न हो जाए। इस क्रम में कभी-कभी एक ही शब्द की दस-बीस बार पुनरावृत्ति हो जाती। अनेक बार उनको निवेदन किया जाता कि आपका बहुमूल्य समय महत्त्वपूर्ण कार्यों में लगना चाहिए। यह कार्य तो कोई भी कर सकता है। इस बात का प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते- 'यह भी स्वाध्याय का एक क्रम है। क्या करूं मैं अपने सामने किसी को देखता हूं तो मुझसे पूछे बिना नहीं रहा जाता।' यह इतिहास का विरल उदाहरण है कि किसी आचार्य/अनुशास्ता ने अपने शिष्यों की उच्चारणशुद्धि पर इतनी शक्ति और समय का नियोजन किया हो। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ७४ ज्ञान के स्थिरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है-परावर्तना। कंठस्थ ज्ञान का यदि बार-बार परावर्तन नहीं होता है तो उसके विस्मृत होने की संभावना बनी रहती है। सामान्यतः कंठस्थ करने में उत्साह रहता है किन्तु पुनरावर्तन के अभाव में उसमें स्थायित्व नहीं रह पाता। पूज्य गुरुदेव ने अनेक बार प्रेरणा देते हुए कहा- 'कंठस्थ ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए पुनरावर्तन आवश्यक है। पुनरावर्तन के अभाव में कंठस्थ ज्ञान को भूलना कठोर श्रम से कमाई हुई पूंजी को अपने प्रमाद से खोने के बराबर है। ज्ञान के पुनरावर्तन से मन की स्थिरता बढ़ती है, आत्मलीनता की स्थिति बनती है। कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी यदि बार-बार पुनरावर्तन करे तो विद्वान् बन सकता है।' ८३ वर्ष की उम्र में भी पूज्य गुरुदेव प्रतिदिन १००० गाथाओं का पुनरावर्तन कर लेते थे। व्यस्त जीवन में भी वे भक्तामर, कल्याणमंदिर, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोगव्यवच्छेदिका, चतुर्विंशतिगुणगेयगीतिः, रत्नाकरपंचविंशिका, उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन तथा शान्तसुधारसइन ग्रंथों का स्वाध्याय तो नियमित रूप से करते ही थे। बचपन में कंठाग्र किए हुए ग्रंथ जीवन के अंत समय तक भी उनको अपने नाम की भांति याद थे। इसका कारण पूज्य गुरुदेव के बाल्यकालीन अनुभवों में ही पठनीय है- "मैं दिन में जितने पद्य या सूत्र कंठस्थ करता, रात्रि में उनका पारायण अवश्य करता। जब तक वे अच्छी तरह आत्मसात् नहीं हो जाते, उनको प्रतिदिन दोहराता, अनेक बार रात्रि में सम्पूर्ण चंद्रिका का स्वाध्याय हो जाता, जिस दिन किसी कारण से स्वाध्याय नहीं हो पाता, मुझे लगता है कि कोई करणीय कार्य छूट गया है। ( मेरा जीवन : मेरा दर्शन, पृ. १०७)" सैकड़ों-हजारों संस्कृत एवं हिन्दी के स्फुटकर सुभाषित श्लोक एवं दोहे उनको वैसे ही याद थे, जैसे तत्काल ही कंठस्थ किए हों। अध्यापन के दौरान एक कालांश में ही प्रासंगिक रूप ये चार-पांच संस्कृत के पद्यों का उल्लेख करना उनके लिए सहज था। स्वाध्याय की ऐसी जीती-जागती मशाल मिलना दुर्लभ है। अस्वास्थ्य की स्थिति में वे अपना अधिकांश समय पुनरावर्तन एवं अनुप्रेक्षा में ही बिताते। वि.सं. २०५० राजलदेसर चातुर्मास में उनके पैर में साइटिका का भयंकर दर्द उठा। डाक्टरों ने बेड रेस्ट की सलाह दी पर गुरुदेव ने उसे कायोत्सर्ग में परिणत Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता कर दिया। उस समय भक्तामर, कल्याणमंदिर, चतुर्विंशतिगुणगेयगीति: एवं रत्नाकर पच्चीसी आदि को दिन में कई बार अनुप्रेक्षा के रूप में दोहराया। उनका अनुभव था कि वेदना के क्षणों में स्वाध्याय करने से उसकी अनुभूति को कम किया जा सकता है। . __स्वाध्याय तभी फलदायी बनता है, जब वह तन्मयता से किया जाए। बिना भावक्रिया के केवल वाचिक उच्चारणपूर्वक जल्दी-जल्दी किए जाने वाले स्वाध्याय से न नए तथ्यों की अवगति हो सकती है और न ही एकाग्रता सधती है। पूज्य गुरुदेव की हर क्रिया तन्मयता के साथ जुड़ी हुई थी। बिना तन्मयता से की गयी किसी भी क्रिया को वे मूर्छा का प्रतीक मानते थे। जब वे मंदगति से लयबद्ध स्वाध्याय करते तो आसपास का वातावरण झंकृत हो उठता था। प्रमादी व्यक्ति को भी जागृति एवं रूपान्तरण की नयी स्फुरणा मिल जाती थी। तेरापंथ के चतर्थ आचार्य जयाचार्य स्वाध्यायप्रिय आचार्य थे। वे खड़े-खड़े पूरे उत्तराध्ययन का तल्लीनता से स्वाध्याय करते और अनेक बार अपने आनंद को अभिव्यक्ति देते हुए युवाचार्य मघराजजी से कहते'मघजी! आज एक रत्न हाथ लगा है।' तन्मयता से स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति प्रतिपल नए-नए तत्त्वों को हस्तगत करता रहता है। - तल्लीनता के साथ अर्थ की अनुप्रेक्षा सहित किया जाने वाला स्वाध्याय ही अधिक लाभप्रद होता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि बिना अर्थ की अनुप्रेक्षा के कंठस्थ ज्ञान भार बन जाता है। लाडनूं प्रवास में पश्चिम रात्रि में संतों को उन्होंने अनुग्रह भरे शब्दों में कहा- 'तुम लोगों को जो चीजें कंठस्थ हैं, उनका अर्थ मुझसे कर लिया करो।' संतों ने सेकचाते हए निवेदन किया- 'इससे आपके स्वाध्याय में विघ्न पडेगा।' गुरुदेव ने फरमाया- 'विघ्न किस बात का? दूसरों को अर्थ का ज्ञान कराना भी तो स्वाध्याय ही है। अध्यापन में मुझे जितना आनंद मिलता है, उतना किसी दूसरे कार्य में नहीं मिलता।' संत गुरुदेव की इस अमृतमयी वाणी को सुनकर कृतार्थता का अनुभव करने लगे। प्रतिदिन किसी न किसी प्राकृत या संस्कृत के श्लोक का अर्थ पूछना और फिर विधिवत् प्रशिक्षण देना तो उनके प्रतिदिन का क्रम था। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी लाडनूं प्रवास में गुरुदेव ने संतों से अन्ययोगव्यवच्छेदिका का 'सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता' का अर्थ पूछा। बालमुनि उसका अर्थ नहीं कर पाए। पूज्य गुरुदेव ने प्रेरणा देते हुए कहा- 'कंठस्थ ग्रंथ तो ऐसे हृदयंगम होने चाहिए कि बोलते ही उनका अर्थज्ञान हो जाए।' प्रेरणा के लिए महाश्रमणजी (युवाचार्य महाश्रमण) का उदाहरण देते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'महाश्रमण अर्थ जल्दी पकड़ता है। तुम लोग अर्थ पर कम ध्यान देते हो।' एक मुनि ने अपना बचाव करते हुए कहा- 'महाश्रमणजी का ज्ञान तो विशाल है।' गुरुदेव ने संतों की आत्मशक्ति को जगाते हुए प्रतिबोध दिया- 'तुम लोग कम हो क्या? पुरुषार्थ और लगन हो तो कुछ भी हो सकता है। ज्ञान बाहर से थोड़े ही आता है। व्यक्ति जितना पुरुषार्थ करता है, उतना ही अंतर का आवरण हटता जाता है। जिस प्रकार सिर, मुंह आदि के केश बाहर से नहीं आते, वैसे ही जितना पुरुषार्थ होता है, उतना ही ज्ञान का क्षयोपशम होता है अत: अवधानपूर्वक पुरुषार्थ करते रहो, अर्थ की अनुप्रेक्षा करते रहो, जीवन में ज्ञान के नए-नए स्रोत स्वतः खुलते जाएंगे।' __ आगम अध्यात्म के शिरोमणि ग्रंथ हैं। आगम का पारायण एक नास्तिक व्यक्ति को भी अध्यात्म से सराबोर कर सकता है। गुरुदेव के रोम-रोम में आगमों के प्रति अटूट आस्था रमी हुई थी। वे मानते थे यदि हम आगम कार्य को हाथ में नहीं लेते तो अध्यात्म एवं साधना की दृष्टि से रिक्त रह जाते। साधना की विविध दृष्टियों का जागरण आगमों के आलोक में ही संभव हो सका है।आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक आदि आगम-ग्रंथों के पद्यों का जब वे स्वाध्याय करते तब उनका आनंद और तल्लीनता देखते ही बनती थी। अनेक बार वे आगम-सूक्तों के . माध्यम से ही साधु-साध्वियों को विशेष दिशादर्शन देते– “बितिया मंदस्स बालया', 'इयाणिं नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं', 'जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया', खणं जाणाहि पंडिए', किमेगरायं करिस्सइ आदि आगम-सूक्त समय-समय पर अनेक बार उनके मुखारविंद से सुने जाते थे। वेदना के क्षणों में पूज्य गुरुदेव आगम गाथाओं के स्वाध्याय को Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ अध्यात्म के प्रयोक्ता ही अपना आलम्बन बनाते थे। लाडनूं प्रवास में अचानक गुरुदेव के श्वास का वेग बढ़ गया। श्वास लेने में कठिनाई होने लगी। सभी चिन्तित हो गए। उस समय की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए पूज्य गुरुदेव ने दूसरे दिन कहा- 'कल जब श्वास का वेग अचानक बढ़ गया तो उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन ‘दुमपत्तए' की अनेक गाथाएं स्मृति में उभर आईं। मैं बारबार दुमपत्तए अध्ययन की निम्न गाथा का अनुचिंतन करने लगा अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते। विवडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयम! मा पमायए॥' । गुरुदेव ने सभी साधु-साध्वियों एवं समणियों को बुलाकर उत्तराध्ययन का दसवां अध्ययन कंठस्थ करने और उसका प्रतिदिन स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी। अनेक बार सामूहिक रूप से लयबद्ध, विराम सहित इस अध्ययन का सहगान करना सिखाया। आगम गाथा के उच्चारण का प्रशिक्षण देते हुए उन्होंने कहा- 'मैं चाहता हूं कि सभी साधु-साध्वियां आगम गाथाओं का ऐसा शुद्ध, स्पष्ट एवं लयबद्ध उच्चारण करें कि स्वयं तो उसमें आत्मलीन बनें ही साथ ही सुनने वाला भी आत्मानंद के सागर में निमज्जन करने लगे।' . ___ पूज्य गुरुदेव की तीव्र तड़प थी कि साधु-साध्वियां अधिक से अधिक आगम ग्रंथों को कंठाग्र करें। उनका मानना था कि साधना के क्षेत्र में प्रगति करने की चाह वाले व्यक्ति का प्रथम सोपान आगम-स्वाध्याय है। इस सोपान पर आरोहण किए बिना कोई भी साधक साधना के प्रासाद पर नहीं पहुंच सकता। दशवैकालिक सूत्र सीखने के लिए तो वे बार-बार प्रतिबोध देते रहते थे। जैसे अनेक शास्त्रों का पारगामी विद्वान् होने पर भी यदि व्यक्ति व्याकरणमर्मज्ञ नहीं है तो वह शब्द-मीमांसा की अवगति नहीं कर सकता, वैसे ही एक मुनि जब तक दशवैकालिक को नहीं जानता, वह अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। प्रेरणा के प्रसंग में पूज्य गुरुदेव ने व्याकरण की महत्ता प्रकट करने वाला एक श्लोक बताया यद्यपि बहुनाधीषे, तथापि पठ पुत्र! व्याकरणम्। स्वजनः श्वजनो मा भूत्, सकलं शकलं सकृच्छकृत्॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी फिर इसी श्लोक को कुछ रूपान्तरण के साथ प्रस्तुत करते हुए दशवैकालिक सीखने की प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने फरमाया यद्यपि बहुनाधीषे, तथापि पठ दसकालियं सुत्तं। आचारोऽनाचारो, मा भूदध्यात्मविस्मृति फैन । प्रेरणा-स्रोतस्विनी को प्रवाहित रखते हुए गुरुदेव ने कहा'दशवैकालिक अध्यात्म का ऐसा व्यावहारिक ग्रंथ है, जिसमें मुनि-चर्या की सभी प्रारम्भिक बातों का ज्ञान हो जाता है। यदि आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़े तो चिंतन और व्यवहार में गंभीरता आए बिना नहीं रहेगी।' __सबके मन में स्वाध्याय की रुचि जागृत करने हेतु पूज्य गुरुदेव स्वाध्याय के नए-नए उपक्रम संघ के समक्ष उपस्थित करते रहते थे। लूणकरणसर प्रवास के दौरान फाल्गुन मास में रात्रिकालीन प्रार्थना करके गुरुदेव भीतर पधार गए। मकान का चौक काफी बड़ा था। शुक्लपक्ष की द्वादशी होने के कारण चन्द्रमा की चांदनी चारों ओर छिटकी हुई थी। गुरुदेव के मन में स्वाध्याय का एक नया प्रयोग करने की बात उभरी। उन्होंने सब संतों को पंक्तिबद्ध बैठने का निर्देश दिया। सब साधु छज्जे के नीचे बैठ गए। गुरुदेव ने सबको संबोधित करते हुए कहा- 'आज मैं एक स्वाध्याय-शिविर का प्रयोग करना चाहता हूं। सब साधु स्वाध्याय करें और कम से कम एक हजार गाथाओं की स्वाध्याय किए बिना अपने स्थान से नहीं उठे। एक हजार से अधिक स्वाध्याय करने वाले को प्रत्येक सौ गाथा पर एक परिष्ठापन (कल्याणक) पारितोषिक रूप में दिया जाएगा। स्वाध्याय समवेत भी चला और कुछ साधुओं ने अलग से भी स्वाध्याय करना प्रारम्भ किया। स्वाध्याय से सारा वातावरण सुंदर बन रहा था। उस प्रतियोगिता में उनतीस साधु संभागी बने। उन्होंने पचास हजार गाथाओं की स्वाध्याय कर गुरुदेव से पारितोषिक प्राप्त किया। उस दिन स्वाध्याय में संभागी सभी संत अनिर्वचनीय आनंद में डुबकी लगाने लगे। सुदूर यात्रा के दौरान अनेक ऐसी घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है, जब प्राकृतिक प्रकोप होने पर गुरुदेव ने समूचे परिपार्श्व को स्वाध्यायमय बना दिया। __उनकी स्वाध्याय की प्रेरणा देने की विविधता लोगों का ध्यान आकृष्ट करती थी। यही कारण था कि कभी स्वाध्याय नहीं करने वाले Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता व्यक्ति भी उनसे प्रेरणा पाकर स्वाध्यायी बन जाते थे। सन् १९६१ के बीदासर चातुर्मास में प्रवचन के समय गुरुदेव ने स्वाध्याय की प्रेरणा दी। प्रेरणा से प्रभावित व्यक्तियों में पांच सौ पृष्ठों से लेकर दस हजार पृष्ठ तक पढ़ने का संकल्प लेने वाले भाई बहिन थे। गुरुदेव ने स्वाध्याय को अनुष्ठान का रूप देते हुए कहा- 'तपस्या की भांति स्वाध्याय की भी पंचरंगी, सतरंगी और नवरंगी की जा सकती है। प्रथम दिन पांच व्यक्ति एक-एक मुहूर्त तक स्वाध्याय करें। वे ही व्यक्ति दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें दिन क्रमशः दो, तीन, चार और पांच मुहूर्त तक स्वाध्याय करें। यह स्वाध्याय की पंचरंगी हो जाएगी। गुरुदेव ने आगे फरमाया- 'मेरा विश्वास है कि प्रतिदिन 'पढ़ो और पढ़ाओ' इस प्रेरणा को अभियान का रूप देकर आगे बढ़ाया जाए तो सुंदर परिणाम सामने आ सकता है।' - गुरुदेव की इस प्रेरणा को पढ़कर कस्तूरचंद बांठिया ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- 'मैं मुक्तकंठ से स्वीकार करूंगा कि स्वाध्याय की प्रेरणा अवश्य ही तुलसीगणी की मौलिक सूझ है। ज्ञान की वृद्धि के लिए अब तक के जैनाचार्यों में से किसी ने ऐसी प्रेरणा नहीं दी। बाह्य तप की प्रेरणा तो हरेक कोई देता है, जबकि आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप कायक्लेश मात्र रह जाता है। इस स्वाध्याय की प्रेरणा के लिए मैं आचार्यश्री को अपनी श्रद्धा समर्पित करता हूं।' सरदारशहर में मंत्री मुनि के स्थिरवास काल में जैन तत्त्वज्ञान का क्रम चलता था। बाद में वह शिथिल हो गया। उस शैथिल्य को कम करने के लिए मोहनजी जैन के संयोजकत्व में गुरुदेव ने स्वाध्याय कक्ष प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। कुछ वर्षों तक वह क्रम चला फिर साधु-साध्वियों ‘की निरंतर सन्निधि न रहने से वह क्रम छूट गया। कानपुर से कलकत्ता यात्रा के दौरान एक बार बिहार में बारिश शुरू हो गयी। जसीडीह गांव १२ मील दूर था। कच्चे रास्ते में बारिश में चलना कठिन था अत: गुरुदेव ने बीच में एक गांव में छप्पर के नीचे आश्रय लिया। उसी समय गुरुदेव ने तात्त्विक प्रश्नों की गोष्ठी प्रारम्भ कर दी। लगभग चौरासी मिनट तक प्रश्नोत्तर का क्रम चला पर किसी को समय का भान ही नहीं रहा। ऐसे एक नहीं, सैकड़ों प्रसंग हैं जब स्थान की Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कमी या आंधी-बरसात के कारण रात्रि-जागरण किया पर ऊंघते हुए नहीं, पूरी जागरूकता के साथ। अनेक बार वे अपने शिष्यों को प्रतिबोध देते हुए कहते थे- 'यदि तुम सफल और सार्थक जीवन जीना चाहते हो तो वर्तमान को पहचानो, क्षण को समझो और स्वाध्याय-ध्यान से उस क्षण का भरपूर उपयोग करो। वर्तमान का क्षण बहुत कीमती है। यदि इसे खो दिया तो पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहेगा।' स्वाध्याय चैतसिक निर्मलता बढ़ाने एवं अप्रमत्त जीवन जीने का महत्त्वपूर्ण साधन है। पूज्य गुरुदेव ने दशवैकालिक सूत्र के 'सज्झायम्मि रओ सया' इस आदर्श को आत्मसात् किया इसलिए कभी वे पठन रूप स्वाध्याय में लीन रहते तो कभी पाठन, वाचन और उद्बोधन रूप स्वाध्याय में। उनकी जागृत स्वाध्यायचेतना ने धर्म-संघ में विकास के नए-नए आयाम उद्घाटित किए, इसमें कोई संदेह नहीं है। खड़े-खड़े स्वाध्याय ___ साधना के अनेक प्रयोगों में पूज्य गुरुदेव का एक विशेष प्रयोग था-खड़े-खड़े ध्यान अथवा स्वाध्याय करना। ८३ साल की उम्र में भी खड़े-खड़े स्वाध्याय करना उनके विशिष्ट पराक्रम एवं मनोबल का प्रतीक था। स्थिर होकर खड़े रहना ऊर्ध्वारोहण की विशेष प्रक्रिया है। वे मानते थे कि खड़े होने का अर्थ है- गतिशील होना। बैठे-बैठे कोई चल नहीं सकता। चलना है, गति करना है तो खड़ा होना ही होगा। खड़ा रहना अप्रमत्तता का प्रतीक है।' अपने ७१वें दीक्षा दिवस पर उन्होंने संपूर्ण संघ को खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का आह्वान किया। सैकड़ों साधु-साध्वियों ने उनकी प्रेरणा से प्रतिदिन आधा घंटा खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का संकल्प ग्रहण किया। उन्होंने केवल दूसरों को ही प्रेरणा नहीं दी, वे स्वयं भी नियमित रूप से खड़े-खड़े स्वाध्याय करते रहे। लाडनं प्रवास में सर्दी की ऋतु में गुरुदेव खड़े-खड़े स्वाध्याय करवा रहे थे। सर्द हवा चलने पर भी गुरुदेव को पसीना आ रहा था। महाश्रमणजी (युवाचार्य महाश्रमण) ने गुरुदेव को बैठकर स्वाध्यान करने का निवेदन किया। लेकिन गुरुदेव ने फरमाया- 'खड़े-खड़े स्वाध्याय Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ . अध्यात्म के प्रयोक्ता करने से ग्लानि नहीं, अपितु मानसिक प्रसन्नता रहती है। जिस दिन ऐसे स्वाध्याय नहीं कर पाता हूं, उस दिन मन में ग्लानि-सी रहती है, अनुपात रहता है। मैं सबको प्रेरणा देना चाहता हूं कि स्वस्थ अवस्था में यह अवसर नहीं खोना चाहिए। यदि स्वास्थ्य या किसी अन्य कारण से खड़े-खड़े स्वाध्याय न हो तो कम से कम मन में अनुताप होना चाहिए। अनुताप होने से भविष्य में अवरोध नहीं आयेगा। ध्यान-साधना ___ ध्यान सुप्त शक्ति को जगाने का सशक्त उपक्रम है। पूज्य गुरुदेव की अनुभूति में चेतना का वह क्षण ध्यान है, जिसमें प्रियता-अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है। यही क्षण अप्रमाद का क्षण है, पूर्ण जागरूकता का क्षण है, भावक्रिया का क्षण है, मूर्छा की ग्रन्थि को तोड़ने का क्षण है, सुषुप्ति को मिटाने का क्षण है और है अहिंसा का क्षण।" ध्यान के इस स्वरूप-बोध के बाद स्पष्ट हो जाता है कि आंख मूंदकर बैठना ही ध्यान है, ऐसा आग्रह नहीं होना चाहिए। ध्यान-चेतना जागृत होने के बाद साधक बाहर रहता हुआ भी अंतर में जीता है। पूज्य गुरुदेव स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे कि साधना की परिपक्वता में ध्यान आदि के लिए समय लगाने की आवश्यकता नहीं है। आंख मूंदकर बैठे या नहीं कोई अंतर नहीं आएगा किन्तु साधना के प्रारम्भ काल में मौन, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि सभी अंग आवश्यक हैं। शिखर तक पहुंचने के बाद, जीवन में रूपान्तरण घटित होने के बाद, प्रियता और अप्रियता के भाव समाप्त होने के बाद साधक कृतार्थ हो जाता है फिर उसकी हर क्रिया ध्यान बन जाती है। इसी संदर्भ में ध्यानयोग के बारे में पूज्य गुरुदेव के ये विचार नयी अवधारणा को प्रस्तुत करने वाले हैं'जिस व्यक्ति में आत्मोपलब्धि की तडप तीव्र हो जाती है, वह किसी समय में बंधता नहीं, समय उसके साथ बंध जाता है। ध्यान का साधक एक-दो घंटा ध्यान में रहे और शेष समय चंचलता में रहे, यह वांछनीय नहीं हो सकता। यह वही स्थिति है, जो आज के धर्म की है। धर्मस्थान में जाकर व्यक्ति प्रथम श्रेणी का धार्मिक बन जाता है पर व्यवहार में धर्म का कोई प्रभाव नहीं रहता, यह दोहरी मानसिकता की स्थिति न धर्म को Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी उजागर कर सकती है और न धार्मिक को एक सच्चे धार्मिक की प्रतिष्ठा दे सकती है। उपासना और आचरण में जब तक द्वैध बना रहेगा, धर्माराधना का अभीष्ट परिणाम नहीं आ सकेगा। ध्यान साधक का चित्त भी ध्यान से भावित होना चाहिए। ध्यान का प्रभाव समंचे दिन और समूचे जीवन पर होना चाहिए। ध्यान जीवन की समग्रता है। उसे देश और काल के खण्डों में विभाजित नहीं किया जा सकता। उसका प्रभाव सुबह जागरण से लेकर रात्रि में शयन तक की हर प्रवृत्ति पर होना चाहिए। चलना, बैठना, ठहरना, सोना, बोलना, खाना, पीना आदि जितनी प्रवृत्तियां होती हैं, उन सब पर ध्यान की पुट होने से ही व्यवहार में साधना की निष्पत्ति आ सकती है।' गुरुदेव के आसपास रहने वाले व्यक्ति अनेक बार यह अनुभव करते थे कि आंखें खुली रहने पर भी वे बाह्य दृश्यों से अप्रभावित रहते थे। कान खुले रहने पर भी शब्दों की ध्वनि का कोई असर नहीं होता था। शरीर में भयंकर पीड़ा होने पर भी वे उससे अप्रभावित रहते थे। यह स्थिति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो ध्यान की गहराई में उतर गया हो। निरालम्ब ध्यान की यह स्थिति आत्मविश्वास या विशेष क्षमता के बिना प्राप्त नहीं हो सकती। उनके स्थिरयोगी रूप को प्रकट करने वाले अनेक संस्मरण हैं। प्रस्तुत संस्मरण उन लोगों को प्रेरणा देने वाला होगा, जो मक्खी एवं मच्छर की भनभनाहट से विक्षिप्त होकर किसी कार्य में एकाग्र नहीं हो पाते हैं। सन् १९६३ के लाडनूं चातुर्मास में ध्यान-दिवस का कार्यक्रम था। प्रवचन के समय आधा घंटा ध्यान का कार्यक्रम रखा गया। वहां मक्खियों की बहुलता थी। पूज्य गुरुदेव के मुखारविंद एवं शरीर पर मक्खियां अपना स्थान बना रही थीं। उन्हें हटाने के लिए मुनिश्री जयचंदलालजी सेवा में उपस्थित हुए। किन्तु गुरुदेव ने उन्हें ऐसा करने से इंकार कर दिया। प्रवचन-पंडाल में बैठे लोगों के हाथ मक्खियों को इधरउधर करने में घूम रहे थे पर गुरुदेव शांत एवं स्थिरभाव से ध्यान का अभ्यास कर रहे थे। उस दिन का अनुभव बताते हुए गुरुदेव ने प्रवचन में फरमाया- 'चित्त की घनीभूत एकाग्रता के कारण यह महसूस भी नहीं हुआ कि यहां मक्खियां सता रही हैं'। यह घटना उनके स्थिर एवं अविचल योगी का स्वरूप प्रकट करती है। जिनकी चेतना का प्रवाहं बाह्याभिमुख Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ अध्यात्म के प्रयोक्ता है, वह ध्यान नहीं कर सकता। आत्माभिमुख व्यक्ति ही ध्यान का अधिकारी हो सकता है। आधुनिक ध्यानयोगियों का मंतव्य है कि ध्यान करने के लिए विचारशून्य बनना आवश्यक है अत: जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक ध्यान नहीं किया जा सकता। इस अभिमत का प्रतिकार करते हुए पूज्य गुरुदेव ने अपने मत की प्रस्थापना करते हुए कहा - 'लोग यह कहते हैं कि मन स्थिर होगा तभी ध्यान करेंगे, यह भी एक प्रकार की विसंगति है । मन चंचल है, इसीलिए ध्यान का अभ्यास करने की जरूरत है । अभ्यास नहीं होगा तो मन कभी स्थिर बनेगा ही नहीं । चंचल मन में ध्यान नहीं हो सकता, अभ्यास के बिना चंचलता मिटेगी नहीं। इस दृष्टि से हर बात को सापेक्षता के आधार पर समझना चाहिए' कुछ लोग ध्यान को अकर्मण्य व्यक्तियों का काम मानते हैं । उनकी दृष्टि में ध्यान वे व्यक्ति करते हैं, जिनके पास कोई कार्य नहीं होता पर इस मान्यता से पूज्य गुरुदेव की सहमति नहीं थी । इसका निराकरण करते हुए वे कहते थे— 'मेरे अभिमत से यह चिन्तन उन लोगों का हो सकता है, जो ध्यान की विधि से परिचित नहीं हैं और उस प्रक्रिया से गुजरे नहीं हैं। जो ध्यान अकर्मण्यता को निष्पन्न करता है, मैं उसे ध्यान मानने के लिए तैयार नहीं हूं। ध्यान परम पुरुषार्थ और आंतरिक क्रियाशीलता है। इसे कोई-कोई व्यक्ति ही कर सकता है। ध्यान की शक्ति इतनी विस्फोटक होती है कि वह मानव - चेतना में छिपी अनेक विशिष्ट शक्तियों का जागरण कर मनुष्य को कहां से कहां पहुंचा देती है । ' कुछ लोगों का चिंतन है कि ध्यान व्यक्ति को स्वार्थी बनाता है। सामूहिक जीवन में जब व्यक्ति स्वयं को देखना प्रारम्भ कर देता है तो वह व्यक्ति दूसरों की कठिनाई एवं परेशानी को नहीं देख सकता अतः ध्यान करने वाला व्यक्ति अधिकांशतः अव्यवहारिक बन जाता है। जैनेन्द्रजी का चिंतन था कि ध्यान करने वाला व्यक्ति आत्मरति हो जाता है । वह अपने आप में रमण करने लगता है और समाज से कट जाता है इसलिए समाज के लिए वह उपयोगी नहीं बन सकता। इस प्रश्न के उत्तर में पूज्य गुरुदेव का चिंतन था कि ध्यान व्यक्ति को स्वार्थ की भूमिका से ऊपर उठाकर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी परमार्थ तक पहुंचा देता है। स्वार्थी व्यक्ति केवल अपने हित की बात सोचता है जबकि ध्याता समष्टि के सुख-दुःख से अपनी चेतना को जोड़ देता है। वह आत्मौपम्य के सोपान पर आरोहण कर सबके सुख-दुःख के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। अपने आपको देखने वाले का मानवीय व्यवहार दूसरों के प्रति भी करुणापूर्ण और मृदु होगा। ध्यान के बारे में वे आत्मविश्वास के साथ कहते थे * 'मैं स्पष्ट रूप से घोषणा कर सकता हूं कि जो व्यक्ति ध्यान का प्रशिक्षण नहीं लेगा, ध्यान का अभ्यास नहीं करेगा, वह अधूरा रहेगा, अक्षम रहेगा और जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो सकेगा।' *'ध्यान चित्त की उच्छंखलता पर एक अंकुश है। जो इसका प्रयोग करता है, वह कभी असामाजिक व्यवहार नहीं कर सकता। इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति, आस्था और प्रयोग की निरन्तरताये चार तत्त्व साधक को ध्यान की गहराई में ले जाते हैं। गुरुदेव ने अपनी ध्यान-साधना में इन चारों तत्त्वों पर विशेष बल दिया। वे प्रतिदिन ध्यान का नियमित प्रयोग करते थे। लोगों की अत्यधिक भीड़ होने पर भी उनके इस क्रम में कोई अंतर नहीं आता था। ध्यान-साधना के प्रति उनका दृढ़ विश्वास बोलता था कि जो शक्तिसंचय, तेज, ज्योति और आनंद का आविर्भात ध्यान से होता है, वह अन्य किसी भी अभ्यास-साधन से नहीं होता। इसीलिए मैं स्वयं बहुत बार चाहता हूं कि मैं मौन एवं ध्यान की विशिष्ट साधना प्रारंभ करूं । एकान्तवास में अपना अधिक समय लगाऊं। संघ का उत्तरदायित्व मेरे पर है, किन्तु फिर भी मैं अपना अधिकाधिक समय आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, ध्यान, जप और भावना-अनुप्रेक्षाओं में ही लगाना चाहता हूं।' ध्यान की नियमित साधना से चिंतन और व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त हो जाती है तथा वृत्तियों में रूपान्तरण घटित होता है। पूज्य गुरुदेव का चिंतन था- 'यदि ध्यान से जीवनचर्या न बदले, मान्यताएं और धारणाएं न बदलें, स्वभाव न बदले, रहन-सहन, आचरण और व्यवहार न बदले तो समझना चाहिए कि ध्यान की दिशा सही नहीं है। रूपान्तरण Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता ध्यान का अनिवार्य घटक है। ध्यान से निष्पन्न रूपान्तरण परिस्थितिजन्य या बाध्यता से प्रेरित नहीं होता वरन् स्वतः होता है इसलिए वह स्थायी और सुखद होता है। ध्यान के बिना निर्मलता, स्वस्थता और स्थिरता की कल्पना ही असंभव है।' ध्यान से उद्भूत निम्न विशेषताएं पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व के साथ तदाकार हो गई थीं- स्थितप्रज्ञता, संकट में धैर्य, सापेक्ष चिंतन, संयम की शक्ति का विकास, दृढ़ संकल्प, सहजानंद का उदय आदि। ___ ध्यान व्यक्ति को परिस्थिति के झंझावातों से अप्रभावित रहने की शक्ति देता है। जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों में ध्यानी व्यक्ति का धैर्य नहीं डोलता। कठिनाइयों को झेलने तथा खतरों को मोल लेने की अद्भुत क्षमता उसमें देखी जा सकती है। परिस्थिति से अप्रभावित रहने की जो अप्रतिम क्षमता पूज्य गुरुदेव में थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। चित्त की यह सघनता उन्हें ध्यान की एकाग्रता से प्राप्त हुई, यह नि:संकोच कहा जा सकता है। वे तटस्थ भाव से घटना को जानते-देखते, पर उसके साथ बहते नहीं। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि ध्यान अपने आप में विनम्रता का प्रयोग है, अनाग्रह का प्रयोग है। ध्यानकाल में अहं टूटता है, विनम्रता बढ़ती है और अनाग्रह विकसित होता है।' ___ ध्यान आंतरिक क्रांति है। यह जमे हुए विकृत संस्कारों को उखाड़ने की प्रक्रिया है। ध्याता के सामने ध्यान के समय अनेक प्रकार के संस्कार उभरते हैं, यदि ध्याता के मन में किसी प्रकार का भय या प्रलोभन होता है तो संस्कारों के आक्रमण से सामान्य साहस वाला व्यक्ति भयभीत होकर ध्यान को छोड़ देता है। अथवा ध्यान से प्राप्त होने वाली तैजसशक्ति के चमत्कारों को देखकर दिग्मूढ़ हो जाता है किन्तु उन संस्कारों का सामना करने वाले व्यक्ति की चेतना राग-द्वेष से मुक्त होकर निर्मल एवं पवित्र हो जाती है। चंचलता के कारण ध्यान से भय खाने वाले लोगों को प्रतिबोध देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- 'जिस व्यक्ति का चित्त चंचल है, वह चाहकर भी ध्यान नहीं कर पाता। जिसका चित्त स्थिर है, उसके लिए ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है, इस प्रकार का चिंतन एकांगी है। एकांगी दृष्टि रखने वाला व्यक्ति ही यह कह सकता है कि जब तक मेरा मन स्थिर नहीं हो जाता, मैं ध्यान नहीं करूंगा। ध्यान के प्रति गहरी आस्था और दृढ़ संकल्प से चित्त की चंचलता को मिटाया जा सकता है।' Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के `शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ८६ ध्यान के दौरान साधक अनेक अनुभवों से गुजरता है, उन अनुभवों को प्रकट करना संभव नहीं होता। वे अनिर्वचनीय और अवक्तव्य होते हैं । गुरुदेव का जीवन खुली किताब था अतः उनके जीवन में छिपाव जैसी चीज थी ही नहीं । सन् १९६१ की डायरी में लिखा गया उनका ध्यान का अनुभव पठनीय है- 'आज केशलोच हुआ। मैंने अपना दैनिक ध्यान का समय समझ पद्मासन लगाकर ध्यान कर लिया। सिर का आधे से ज्यादा लोच ध्यान में हुआ। अच्छा आनन्द आया । आईन्दा भी ऐसा करने का मन हुआ । सहिष्णुता बढ़ी। मेरी प्रवृत्ति इधर में सहजतया ध्यान आदि की तरफ आकृष्ट हो रही है।' पूज्य गुरुदेव को ध्यान करना नहीं पड़ता, सहज होता था । विनोबा भावे से पूछा गया- 'आप ध्यान कब करते हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया' यह पूछो कि मैं ध्यान कब नहीं करता ? मैंने जीवन की हर क्रिया के साथ ध्यान को जोड़ने का प्रयत्न किया है।' पूज्य गुरुदेव भी ध्यान कब नहीं करते, ऐसे क्षण खोजने पर भी मिलने कठिन थे क्योंकि उनकी अप्रमत्तता, समता, एकाग्रता और भावक्रिया की साधना इतनी सध चुकी थी कि आत्मा की विस्मृति के क्षण बहुत कम उपस्थित होते थे। उनकी हर क्रिया ध्यानयोग से अनुप्राणित थी । यही कारण है कि उनका चलना, फिरना, बोलना, बैठना एवं सोना सब ध्यान बन गया था । अनुप्रेक्षा का प्रयोग साधना के क्षेत्र में रूपान्तरण का एक बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है - अनुप्रेक्षा । आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में अनुप्रेक्षा मस्तिष्कीय धुलाई की प्रक्रिया है । अनुप्रेक्षा एवं भावना में विस्फोटक शक्ति होती है। इसके सम्यक् या असम्यक् प्रयोग से बुरी वस्तु अच्छी तथा अच्छी वस्तु बुरी बन सकती है। मीरा ने जहर का प्याला पीया लेकिन भावना की शक्ति से उसने उसे अमृत में परिवर्तित कर दिया। अनुप्रेक्षा 'अनुरागाद् विरागः ' का सिद्धान्त है। इसमें प्रतिपक्ष भावना के द्वारा वैभाविक प्रवृत्तियों को ध्वस्त किया जा सकता है। आत्मानुशासन जगाने में अनुप्रेक्षा एक सशक्त कड़ी बन सकती है । विशिष्ट विचार - पद्धति से मन और आत्मा को स्वाधीन बनाया जा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ अध्यात्म के प्रयोक्ता सकता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में आत्मानुशासन जगाने के लिए अनुप्रेक्षा का यह क्रम उपयोगी बन सकता है- 'मेरा मन मेरे हाथ में नहीं है। मेरी इंद्रियों पर मेरा अधिकार नहीं है। मैं स्वतंत्र कहां हूं? जब तक मन और इन्द्रियां मेरे अधीन नहीं होंगी, मैं इनका यंत्र बना रहूंगा। यंत्र बनकर जीने वाला जीवन का आनंद कैसे पा सकता है ? इस अनुचिंतन या अनुप्रेक्षा के द्वारा अस्सी प्रतिशत व्यक्तियों में बदलाव की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।' भगवान् महावीर ने मुख्यत: १२ भावनाओं का प्रतिपादन किया। उनमें एकत्व, अन्यत्व, अनित्य एवं अशरण- ये चार भावनाएं मुख्य हैं। पूज्य गुरुदेव समय-समय पर इन भावनाओं से अपने आपको भावित करते रहते थे अतः आगमों में मुनि के लिए प्रयुक्त 'भावियप्पा' विशेषण उन पर पूर्णतया चरितार्थ होता था। 'मैं अकेला हूं'; 'हर संयोग का अन्त वियोग में होता है'- इस सच्चाई से भावित आत्मा को कोई दुखी नहीं बना सकता। परिवार, जाति, समाज, संप्रदाय या राष्ट्र से जुड़ने वाला आंतरिक आसक्ति के कारण प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होते ही विक्षिप्त हो जाता है अतः समूह में रहते हुए अकेला रहना बहुत बड़ी कला है। पूज्य गुरुदेव समूह में जीते थे पर हर क्षण एकत्व की अनुभूति से अनुस्यूत रहते थे। अपने हाथों से दीक्षित अनेक अंतेवासी शिष्य उनके देखते-देखते स्वर्गवासी हो गए पर उस स्थिति में भी उनको मानसिक विचलन की अनुभूति नहीं हुई। उनकी संसारपक्षीया माँ (वदनांजी), भाई (चम्पालालजी स्वामी), बहिन (महासती लाडांजी), मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी, बाल मुनि कनक आदि अनेक व्यक्ति देखते-देखते विलीन हो गए पर वे उन सब स्थितियों में स्थिरयोगी दिखाई पड़े। वे मानते थे कि जितने भी बाह्य सम्बन्ध हैं, वे सब स्थापित हैं, कल्पित हैं। स्थापित सम्बन्धों को सहज मानकर उनमें ममत्व रखना स्वयं को दुःखी बनाना है। संयोग-वियोग के चक्र में शांतिपूर्ण जीवन वही व्यक्ति जी सकता है, जिसने अपनी आत्मा को भावित किया हो या प्रतिपक्षी अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास किया हो। उनके जीवन में अनुप्रेक्षा का प्रयोग इतना आत्मगत हो गया था Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कि समय-समय पर जन-जीवन को भी अनुप्रेक्षाओं से भावित करके उनकी वेदना, पीड़ा और दुःख को हल्का करते रहते थे। लगभग हर रोज कोई न कोई शोक संतप्त परिवार उनके चरणों में सम्बल लेने पहुंच ही जाता था। अकाल मौत से संतप्त परिवारों को मानसिक रूप से सम्बल देना सरल कार्य नहीं होता लेकिन पूज्य गुरुदेव उनको ऐसा पाथेय देते कि वे सब भारहीन एवं शक्ति-सम्पन्न होकर वापिस लौटते थे। गुरुदेव भावनात्मक रूप से अनुप्रेक्षा की ऐसी विचार - सरणि प्रस्तुत करते कि व्यक्ति संसार के वास्तविक स्वरूप को समझकर आत्मस्वरूप में रमण करने लगता । जीवन से निराश एवं उदास व्यक्ति में भी नए प्राणों का संचार करने की अद्भुत कला उनके पास थी। जब-जब गुरुदेव उपाध्याय विनयविजयजी द्वारा रचित शांतसुधारस भावना काव्य का संगान करते तो उनकी स्वरलहरी, हावभाव और तन्मयता देखते ही बनती थी । संस्कृत भाषा में निबद्ध शांतसुधारस में १२ भावनाओं का बहुत सरस एवं मार्मिक विवेचन हुआ है। पूज्य गुरुदेव ने स्वयं सोलह भावनाओं पर 'सुधारस' पुस्तक में लगभग ४० भावपूर्ण गीतों की रचना की । प्रत्येक गीत जीवन के विकारों एवं निषेधात्मक भावों को दूर करके भाव - परिष्कार की महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। गायक एवं श्रोता उन गीतों को गाते-गाते उन्हीं भावों में रमण करने लगते हैं। ८८ अनुप्रेक्षा चित्त की निर्मलता और रूपांतरण का हेतु है, इसी विश्वास से पूज्य गुरुदेव ने अनुप्रेक्षाओं का स्वयं प्रयोग किया और दूसरों को कराया । एकाग्रता एवं स्मृति का प्रयोग साधना, शिक्षा, शोध, कला, संगीत और लेखन आदि सभी क्षेत्रों में सफलता हासिल करने के लिए एकाग्रता अपेक्षित है। मनुष्य और पशु के ज्ञान में अन्तर रहने का सबसे बड़ा कारण एकाग्रता की शक्ति का विकास है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं- 'मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा प्रारम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूं।' Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता पूज्य गुरुदेव की एकाग्रता बचपन से ही सधी हुई थी। यही कारण है कि बचपन में उन्होंने २० हजार पद्यों को कंठाग्र कर लिया। एक दिन में ५० से लेकर १०० तक संस्कृत श्लोकों को याद करना उनकी विशिष्ट एकाग्रता की शक्ति का परिचायक था। ___वि.सं. २००० का चातुर्मास गंगाशहर में था। चातुर्मास के बाद शीतकाल में गुरुदेव चोखलों में विहरण कर रहे थे। नाल प्रवास के दौरान गुरुदेव के मन में कुछ नया प्रयोग करने की मानसिकता बनी। बिना कॉपी, कलम के गुरुदेव जैन ऐतिहासिक कथाओं पर स्फुट काव्य की रचना करते। दिन में मन ही मन गुनगुनाते हुए पद्यों की रचना करते और रात्रिकालीन व्याख्यान में उनको जनता के सामने गाकर प्रस्तुत करते और दूसरे दिन उनको लिपिबद्ध करते। उदाई राजा का पूरा व्याख्यान जो 'कुम्हारी की करामात' नाम से प्रसिद्ध है, इसी क्रम से बना। लोग उस व्याख्यान को सुनकर झूम उठते और पूरे दिन जन-जन की जुबान पर इसी की चर्चा सुनी जाती। कुछ अन्य व्याख्यान भी इसी क्रम से रचे गए, जो 'चंदन की चुटकी भली' पुस्तक में प्रकाशित हुए हैं। ऐसा प्रयोग एक आध्यात्मिक व्यक्ति, जिसकी एकाग्रता प्रकर्ष पर पहुंची हुई हो, वही कर सकता है। आज की पीढ़ी निश्चित रूप से एकाग्रता और अद्भुत बुद्धि के इस प्रयोग को पढ़सुनकर चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाएगी। उदारता एवं निस्पृहता का प्रयोग आचार्यपद-विसर्जन के बाद भी उनका नये-नये प्रयोगों का क्रम नहीं छूटा। प्रतिक्षण उनका मानस कुछ न कुछ नए प्रयोग करने के लिए लालायित रहता था। सन् १९९७ में उन्होंने नये प्रयोग की घोषणा की'सन् १९९७ का मर्यादा महोत्सव आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की सन्निधि में चाड़वास में मनाया जाएगा। मैं लाडनूं में ही रहूंगा।' पूज्य गुरुदेव की इस घोषणा ने चतुर्विध धर्मसंघ को स्तब्ध कर दिया। धर्मसंघ ने बार-बार पूज्य गुरुदेव को अपना निर्णय बदलने को कहा पर गुरुदेव अपने निर्णय पर अटल थे। उन्होंने कहा- 'यह हमारा सुचिन्तित प्रयोग है।' तत्क्षण महाश्रमणीजी ने गुरुदेव को निवेदन किया- 'आप प्रयोगधर्मा हैं अतः नए-नए प्रयोग करते ही रहते हैं। पूज्य गुरुदेव ने मुस्कराते हुए फरमाया Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी 'मैंने जीवन में अनेक प्रयोग किए हैं। यह भी एक नया प्रयोग है कि मेरे बिना भी अच्छा महोत्सव हो सकता है।' गुरुदेव के समक्ष लोगों ने प्रश्न किया- 'क्या यहां भी महोत्सव का कार्यक्रम रहेगा?' गुरुदेव ने सहजता से उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'महोत्सव के रूप में नहीं। वह तो चाड़वास में ही होगा। हम तो बचा-खुचा मनाएंगे। जो लोग वहां नहीं जा सकेंगे उनके और अत्र स्थित साधु-सध्वियों के बीच मर्यादापत्र-वाचन आदि का कार्यक्रम रहेगा।' अध्यात्म की ऊंचाई पर प्रतिष्ठित साधक ही इतना निस्पृह और उदार हो सकता है। एकान्तवास के प्रयोग भगवान् महावीर ने दो प्रकार की साधना का निरूपण कियासंघबद्ध एवं एकाकी। उन्होंने संघबद्ध साधना को अधिक महत्त्व दिया क्योंकि बीमारी, बुढ़ापा जैसी अवस्थाओं में व्यक्ति को सहयोग की अपेक्षा रहती है। अकेलेपन में सहारा बनने वाला कोई नहीं होता। इसके अतिरिक्त साधना की जो कसौटी समूह या संघ में हो सकती है, वह एकाकी साधना में नहीं हो सकती। एकाकी साधना के अधिकारी वे होते हैं, जो स्वयंबुद्ध होते हैं तथा जिन्हें दूसरों की अपेक्षा नहीं रहती। सामूहिक जीवन की कठिनाइयों को पार करने वाला साधक ही एकाकी साधना के योग्य बन सकता है। लेकिन यह बात भी सत्य है कि साधना के सघन प्रयोग सामूहिक जीवन की अपेक्षा एकांत में अधिक प्रभावी बन सकते हैं क्योंकि सामूहिक जीवन में अनेक ऐसे विक्षेप आते हैं, जिनसे चाह कर भी नहीं बचा जा सकता। पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में दोनों प्रकार की साधनाओं को महत्त्व दिया। वे कहते थे- 'मुझे एकान्तवास बहुत प्रिय है, पर सामुदायिक जीवन भी कम प्रिय नहीं है। साधना के क्षेत्र में वैयक्तिक और सामूहिक प्रवृत्तियों में संतुलन की अपेक्षा है।' साधना संघबद्ध हो या एकाकी इस विषय में पूज्य गुरुदेव का सापेक्ष दृष्टिकोण मननीय है * साधना को लेकर किसी प्रकार का आग्रह नहीं होना चाहिए। एकांगी व्यक्ति अधूरा होता है। मेरी यह आकांक्षा है कि प्रत्येक साधक सर्वांगीण बने। वह एकांत में रहे, समूह में भी रहे । एकांत में ही साधना हो सकती है अथवा समूह ही साधना की कसौटी है- इन दोनों ऐकांतिकताओं Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता से बचकर ऐसा मार्ग खोजना चाहिए, जो साधना के उपयुक्त वातावरण की वकालत करता हुआ भी उसे व्यक्ति के जीवन से जोड़े। * साधक अकेला भी साधना कर सकता है और समूह में भी कर सकता है। दूसरे सब काम समूह में हो सकते हैं, तब साधना में कौनसी बाधा है? ग्राम हो या नगर, जंगल हो या सूना घर, साधक के मन में एकांत हो तो वह समूह में रहकर भी अकेला है। जब तक मन में एकांत नहीं होता, व्यक्ति जंगल में जाकर भी भीड़ से घिरा रहता है। * निश्चय की भूमिका में साधक अकेला ही होता है। व्यवहार की भूमिका उसे संघ के साथ जोड़ती है। संघ के साथ रहते हुए अकेलेपन को अनुभव करना यह भूमिका सही अर्थ में एक प्रशस्त भूमिका है। संघबद्ध साधना में प्रेरणा की सहस्रों धाराएं बहती रहती हैं। वहां स्खलना पर अंगुलिनिर्देश अवश्यंभावी है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था कि वैयक्तिक जीवन निरपेक्ष होता है। साधना की परिपक्वता के बिना एकाकी साधना घातक हो सकती है। कब उठना, कब सोना, कब बोलना, कब मौन रहना, कब ध्यान करना, कब स्वाध्याय करना, कब भोजन करना और कब उपवास करना? कोई कहने वाला नहीं होता। व्यक्ति अपनी इच्छा की प्रेरणा से जब जो चाहे कर सकता है। वही व्यक्ति समूह के साथ जुड़ता है तो मर्यादा एवं व्यवस्थाएं आवश्यक हो जाती हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार एकांतवास का अर्थ है-प्रतिस्रोतगमन। भीड़ से हटकर चलना एकांतवास है। अनुस्रोत में सब बह सकते हैं लेकिन प्रतिस्रोत में कोई-कोई ही चल सकता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर का 'एकला चलो रे' और महावीर का 'संजोगा विप्पमुक्कस्स' सूक्त एकांतवास के वाचक बन सकते हैं। एकान्तवास मस्तिष्क की क्षमता और अन्तर्दृष्टि के विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है। कुछ लोग अकेलेपन को एकांत मानते हैं। किन्तु एकांत का अर्थ है जहां एक का भी अन्त हो जाए। जहां व्यक्ति स्वयं रहता हुआ भी अपने भौतिक शरीर और मन से स्वयं को अलग अनुभव कर लेता है अर्थात् जहां विदेह की स्थिति में चला जाता है, वही वास्तविक एकांत है। इस संदर्भ में गुरुदेव का मंतव्य मननीय है- 'संकुलता केवल Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . ९२ लोगों की ही नहीं होती, मनुष्य के विचार, इन्द्रियां, मन और शरीर भी संकुलता उत्पन्न करते हैं। वे एकाग्रता में बाधक होते हैं। इस संकुलता को तोड़े बिना एकांतवास भी समूहवास जैसा बन जाता है। यही कारण है कि हिसार में एकांतवास के प्रथम दिन अपनी डायरी में संकल्प को पुष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- 'साधना-काल में मैं लोगों की भीड़ से ही नहीं, अपने मन, विचार और शरीर से भी मुक्त रहने का अभ्यास करूंगा। आज पहला दिन है और प्रयोग भी पहला है। तीन बार में आठ घंटे तक मैं बिल्कुल अकेला रहा। मौन और जप का प्रयोग किया। खाद्य-संयम किया। अन्य इंद्रियों का संयम किया। अपूर्व उल्लास का अनुभव हुआ। साधना स्वयं उल्लास है। साधनाकाल में अपने इष्ट की प्रत्यक्ष या परोक्ष सन्निधि और स्मृति उस उल्लास को और अधिक बढ़ा देती है। उल्लास के इन क्षणों में मैं अपने धर्मसंघ के भविष्य को उल्लासमय बनाने की मंगल कामनाओं से भरा हुआ हूं।' एकमासिक एकांतवास की सम्पन्नता पर अपने अनुभवों को बताते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'जनसंकुलता से इतने लम्बे एकांत में रहने का यह पहला अवसर है। इससे पूर्व मैं लोगों की दृष्टि से अकेला होता तो एक मुनि भले ही वह नव दीक्षित ही क्यों न हो, मेरे पास अवश्य रहता। अब मैं घंटों तक एकदम अकेला रहता हूं, किन्तु कभी अकेलेपन को लेकर घुटन महसूस नहीं होती। इस प्रयोग में मुझे अपूर्व आनन्द की अनुभूति हुई है। इस अपूर्वता को विचित्र मानना हो तो माना जा सकता है। व्यस्तता या खालीपन को लेकर मुझे विचित्र जैसा कुछ नहीं लग रहा है।' पूज्य गुरुदेव को भीड़ में रहते हुए भी एकांत का अनुभव था अतः एकांतवास उनके लिए अधिक फलदायी एवं सार्थक बन सका। साधना के अभाव में दिन भर श्रद्धालु लोगों से घिरा रहने वाला व्यक्ति यदि अकेला हो जाए तो उसका मन लगना कठिन हो जाता है। व्यक्तिगत साधना को तेजस्वी, प्रभावी एवं वर्चस्वी बनाने हेतु तथा आत्मबल की वृद्धि के लिए उन्होंने समय-समय पर संघबद्ध साधना के साथ एकांतवास के प्रयोग किए। पूज्य गुरुदेव ने मुख्यतः राजनगर, बीदासर, लाडनूं, जयपुर, छापर, सरदारशहर आदि क्षेत्रों में एकांतवास के Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रयोग किए । यद्यपि इन सबका विधिवत् इतिहास सुरक्षित नहीं रह सका, फिर भी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर उनके एकांतवास के प्रयोगों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। जब उन्होंने प्रथम बार एकांतवास का प्रयोग किया तो पत्रकारों ने उनसे पूछा- 'इतने बड़े संघ का नेतृत्व संभालते हुए आपने एकांतवास का निर्णय कैसे लिया?' पूज्य गुरुदेव ने प्रश्न को समाहित करते हुए कहा- 'एकांतवास की साधना का यह निर्णय सुचिन्तित था। वर्षों से मेरी यह भावना थी कि साधना के क्षेत्र में कुछ नए प्रयोग करूं। मैं अपने धर्मसंघ को और अपने आपको अध्यात्मविद्या की दिशा में अधिक गतिशील देखना चाहता हूं। दूसरी बात, जैनसाहित्य में उल्लिखित विधियों के प्रयोग वर्तमान में छूट से गए हैं। मैं चाहता हूं कि वे अज्ञात और विस्मृत विधियां पुनः प्रकाश में आएं। इसी दृष्टि से मैंने यह प्रयोग प्रारंभ किया है।' . एकांतवास के सर्वप्रथम प्रयोग की घोषणा भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी को राजनगर में की गयी। जिस किसी ने एकांतवास की बात सुनी, अचम्भित रह गया क्योंकि तेरापंथ का आचार्य जनता से दूर रहे, जनसंपर्क न करे, यह बात बुद्धिगम्य नहीं थी। यह सात दिन का प्रयोग था, जिसमें चिंतन, मनन, ध्यान, स्वाध्याय आदि पर अधिक जोर दिया गया। यह एकांतवास २५-९-६० को प्रारभ्म किया गया। आश्विन कृष्णा चतुर्थी को प्रातः एकांतवास के लिए गुरुदेव पहाड़ी पर स्थित दयालशाह के देहरे पर पहुंचे। साथ में १५ साधु एवं सैकड़ों भाई-बहिन थे। एकांतवास के चिंतन से लोगों के चेहरे खिन्न थे। देहरे पर पहुंचते ही गुरुदेव ने मंदिर के सभामण्डप में साधुओं के साथ एक घंटे का ध्यान किया। आहार के बाद प्रतिदिन चिंतन-गोष्ठी चलती तथा मध्याह्न में आध्यात्मिक ग्रंथों का सामूहिक वाचन चलता। उसके बाद गुरुदेव प्राचीन मर्यादावलि का अवलोकन करवाते। रात्रि में सह स्वाध्याय का क्रम चलता। पूज्य गुरुदेव सभामण्डप के मध्य विराजते। उनके चारों ओर चार-दिशाओं में छह-छह साधु अवस्थित रहते। सात दिन तक स्वाध्याय का यही क्रम चला। विज्ञप्ति में प्रकाशित 'संस्मरणों के वातायन' में इस एकांतवास का अनुभव पूज्य गुरुदेव ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'उन सात दिनों में बहुत गम्भीर चिंतन, मंथन, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ९४ स्वाध्याय और ध्यान में समय का उपयोग हुआ। दिन में छह घंटे और रात्रि में तीन घंटे के अनुपात से काम करने में अत्यधिक आनन्द का अनुभव हुआ। कई बार ऐसा लगा मानो नई शक्ति का अर्जन हो रहा है। वह वर्ष तेरापंथ की द्विशताब्दी का वर्ष था । उस वर्ष धर्मसंघ में एक नया मोड़ आए, यह अभिप्रेत था । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की शक्ति के संरक्षण और संवर्धन का संकल्प था । उस दृष्टि से ठोस और सार्थक चिन्तन चला ।' दूसरा एकांतवास का प्रयोग २८ सितम्बर से ४ अक्टूबर १९६१ तक बीदासर में किया गया। युगप्रधान विशेषण से अलंकृत होने पर स्वयं तथा संघ को उस अनुरूप प्रमाणित करने के लिए यह एकांतवास प्रारंभ किया गया। इसमें आठ साधुओं की सहभागिता रही। प्रवचन के मध्य घोषणा करते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'अन्यान्य क्रियाओं एवं साधनों के साथ-साथ अन्तर्यात्रा एवं साधना में गति लाने के उद्देश्य से स्वाध्याय, चिंतन, मनन और निदिध्यासन के लिए मैं तारीख २८ से एकांतवास लेने की बात सोच रहा हूं। इस प्रयोग में प्रातः कालीन प्रवचन और सामूहिक वंदना के अतिरिक्त मुझे एकांतवासी रहना है।' गुरुदेव ने यह एकांतवास थानमलजी मुणोत की कोठी में किया । यद्यपि इसे पूर्ण एकांतवास नहीं कहा जा सकता पर जन-संकुलता से बहुत बचाव किया गया। इस एकांतवास अतीत के सिंहावलोकन के साथ-साथ भावी योजनाओं पर चिंतन किया गया, जिससे विकास के नए अध्याय खुलें। बीदासर का यह एकांतवास स्वास्थ्य, साधना एवं संघीय विकास - इन तीनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा। उस एकांतवास की दिनचर्या इस प्रकार रही प्रातः ४-५ एकांत ध्यान एवं स्वाध्याय । ५-७ सहस्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन एवं सामूहिक वंदना । ७-९ पंचमी समिति, आसन-प्राणायाम, ध्यान । ९-१० प्रवचन ( प्रवचन - पंडाल में ) । १०- ११ ध्यान, कायोत्सर्ग । ११-१२ आहार, पत्रावलोकन, हल्का विश्राम | १२- १ मौलिक रचना । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता N १-२ एकांत चिंतन (परामर्श)। ३-४ सामूहिक वाचन। ४-६ पंचमी समिति, आहारनिवृत्ति, डायरी-लेखन। ६-८ सहप्रतिक्रमण, सहध्यान, सहप्रार्थना। ८-९ सहस्वाध्याय। ९-१० सहचिंतन, विचार-विनिमय। १० पूर्णविश्राम, योगनिद्रा। एक दिन मध्याह्नकालीन गोष्ठी में एकांतवास की उपयोगिता पर चर्चा चली। उस गोष्ठी में एकांतवास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कुछ बिन्दु बताए* व्यक्तिगत रुचि स्वास्थ्य-लाभ गृहस्थों से सम्पर्क में कमी * ध्यान-स्वाध्याय के विशेष प्रयोग * संघीय दृष्टि से विशेष चिंतन * व्यापक दृष्टि से चलने वाले कार्यक्रमों पर चिंतन। एकांतवास की समाप्ति पर गुरुदेव ने अपने अनुभव बताते हुए कहा- 'एक दो बार के प्रयोग से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। फिर भी मैं यह कह सकता हूं कि एकांतवास में जिस आनंद की अनुभूति हुई, वह अनिर्वचनीय थी। उस सप्ताह की अवधि में हमने अनेक अनुभव प्राप्त किए हैं। स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन, मनन आदि के प्रयोगों से आत्मा में एक नवीन उत्साह का संचार हुआ है। यद्यपि इन प्रयोगों में हम पूर्ण दक्षता तो प्राप्त नहीं कर सके हैं फिर भी थोड़ा संतोष है कि हमें इन दिनों में कुछ सफलता प्राप्त हुई है। ध्यान के विषय में तो हमें अभी तक बहुत ही कम सफलता मिली है। सच तो यह है कि इस विषय में अभी तक हमारा प्रवेश-सा ही हुआ है। बहुधा मैं सोचता हूं कि लोग हमारे ध्यान के बारे में बड़ी-बड़ी कल्पनाएं करते होंगे। वे समझते होंगे कि हमें बहुत कुछ सिद्धियां मिल गई हैं। पर हमें अपनी स्थिति को हीनाधिक नहीं आंकना चाहिए। इस विषय में हमें अभी तक बहुत प्रयास करना होगा। मैं उस Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ध्यान को आंखें बंद करने से अधिक नहीं मानता, जिसमें हृदय की एकरसता न हो। वास्तव में श्रावक-श्राविका समाज को ही नहीं अपितु साधु-साध्वी समाज को भी इस क्षेत्र में बहुत कुछ प्रगति करनी चाहिए।' लाडनूं में सन् १९६३ में पूज्य गुरुदेव ने एकमास का आंशिक एकांतवास किया। इसमें प्रवचन के अतिरिक्त लगभग समय ध्यान, स्वाध्याय, जप एवं एकांत चिंतन में बीता। २ अप्रैल सन् १९७१ को सुजानगढ़ के हंसमहल में गुरुदेव ने सात दिन का एकांतवास किया। यह एकांतवास विशेष चिंतन-गोष्ठी के रूप में अधिक रहा। कितनी सफलताएं मिलीं, कहां विफलताओं से सामना करना पड़ा, कितनी भूलें हुईं क्या विकास हुआ? इस पर गहन चिंतन के साथ मुख्यत: जैन विश्व भारती, महावीर की पच्चीसौवीं निर्वाण शताब्दी के बारे में विशेष चिन्तन-विमर्श चला। एकांतवास के प्रारंभ में पूज्य गुरुदेव ने समाज को संबोधित करते हुए कहा- "मैं चार वर्ष की दक्षिण प्रदेश की यात्रा करके आया हूं। मुझे अपने उत्तरदायित्व के ३४-३५ वर्षों का सिंहावलोकन करना चाहिए। संघ की सुरक्षा में कहां प्रगति हुई? कहां भूल हुई और आगे क्या करना है इन सब बातों का एकान्तवास में गहन चिंतन करना है। एकांतवास की संपन्नता पर गुरुदेव ने अपने विचार व्यक्त कहते हुए कहा- 'हमने सात दिनों तक ज्ञान, दर्शन, चरित्र, आस्था, संघ तथा मानवता के संबंध में विस्तार से चिंतन किया। चिंतन में मुक्तता रही। सभी लोग दिमाग खाली करके बैठे थे। वातावरण में मुक्तता रहती थी। जो जिसके मन में आता, शिष्टतापूर्वक अपने विचार सबके सामने रखता। धैर्य और शांतिपूर्वक सब सुनते थे। हमने काफी चिन्तन किया परन्तु फिर भी कहूंगा कि कम किया। खुशी की बात यह थी कि सात दिनों के लिए हमें एकांत का समय मिल गया। स्वास्थ्य-लाभ की दृष्टि से यह समय बहुत उपयोगी रहा। हमने जिन विषयों पर चिन्तन किया है, यदि वे कार्यरूप में जनता के सामने आएंगे तो निश्चित ही उनसे समाज और राष्ट्र का बहुत बड़ा कल्याण होगा।' - एकांतवास का सबसे लम्बा प्रयोग हिसार चातुर्मास में किया गया। २७ सितम्बर १९७३ को लगभग पूर्ण मौन एवं जप के साथ २७ दिन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अध्यात्म के प्रयोक्ता का अनुष्ठान प्रारम्भ किया गया। इस दीर्घकालीन एकान्तवास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ज्यों-ज्यों समझ परिपक्व हुई, आगम-साहित्य का अध्ययन किया और अनुभवों में कुछ प्रौढ़ता आई, त्यों-त्यों साधना में नए-नए उन्मेष लाने की भावना बल पकड़ती गई। साधना का क्षेत्र प्रायोगिक होता है, मैंने अपने जीवन में अनेक प्रयोग किए, प्रयोगों की श्रृंखला में एक नई कड़ी जोड़ने के लिए मैंने सत्ताईस दिन एकान्तवास करने का निर्णय लिया। इसमें खाद्य संयम का विशिष्ट प्रयोग हुआ। गुरुदेव खाने में केवल सफेद द्रव्य (दूध और केला) वह भी अल्प मात्रा में ग्रहण करते थे। इस अनुष्ठान के अन्त में उन्होंने तेले की तपस्या का भी प्रयोग किया। यह प्रयोग साधना की दृष्टि से विशेष उपलब्धि भरा रहा। एकांतवास के दौरान पूज्य गुरुदेव ने साधनाकाल में हुए अनेक अनुभवों को लिपिबद्ध भी किया। वे अनुभव 'खोए सो पाए' पुस्तक में प्रकाशित हो चुके हैं। ये अनुभव अनेक साधकों के लिए प्रेरणास्पद हो सकते हैं। यहां लिपिबद्ध अनुभवों के कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए जा रहे * इस बार मेरी साधना में मैंने आभामण्डल पर विशेष ध्यान दिया। मेरी सजगता से वह स्वस्थ बना और मुझे अपनी साधना में उसका विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। इसलिए मैं उसके प्रति आस्थावान् बना हूं। आभामण्डल या ओरा के संबंध में वैज्ञानिक मान्यताएं भी स्पष्ट हैं। मैंने अब दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अपने ओरा को अधिक विशुद्ध बनाना है और अपनी साधना को आगे बढ़ाना है। * 'आज प्रातः ध्यान करके उठा, तत्काल कुछ आलोक का आभास हुआ। मैंने अनुभव किया, रात का गहरा अन्धकार क्षीण हो रहा है। विघ्न-बाधाएं अपने आप विलीन हो रही हैं। मेरे चारों ओर प्रकाश बिखर रहा है। उस प्रकाश की परिधि में मुझे अपूर्व उल्लास की अनुभूति हुई। पिछले कई दिनों से ध्यान, जप आदि की विशेष साधना कर रहा हूं, किन्तु ऐसा उल्लास कभी नहीं मिला। उस समय एक विशिष्ट स्फूर्ति, जागृति और मानसिक प्रसत्ति में मैं आकण्ठ निमग्न हो गया। इस अनुष्ठान का कोई प्रत्यक्ष परिणाम सामने आ रहा है, ऐसी प्रतीति हुई।' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ९८ इस प्रयोग में पूज्य गुरुदेव की हार्दिक इच्छा रात-दिन मौन रहकर पूर्ण एकान्तवास करने की थी। लेकिन जनता के अत्यधिक आग्रह से आधा घंटा प्रवचन तथा सुबह शाम लोगों के बीच बैठने का विकल्प रखा। ___ एकांतवास की सम्पन्नता पर उनके मुख से उद्गीर्ण अनुभवपूत वाणी से जाना जा सकता है कि उन्होंने उस साधना में कितने अलौकिक आनंद का अनुभव किया। अपनी डायरी के पृष्ठों में वे लिखते हैं- 'क्या आज सचमुच ही अनुष्ठान-सम्पन्नता का दिन है? लगता है जैसे कलपरसों ही यह क्रम प्रारम्भ किया था। जिा दिन अनुष्ठान प्रारम्भ किया था तब अनेक व्यक्तियों ने कहा- 'चार सप्ताह का क्रम बहुत लम्बा है। एक-दो सप्ताह ही चलाया जाए तो अच्छा है।' मैंने कहा- 'समय लम्बा है, फिर भी अनुष्ठान करना ही है।' अनुष्ठान प्रारम्भ किया और लगा कुछ जादू सा हो रहा है। इस काल में मैंने कुछ अपूर्वता का अनुभव किया। उस अपूर्वता को अभिव्यक्ति देने की क्षमता मेरे शब्दों में नहीं है।' आमेट चातुर्मास १९८५ में एकांतवास का नवाह्निक प्रयोग किया गया। इस एकांतवास में साधु-साध्वियों को प्रेक्षाध्यान का प्रशिक्षण दिया गया। इस प्रयोग में प्रवचन के अतिरिक्त जन-सम्पर्क प्रायः बन्द था और चरणस्पर्श भी वर्जित रहा। नौ दिनों के दौरान एक दिन सामूहिक आयंबिल का प्रयोग भी किया गया। गुरुदेव तुलसी के एकांतवास के प्रयोग परमार्थ से जुड़े होने पर भी सामाजिक चेतना को जगाने वाले थे। इन प्रयोगों से उनकी निजता प्रभावी बनी और वैयक्तिक आध्यात्मिक साधना के प्रभाव से धर्मसंघ ही नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति अध्यात्म से अभिष्णात हुई। एकांतवास में अचिन्तन के क्षितिज से फूटते नवचिन्तन ने आत्ममंगल के साथ लोकमंगल की दिशा को भी प्रशस्त कर दिया। कषायमुक्ति की साधना * 'अकषायी बनना तो अभी कठिन है, असंभव नहीं है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि निरंतर अकषाय की ओर बढ़ता चला जाऊं।' . * 'मेरे जीवन का वह स्वर्णिम प्रभात होगा, जिस दिन वासना पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त होगी और समता का साम्राज्य स्थापित होगा।' Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के उपर्युक्त संकल्प उनकी अकषाय भाव के प्रति तीव्र अनुरक्ति के द्योतक हैं। चित्त को विकृत एवं मलिन करने वाला सबसे बड़ा तत्त्व कषाय है। यह साधक जीवन के आंतरिक विकास का सबसे बड़ा पलिमंथु है। केशी ने गौतम से पूछा- 'जीवन के सबसे बड़े शत्रु कौन हैं'? गौतम ने केशी को समाहित करते हुए कहा'अपनी अविजित आत्मा, चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) तथा पांच इन्द्रियां- ये दस बड़े शत्रु हैं। इन पर विजय प्राप्त करने वाला सुख से विचरण करता है।' गुरुदेव तुलसी का अभिमत था कि कोई व्यक्ति उपवास कर सके या नहीं, तपस्या कर सके या नहीं, पर कषाय से हल्का हो जाए तो जीवन सौन्दर्य से भर सकता है।' साधक साधना-काल में आत्मा के इन चिरकालीन शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने का प्रयत्न करता रहता है क्योंकि कषायमुक्त व्यक्ति ही आंतरिक संपदा का दर्शन करके आत्मिक शक्ति प्राप्त कर सकता है। जब तक कषाय का शमन नहीं होता, व्यक्ति कभी क्रोध के अधीन होता है, कभी मान से पराजित होता है, कभी माया से आच्छादित होता है तो कभी लोभ से आक्रांत होता है। पूज्य गुरुदेव का मंतव्य था कि कषाय के दंश काले नाग के दंश की भांति पीड़क होते हैं। भीतर यदि कषाय प्रबल नहीं होगा तो बाहर पाप का सेवन असंभव हो जायेगा।' कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए निरन्तर आत्मयुद्ध आवश्यक है। कषायविजय के संदर्भ में उनका यह वक्तव्य पठनीय है- 'जब तक भावधारा न बदल जाए, संघर्ष जारी रखो। अन्यथा अहंकार का नाग पुनः फुफकार उठेगा, क्रोध की आग पुनः प्रज्वलित हो जाएगी। अहंकार, क्रोध आदि भावों को प्रबल होने का मौका देना सबसे बड़ी हार है, सबसे बड़ी बीमारी है और सबसे बड़ी उपाधि है।' 'पंचसूत्रम्' में कषाय-मुक्ति से प्रकट होने वाली शांति की चर्चा करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कषायो मंदतामेति, क्रमेणानेन चारुणा। कषाये मंदतां प्राप्ते, शांतिरुज्जृम्भते वरा॥ साधु बनने के बाद भी यदि आवेश शांत नहीं होता है तो उसका श्रामण्य निष्फल हो जाता है। नियुक्तिकार ने इसी सत्य को बहुत सुन्दर भाषा में प्रस्तुत किया है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०० सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छुफुल्लं व, निष्फलं तस्स सामण्णं॥ 'उवसमसारंखुसामण्णं' बृहत्कल्प भाष्य की यह सूक्ति गुरुदेव के जीवन में चरितार्थ देखी जा सकती थी। वे जानते थे कि कषाय से विरत रहने वाला साधक ही स्वतंत्र एवं शांत जीवन जी सकता है। कषाय से प्रभावित व्यक्ति सदैव दूसरों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। सामान्यतः देखा जाता है कि विरोधी स्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति ईंट का जवाब पत्थर से देता है, पेम्पलेट के प्रत्युत्तर में बुकलेट छापता है, पर गुरुदेव का जीवन इसका अपवाद था। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक कषायों पर विजय प्राप्त करने की साधना की इसलिए कोई भी विरोध या प्रतिकूल परिस्थिति उनको उत्तप्त नहीं कर पायी। नडियाद गांव में पूज्य गुरुदेव का तीव्र विरोध हुआ। विरोधी लोगों ने गंदे पोस्टर एवं भ्रांत वाक्यों का स्थान-स्थान पर प्रदर्शन किया। इस स्थिति को देखकर कुछ युवक आवेश में आ गए। गुरुदेव ने उनको शांत करते हुए कहा- 'तुम लोग उत्तेजित क्यों हो रहे हो? वे लोग तुम्हारे ही काम में सहयोग कर रहे हैं। तुम प्रचार करना चाहते हो, वे लोग पोस्टरों एवं स्लाइडों के माध्यम से सहज रूप में ऐसा कर रहे हैं। युवकों ने गुरुदेव के सामने प्रतिकार करने की भावना रखी। गुरुदेव ने उनको समाहित करते हुए कहा- 'कीचड़ में पत्थर फेंकने से क्या लाभ? हमें तो शांत होकर यह चिंतन करना चाहिए कि सबमें सन्मति हो भगवान। विरोध के ऐसे सैकड़ों प्रसंग उनके जीवन में आए पर उनके संवेग प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संतुलित बने रहे। ____ महावीर ने कहा कि जो साधक अपने क्रोध आदि कषायों को देखना सीख लेता है, उसकी चेतना कषाय से मुक्त हो जाती है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी आत्मद्रष्टा ऋषि थे। कषाय की क्षीण रेखा का अहसास भी उन्हें सहजतया हो जाता था। डायरी का यह पृष्ठ उनकी इसी आत्मदर्शी वृत्ति को प्रकट करने वाला है-'कल क्षमा का दिन था। मैंने भी जागरूकता रखी पर सूक्ष्मता से ध्यान दिया तो एक दिन में पंद्रह बार उत्तेजना आई। उसको दूसरा तो जान ही नहीं सकता, खुद भी ध्यान देने से ही समझे। इससे मालूम पड़ता है कि क्रोध-विजय कितना दुरूह है।' महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी का कहना है कि क्रोध की इतनी सूक्ष्म परिणति को Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ अध्यात्म के प्रयोक्ता पकड़ना और इतनी सहजता से अभिव्यक्ति दे देना साधारण बात नहीं है। पूज्य गुरुदेव ने क्रमशः कषायों को क्षीण करने का तीव्र प्रयत्न किया। कभी-कभी प्रवचन में अपने बचपन की स्थिति व्यक्त करते हुए वे कहते थे- 'मुझे बचपन में इतना तेज गुस्सा आता कि खाना भी छोड़ देता था। अनेक बार आवेश या जिद्द में खंभा पकड़कर खड़ा हो जाता। मैं किसी की नहीं सुनता। आखिर वदनांजी आकर मनाती तब मूड ठीक होता। लेकिन अब मेरा आवेश बहुत शांत हो गया है। पहले क्षण आवेश आता है, दूसरे क्षण समाप्त हो जाता है। नेता को कभी-कभी ऊपर से फुफकारना भी पड़ता है पर मैं भीतर से शांत रहने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि क्रोध व्यक्ति के विवेक चक्षु को बंद कर देता है। उत्तेजित व्यक्ति न शांति से सोच पाता है और न वाणी में विवेक रख पाता . 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव'- इस सुभाषित को पूज्य गुरुदेव ने साक्षात् जीया। यही कारण है कि उन्होंने धर्मक्रांति के रूप में उपासना एवं क्रियाकांड प्रधान धर्म को गौण करके आचरण प्रधान धर्म की प्रस्थापना की। धर्मक्रांति के रूप में गुरुदेव ने जन-चेतना को जगाते हुए कहा'कोई व्यक्ति, मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे जाये या नहीं, यदि उसका कषाय उपशांत है तो वह सबसे बड़ा धार्मिक है। रात-दिन आवेश में रहने वाला, क्रोध करने वाला व्यक्ति सबसे बड़ा कसाई है। चौबीस घंटे ध्यान की साधना करने वाला एक क्षण उत्तेजना करके सब कुछ खो देता है। इस प्रसंग में यह घटना-प्रसंग अनेक तथाकथित धार्मिकों की आंखें खोलने वाला है। अहमदाबाद प्रवास में एक बहिन गुरुदेव के उपपात में पहुंची। अपनी अन्तर्वेदना गुरु-चरणों में प्रकट करते हुए वह बोली- 'मेरी भीतरी तमन्ना है कि मैं जी भरकर धर्म करूं पर घर में कार्याधिक्य के कारण मुझे सामायिक आदि उपासना करने का समय नहीं मिलता।' गुरुदेव ने उसकी तड़प को पढ़ा और पूछा- 'बहिन! सामायिक या सत्संग नहीं कर सकती तो इस बात को दो क्षण के लिए छोड़ो, कोई दुःख की बात नहीं है। तुम यह बताओ कि गुस्सा करती हो या नहीं? बहिन ने सहजता से उत्तर दिया- 'गुरुदेव! मुझे गुस्सा बहुत कम आता है।' गुरुदेव ने पुनः प्रश्न Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०२ किया - ' घर में किसी से लड़ाई-झगड़ा कलह तो नहीं होता ? बहिन ने उत्तर दिया- 'हमारे घर में इतना सामंजस्य है कि लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आती। मैंने सबको एक ही प्रेरणा दी है कि घर में सब सदस्य एक दूसरे को सहन करें । मेरी उस सीख का सब सदस्य हार्दिक भाव से पालन करते हैं।' बहिन के भावभीने उद्गार सुनकर गुरुदेव ने उसे समाहित करते. हुए कहा- 'बहिन ! धर्मस्थान में आने मात्र से ही कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म का सही रूप उसका आचरण है। तुम अपनी जो स्थिति बता रही हो, मैं उसे धार्मिक जीवन का प्रतीक मानता हूं। यदि तुम्हारे जीवन- व्यवहार में कषाय शांत रहेंगे तो धर्म के लिए अतिरिक्त समय लगाने की अपेक्षा ही नहीं रहेगी। मैं धर्म को जीवन का अभिन्न तत्त्व मानता हूं। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि भले ही व्यक्ति वर्ष भर में एक दिन भी धर्मस्थान न जाए, मैं उसे क्षम्य मान लूंगा । बशर्ते कि वह अपने कार्यक्षेत्र को ही धर्मस्थान, मंदिर बना ले और उपशांत जीवन जीना सीख ले। मैं उस जीवन को नारकीय जीवन मानता हूं, जिसमें छल, धोखा, लोलुपता, विश्वासघात और हिंसा है और उस जीवन को स्वर्गीय जीवन कहता हूं, जो संतोष, सादगी, विश्वास, चरित्र और नीति से भरा है ।' यहां एक और घटना-प्रसंग का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा । पूज्य गुरुदेव पाली में विराज रहे थे । कवि सम्मेलन का आयोजन था । श्रोताओं को कविताओं में रस आ रहा था अतः उन्होंने ताली बजा दी । ताली सुनकर एक आदमी उबल पड़ा और बोला- 'ताली बजाना प्रत्यक्ष हिंसा है। धर्मगुरु के सामने ऐसा नहीं होना चाहिए।' उसकी उत्तेजना को लक्ष्य करते हुए गुरुदेव ने फरमाया-'मैं मानता हूं कि ताली बजाना हिंसा थी पर एक समझदार व्यक्ति छोटी सी बात पर इतना रोष करे, कषाय लाए, संतुलन और धैर्य खो दे, मेरी दृष्टि में यह भी हिंसा है। अपनी बात को शांति से रखने वाला ही दूसरों के गले अपनी बात उतार सकता है।' गुरुदेव की इस मार्मिक प्रेरणा को सुनकर भाई शांत हो गया और उसे अपने भीतर झांकने का अवकाश मिल गया। दूसरों की गलती पर उत्तेजित होना भी आत्महिंसा है। इस संदर्भ में गुरुदेव का मंतव्य मननीय है कि दूसरे लोग विचारों के अनुकूल न चलें, तब व्यक्ति को उत्तेजना आती है, यह उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है ।' Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ अध्यात्म के प्रयोक्ता घटना प्रसंग से भी वे अपने शिष्यों को कषायमुक्त होने की प्रेरणा देते रहते थे। विहार के दौरान गुरुदेव एक गांव से गुजर रहे थे। मार्ग में एक-स्थान पर चने का ढेर पड़ा था। गुरुदेव की पैनी दृष्टि उस ढेर पर टिक गयी। तत्काल संतों को प्रतिबोध देते हुए उन्होंने कहा- 'यह धान्य इतना हल्का और चिकना होता है कि इससे भरे कोठे में यदि कोई अन्य वस्तु डाली जाए तो तत्काल वह नीचे चली जायेगी। कोई भी बाह्य वस्तु उसे प्रभावित कर अपना प्रभुत्व नहीं जमा पाती। कितना अच्छा हो मनुष्य की मानस-जमीन भी हल्की और स्निग्ध हो जाए, जिससे कषाय रूप विजातीय दुर्गुण उसे प्रभावित न कर सके।' प्रयोगों द्वारा कषायमुक्त होने की प्रेरणा उनकी इन काव्य-पंक्तियों में पठनीय है बनें कषायविजेता प्रतिदिन, कर-कर नये प्रयोग। कायोत्सर्ग ध्यान के द्वारा, रोकें चंचल योग। कषाय का सघन वलय तोड़ना साधक का मुख्य उद्देश्य होता है। पूज्य गुरुदेव की अकषाय साधना ने मूर्छा की ग्रंथि का भेदन कर सतत जागृति की दिशा में प्रयाण किया तथा जीवन को सहज आनन्द और आलोक से आपूरित किया। कषाय से आविष्ट चित्त वाले व्यक्ति अपने प्रतिकूल चलने वालों के प्रति ऐसी गांठ बांध लेते हैं, जो जीवन भर नहीं खुल पाती। क्षमायाचना करने पर भी दूसरों का असद्व्यवहार भूलना उनके लिए कठिन होता है। पर गुरुदेव के जीवन के ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं, जब विरोधी या प्रतिकूल वर्तन करने वाले के प्रति भी उनके मन में प्रमोद भाव दृष्टिगत हुआ तथा दूसरे के असद् व्यवहार में भी अच्छाई ही दिखलाई पड़ी। सुजानगढ़ के चांदमलजी सेठिया युवावस्था में धर्मविरोधी तो थे ही, साथ ही गुरुदेव के कार्यक्रमों की भी खुलकर आलोचना किया करते थे। कालांतर में वे टी.बी. के रोग से पीड़ित हो गए। बीमारी की अवस्था में उनके विचारों में भारी परिवर्तन आ गया। यद्यपि उनके मन में आशंका थी कि जीवन भर मैंने निंदा एवं आलोचना की है, इसलिए गुरुदेव दर्शन देने पधारेंगे या नहीं? फिर भी उन्होंने गुरुदेव को दर्शन देने के लिए निवेदन करवाया। गुरुदेव के दर्शन करते ही वे पश्चात्ताप से भर उठे और जी भरकर अपनी आत्मनिंदा की। उन्होंने गुरुदेव के समक्ष राजस्थानी भाषा का एक कवित्त सुनाया Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०४ भक्त भक्त तारे यामें, राव की बड़ाई कहां? बिना भक्ति तारो ता पै, तारवो तिहारो है। अर्थात् भक्तों को आप तारते हैं, यह बड़ी बात नहीं पर भक्ति से रहित लोगों को आप तारें तभी आपकी विशेषता है। उसके बाद गुरुदेव प्रायः उन्हें दर्शन देने जाते रहे और अनेक बार संतों को वहां भेजते रहे। कषायमुक्त चित्त ही पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अपने विरोधी या आलोचक व्यक्ति के प्रति इतना आत्मीय एवं सामंजस्यपूर्ण व्यवहार कर सकता है। सबको स्मृति में रखते हुए भी आत्मविस्मृति का क्षण उपस्थित नहीं होने देना, यही गुरुदेव की साधना का सबसे सबल पक्ष था। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने नेतृत्व के गुरुतर पद पर आसीन होकर भी अपने जीवन से शांति और उपशम का जो पाठ दुनिया को सिखाया, वह सबके लिए आदर्श है। आत्मचिंतन एवं आत्मालोचन आत्मचिंतन साधक के लिए प्राणतत्त्व है। आत्मचिंतन का अर्थ है- स्वयं के व्यवहार, चिंतन एवं कार्यों का लेखा-जोखा करना। जो साधक आत्म-चिंतन नहीं करता, वह अपनी साधना में निखार नहीं ला सकता। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि अन्धकार कितना ही सघन क्यों न हो, पूरे बोल्टेज से डेलाइट्स जगा दिए जाएं तो अमावस की रात भी दिन में बदल जाती है। मन का अंधकार कितना ही सघन क्यों न हो, आत्मनिरीक्षण का प्रकाश उसे छिन्न-भिन्न कर देता है।' आत्म-निरीक्षण एक ओर साधक को संभावित स्खलनाओं से बचाता है तो दूसरी ओर अतीत की त्रुटि से भविष्य में नयी प्रेरणा लेने का पथ भी प्रशस्त करता है। आत्मचिंतन के बारे में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था- 'कोई व्यक्ति अपने जीवन को मुड़कर देखे और चिंतन करे- मैं कैसा हूं? इस एक वाक्य पर गहरी अनुप्रेक्षा करते-करते वह ईमानदारी के साथ अपनी आदतों और व्यवहारों को समझ सकता है और गलत आदतों एवं व्यवहारों में परिष्कार ला सकता है।' पूज्य गुरुदेव सतत आत्मा की सन्निधि में निवास करना चाहते थे। वे अपनी हर प्रवृत्ति का गहरा आत्मालोचन करते थे। आचार्य बनने के Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ अध्यात्म के प्रयोक्ता बाद उनके द्वारा निर्मित निम्न पद्य आत्मालोचन एवं आत्मोत्थान की तीव्र अभिरुचि को व्यक्त करता है यावच्चेतोवृत्ति न भविष्यति मे वशंवदा भगवन्!। तावत् कथमहमस्मिन्, गच्छे सच्छासनं करिष्यामि॥ अर्थात् हे भगवन् ! जब तक मेरी चित्तवृत्ति मेरे वश में नहीं होगी, तब तक मैं इस गण में अच्छा अनुशासन कैसे कर सकूँगा? इसी संदर्भ में उनका यह वक्तव्य भी प्रत्येक साधक को नई प्रेरणा देने वाला है- 'मैं एक-एक कदम पूर्ण सजगतापूर्वक आगे बढ़ाता हूं। जब कभी रात को जग जाता हूं तो यही चिंतन किया करता हूं कि कहीं कोई ऐसा कदम तो नहीं बढ़ा दिया जो प्रगति का पोषक होने पर भी मेरी साधना को भंग करने वाला हो। २०-२५ मिनटों तक गंभीर चिंतन के बाद जब आत्मा में पूर्ण संतोष हो जाता है, तब जाकर मुझे शांति मिलती है।' - आत्मनिरीक्षण के दर्पण में व्यक्ति अपनी कमजोरी को बहुत स्पष्टता से देख सकता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन के अनेक ऐसे घटना प्रसंग हैं, जब उन्होंने अपने छोटे से प्रमाद पर भी तीव्र अनुताप व्यक्त किया और भविष्य में उससे एक नया बोधपाठ सीख लिया। यहां एक ऐसे घटना प्रसंग का उल्लेख उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी मानसिक पीड़ा का दंश गुरुदेव ने 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में व्यक्त किया है बात उस समय की थी, जब साध्वीप्रमुखा झमकूजी मौजूद थीं। मंत्री मुनि मगनलालजी मेरे पास बैठे थे। अकस्मात् मेरे मुंह से निकल पड़ा-'मगनलालजी स्वामी! स्वर्गीय पूज्य कालूगणी ने साध्वियों का नेतृत्व झमकूजी को कैसे सौंपा?' साध्वीप्रमुखा झमकूजी कलाकार थीं। उनकी रजोहरण और पुस्तक बांधने की कला बेजोड़ थी। श्रावक-श्राविकाओं की संभाल में वे जागरूक थीं। उनसे परिचित लोग उनका 'जैकारा' आज तक याद करते हैं। आचार्यों के सेवाकार्य में भी उनकी तत्परता अच्छी थी किन्तु वे पढ़ी-लिखी बिल्कुल नहीं थीं। व्याख्यान देना तो दूर, पुस्तक भी ठीक से नहीं पढ़ पाती थीं। फिर भी यह कोई कहने की बात तो नहीं थी। गुरुदेव द्वारा किये गए कार्य के बारे में इस भाषा में सोचना भी उचित नहीं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०६ था। मंत्री मुनि बहुत गंभीर और समयज्ञ साधु थे । वे साधारण सा उत्तर देकर मौन हो गए। समय बीता। साध्वीप्रमुखा झमकूजी दिवंगत हो गईं। उनके बाद साध्वियों की जिम्मेदारी लाडांजी को दी गई। उस संदर्भ में मंत्री मुनि कब चूकने वाले थे। एक दिन अवसर देखकर वे बोले – 'झमकूजी को लेकर आपने कालूगणी के बारे में जो कुछ कहा, आपको याद ही होगा । आपने भी यह काम कैसे किया ? समय पर किसी को कुछ भी करना पड़ता है, वह तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है।' मुझे काटो तो खून नहीं। मेरे पास कहने के लिए कोई बोल नहीं। अपने आप में सिमट गया। मुझे संकोच और ग्लानि का अनुभव हुआ । मेरे चिन्तन का प्रवाह तब स्वयं की ओर मुड़ा। मैंने सोचा- 'मुझे क्या हो गया? मैंने क्या कह दिया ? हुआ सो हुआ, मैंने अपने परम श्रद्धेय हृदय देवता पूज्य कालूगणी के सम्बन्ध में ऐसे शब्दों का प्रयोग क्यों किया ? मैंने उनकी जो आशातना की है, उसका प्रायश्चित्त क्या होगा ? मैंने गुरुदेव के प्रति जो शब्द कहे, वे हृदय में तीर की तरह लगने लगे। वे तो महामंत्री थे, जो मुझे अपने प्रमाद का अहसास करा दिया। दूसरा कोई होता तो मुझे कह ही नहीं पाता। मैंने मन ही मन गुरुदेव से क्षमायाचना कर अपने मन को हल्का किया।' इसी संदर्भ में आत्मालोचन का निखालिस रूप प्रकट करने वाली एक और घटना का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा । सन् १९६१ बीदासर का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव ने मुनिश्री जंवरीमलजी को रात्रिकालीन प्रवचन में रामचरित मानस का वाचन करने का निर्देश दिया। गुरुदेव को उनके वाचन का क्रम पूरा ठीक नहीं लगा। पूज्य गुरुदेव ने फरमाया'साधु रामचरित का वाचन करते हैं किन्तु उनका तरीका मेरे जैसा नहीं है। मैं रामचरित का वाचन करूं तो लोगों को ज्ञात हो कि व्याख्यान की शैली कैसी होनी चाहिए ?' पूज्य गुरुदेव ने २२वीं ढाल से रामचरित का वाचन प्रारम्भ किया। प्रथम दिन ही तेजस्वर में गाने से उनका गला बैठ गया । सिर भारी हो गया और व्याख्यान में व्यवधान उपस्थित हो गया। उस समय किया गया आत्मनिरीक्षण एवं अतिक्रमण का प्रतिक्रमण 'संस्मरणों के Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ अध्यात्म के प्रयोक्ता वातायन' में पठनीय है। 'मेरी आलोचना के स्वर थे- 'मैं व्याख्यान कैसा भी देता हूं, उसका अहं मुझे क्यों सताए? कितनी बड़ी दुर्बलता है जीवन में? इससे छुटकारा कैसे होगा? संघ में मेरा पहला स्थान है। मेरी भी यह हालत है तो दूसरों का क्या कहना? छोटी-सी उपलब्धि का इतना अहं! श्रोता व्याख्यान सुनकर उत्साह दिखाते हैं, प्रसन्नता व्यक्त करते हैं, यह उनका काम है। मैं अहंकार करूंगा तो औरों को क्या प्रेरणा दूंगा? आत्मालोचन के दर्पण में मैंने अपने आपको देखा और परखा ही नहीं, भीतर ही भीतर सिर उठा रहे अहंकार को खदेड़ने का प्रयास भी किया। वह दिन धन्य होगा, जब चेतना सर्वथा अहंकार-मुक्त बनेगी।' प्रशंसा एवं सम्मान में सामान्य व्यक्ति स्वयं को भूल जाता है और दूसरों द्वारा की गई प्रशस्ति को यथार्थ मानकर उसमें बह जाता है पर गुरुदेव श्रद्धालुओं द्वारा की गई प्रशंसा को आत्मचिंतन के साथ जोड़कर उससे एक नई प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। विशिष्ट अवसरों पर होने वाली प्रशस्तियों के प्रवाह को वे अपने आत्म-कल्याण एवं विकास का हेतु बना लेते थे। १९वां पट्टोत्सव मनाया जा रहा था। श्रद्धालुओं की एक लम्बी पंक्ति ने अपनी अभ्यर्थना एवं श्रद्धा श्रीचरणों में व्यक्त की। उस समय की मनःस्थिति को प्रवचन के माध्यम से व्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'आज १९वां पट्टोत्सव है।....मैं प्रशस्तियों के भार से दबा जा रहा था। मैं अपने आपको खोजने लगा कि मैंने कहां तक प्रगति की है? साधनापथ पर कितना आगे बढ़ा हूं? नाम और प्रतिष्ठा की भूख तो कहीं मुझे नहीं सता रही है? मौलिक आचार में कहीं शैथिल्य तो नहीं है? कल्याण या जनकल्याण में कहीं स्वकल्याण ओझल तो नहीं हो रहा है? मेरा जीवन व्यक्तिगत जीवन नहीं है, समूह का जीवन है। मेरा जीवन स्वस्थ है तो संघ का जीवन स्वस्थ है। संघ का जीवन स्वस्थ है तो मेरा जीवन स्वस्थ है। मेरे जीवन की पवित्रता का असर समूचे संघ पर हुए बिना नहीं रह सकता। आज आत्मनिरीक्षण का दिन है अत: आज मुझे अपना आत्मनिरीक्षण बहुत गहराई से करना चाहिए।' इसी क्रम में धवल समारोह के अवसर पर किया गया उनका Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १०८ आत्मविश्लेषण हर साधक को नई ऊर्जा देने वाला है- 'प्रशस्तियों को सुनकर मैं अपना लेखा-जोखा कर रहा था। मैं कहां-कहां स्खलित हुआ, कर्तव्य कितनी दूर तक निभा पाया? इस अवधि में कितने भक्त-हृदयों की भावनाएं ठुकराईं।....यह प्रशंसा का समय मेरी परीक्षा का समय है। प्रशंसा में किंचित् भी उत्कर्ष साधक के लिए खतरा है। विरोध से प्रशंसा की पगडण्डी संकरी है। इसीलिए मैं अपनी समालोचना सुनना पसन्द करता हं, प्रशस्ति नहीं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से कह दिया है कि मेरे संबंध में जो साहित्य आदि लिखा जाए, वह समालोचनात्मक हो ताकि उससे मुझे कुछ प्रेरणा मिले और मैं अपने को देख सकं।' आत्मचिंतन में यदि यथार्थ का अंकन नहीं होता है तो वह केवल औपचारिक बनकर रह जाता है। गुरुदेव जब आत्मनिरीक्षण या संघप्रतिलेखन करते तो केवल कमियों को ही नहीं देखते, विशेषताओं का भी अंकन करते क्योंकि वे जानते थे कि केवल कमियों को देखने से हीनता की ग्रंथि पनप सकती है। केवल विशेषताओं के दर्शन से अहं की भावना प्रबल हो सकती है अत: गुरुदेव संघ के साथ-साथ स्वयं का सही-सही मूल्यांकन समय-समय पर प्रस्तुत करते रहते थे। इसी कारण उनमें अल्पताओं को परिष्कृत करने एवं विशेषताओं को उजागर करने की अद्भुत क्षमता प्राप्त हो गई थी। आत्मनिरीक्षण से उन्हें वह सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हो गई, जिससे वे बुराई को निर्मूल करने के उपाय खोजते रहते थे। यही एक मात्र हेतु था कि उन्होंने विकास के कई कीर्तिमान स्थापित किए। जब वे अपने संघ की या किसी साधु-साध्वी की विशेषता का अंकन करते तो सबके भीतर आत्म-गौरव की भावना जाग उठती थी। हर जन्मदिन एवं पट्टोत्सव पर उनके आत्मचिंतन एवं संकल्प का क्रम विशेष रूप से चलता था, जिससे भविष्य में साधना में गति एवं तेजस्विता आ सके। ४७वें वर्ष के प्रवेश में दिन भर अभ्यर्थनाओं का क्रम चला। प्रहर रात आने के बाद साधु गुरुदेव के सोने की प्रतीक्षा करने लगे। अपने निमित्त साधुओं को जगाने से होने वाले कष्ट की कल्पना से वे एक बार सो गए। सवेरे तीन बजे गुरुदेव पट्ट पर विराजे हुए आत्म-मंथन एवं आत्म-विश्लेषण करने लगे। संतों ने पूछा- 'आप कब जाग गए?' Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ अध्यात्म के प्रयोक्ता गुरुदेव ने स्मित मुस्कान के साथ कहा- 'यह पूछो सोए कब ? आज की रात सोने की नहीं, जगकर आत्मचिंतन करने की थी । ' प्रतिदिन के आत्मचिंतन के क्रम को भी वे कभी टूटने नहीं देते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि दर्पण में चेहरा देखने पर जैसे उसकी सुन्दरता और असुन्दरता के विषय में स्पष्ट आभास होता है और उसको संवारने में मनुष्य समर्थ होता है, उसी प्रकार आत्म-निरीक्षण अपनी योग्यताअयोग्यता अथवा न्यूनता का साफ प्रतिबिम्ब सामने ला देता है, जिससे व्यक्ति को आत्म-सुधार करने का पर्याप्त अवकाश मिल जाता है । आत्मालोचन के संदर्भ में उनका यह वक्तव्य मार्मिक एवं प्रेरक है'पश्चिम रात्रि में अनेक बार जल्दी नींद खुल जाती है... मैं सोचता हूं, तीन बातों का जितना अधिक विकास होगा, उतनी ही साधना में तेजी और निखार आएगा। वे तीन बातें हैं- समता, सहिष्णुता और एकाग्रता । इन 'तीनों के बिना ऊपरी साधना केवल भारभूत है। मैं इन तीनों बातों के लिए संकल्पबद्ध होकर आगे बढ़ना चाहता हूं।' पूज्य गुरुदेव अनेक बार प्रवचन में चतुर्विध संघ के लिये आत्मचिंतन का पाथेय प्रस्तुत करते रहते थे। योगक्षेम वर्ष में चतुर्विध धर्मसंघ को अपने अनुभव के आलोक में आत्मालोचन की प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा— ‘आत्मालोचन जीवन-विकास का महत्त्वपूर्ण माध्यम है । हमने इस माध्यम का काफी उपयोग किया है। वैयक्तिक और संघीयदोनों दृष्टियों से हमारे आत्मालोचन का क्रम चला। हम विकास के पथ पर चले, आगे बढ़े, रुके और मुड़कर पीछे देखा । क्यों ? हम समीक्षा करना चाहते थे कि हमने क्या खोया और क्या पाया? आत्मालोचन का दीया जलाकर देखना चाहते थे कि हमने क्या किया है और क्या करना अवशेष है .... हमने जितना आत्मालोचन किया, हमारे चिन्तन, व्यवहार और कार्यक्रमों उसी अनुपात से विकास होता रहा। आज भी हम आत्मालोचन के दीए को हाथ में लेकर आगे बढ़ रहे हैं । ' उनके साहित्य में यत्र-तत्र अनेक ऐसी प्रश्नावलियां देखने को मिलेंगी जो व्यक्ति को भीतर जाकर समाहित होने की प्रेरणा देती हैं। ये यक्ष प्रश्न भीतर के युधिष्ठिर से ही उत्तरित हो सकते हैं।... उनके द्वारा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी निर्दिष्ट प्रश्नावली के आलोक में प्रत्येक साधक अपना आत्मनिरीक्षण कर सकता है- 'व्यक्ति की वृत्तियों में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उभार है या नहीं? वह अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार कर सकता है या नहीं ? वह किसी प्रतिकूल हरकत को सहन कर सकता है या नहीं ? दुर्बलता का अहसास होने पर उससे मुक्त होने का प्रयास करता है या नहीं ?' पूज्य गुरुदेव का आत्मलोचन उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'मैं आत्मचिंतन या आत्मविश्लेषण करता हूं तब मुझे अनुभव होता है कि मेरा उपशम भाव परिपूर्ण नहीं है। कभी-कभी मुझे भी आवेश आता है। किसी को कुछ कहते समय मैं उत्तेजित हो जाता हूं। मैं यह भी अनुभव करता हूं कि मेरा आवेश टिकाऊ नहीं है। प्रथम क्षण वह अपना प्रभाव दिखाता है, दूसरे क्षण उसे खोजना पड़ता है। जैसे पानी में खींची गई लकीर उसी क्षण विलीन हो जाती है, वैसे ही तत्काल प्रभावहीन होने वाला आवेश अपनी झलक भर दिखाकर समाप्त हो जाता है।' ११० आत्मनिरीक्षण या आत्मदर्शन वही व्यक्ति कर सकता है, जो पहले स्वयं को देखता है फिर दूसरों की ओर अंगुलिनिर्देश करता है। इस संदर्भ में गुरुदेव का यह चिन्तन मननीय है- 'मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह दूसरे की बुराई देखने के लिए सहस्राक्ष बन जाता है, जबकि उसकी अच्छाई देखने के लिए दो आंखों को भी काम में नहीं लेता। वह दूसरों की छोटी-से-छोटी बुराई देखने के लिए तत्पर रहता है किन्तु अपनी बड़ी से बड़ी बुराई पर पर्दा डालने का प्रयास करता है। यह मनोवृत्ति आत्मालोचन में बाधक बनती है। ' सामान्य व्यक्ति को जब रात्रि में किसी कारणवश नींद नहीं आती तो वह उद्वेलित एवं बेचैन हो उठता है, नींद को कोसता है तथा दूसरे दिन उसकी पूर्ति की बात सोचता है। किन्तु पूज्य गुरुदेव जागरण की रात को - 'धम्मजागरण' एवं 'आत्मजागरण' के रूप में परिवर्तित कर देते थे । फिर चाहे अस्वस्थता या तपस्या की कठिनता के कारण रात्रि जागरण करना पड़े अथवा प्राकृतिक उपद्रव या किसी को सम्बोध देने के कारण नींद जगानी पड़े। सन् १९५२ में तपस्या की कठिनता के कारण संवत्सरी के दूसरे 4 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ अध्यात्म के प्रयोक्ता दिन अपने रात्रि-जागरण का अनुभव अभिव्यक्त करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'रात को लगातार स्यात् पांच मिनिट भी मैंने नींद नहीं ली होगी। मन चिंतन, मनन और स्वाध्याय में लगा रहा। मैं व्यक्तिशः सोचता रहा कि किसी साधु या गृहस्थ के प्रति ऐसा व्यवहार तो नहीं हुआ जो उसे अप्रिय और कटु लगा हो। मेरी आत्मा अपने कोने-कोने में टटोलकर, उसका परिमार्जन कर रही थी। प्रायः सारी रात इसी तरह आत्मचिंतन, आत्मावलोकन, मनन व स्वाध्याय में बीती। दक्षिण एवं मारवाड़ की यात्रा के दौरान अनेक बार स्थान की असुविधा एवं प्राकृतिक प्रकोप के कारण गुरुदेव ने रात्रि के अधिकांश समय को धार्मिक चर्चा एवं स्वाध्याय में व्यतीत करते हुए अत्यन्त आत्मतोष का अनुभव किया। पूज्य गुरुदेव के आत्मचिंतन का क्रम रूढ़ एवं औपचारिक नहीं था। उनका हर चिंतन नवोन्मेष एवं हार्दिकता लिए हुए होता था। संवत्सरी के बाद दूसरे दिन जब वे सबसे क्षमायाचना करते थे तो पंडाल में बैठे हजारों व्यक्तियों का हृदय द्रवित एवं आंखें नम हो जाती थीं। उनकी आर्षवाणी अनेकों की उलझी ग्रंथियों को खोल देती थी। मन की गांठें स्वतः खुल जाती थीं। मनुष्य निग्रंथ- ग्रंथिरहित हो जाता था। पंडाल में बैठे हर व्यक्ति का हृदय मैत्री एवं क्षमा से आप्लावित हो उठता था। उनकी वाणी हर प्रकार के शल्य का विमोचन कर देती थी। मैत्री दिवस पर प्रकट किया हुआ उनका अनुभव आत्मचिंतन से उद्भूत होने वाली निर्मलता एवं पवित्रता का श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है- 'आज मुझे अपना आत्मनिरीक्षण करके ऐसा लगता है कि मैं काफी हल्का हो गया हूं। अभी यदि कोई मेरे अंतर का फोटो ले तो उन्हें अवश्य राग-द्वेष रहित एवं कषायहीन बनने की सबल प्रेरणा मिलेगी।' गुरुदेव की उक्त अनुभवपूत वाणी हर साधक को सोचने के लिए मजबूर करती है कि यदि आत्मचिंतन केवल औपचारिक एवं दिखावा मात्र होगा तो वह हस्ती-स्नान की भांति लाभदायी नहीं हो सकता।आत्मचिंतन की निष्पत्ति है- व्यक्ति स्वयं को हल्का एवं कषायमुक्त अनुभव करे तथा सत्यं, शिवं, सुन्दरं की दिशा में प्रस्थान करे। आत्मनिरीक्षण और आत्मालोचन अध्यात्म के दो ऐसे नेत्र हैं, जो दूसरों को नहीं अपितु अपने आपको देखने की शक्ति प्रदान करते हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ११२ भावक्रिया साधना में सघनता लाने के लिए भावक्रिया का सतत अभ्यास अपेक्षित है। जीवन की सफलता में भी भावक्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भावक्रिया का अर्थ है-जिस समय जो काम करें, उसी में तन्मय हो जाना, अपने अस्तित्व को उससे भिन्न नहीं रखना। मन का स्वभाव है- स्मृति, चंचलता और कल्पना। अतीत का स्मरण होता है, भविष्य की कल्पना होती है और वर्तमान में मन चंचलता से प्रेरित होता है। गुरुदेव ने दर्शन के क्षेत्र में एक नयी सोच प्रस्तुत की। उनके अनुसार भावक्रिया के माध्यम से मन को अमन बनाया जा सकता है क्योंकि जब तक मनन नहीं होता, मन होता ही नहीं अतः भावक्रिया की साधना मन को अमन बनाने की सफल प्रक्रिया है। भावक्रिया का मूल अर्थ है- चैतन्य का जागरण और उसके प्रति सतत जागरूकता। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भावक्रिया को तीन संदर्भो में व्याख्यायित किया है १. वर्तमान में जीना २. सतत जागरूकता ३. जानते हुए काम करना। क्रिया में ये तीन बातें जुड़ते ही वह भावक्रिया बन जाती है। जिस क्रिया में मन का योग नहीं होता, वह क्रिया मूर्छा का प्रतीक बन जाती है। 'खणं जाणाहि पंडिए' महावीर की इस सूक्ति से स्पष्ट है कि पंडित वही होता है, जो क्षण को जानता है अर्थात् वर्तमान में जीना जानता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन में यह विशेषता इतनी आत्मसात् हो चुकी थी कि वे न अतीत की चिंता का भार ढोते और न भविष्य की वायवी कल्पनाएं करते। महर्षि विनोद उनकी इस विशेषता का आकलन इन शब्दों में करते हैं- "मैंने अनुभव किया है कि आचार्य तुलसी ईश्वरीय पुरुष हैं। उन्होंने ईश्वर का संदेश फैलाने और उसका कार्य पूरा करने के लिए ही जन्म धारण किया है। वे न भूतकाल में रहते हैं और न भविष्यकाल में। वे नित्य वर्तमान में रहते हैं।" (आचार्य तुलसी विचार के वातायन से पृ. १८३) वर्तमान में जीने के कारण उनकी शक्ति व्यर्थ नहीं जाती थी। एक कार्य सम्पन्न करके दूसरा कार्य प्रारम्भ करते समय प्रथम कार्य की चिंता उन्हें कभी नहीं सताती थी। आचारांग का Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ अध्यात्म के प्रयोक्ता यह पद्य उनकी चेतना में सदैव तरंगित होता रहता था नातीतमटुं न य आगमिस्सं, अटुंनियच्छंति तहागया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥ यह सत्य है कि कोई भी मनुष्य अतीत और भविष्य से कटकर नहीं जी सकता पर अनावश्यक स्मृति और कल्पना से बचकर अपनी शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। अतीत की अनावश्यक स्मृति जीवनी शक्ति पर जंग लगा देती है। विचारक कृष्णकुमार के अनुसार अतीतस्थ मन की दशा एक मानसिक बीमारी से कम नहीं। यह बीमारी सबसे पहले कल्पनाशक्ति का नाश करती है फिर धीरे-धीरे व्यक्तित्व की अन्य ताकतों की तरफ बढ़ती है। तर्क शक्ति कमजोर पड़ती जाती है, लचीले ढंग से सोचना नामुमकिन हो जाता है, सूझ-बूझ जाती रहती है।" समय के संदर्भ में उनका स्पष्ट मंतव्य था कि समय के पांव कभी रुकते नहीं। मनुष्य कुछ करेगा तो समय बीतेगा और कुछ नहीं करेगा तो भी समय बीतेगा। समय को थामकर रखने की शक्ति या कला किसी के पास नहीं है। अतीत और भविष्य के बीच का क्षण कार्यकारी होता है। अतीत की स्मृति हो सकती है पर उसे वर्तमान में नहीं लाया जा सकता। भविष्य की कल्पना की जा सकती है पर कल्पना को जीया नहीं जा सकता। जीने के लिए आज का दिन होता है। आज की खाद से ही कल का निर्माण संभव है। इसलिए आज को सही ढंग से जीने की अपेक्षा है।' अगर हमारा वर्तमान सही दिशा में है तो भविष्य निश्चित ही हमारे अनुकूल हो जाएगा। यद्यपि यह सत्य है कि गुरुदेव समय-समय पर अतीत की स्मृति भी करते थे पर उससे कुछ प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण करने के लिए। भविष्य की अनेक योजनाएं भी बनाते थे पर उसे साकार रूप देने के लिए। वे इस सत्य को स्वीकार करते थे- 'मैं अतीत और अनागत को अपने चिंतन से ओझल नहीं करता। पर उन्हीं को सब कुछ मानकर नहीं सोचता। अतीत व्यक्ति के वर्तमान का आधार बनता है और भविष्य की कल्पनाओं के आधार पर वर्तमान को संवारा जाता है। इस दृष्टि से वर्तमान अपने अतीत और अनागत का आभारी रहता है।' अतीत की स्मृति के बोझ से व्यक्ति दबता चला जाता है और Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ११४ भविष्य की चिंता का भार व्यक्ति को सामान्य नहीं रहने देता। पूज्य गुरुदेव एक कार्य को छोड़कर जब दूसरे कार्य में प्रवृत्त होते तो पहले कार्य को पूर्णतया निःशेष करके ही दूसरे कार्य में संलग्न होते। छोड़े हुए कार्य का अनावश्यक भार ढोकर दिमाग को भारी नहीं बनाते। बेमतलब चिंता का भार ढोने वालों को प्रेरणा देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी। बेमतलब बेचैन बण, क्यूं धीरज खोणी॥ भावक्रिया का दूसरा अर्थ है- भीतरी जागरूकता। अर्थात रागद्वेष मुक्त क्रिया करने का अभ्यास। भावक्रिया एक ऐसा ध्यान है, जिसका अभ्यास चौबीस घंटे किया जा सकता है क्योंकि जब चेतना और क्रिया एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, तब भावक्रिया सधती है अन्यथा वह मूर्छा का प्रतीक बन जाती है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में भावक्रिया ही ऐसा तत्त्व है, जो व्यक्ति को अपनी बुरी आदतों और दुष्प्रवृत्तियों के प्रति जागृत करता है। इसके अनुसार व्यक्ति क्रोध भी करे तो उसे भान होना चाहिए कि मैं अभी क्रोध अवस्था में हूं। जागृत दशा में होने वाला क्रोध उतना घातक नहीं होता, जितना बेहोशी में किया गया क्रोध होता है। अच्छाई हो या बुराई, उसके प्रति जागरूकता रहने से ही वृत्तियां उदात्त हो सकती हैं। चेतना के ऊर्ध्वारोहण या वृत्तियों के उदात्तीकरण के लिए भावक्रिया की साधना बहुत लाभप्रद है।' पूज्य गुरुदेव के जीवन में भावक्रिया की साधना इतनी आत्मसात् हो चकी थी कि वे तन्मय हुए बिना कोई कार्य करते ही नहीं थे। उनके ज्ञानतंतु और क्रियातंत में एक अद्भुत संतुलन स्थापित था इसलिए उनका चित्त और शरीर दोनों एक ही क्रिया में संलग्न रहते थे। उनका बोलना, चलना, लिखना, गाना और पढ़ना-पढ़ाना आदि सब क्रियाएं चेतना के साथ संपृक्त थीं अतः उनकी हर क्रिया योग बन जाती थी। आचार्य हरिभद्र ने इसी बात की संपुष्टि की है- 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्मवावारो जोगो' अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाली तन्मयतापूर्वक की जाने वाली हर क्रिया योग है। आगम-साहित्य में भावक्रिया के वाचक ये शब्द मिलते हैं- 'तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे'- अर्थात् जो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ अध्यात्म के प्रयोक्ता क्रिया की जा रही है, उसी में पूर्णरूपेण तन्मय एवं तल्लीन हो जाना। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह अनुभव पठनीय ही नहीं, मननीय भी है"साधना के प्रयोगों से आंतरिक लय इतनी जुड़ जाए कि बाह्य और अंतर में भेद न रहे। ऐसा करने से हमारी हर क्रिया मुक्ति का कारण बन जाएगी। तब विचार और आत्मालोचन का भेद मिट जाएगा।" (२६/२/१९६७ के प्रवचन से उद्धृत) भावक्रिया का प्रथम प्रायोगिक रूप गति से प्रारम्भ होता है। इस संदर्भ में महावीर का प्रतिबोध है इंदियत्थे विवजेत्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्परक्कारे, उवउत्तो रियं रिए॥ पूज्य गुरुदेव चलते समय साक्षात् गति बन जाते थे। अत्यावश्यक होने पर जब उनको बोलना पड़ता तो पग थामकर बोलते, यह घटना प्रसंग उनकी इसी साधना का जीवन्त प्रतीक है। दिल्ली से राजस्थान जाते समय पूज्य गुरुदेव पिलाणी पधारे। पिलाणी से प्रस्थान करते समय जुगलकिशोरजी बिड़ला गुरुदेव के साथ विहार में चलने लगे। चलते समय वे बात करते हुए चल रहे थे। गुरुदेव जब-जब उनके प्रश्न का उत्तर देते, अपने पैरों को थाम लेते। तीन-चार बार रुककर बोलने से बिड़लाजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- 'आपके पैर में दर्द है क्या? गुरुदेव ने कहा- 'नहीं, आपके ऐसा पूछने का प्रयोजन क्या है ?' बिड़लाजी ने उत्तर दिया- 'आप चलते-चलते बार-बार रुक रहे हैं, इसलिए मैंने सोचा कि आपके पैरों में दर्द है।' गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'हम चलते हुए बात नहीं करते। यह हमारी चर्या का प्रमुख अंग है। इसे हम ईर्या समिति कहते हैं। यह बात सुनकर बिड़लाजी अभिभूत हो गए और खेद के साथ बोले- 'तब मुझे आपके साथ चलते समय बात नहीं करनी चाहिए थी।' __ भावक्रिया का यह अभ्यास पूज्य गुरुदेव ने बचपन में ही साध लिया था। दीक्षित होते ही कुछ दिनों बाद गंगाशहर में श्रीचंदजी गधैया ने पूज्य कालूगणी को निवेदन किया कि मुनि श्री तुलसीरामजी अत्यन्त स्थिरयोगी हैं । चलते समय मैंने अनेक बार इनका परीक्षण किया है। इनकी दृष्टि कभी गमनपथ से नहीं हटती। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ११६ पूज्य गुरुदेव ने संपूर्ण संघ को भी इसका प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया। वि.सं. २०१८ का घटना प्रसंग है। द्विशताब्दी का ऐतिहासिक कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद गुरुदेव बाड़मेर पधारे । मध्याह्न दो बजे प्रतिदिन गुरुदेव के पास साधु-साध्वियों का वाचन चलता था। वैशाख का महीना था। चिलचिलाती धूप के कारण धरती तवे की भांति तप रही थी। धरती पर पैर टिक नहीं पा रहे थे अत: अनेक साध्वियां दौड़कर गुरुदेव के उपपात में पहुंच गयीं। गुरुदेव ने खिड़की से साध्वियों की तीव्र एवं अस्थिर गति को देख लिया। अध्ययन का क्रम प्रारम्भ हुआ। गुरुदेव ने प्रसंगवश साधुचर्या के बारे में प्रशिक्षण दिया और पूछा- 'क्या तुम लोगों की गति भावक्रिया से संवलित थी?' साध्धियों का मन अनुताप से भर उठा। उन्होंने निवेदन किया- 'हमारी गति साधु त्व के प्रतिकूल थी। पर...' गुरुदेव ने अमित वात्सल्य उंड़ेलते हुए कहा- 'मैं जानता हूं कि तुम लोगों के पैर जल रहे थे पर भावक्रिया को भूलकर दौड़ना साधु-जीवन की शोभा नहीं बढ़ाता। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम साधु हैं। हमारी गति गृहस्थों से भिन्न होनी चाहिए। अण्णहा णं पासए परिहरेजा'- महावीर के इस सूक्त को सतत स्मृति में रखकर हर क्रिया करनी चाहिए। हमारा हर कार्य भावपूर्ण और कलापूर्ण हो, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। 'व्यवहार बोध' में पूज्य गुरुदेव ईर्यासमिति का सक्रिय प्रशिक्षण देते हुए संगान करते हैं धीमे-धीमे देख-देखकर, तन्मय होकर गमन करें। वार्तालाप हास्य का वर्जन, आवेगों का शमन करें। भावक्रिया का तीसरा अर्थ है- जानते हुए कार्य करना। जानते हुए कार्य करने वाले साधक के जीवन में पश्चात्ताप के अवसर कम आते हैं क्योंकि उसकी हर क्रिया ज्ञान से युक्त होने के कारण विवेक एवं संयम से संवलित रहती है। वह सदैव भावनिक्षेप में जीता है अत: वह क्रियामय बन जाता है। सन् १९८२ का घटनाप्रसंग है। ५ मई को डेगाना में पूज्य गुरुदेव ने उपवास किया। संतों ने अनुरोध किया कि आज उपवास होने पर भी आपने पूरे दिन कठोर श्रम किया है अतः रात्रि के समय आप विश्राम करें। इच्छा न होने पर भी गुरुदेव ने संतों का निवेदन स्वीकार कर लिया। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ अध्यात्म के प्रयोक्ता रात्रि में श्रोताओं की बहुत अच्छी उपस्थिति हो गयी। संत अच्छे ढंग से प्रवचन कर रहे थे फिर भी जनता को पूरा संतोष नहीं मिल रहा था। जनता की आंखें गुरुदेव के कमरे की ओर लगी हुई थीं। लोगों के भाव संप्रेषित हुए और गुरुदेव प्रवचन - पंडाल में पधार गए । गुरुदेव ने प्रवचन करना प्रारंभ किया। वे प्रवचन देने में इतने तन्मय हो गए कि उन्हें उपवास की बात भी ध्यान नहीं रही । गुरुदेव अमृतवाणी बरसाते रहे और जनता आत्मविस्मृत होकर सुनती रही। बोलते-बोलते एक घंटा बीत गया पर किसी को समय का भान नहीं रहा । आनंद का स्रोत भावक्रिया से ही प्रवाहित हो सकता है क्योंकि उसमें तन्मयता आती है। आचार्य महाप्रज्ञ का अनुभव है कि चित्त और शरीर की दिशा भिन्न रहती है तो निश्चित रूप से तनाव बढ़ता है। कार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हुए बिना उसका परिणाम सुखद नहीं होता क्योंकि इसमें शक्ति अधिक व्यय होती है और निष्पत्ति नहीं मिल पाती अतः शरीर और मन की सहयात्रा ही भावक्रिया है और यही सफलता का सूत्र है । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का यही संकल्प था- 'मेरी दृष्टि में जीवन एक अखंड अविभक्त सत्य है, मैं उसी को जीना चाहता हूं ।' पूज्य गुरुदेव ने प्रत्येक क्षण को समग्रता के साथ जीया था अतः उन्हें हर क्षेत्र में सफलता मिली। उनका अनुभव था कि जिस क्षण समग्रता से जीना आ जाएगा, उसी क्षण साधक अपने आपको सही रूप से पहचान पाएगा। विचलित एवं विभक्त मन वाला व्यक्ति न संयत रहता है, न स्थिर रहता है और न ही सत्य को समझ सकता है। खंडित चेतना वाला साधक शांति और समाधि की तो कल्पना भी नहीं कर सकता । भावक्रिया सधने के बाद साधक इन्द्रियविषय को नहीं छोड़ता पर उसकी अनुभूति अवश्य बदल जाती है। अनुभूति बदलने के बाद नीरस पदार्थ भी सरस अनुभूति दे सकता है। अप्रमत्तता अप्रमत्तता और जागरूकता जीवन की सफलता के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। 'उट्ठिए णो पमायए' महावीर की यह आर्षवाणी हर साधक के लिए प्रेरणादीप है । अप्रमाद की साधना सिद्ध हो जाने पर बुराई का आसन Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ११८ स्वतः प्रकंपित हो जाता है। अप्रमत्त साधक के लिए बाहर का अनुशासन कृतार्थ हो जाता है। अप्रमाद वह स्वर्णिम सूत्र है, जो साधक के भीतर अभय की चेतना जगा देता है तथा शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं से जूझने की प्रेरणा देता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में- 'अपने भीतर अप्रमाद रूपी सिपाही को खड़ा कर लीजिए, वह पल-पल आपकी रक्षा करेगा।' समय की सही पहचान करके सही समय पर सही काम करना साधना की निष्पत्ति है। पूज्य गुरुदेव ने जीवन के प्रत्येक क्षण का रस निचोड़कर उसे काम में लेना सीखा। मुनि जीवन में अनेक बार रात के प्रथम प्रहर में गुरुदेव तीन-तीन हजार श्लोकों का पुनरावर्तन कर लेते थे। वे अनेक बार अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते थे- 'मेरा क्षण-क्षण किसी अच्छे कार्य में लगे, यह मेरी तीव्र भावना है।' जीवन के इतने लम्बे काल में कोई व्यक्ति इतना अप्रमत्त रहा हो, यह आश्चर्य का विषय है। उनके निकट रहने वाला हर व्यक्ति उनकी अप्रमत्तता और जागरूकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। विद्वद्वर्ग उनकी इसी विशेषता से उनके प्रति आकृष्ट हुआ था। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने अपनी अनुभूति इन शब्दों में व्यक्त की- 'जब अन्तरंग गोष्ठी में मैंने उनके दर्शन पाए तो देखा कि यह व्यक्ति खरा है, उसमें आन है, तेरापंथ का एकमात्र आचार्य और शास्ता होने पर भी जिज्ञासु और साधकपन उनमें जगा हुआ है। वह साधनाशील पुरुष किसी प्रमाद के अधीन नहीं है, जागरूक है।...मैंने उन्हें सदा जागृत व तत्पर पाया। शैथिल्य कहीं देखने में नहीं आया। प्रमाद और अवसाद उनके निकट नहीं आ पाता। आसपास का वातावरण उनकी कर्मशीलता से चैतन्य और उन्नत बना दिखता है।' _ 'समयं गोयम! मा पमायए' महावीर के इस अनमोल वचन को उन्होंने केवल अपने जीवन में ही नहीं उतारा बल्कि अपने परिपार्श्व को भी इसका प्रतिबोध दिया। उनके पास बैठने वाला कोई व्यक्ति प्रमाद, आलस्य या अकर्मण्यता को प्रश्रय नहीं दे सकता था। वे बार-बार इस बात को दोहराते रहते थे- 'सुषुप्ति एवं आलस्य का जीवन मुझे पसंद नहीं।' यात्रा के दौरान ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है, जब Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्राकृतिक प्रकोप होने पर गुरुदेव ने समूचे परिपार्श्व को स्वाध्यायमय बना दिया। केरल के अलवै गांव में गुरुदेव का प्रवास था। रात को नौ बजे हवा बंद हो गई और वर्षा होने लगी। अचानक मच्छरों ने धावा बोल दिया। गुरुदेव ने मच्छरों पर रोष न करके अहिंसक प्रतिकार की बात सोची। संत भी मच्छरों के कारण नींद नहीं ले पा रहे थे। वे करवटें बदल रहे थे। गुरुदेव ने सभी संतों को आह्वान किया और कालूगणी के जीवन-प्रसंग सुनाने लगे। संस्मरणों की रोचकता में सभी संत मच्छरदेश के परीषह को भूल गए। रात्रि के दो बजे तक यह क्रम चलता रहा। ऐसे एक नहीं अनेक प्रसंग हैं, जो उनकी अप्रमत्तता और क्षण-क्षण जागरूक रहने की जीवन्त कहानी को प्रस्तुत करने वाले हैं। . दक्षिण यात्रा के दौरान पुंदमली गांव में वहां के फादर से चर्चा करते हुए रात्रि के बारह बज गए। संतों ने विश्राम हेतु निवेदन किया तथा अगले दिन लम्बे विहार की बात भी याद दिलाई पर गुरुदेव ने कहा'आचार्य भिक्षु ने तो धर्म-प्रतिबोध हेतु अनेक रातें जगाईं, क्या हम थोड़ी देर भी जागरण नहीं कर सकते?' दायित्व के प्रति उनकी यह तन्मयता और निष्ठा जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी हुई थी। ये घटना प्रसंग स्पष्ट करते हैं कि गुरुदेव स्वयं तथा समूचे संघ को अहालंद (हर क्षण अप्रमत्त) की साधना में संलग्न देखना चाहते थे। उनका मंतव्य था कि समय को सफल बनाना ही उसको वश में करना है। उसको व्यर्थ गंवाना परवशता है। पूज्य गुरुदेव अपनी शक्ति एवं समय का नियोजन सदैव सम्यक् कार्यों में करते थे। जहां उन्हें प्रतीत होता था कि यहां समय लगाना सार्थक नहीं होगा तो वे तत्काल उस प्रसंग से विरत हो जाते थे। एक क्षण भी समय को व्यर्थ गंवाना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। उनका मानना था कि प्रमाद की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता पर स्व-प्रबंधन और समय-प्रबंधन से यह संभावना न्यून से न्यूनतर होती जाती है। अपनी कालजयी रचना 'व्यवहार-बोध' में उन्होंने इसी सत्य का संगान किया है जीवन की बड़ी कला है समय-नियोजन, 'समयं गोयम! मा पमायए' परियोजन। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कीमत आंके, समयज्ञ विवेकी इसकी मुनि अहालंद जागरणा भीतर झांके ॥ भिवानी में कुछ आर्यसमाजी व्यक्ति गुरुदेव के पास आए और अहं भरे शब्दों में बोले- 'हम शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ।' गुरुदेव ने शास्त्रार्थ का प्रयोजन पूछा। उन्होंने ऋजुता से कहा- 'हम आपको पराजित करना चाहते हैं।' गुरुदेव ने पुन: शांत भाव से पूछा- 'इसका प्रयोजन क्या होगा ?' आगंतुक बोले- 'इससे हमारा यश बढ़ेगा।' गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्म मेधा से समझ लिया कि यहां समय लगाना व्यर्थ है। जहां शास्त्रार्थ या वाद-विवाद ज्ञानवृद्धि के लिए हो, वहां ज्ञानचर्चा की जा सकती है किन्तु जहां वह हार-जीत के साथ जुड़ जाए, वहां वितण्डा बन है। गुरुदेव ने सहजता से उत्तर दिया- 'बिना शास्त्रार्थ किए ही मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूं। आप बाजार में जाकर ऐलान कर सकते हैं कि आचार्य तुलसी हारे और हम जीते। आप जानते हैं कि मैं घर-बार, धन-दौलत छोड़कर साधु बना और स्वयं को जीतने का प्रयत्न कर रहा हूं। ऐसी स्थिति में आप मुझे जीतने आए हैं अतः मुझे हारने का कोई दुःख नहीं होगा । आप निश्चिंत होकर मेरी पराजय की घोषणा कर सकते हैं और अपना यश बढ़ा सकते हैं ।' यह कथन जहां उनके आत्मलक्षी और अप्रमत्त व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है, वहां समय-प्रबंधन की जागरूकता की ओर भी इंगित करता है। इस घटना ने उन लोगों को कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। अगली बार जब गुरुदेव भिवानी पधारे तो वे ही व्यक्ति स्वागत में सबसे आगे थे। अपनी पहचान प्रस्तुत करते हुए श्रद्धाप्रणत भावों से वे बोले - 'गुरुदेव ! हम वे ही व्यक्ति हैं, जो पहली बार आपको पराजित करने आए थे पर आज आपके भक्त बनकर हार्दिक अभिनन्दन करने आए हैं । सक्षम होते हुए भी आपने अपनी हार स्वीकार करके हम सबको हरा दिया।' १२० उपर्युक्त घटना के विपरीत जहां बातचीत में उन्हें समय की सार्थकता प्रतीत होती, वे पूरी रात जागकर भी धर्म-प्रतिबोध देने के लिए उद्यत रहते थे। व्रजवाणी गांव में किसानों के परिवार अधिक थे। रात्रिकालीन प्रवचन के बाद बेला से आए हुए भाइयों के साथ प्रश्नोत्तर का क्रम प्रारम्भ हो गया। ग्रामीणों की जिज्ञासाएं एक के बाद एक करके उभरती गईं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ अध्यात्म के प्रयोक्ता वार्तालाप के क्रम में बारह बज गए। आचार्य भिक्षु की भांति तत्त्वज्ञान या ज्ञानबोध देने में जागरण भी गुरुदेव के लिए आत्म- - संतुष्टि का कारण बनता था, इस बात को पद्यबद्ध करते हुए गुरुदेव ने फरमाया व्रजवाणी की रात, चर्चा में बारह बजे । गेड़ी हर्षित गांत, राते जिनमंदिर रह्यो । 'जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी' इस आगमिक सूक्त में उनका पूरा विश्वास था । यही कारण था कि उनके जीवन में प्रकाश और अन्तर्दीप्ति स्वतः प्रकट हो गयी। महावीर ने 'काले कालं समायरे' जैसे समय-प्रबंधन के अनेक अनमोल सूत्र दिए हैं। यदि एक सूत्र को भी स्मृति में रखा जाए तो दिन में अनेक कार्यों को अच्छे ढंग से सम्पादित किया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि जो साधक समय को पहचानता है, हर कार्य समय पर ही करता है, वह साधना के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता रहता है क्योंकि कल का अंत नहीं है अतः आज का ही प्रयोग करना चाहिए। अप्रमत्त व्यक्ति ही समय का ठीक प्रबंधन कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। समय की अनियमितता व्यक्ति की दिनचर्या को व्यवस्थित नहीं रहने देती । न उसके सोने का समय नियत होता है और न जगने का इसलिए करणीय कार्य के प्रति उसके मन में जागरूकता नहीं हो सकती। पूज्य गुरुदेव ने समय के मूल्य को आंका गया हुआ क्षण करोड़ों मोहरे देने पर भी नहीं आता इसलिए उन्होंने क्षण-क्षण का रस निचोड़कर उसका उपयोग किया। किसी भी कार्य में समय का अतिक्रमण उनको पसंद नहीं था। जब-जब निर्धारित कार्यक्रम में किसी के द्वारा समय का अतिक्रमण होता तो वे तत्काल अंगुलिनिर्देश कर देते। उनका अंगुलिनिर्देश दूसरों पर ही नहीं होता। यदि किसी आवश्यक कारण से उनके द्वारा निर्धारित समय का अतिक्रमण होता तो वे तत्काल समूह में उसका उल्लेख कर देते। योगक्षेम वर्ष में निर्धारित समय से लेट पहुंचने वालों को दण्डस्वरूप कुछ समय खड़े होने का नियम था । एक दिन किसी आवश्यक प्रयोजनवश गुरुदेव को प्रवचनपंडाल पहुंचने में दो मिनट की देरी हो गयी। गुरुदेव ने इस देरी से आने का Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . १२२ न केवल अनुताप व्यक्त किया बल्कि प्रायश्चित्तस्वरूप स्वयं भरी सभा में थोड़ी देर खड़े रहे। इस घटना ने अनेक लोगों को समय के अंकन का जीवन्त प्रतिबोध दे दिया। जब कोई व्यक्ति भारतीय लोगों के समय की अनियमितता को 'इंडियन टाइम' कहकर व्यंग्य करता तो उनको बहुत पीड़ा होती थी, वे इसे बदलना चाहते थे। अप्रमत्त साधक हर कार्य को जागरूकता से निष्पादित करता है। पूज्य गुरुदेव न केवल अपनी हर क्रिया के प्रति जागरूक थे अपितु अपने अनुयायियों के हर क्रिया-कलापों का भी सूक्ष्म निरीक्षण करते रहते थे। गांव के एक स्कूल में पूज्य गुरुदेव का प्रवास था। कमरे में अंदर प्रकाश नहीं था अतः साधु गुरुदेव के बैठने के बेंच बाहर घसीटने लगे। पूज्य गुरुदेव ने जब बेंचों को घसीटते देखा तो प्रेरणा देते हुए कहा- 'बेंचों को घसीटना प्रमाद है। यदि इनके नीचे जीव आ जाएं तो उनकी हिंसा से कैसे बचा जाएगा? जीव न भी मरें तो भी अपना प्रमाद तो है ही। प्रमाद हिंसा और जागरूकता अहिंसा है। साधक को प्रतिपल जागरूक एवं सजग रहना चाहिए। दूसरी बात बेंच उपयोग करने के लिए है न कि खराब करने के लिए। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने प्रमाद से कोई वस्तु खराब न होने दें। प्रमाद होने पर उससे नया बोधपाठ लेने वाले संसार में विरले ही होते हैं। प्रायः देखा जाता है कि प्रमाद का अहसास हो जाने पर भी व्यक्ति मनोबल या विवेक की कमी से उससे निवृत्त नहीं हो पाता। अपने किसी भी प्रमाद से पूज्य गुरुदेव न केवल स्वयं भविष्य के लिए बोध पाठ लेते वरन् दूसरों को भी समय-समय पर सावधान करते रहते थे। इस सन्दर्भ में मेरा जीवनः मेरा दर्शन पुस्तक में व्यक्त एक अनुभव उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'बहुत बार जानकारी के अभाव में प्रमाद हो जाता है। वि.सं. २००० तक मैंने कभी अपने दांतों पर ध्यान नहीं दिया। दांतों की सफाई का न तो लक्ष्य था और न पद्धति थी। दंतमंजन लगाने का तो प्रश्न ही नहीं था, कुल्ला भी ढंग से नहीं किया जाता। गंगाशहर में एक बार दांतों में दर्द हुआ। डॉ. ने दांत देखकर कहा- 'दंतक्षय शुरू हो गया है। कुछ दांत जाने वाले हैं।' डॉ. के कथन पर विश्वास नहीं हुआ इसलिए पूरा ध्यान भी नहीं दिया। अपने प्रमाद का बोध तब हुआ, जब कुछ दांत निकल गए या Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ अध्यात्म के प्रयोक्ता निकलवाने पड़े। उसके बाद दांतों की सफाई का लक्ष्य बना। दांतों में अन्न के कण फंसे रहने से बासी रहने की संभावना और पायरिया का भय रहता है। पहले मैं सोचता था कि मसूढ़े बहुत कोमल होते हैं । उनको नहीं, दांतों को अंगुली से घिसना चाहिए। बाद में जानकारी मिली कि दांतों की अपेक्षा मसूढों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। मालिश मसूढ़ों की होनी चाहिए। तब से इस ओर सावधानी बढ़ी।कुछ दांत खो दिए किन्तु शेष को बचाकर रख सका हूं। इस जागरूकता से आज भी मेरे दांत अच्छी स्थिति में है।' दूसरों को प्रमाद की अनुभूति कराना और भविष्य में अप्रमत्त रहने का बोध देना भी एक बड़ी कला है। पूज्य गुरुदेव इस कला में सिद्धहस्त थे। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि दूर से ही प्रमाद को पकड़ लेती थी। यह घटना प्रसंग मनोवैज्ञानिक शैली में प्रमाद पर प्रहार करने का अवबोध देने वाला है। पूज्य गुरुदेव साधु-साध्वियों के समक्ष अपनी नयी कृति 'श्रावक संबोध' का वाचन कर रहे थे। सवेरे का समय था। उस समय कुछ संतों को झपकी आ रही थी। गुरुदेव के समक्ष कोई प्रमाद करे, यह कैसे क्षम्य हो सकता था? तत्काल गुरुदेव ने बालमुनि को हाथ के संकेत से जागृत कर दिया। मुनिश्री हीरालालजी, जो पचास वर्षों से गुरुदेव की उदक-सेवा में संलग्न हैं, आगमज्ञाता हैं और बहुत निष्ठा से अपना दायित्व निभाते हैं। जब उन्हें झपकी लेते हुए देखा तो गुरुदेव ने मनोवैज्ञानिक शैली में उन्हें सजग करते हुए कहा- 'हीरालालजी! नींद ही लेते रहोगे या पानी भी पिलाओगे?' गुरुदेव की इस मीठी चुटकी से सभी के चेहरे खिल उठे। सबकी नींद कपूर की भांति आकाश में विलीन हो गयी। ' प्रमत्त व्यक्ति संभावनाओं के द्वार पर दस्तक नहीं दे सकता। पूज्य गुरुदेव ने अप्रमाद की अहर्निश साधना से अनेक उपलब्धियों को हासिल किया। उम्र के नवें दशक में भी वे किसी प्रमाद या मूर्छा से परास्त नहीं थे। उनका परिपार्श्व सदैव अभिनव चैतन्य के जागरण से आप्लावित रहता था। वे सतत इस चिंतन-प्रक्रिया से गुजरते रहते थे कि मैंने क्या किया, मेरे लिए क्या करणीय शेष है और ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे मैं कर सकता हूं फिर भी नहीं करता। पूज्य गुरुदेव की अप्रमत्त साधना और उससे जुड़े Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १२४ सैकड़ों संस्मरण युगों-युगों तक मानव-जाति की प्रमत्त चेतना को झकझोर कर जागृति का नया संदेश देते रहेंगे। संघीय साधना के प्रयोग साधना की परिपक्वता के लिए निरन्तर प्रयोग आवश्यक हैं क्योंकि हर प्रयोग से एक नया अनुभव मिलता है तथा अग्रिम प्रयोग की भूमिका सुदृढ़ हो जाती है। पूज्य गुरुदेव ने संघीय एवं वैयक्तिक स्तर पर साधना के विकास हेतु अनेक नए चिन्तन एवं नए प्रयोग किए। उन प्रयोगों की ही फलश्रुति है कि उनका धर्मसंघ जागृत एवं जीवन्त धर्मसंघ है। प्रयोग होने पर उसका परिणाम न आए तो उस प्रयोग के सामने प्रश्नचिह्न लग जाता है। हर प्रयोग का व्यवहार में प्रतिबिम्ब दिखाई देना चाहिए। बदलाव या रूपांतरण घटित होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव किसी भी प्रयोग के प्रारम्भ में असफलता या निराशा की बात नहीं सोचते थे। यही कारण था कि उनके द्वारा किया गया हर प्रयोग सफल एवं फलदायी हुआ। उनके द्वारा किए गए प्रयोगों की व्यवस्थित एवं ऐतिहासिक अभिव्यक्ति देना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। फिर भी प्राप्त सामग्री के आधार पर उनके द्वारा प्रवर्तित एवं प्रयुक्त प्रयोगों की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की जा रही है। कुशल साधना साधना के विविध प्रयोगों की दृष्टि से उज्जैन चातुर्मास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा। वहां आगम-संपादन का महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ हुआ। आगम-संपादन से अध्यात्म की नयी दृष्टियां विकसित हुईं। आगमों में विकीर्ण रूप से साधना के अनेक सूत्रों का उल्लेख है पर वे केवल सिद्धांत रूप में उल्लिखित हैं। किसी भी सिद्धांत को प्रायोगिक रूप देना एक नए सृजन को प्रस्तुत करना है। जिस सिद्धांत के साथ प्रयोग नहीं जुड़ते वह कालांतर में मृतप्रायः हो जाता है। इसी प्रकार प्रयोग का कोई सैद्धांतिक धरातल नहीं होता तो वह असफल हो जाता है। पूज्य गुरुदेव ने इस सत्य को समझा। वे कहते थे कि सिद्धांत कितना ही अच्छा क्यों न हो, प्रयोग के बिना उसकी सार्थकता नहीं होती। इसी प्रकार प्रयोग की बात लुभावनी लग सकती है पर सिद्धांत के अभाव में प्रयोग को आधार नहीं मिलता। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रयोग करते-करते प्रयोक्ता उस बिन्दु तक पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर वह नए सिद्धांत की प्रस्थापना भी कर सकता है। इसी दृष्टिकोण के आधार पर आचारांग के वाचन के दौरान उसके एक सूक्त 'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' पर गुरुदेव का ध्यान टिका। कुशल वह है, जो कामना से प्रतिबद्ध नहीं होता और साधना से कभी मुक्त नहीं होता। इस सूक्त के आधार पर कुशल-साधना का महत्त्वपूर्ण प्रयोग प्रारम्भ किया गया। पूज्य गुरुदेव ने साधु-साध्वियों को कुशल-साधना के माध्यम से अप्रमत्त रहने का विशेष निर्देश दिया। 'अलं कुसलस्स पमाएणं' कुशल व्यक्ति के लिए प्रमाद का कोई स्थान नहीं है। इस आदर्श को जीवन-सूत्र मानकर साधु-साध्वियों में नयी चेतना का जागरण हो गया। इस साधना का प्रारम्भ उज्जैन चातुर्मास में श्रावणबदी चतुर्दशी को हुआ। कुशल साधना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव संस्मरणों के वातायान' में कहते हैं'कार्य शरीर को संभालने का हो या आत्मशक्तियों के जागरण का, कुशलता का महत्त्व सब जगह है। हमारा लक्ष्य साधु के आचार और व्यवहार की कुछ ऐसी कसौटियों का निर्धारण था, जिनके आधार पर साधक अपनी प्रगति का मूल्यांकन कर सके। आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण के बाद साधु-साध्वियां अपनी अर्हता का निर्णय कर सकें।....इस प्रयोग के पीछे दो प्रेरणाओं ने काम किया। पहली प्रेरणा थी मेरा नवीनता के प्रति प्रेम। मेरे मन में प्रायः कुछ नया करने की भावना रहती है। दूसरी प्रेरणा थी संघ के कुछ साधुओं द्वारा निर्मित वातावरण । उन्होंने भीतर ही भीतर ऐसा वातावरण बनाना शुरू कर दिया था कि संघ में अंतरंग दृष्टि से कुछ नहीं हो रहा है। केवल बाह्य बातों पर ध्यान दिया जाता है। मेरा यह मानसिक संकल्प था कि चातुर्मास में कुछ प्रयोग करके साधु-साध्वियों की मानसिकता का निर्माण करना है। उसके बाद साधना की दृष्टि से पूरे संघ का कायाकल्प करना है। कितना कुछ होगा, पहले कहना कठिन है। पुरुषार्थ करना आत्मधर्म है, यह मानकर मैंने यह प्रयोग प्रारम्भ किया। ज्ञात हुआ कि उसकी अच्छी प्रतिक्रिया रही।" कुशल साधना में संलग्न साधक के लिए पूज्य गुरुदेव ने निम्न कसौटियां निर्धारित की१. निर्जरार्थिता (निज्जरट्ठिय) . * प्रत्येक कल्पनीय कार्य निर्जरा के लिए करना। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १२६ * दूसरे साधुओं को अधिक से अधिक अपनी सेवाएं देना। कर्तव्य निष्ठ होना। २. फलाशा-संयम (निरासय) प्रवृत्ति के पहले या पीछे फल की कामना न करना। * विनय व आज्ञा-पालन निस्पृह व जागरूक भाव से करना। ३. खाद्य-संयम (मियासण) * कम खाना-मात्रा में परिमाण की मर्यादा रखना। * कम खाना-संख्या में-द्रव्यों की मर्यादा रखना। कम खाना-विगय या सरस वस्तु की दृष्टि से। ४. उपकरण-संयम (अप्पोवहिय) वस्त्र आदि साधन कम से कम रखना। सादा रखना-घटिया-बढ़िया की चर्चा न करना। ५. वाणी-संयम (अप्पभासी) कम बोलना-बिना प्रयोजन न बोलना। * विवाद और चुगली से बचना। ६. इन्द्रिय-मानस-संयम (जिइंदिय) * इनको स्वाध्याय-ध्यान में लगाये रखना। इनको अन्तर्मुखी बनाना। ७. अभय (न भावियप्पा) * आवश्यक सत्य को विवेकपूर्वक प्रकट करने में न सकुचाना। ८. पवित्रता (निस्संग) . * विकारों से बचना। ९. कष्टसहिष्णुता (परीसहरिऊदंत) . सुविधा और असुविधा में समचित्त, समवृत्ति और संतुष्ट रहना। * परीषहों को परम-धर्म समझकर सहना। १०. आनन्द (आणंदघण) * आत्मरमण-यह साधना का नवनीत है। आनन्द साधना की कसौटी है। वस्तु-निरपेक्ष आनन्द रहने लगे तब समझना चाहिए कि साधना फल ला रही है, साधना का विकास हो रहा है। साधना के इन सूत्रों ने सभी साधु-साध्वियों में नई स्फुरणा भर Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ अध्यात्म के प्रयोक्ता दी। कुशल साधना के प्रथम सूत्र निर्जरार्थिता (निजरट्ठिए) को सामूहिक प्रयोग का विषय बनाया गया इसलिए पूरे उज्जैन चातुर्मास में कार्य का विभाजन नहीं किया गया। निर्जरा के लिए ही साधु-साध्वियों ने सारे सामुदायिक कार्य सम्पन्न किए। उस प्रयोग के बारे में पूज्य गुरुदेव अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहते हैं- "इतने लम्बे समय तक आचार्यों की सेवा सम्बन्धी और संघीय व्यवस्था सम्बन्धी काम-काज की अनुक्रम से 'बारी' का न होना बहुत बड़ी बात थी। इससे भी बड़ी बात थी दीक्षा पर्याय में बड़े साधु-साध्वियों द्वारा छोटे साधु-साध्वियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का सम्पादन । यह प्रयोग अनेक दृष्टियों से उत्साहवर्धक और उपयोगी रहा। कुशल-साधना से धर्मसंघ में साधना के प्रति नए उत्साह का वातावरण बना और आगमों में विकीर्ण साधना-पद्धति का प्रायोगिक रूप सामने उभर कर आया। प्रणिधान-कक्ष साधु-साध्वियों की साधना में गति देने हेतु गुरुदेव ने प्रणिधानकक्ष का प्रारम्भ किया। प्रणिधान-कक्ष के अन्तर्गत दस दिवसीय शिविर होता, जिसमें साधु-साध्वियां ही भाग लेते थे। प्रणिधान-कक्ष के प्रारम्भ में धर्मसंघ को प्रेरणा देते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'मेरे मन में सदा से एक भावना रही है कि हमारे धर्म-संघ में आंतरिक साधना का विकास हो। वैसे तो साधु जीवन का अर्थ ही साधना है पर उस जीवन में नए प्रयोग न हों तो जीवन रूढ़ बन जाता है इसलिए साधक को प्रायोगिक जीवन जीना चाहिए, जिससे उसमें आत्म-संयम एवं आत्मानुशासन का उत्तरोत्तर विकास होता रहे। . प्रणिधान-कक्ष के उपक्रमों में ध्यान एवं आसन आदि के विशेष प्रयोगों के साथ विचार-गोष्ठियां भी आयोजित की गयीं। विचार-गोष्ठी के माध्यम से भाव-परिवर्तन एवं मस्तिष्क-प्रशिक्षण के विशेष प्रयोग कराए गए। प्रणिधान-कक्ष की साधना का क्रम तीन साल तक चला। इस साधना की परिसम्पन्नता के अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने अपनी अन्तर्भावना प्रकट करते हुए कहा- 'प्रणिधान-कक्ष ने हमारी अन्त:साधना का द्वार प्रशस्त किया है। हमारे लिए विकास का स्रोत प्रारम्भ हुआ है। सदियों से ध्यान Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १२८ विस्मृतप्रायः हो गया था। अपवाद रूप में दो-चार साधु ध्यान का विशेष अभ्यास करते थे किन्तु अब बीसों-तीसों साधु-साध्वियां मेरे पास आते हैं और ध्यान के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं करते हैं। मैं उन्हें उसका क्रम और सामग्री बतलाता हूं। इस प्रकार ध्यान-साधना का क्रम बढ़ रहा है। उसके परिणाम भी हमारे सामने हैं। कुल मिलाकर प्रणिधान-कक्ष ने अच्छी उपलब्धि प्रस्तुत की है। संघ में समय-समय पर साधना के विविध प्रयोग चलते रहें तो अध्यात्म के क्षेत्र में नए विकास की संभावना की जा सकती है।' भावितात्मा साधना क्रम भावितात्मा अर्थात् आत्मा को शुभ भावों से भावित करने वाला। 'पंचसूत्रम्' में भावितात्मा को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते एकत्वमाप्तोऽपि वसन् समूहे, परानपेक्षेत गुणानुकारे। परानुपेक्षेत गुणोपरोधे, स भावितात्मा चिरमेति शांतिम्॥ अर्थात् समूहवासी रहता हुआ भी भीतर में अकेला रहता हुआ साधक जहां गुणों के अनुकरण का प्रश्न हो, वहां दूसरों की अपेक्षा रखता है और जहां गुणविघात का प्रश्न हो, वहां दूसरों की उपेक्षा करता है, वह भावितात्मा साधक चिरशांति को प्राप्त करता है। प्रणिधान-कक्ष में जो प्रयोग सिखाए गए, उनका सलक्ष्य प्रयोग करने हेतु विक्रम संवत् २०२१ में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गुरुदेव ने 'भावियप्पा' एवं 'सेवट्ठी' (निज्जरट्ठी) का नया अभिक्रम शुरू किया। इस साधना-क्रम में निर्जरा की भावना को विकसित करने का विशेष वातावरण बनाया गया। भावितात्मा साधना का क्रम शुरू करते हुए गुरुदेव ने फरमाया'हमारी मर्यादाओं का आधार साधना है। उसके बिना साधना टिक नहीं सकती। हमारा सारा जीवन साधनामय है और होना चाहिए। मैं चाहता हूं कि कुछ साधु-साध्वियां साधना में विशेष गति करें। उन्हें साधनाविषयक सुविधा दी जा सकती है।' भावितात्मा साधना के क्रम में संलग्न व्यक्ति के लिए भावक्रिया एवं अनावेग की साधना आवश्यक रखी गयी।सुविधानुसार प्रतिदिन एकासन Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ अध्यात्म के प्रयोक्ता का क्रम निश्चित रखा गया। जिस दिन एकासन न हो उस दिन विगयवर्जन एवं भोजन में एक बार में ९ से अधिक द्रव्य न खाने का प्रावधान रखा गया। भावितात्मा - साधना में संलग्न साधक के लिए कुछ कसौटियां निर्धारित की गयीं । उन कसौटियों पर खरा उतरने वाला साधक ही इस साधना के क्रम में प्रवेश पा सकता था। कसौटी के मुख्य बिन्दु ये थे जो सहिष्णुता और शांतिपूर्ण सहवास में पूर्ण आस्थावान् हो । * जो मर्यादा और व्यवस्था के प्रति पूर्ण जागरूक हो । . स्वाध्याय, भावना और ध्यान-योग की विशेष साधना जिसका जीवनव्रत हो । विवेक और व्युत्सर्ग से बार-बार अपने को भावित करता हो । जो इंद्रिय-प्रतिसंलीनता और कषाय- प्रतिसंलीनता की साधना में दत्तचित्त हो । कसौटी के साथ-साथ भावितात्मा के कुछ कर्त्तव्य भी निर्धारित किए गए सामुदायिक जीवन में सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण । स्वाध्याय और ध्यान के प्रति आकर्षण पैदा करना । स्थिरीकरण - साधु-साध्वियों को अध्यात्म-साधना में स्थिर करना । हर परिस्थिति में सम रहने की विशिष्ट साधना करना । जैसे शिक्षा के लिए कालबद्ध निश्चित क्रम निर्धारित रहता है उसके बाद बी.ए., एम.ए. आदि की उपाधियां मिलती हैं, वैसे ही पूज्य गुरुदेव ने भावितात्मा के लिए निश्चित पाठ्यक्रम निर्धारित किया। यह साधना-क्रम साधना के सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख करने वाला था । साधना - क्रम तीन वर्ष का निर्धारित किया गया किन्तु पांच साल की साधना पूर्ण करने पर गुरुदेव मर्यादा महोत्सव पर 'भावियप्पा एवं सेवट्ठी' की उपाधि देंगे, ऐसा निश्चित किया गया। ये सारी उपाधियां आगमों में वर्णित हैं । उत्तराध्ययन आदि अनेक आगमों में 'भावियप्पा' शब्द का प्रयोग मिलता है पर गुरुदेव ने इसका साधना-क्रम भी प्रस्तुत कर दिया तथा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १३० उपाधि के साथ-साथ इन्हें संज्ञा का बोधक बना दिया। तीन साल का प्रतिदिन साधना का विधिवत् क्रम इस प्रकार निश्चित किया गया प्रथम वर्ष क्रिया एकासन योगासन जप भावना (श्वासोच्छ्वास के साथ अनित्य अशरण, एकत्व आदि) स्वाध्याय ध्यान द्वितीय वर्ष क्रिया एकासन योगासन जप भावना (श्वासोच्छ्वास के साथ मैत्री, प्रमोद, करुणा, उपेक्षा) स्वाध्याय ध्यान तृतीय वर्ष क्रिया एकासन समय अष्टमी, चतुर्दशी आधा घंटा १५ मिनिट १५ मिनिट आधा घंटा आधा घंटा समय अष्टमी, चतुर्दशी आधा घंटा १५ मिनिट आधा घण्टा आधा घंटा पौन घंटा + समय अष्टमी, चतुर्दशी आसन सुखासन विविध उत्कटुकासन पद्मासन पद्मासन पद्मासन आसन सुखासन विभिन्न उत्कटुकासन पद्मासन पद्मासन पद्मासन आसन सुखासन Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ योगासन जप भावना (श्वासोच्छ्वास के साथ आस्रव, आधा घंटा १५ मिनिट आधा घंटा अध्यात्म के प्रयोक्ता विविध उत्कटुकासन पद्मासन संवर, निर्जरा, अनुप्रेक्षा) स्वाध्याय आधा घंटा पद्मासन ध्यान एक घंटा पद्मासन पूज्य गुरुदेव ने भावितात्मा का केवल प्रयोग ही प्रस्तुत नहीं किया वरन् इस प्रयोग में अभिरुचि उत्पन्न करने हेतु समय-समय पर सक्रिय प्रेरणा भी दी। उनकी प्रेरणा की एक झलक यहां प्रस्तुत की जा रही है' भावितात्मा का जो क्रम आरम्भ हुआ है, उसमें सारे संघ का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। वर्तमान संकटकाल में जिस प्रकार सारा राष्ट्र एक हो गया, उसी प्रकार सबका चिंतन व प्रयास इस साधना-पद्धति के अनुरूप हो तथा वातावरण भी तदनुरूप हो। यह बनाने से नहीं बनता किन्तु सहज होता है । जिन साधु-साध्वियों ने आसन-ध्यान का अनुभव प्राप्त किया है, उनके अनुभव प्रकाश में आने चाहिए, ताकि सबको प्रेरणा मिल सके। ' सेवट्ठी संत बनने की प्रेरणा देते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया"वैसे तो सभी साधु-साध्वियां सेवार्थी होते हैं पर मैं चाहता हूं कि ऐसे समर्पित साधु-साध्वियां तैयार हों, जिनका किसी भी समय कहीं भी उपयोग किया जा सके। किसी भी कार्य में जोड़ने पर ननुनच नहीं करने वाला 'सेवट्ठी' विशेषण से विशिष्ट बनेगा ।" सामूहिक प्रशिक्षण का प्रयोग तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने चातुर्मास में अनेक साधु-साध्वियों को अपने साथ रखा। साधु-साध्वियां गुरुदेव के इस अनुग्रह से बहुत प्रसन्न थे पर गुरुदेव ने इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- 'इतनी बड़ी संख्या में साधु-साध्वियों को साथ रखना एक विशेष प्रयोजन के लिए है। संत-सतियां इसे कृपा का फल समझती Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १३२ हैं तो भले समझें पर मैंने यह चातुर्मास कृपा के लिए नहीं, संत-सतियों को साधना का विशेष प्रशिक्षण देने के लिए किया है। मैं चाहता हूं साधु जीवन साधना प्रधान हो। आंतरिक विकास की दृष्टि से कुछ प्रयोग हों तथा व्यवहार में उनका प्रतिबिम्ब भी आए। आपस में सामंजस्य कैसे रहे? कषायविजय कैसे हो? मानसिक विकार कैसे मिटे? आदि विषयों का विशेष प्रशिक्षण देने और समय-समय पर उसका परीक्षण करने के लिए मैं सामूहिक प्रयोग कराना चाहता हूं।' उस चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने आध्यात्मिक विकास हेतु साधु-साध्वियों के समक्ष दस सूत्री कार्यक्रम' प्रस्तुत किया। वे दस सूत्र इस प्रकार थे- आसन, प्राणायाम, प्रतिसंलीनता, रस-परित्याग, क्षमा आदि दशविध श्रमण धर्म का अभ्यास, पांच महाव्रत की पच्चीस भावना का अभ्यास, अनित्य आदि सोलह भावनाओं का अभ्यास, जप, स्वाध्याय तथा ध्यान। उस चातुर्मास में गुरुदेव ने अनेक बार प्रयोगात्मक सक्रिय प्रशिक्षण दिया।२० अप्रैल १९६० को गोष्ठी के माध्यम से सबको चलने, बोलने आदि का प्रशिक्षण दिया। सब साधु-साध्वियों के बीच स्वयं चलकर चलने की कला सिखाई और कहा-'प्रयोगात्मक रूप से आज सक्रिय प्रशिक्षण देते हुए मुझे अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है। यद्यपि मैं दण्ड में नहीं, हृदय-परिवर्तन में विश्वास करता हूं पर जब तक हृदय-परिवर्तन न हो तब तक दण्ड-व्यवस्था का भी उपयोग है। मैं आप लोगों के सामने दण्ड नहीं, बल्कि प्रायश्चित्त का प्रस्ताव रख रहा हूं। ईर्यासमिति से सम्बन्धित गलती आने पर भारमलजी के लिए आचार्य भिक्षु ने तेले का प्रायश्चित्त निर्धारित किया था। लेकिन मैं चाहता हूं यदि आप लोगों को चलते समय बोलने की शिकायत आ जाए तो स्वेच्छा से दो सौ श्लोक खड़े-खड़े स्वाध्याय का प्रायश्चित्त करें। ऐसा करने से स्वतः ईर्यासमिति सध जायेगी।' साधना के विशेष प्रयोगों की प्रेरणा ____ पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की तीव्र तड़प थी कि उनका धर्मसंघ साधना की साकार प्रयोगशाला बने। एक बार प्रसंगवश मदनचंदजी गोठी के सामने अपने मन की पीड़ा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा- "मैं चाहता हूं कि संघ में अंतरंग साधना का अधिक विकास हो । यदि कोई मेरे मन को Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ अध्यात्म के प्रयोक्ता पढ़ सके तो उसे सहज ही ज्ञात हो जाएगा कि इसके लिए मेरे मन में कितनी गहरी तड़प है।" साधना परक प्रयोग का वातावरण बनाने के लिए पूज्य गुरुदेव समय-समय पर गोष्ठियों के माध्यम से अनेक प्रयोगों की प्रेरणा देते रहते थे। संघीय दृष्टि से उनके द्वारा किए गए प्रयोगों की एक लम्बी श्रृंखला है। 'पंचसूत्रम्' के तीसरे चर्यासूत्र में संघ के समक्ष प्रेरणा-पाथेय प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा अनेके संति पंथानः, साधनाक्षेत्रचारिणाम्। प्रकर्षं चरणान् नेतुमवलम्ब्यो यथारुचि॥ तेनैको मुख्यरूपेण, समालम्ब्यो मुमुक्षुणा। केवलं लक्ष्यसंसिद्ध्यै, न प्रभावयितुं परान्॥ पूज्य गुरुदेव सोचते थे कि यदि साधक साधना की कोई निश्चित दिशा स्वीकार कर ले तो उसके भटकने की संभावना कम हो जाती है। साधना के क्षेत्र में विकास की तड़प गुरुदेव की इस अभिव्यक्ति में देखी जा सकती है- 'मैं चाहता हूं संघ में साधना के नए-नए आयाम खुलें। यदि इस दृष्टि से कुछ विशिष्ट साधक सामने आते हैं तो शिक्षाकेंन्द्र की भांति साधनाकेन्द्र की कल्पना भी मेरे दिमाग में है। मैं उनको पूरी सुविधा दे सकता हूं।' _ वि.सं. २०२० (सन् १९६३) पट्टारोहण दिवस पर पूज्य गुरुदेव ने योगसाधना पर विशेष बल दिया। प्रेरणा के साथ ही आश्विन कृष्णा एकम से सामूहिक योग साधना का क्रम प्रारम्भ किया गया। एक साल तक स्वाध्याय, ध्यान एवं जप के विविध प्रयोग व्यवस्थित रूप से चले। एक साल पश्चात् वि.सं. २०२१ आश्विन शुक्ला एकम को गुरुदेव ने एक गोष्ठी बुलाई, जिसमें साधु-साध्वियों ने साधना से सम्बंधित रोचक एवं प्रेरक संस्मरण सुनाए। गोष्ठी के अंत में प्रेरणा-पाथेय देते हुए गुरुदेव ने कहा- 'साधना हमारा प्राण है। प्राण से अधिक हमारे लिए क्या हो सकता है? वही हमारा सर्वस्व है। उसका संरक्षण और विकास हमारा प्रमुख कर्तव्य है। इस कर्त्तव्य का पालन तभी संभव है, जब हमारे रहन-सहन व जीवन के हर व्यवहार में साधना का प्रतिबिम्ब रहे। मैं उस साधना को Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १३४ विशिष्ट मानता हूं, जो अमुक समय सापेक्ष न रहकर जीवन की सहज वृत्ति बन जाए। हमारी साधना केवल योगासन, ध्यान, स्वाध्याय और जप तक सीमित नहीं है । जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति हमारी साधना है। इसलिए हम जिस समय जो काम करें, उसमें तन्मय बन जाएं, यही योग है । ' सन् १९७२ में गुरुदेव की प्रेरणा से १० साधुओं ने १० दिन के लिए विशिष्ट साधना का क्रम प्रारम्भ किया । उसमें १० दिन मौन के साथ ध्यान, स्वाध्याय आदि के विशेष प्रयोग किए गए। सभी साधु अपना काम स्वयं करते पर गोचरी में परस्पर सहयोग रहता । सम्पन्नता के दिन सबको प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'जैसे महावीर के शासन में स्थविर, जिनकल्पिक, अहालंदिक आदि साधना के अनेक रूप थे, वैसे ही संघ में अपनी-अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार सब साधु साधना का कोई न कोई प्रयोग अवश्य करें। इससे मुझे प्रसन्नता होगी, संघ की तेजस्विता बढ़ेगी और आपका आत्मबल बढ़ेगा।' सामूहिक प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन प्रतिक्रमण प्रायोगिक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जैन मुनि अनिवार्य रूप से प्रात: और सायं प्रतिक्रमण करते हैं। पहले तेरापंथ धर्मसंघ में प्रतिक्रमण सामूहिक नहीं होता था । 'कहीं दो कहीं अलग-अलग खड़े होकर साधु प्रतिक्रमण किया करते थे । गुरुदेव को यह क्रम अच्छा नहीं लगा । वि. सं. २०१८ आसोज कृष्ण चतुर्थी बीदासर प्रवास में उन्होंने सामूहिक रूप से विधिवत् प्रतिक्रमण की शुरूआत कर दी । यह क्रम केवल दर्शनीय ही नहीं, भावक्रिया की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा। इसी प्रकार पहले प्रतिक्रमण के बीच में ही आने-जाने वाले लोगों को मंगलपाठ सुनाया जाता था। इससे एकाग्रता में व्यवधान पड़ता था। साधुओं को प्रतिक्रमण के बीच में ' आलोयणा' दी जाती थी, यह क्रम भी गुरुदेव को उचित नहीं लगा। बाड़मेर यात्रा के दौरान इन दोनों परम्पराओं में गुरुदेव ने परिवर्तन कर दिया। प्रतिक्रमण के बीच मंगलपाठ सुनाना एवं आलोयणा देनी बंद कर दी। इस प्रयोग के बारे में 'संस्मरणों के वातायन' में पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'मेरे जीवन के ये छोटे-छोटे प्रयोग थे पर लक्ष्यपूर्वक किए गए छोटे प्रयोग भी सार्थक हो गए।' Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता सामूहिक प्रतिक्रमण की भांति वि. सं. २०२१ के पर्युषण काल में गुरुदेव ने सामूहिक प्रतिलेखन का क्रम प्रारंभ किया। प्रतिलेखन का शब्द होते ही सब साधु निर्दिष्ट स्थान पर आकर पंक्तिबद्ध बैठ जाते थे । पूज्य गुरुदेव नमस्कार महामंत्र का उच्चारण करते फिर सभी साधु एक साथ प्रतिलेखन करते । साध्वियां अपने स्थान पर सामूहिक प्रतिलेखन करतीं । सामूहिक प्रतिलेखन का क्रम लोगों को बहुत आकर्षक और सुंदर लगा। यह क्रम केवल प्रशिक्षण देने के लिए प्रारम्भ किया गया था अतः अधिक दिनों तक नहीं चला। सायंकालीन प्रार्थना का प्रारम्भ आत्मविकास के पथ पर प्रस्थित साधकों के लिए प्रार्थना अमूल्य पाथेय है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में प्रार्थना का अर्थ है- 'लक्ष्यानुरूप आदर्श में एकाग्र होना तथा बंधनमुक्त, निर्विकार, वीतराग, मोक्षगत आत्मा १३५ गुणों का स्मरण एवं संस्तवन करना ।' महात्मा गांधी की अनुभूति में प्रार्थना आत्मा की खुराक है । स्तुति, उपासना, प्रार्थना आदि बहम नहीं बल्कि हमारा खाना, पीना, चलना, बैठना जितना सच है, उससे भी अधिक सच प्रार्थना है।' वि. सं. २००१ में गुरुदेव चाड़वास से बीदासर पधारे। उस समय तक सायंकालीन प्रार्थना आदि का सामूहिक अनुष्ठान नहीं होता था। पूज्य गुरुदेव के मानस में चिंतन उभरा कि कोई ऐसा सामूहिक आध्यात्मिक अनुष्ठान होना चाहिए, जिसमें साधुओं के साथ श्रावक भी संभागी बन सकें। पौष कृष्णा पंचमी के दिन बीदासर में सर्वप्रथम भगवान महावीर की स्तुति में गुरुदेव ने ॐ जय जय त्रिभुवन अभिनंदन, त्रिशला नंदन तीर्थपते! गीत बनाया, जो प्रार्थना के रूप में गाया जाने लगा । वि.सं. २००६ जयपुर में गुरुदेव ने "महावीर तुम्हारे चरणों में श्रद्धा के कुसुम चढ़ाएं हम " गीत का निर्माण किया । यह गीत जन-जन कंठों में प्रसिद्ध हो गया । २००६ में प्रार्थना के रूप में इस गीत का संगान होने लगा । अर्हत् वन्दना का शुभारम्भ आगम के प्रत्येक वाक्य गम्भीर रहस्य से भरे हुए हैं। पूज्य गुरुदेव Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १३६ के मन में विकल्प उठा कि आगम से ऐसे प्रेरक आध्यात्मिक सूक्तों का संकलन किया जाए, जिसका सामूहिक रूप से संगान किया जा सके। इसी चिंतन की फलश्रुति स्वरूप आचारांग आदि आगम ग्रंथों से कुछ आर्ष वाक्यों का चयन किया गया। इसमें चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाने वाले २४ सूक्त हैं। इसका प्रत्येक सूक्त अन्तःकरण को झकझोरकर अध्यात्म की नयी ज्योति विकीर्ण करने वाला है। इसके अन्त में गुरुदेव ने अर्हत् स्तुति में एक भावपूर्ण गीत बनाया, जो हर गायक एवं श्रोता को भावविभोर कर देता है। पूरा गीत आत्मकर्तृत्व एवं समता की प्रबल प्रेरणा देने वाला है। गीत का यह पद्य भीतर सोयी प्रभुता को जगाने में प्रेरक बन सकता है बिंदु भी हम सिंधु भी हैं, भक्त भी भगवान् भी हैं। छिन्न कर सब ग्रंथियों को, सुप्त चेतन को जगाएं। भावभीनी वंदना भगवान, चरणों में चढ़ाएं। शद्ध ज्योर्तिमय निरामय, रूप अपने आप पाएं॥ चतुर्विध धर्मसंघ के लिए पूज्य गुरुदेव द्वारा संकलित की गयी यह महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक कृति है। इसका प्रारम्भ वि.स. २०२५ मद्रास . चातुर्मास में हुआ। इससे पूर्व महावीर की स्तवना में गीत गाकर सायंकालीन प्रार्थना की जाती थी। पूज्य गुरुदेव का लक्ष्य था कि अर्हद् वन्दना के माध्यम से जन-जन की आध्यात्मिक चेतना जागे इसलिए वे समय-समय पर इसकी उच्चारण-विधि का प्रशिक्षण देते रहते थे। इसके उच्चारण में वे दीर्घ-हस्व, उदात्त-अनुदात्त, आरोह-अवरोह का पूरा ध्यान रखते थे। पूज्य गुरुदेव अनेक बार साधु-साध्वियों की विशेष गोष्ठी भी आमंत्रित करते, जिसमें किस सूक्त को किस लय से गाना या उच्चारित करना, इसका समुचित प्रायोगिक प्रशिक्षण देते रहते थे। 'व्यवहारबोध' में अर्हद् वन्दना के संगान का बोध देते हुए उन्होंने कहा विधिवद अर्हत् वंदना, मंद मधुर संगान। आकर्षक सबको लगे, तन-मन की इक तान॥ लगभग २९ वर्षों से अनवरत अर्हद् वन्दना का क्रम चल रहा है। जहां साधु-साध्वियों एवं समणियों का प्रवास होता है, वहां तो सुबह-शाम नियमित रूप से अर्हद् वन्दना होती ही है, अनेक परिवारों में भी प्रार्थना के Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अध्यात्म के प्रयोक्ता रूप में अर्हद् वन्दना का संगान होता है। डॉ. सच्चिदानन्द सहाय जो कुछ दिन गुरुदेव की सन्निधि में रहे, वे अर्हद् वन्दना से तो प्रभावित हुए ही साथ ही गुरुदेव की प्रशिक्षण-विधि से भी बहुत प्रभावित हुए। वे कहते हैं- 'अर्हन् वन्दना के २४ सूक्त प्राकृत भाषा के सामवेद के रूप में प्रतिष्ठित हो गए हैं।' प्रार्थना शुरू करने के प्रारम्भिक वर्षों में भाई-बहिनों की ओर से परिषद् में कोलाहल बहुत होता था। पूज्य गुरुदेव ने बार-बार लोगों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया इससे लोगों में प्रार्थना के प्रति एकाग्रता एवं एकलयता बढ़ी। सरदारशहर का प्रसंग है। प्रार्थना प्रारम्भ होने पर भी बहिनों की ओर से कोलाहल की ध्वनि सुनाई दे रही थी। पूज्य गुरुदेव ने प्रार्थना को बीच में ही स्थगित करते हुए कहा- "कोलाहल और प्रार्थनाये दोनों एक साथ नहीं चल सकते। मैं जनता में प्रार्थना इसलिए करता हूं कि जनता भी इसका स्वाद चखे। यदि आप लोगों का इसमें रस नहीं है तो फिर इसके लिए एकांत स्थान खोजना होगा।.....मैं आशा करता हूं कि आप सब लोग प्रार्थना में सम्मिलित होना पसंद करेंगे।" गुरुदेव के इस आह्वान से सभा में निस्तब्धता छा गयी। लोगों को एक शाश्वत बोधपाठ मिल गया। अर्हद् वन्दना के प्रति जन-आस्था उत्पन्न करने हेतु अनेक बार गुरुदेव फरमाते थे- "अर्हद् वन्दना केवल अनुष्ठान नहीं है, लक्ष्य के प्रति जागृत होने का संकल्प है। यह आध्यात्मिक संपोषण देने वाली प्रक्रिया है। जिस प्रकार शरीर की पुष्टि के लिये नित्य भोजन की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार आत्मा को आध्यात्मिक खुराक की अपेक्षा रहती है, वह अर्हद् वंदना से उपलब्ध होती है। अध्यात्म के अभाव में जीवन सुव्यवस्थित, शांत और समाधिस्थ नहीं रहता। एकाग्रता, एकलयता और तन्मयता के साथ की जाने वाली इस अर्हत्-वंदना में कहीं भी साम्प्रदायिकता नहीं है। यह मस्तिष्क की एकाग्रता बढ़ाने वाली और मानसिक शांति वृद्धिंगत करने वाली है।" निकाय-व्यवस्था तेरापंथ धर्म-संघ एक नेतृत्व द्वारा शासित शासन है। एक आचार, एक आचार्य और एक विचार इसकी मौलिक विशेषताएं हैं। संघ-विस्तार Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १३८ एवं कार्य - विस्तार को देखते हुए पूज्य गुरुदेव ने सन् १९६३ के लाडनूं चातुर्मास में निकाय - व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करते हुए कहा- "हम प्रायोगिक युग में जी रहे हैं। प्रयोग प्रगति के लिए बहुत महत्त्व रखता है। मैंने अनेक प्रयोग किए हैं। मैं उनसे निराश नहीं, आश्वस्त हूं। संघ में साधना एवं शिक्षा के विकास हेतु मैं निकाय व्यवस्था का प्रारम्भ करना चाहता हूं।" निकाय - व्यवस्था के मुख्य तीन विभाग थे - प्रबन्ध, साधना और शिक्षा | ये दायित्व साध्वियों को सौपें गए, जो महासती लाडांजी की सहयोगिनी के रूप में प्रतिष्ठित की गयीं। हिसार मर्यादा महोत्सव सन् १९६६ में पूरे संघ के विकास हेतु चार निकायों की व्यवस्था की गयीप्रबन्ध, साधना, शिक्षा और साहित्य । इन चारों को निर्देशन देने हेतु मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञजी) को निकाय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया । साधना निकाय की कल्पना से स्पष्ट है कि गुरुदेव अपने संघ में केवल शिक्षा ही नहीं, साधना के नए-नए आयामों को खोलना चाहते थे । निकायव्यवस्था का प्रारम्भ भी गुरुदेव के नेतृत्व का एक विशेष साधनात्मक प्रयोग कहा जा सकता है। अभ्यर्थना पत्र चाहे साधना का क्षेत्र हो या शिक्षा का, एकरूपता व्यक्ति को उबा देती है। इसी चिंतन को ध्यान में रखते हुए गुरुदेव साधना के प्रयोगों में भी नवीनता प्रस्तुत करते रहते थे। उनके द्वारा प्रस्तुत उपक्रम हर साधक में पुनः उत्साह का संचार कर देता था । वि. सं. २०२१ में आंतरिक विशुद्धि हे गुरुदेव ने एक नया प्रकल्प संघ के समक्ष प्रस्तुत किया। महोत्सव के अवसर पर सबको अभ्यर्थना पत्र भरने का निर्देश दिया। व्यस्तता के कारण सबको व्यक्तिगत रूप से समय देना कठिन था अतः अभ्यर्थना पत्र में इन विषयों को प्रस्तुत किया गया १. मैं अमुक विषय की साधना करना चाहता हूं । मैं अमुक विषय की शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं । अमुक रोग की चिकित्सा करवाना चाहता हूं। ४. मैं अमुक प्रकार का सहयोग करना चाहता हूं । साधना के संदर्भ में इन विकल्पों को प्रस्तुत किया गया ३. मैं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ अध्यात्म के प्रयोक्ता १. स्वभाव-परिवर्तन २. सेवावृत्ति का विकास ३. ध्यान ४. स्वाध्याय ५. आसन आदि। अभ्यर्थना पत्र के माध्यम से अनेक संतों ने पूज्य गुरुदेव से साधना के क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त किया और अपना मार्ग प्रशस्त किया। नवाह्निक आध्यात्मिक अनुष्ठान वैदिक परम्परा में पूजा-पाठ एवं धार्मिक दृष्टि से आसोज एवं चैत्र मास का विशेष महत्त्व है। इन महीनों में नौ दिनों तक विशेष उपासना की जाती है, जो नवरात्रि के रूप में प्रसिद्ध है। ये महीने कायाकल्प के लिए भी विशेष महत्त्व के हैं क्योंकि इन महीनों में शरीर एक विशेष प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया से गुजरता है। पूज्य गुरुदेव का चिंतन रहा कि इन महीनों में भावनात्मक कायाकल्प के भी कुछ आध्यात्मिक अनुष्ठान चलने चाहिए। गुरुदेव की प्रेरणा से आचार्य महाप्रज्ञजी ने जप और ध्यान का विशेष अनुष्ठान प्रस्तुत किया। इस अनुष्ठान का एक मात्र उद्देश्य हैआत्मशुद्धि और ऊर्जा का विकास। अनुष्ठान की विधि एवं समय-सारणी इस प्रकार निश्चित की गयीप्रातः ९.३० से १०.०० . चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीग, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ का पांच बार पाठ। ___ चंदेसु निम्मलयरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। का तेरह बार पाठ। - आइच्चेसु अहियं पयासयरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। का तेरह बार पाठ। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। का तेरह बार पाठ। आरोग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु। . का तेरह बार पाठ। सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। का इक्कीस बार पाठ। चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी का पांच बार पाठ । ॐ ह्रीं क्लीं क्ष्वीं धम्मो मंगलमुक्किट्ठे .. आदि पांच श्लोकों का सात बार पाठ । ॐ ह्रीं क्लीं क्ष्वीं धम्मो मंगलमुक्किहूं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे १४० सया मणो ॥ १ ॥ आवियई रसं । पीणेइ अप्पयं ॥ २ ॥ जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो न य पुप्फं किलामेइ, सो य एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥ ३ ॥ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई । अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ॥ ४ ॥ महुकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्छंति साहुणो ॥ ५ ॥ प्रातः १०.०० से १०.३० - आध्यात्मिक प्रवचनमध्याह्न २.३० से ३.१५ आगम-पाठ का स्वाध्याय । (दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि आदि आगमों के मूल पाठ का स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण एवं व्याख्या) पश्चिम रात्रि - ४.४५ से ५.३० ॐ उवसग्गहरं पासं (उपसर्गहर स्तोत्र) आदि पांच श्लोक एवं ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमिऊण'.....मंत्र का नौ बार पाठ । फिर 'विघनहरण' का जप । उवसग्गहस्तोत्र ॐ उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर - विसनिन्नासं, मंगल-कल्लाणआवासं ॥ १ ॥ विसहर - फुल्लिंग- मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गह-रोग-मारी, दुट्ठजरा जंति उवसामं ॥ २ ॥ चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख - दोहग्गं ॥ ३ ॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिन्तामणिकप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ ४ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ अध्यात्म के प्रयोक्ता इय संथुओ महायस!, भत्तिब्भर-निब्भरेण हियएण। ता देव! दिज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमिऊण पास विसहर वसह जिण फुल्लिग ह्रीं श्रीं नमः। विघनहरण विघनहरण मंगलकरण, स्वाम भिक्षु रो नाम। गुण ओलख सुमिरण करै, सरै अचिन्त्या काम॥ इस अनुष्ठान में जप और आगम-स्वाध्याय के साथ तप का योग भी आवश्यक रखा गया। तप में-एकासन, आयंबिल, षड्विगय-वर्जन, पंचविगय-वर्जन और दस प्रत्याख्यान में से किसी एक तप की आराधना इस कालावधि में की जाए। व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार नौ दिन तक एक ही तप अथवा वैकल्पिक तप की आराधना भी की जा सकती है। ___संभागी श्रावक श्राविकाओं के लिए निम्नांकित नियम भी अनुष्ठानकाल में पालनीय हैं - ब्रह्मचर्य का पालन - रात्रिभोजनविरमण (चौविहार/तिविहार) - जमीकन्द का वर्जन। . यह क्रम पिछले अनेक सालों से सामूहिक रूप से चल रहा है। इन दिनों पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री के प्रवचन भी इतने आध्यात्मिक एवं प्रेरक होते कि किसी भी आत्मार्थी या मुमुक्षु साधक के भीतर हलचल हुए बिना नहीं रह सकती। सन् १९९६ लाडनूं में नवाह्निक कार्यक्रम में गुरुदेव ने प्रवचन में "अप्पमत्तो परिव्वए" की भावपूर्ण व्याख्या की। दूसरे दिन कुछ साधुओं की ईर्या समिति की स्खलना देखकर प्रवचन में प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने कहा- "संतों! इतनी आत्मविस्मृति किस काम की? कल बात सुनी और आज भूल गए। क्या हमारी भी जानकी चली गयी? सीता-हरण के बाद श्रीराम आत्म-विस्मृत हो गए। लक्ष्मण विजयी होकर पुनः राम के पास आए तो वे अजनबी की भांति बात करने लगे- कौन राम, कौन लक्ष्मण? कौन सीता? पर लक्ष्मण के प्रयास से जब उनका चित्त्रोद्वेग दूर हुआ तब कहीं वे अपनी मूल स्थिति में आए। संतों! जानकी के जाने से राम की ऐसी स्थिति बनी। हमारी जानकी तो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १४२ साधुता ही है। इसकी सतत सुरक्षा आवश्यक है ताकि आत्म-स्मृति बनी रहे।" आध्यात्मिक प्रशिक्षण शिविर छात्रों में आध्यात्मिक संस्कार भरने हेतु पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से अनेक आध्यात्मिक प्रशिक्षण शिविर लगाए गए। ये शिविर कभी १५ दिन के तथा कभी ७ दिन के लगते थे। इन शिविरों में प्रमुखता विद्यार्थियों की. होती थी। सन् १९७० से १९७५ तक ऐसे अनेक शिविरों का आयोजन हुआ। यद्यपि छात्रों को प्रशिक्षण सात दिन का दिया जाता लेकिन उनके लिए अध्यात्म प्रशिक्षण का कार्यक्रम लम्बे समय का रखा गया। यहां उनके निर्देशक तत्त्वों की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही हैलक्ष्य शिविर का मुख्य लक्ष्य रखा गया कि स्वभाव-परिवर्तन एवं वृत्ति-संशोधन के लिए कुछ प्रयोग कराए जाएं। इसके लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ आदि भावनाओं का सक्रिय प्रशिक्षण दिया गया। योग-प्रशिक्षण - योग-प्रशिक्षण के अन्तर्गत वीरवंदन, महामुद्रा, उड्डीयानबंध, पश्चिमोत्तानासन, मत्स्येन्द्रासन, पद्मासन, भुजंगासन, धनुरासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन एवं कायोत्सर्ग आदि के प्रयोग कराए गए। बौद्धिक प्रशिक्षण बौद्धिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत शरीर क्या है ? सात्त्विक आहार का मन से क्या सम्बन्ध है ? भाषा का प्रयोग कैसे किया जाए तथा धर्म और दर्शन के कुछ प्रमुख विषयों पर प्रशिक्षण दिया गया। व्यावहारिक प्रशिक्षण व्यावहारिक शुद्धि के लिए आहार-विवेक, गमन-विवेक, पारस्परिकता, आयोजनों की व्यवस्था का विवेक तथा गीत, नारे आदि का शिक्षण दिया गया। तत्त्वज्ञान प्रशिक्षण नमस्कार मंत्र, वंदनविधि, सामायिकपाठ, मंगलपाठ, तीर्थंकरपरम्परा, आचार्य-परम्परा, पच्चीस बोल, अर्हत् वंदना, अणुव्रतगीत आदि कुछ गीतों का प्रशिक्षण दिया गया। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ अध्यात्म के प्रयोक्ता उपासक संघ शिविर श्रावक समाज में विशेष साधक तैयार करने के लिए उपासक वर्ग की योजना सोची गयी। मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) एवं मुनि मधुकरजी ने उपासक संघ का प्रारूप तैयार किया। उसमें दो कक्षाएं रखी गयीं- संघवासी उपासक और गृहवासी उपासक। संघवासी उपासक जो ब्रह्मचारी रहते हुए संघ में साधना करेंगे। गृहवासी उपासक समय-समय पर शिविरों में भाग लेंगे पर सामान्यतः घर में रहते हुए नियमों के प्रति जागरूक रहेंगे। उपासक संघ का सर्वप्रथम मासिक शिविर लाडनूं में ६ जुलाई, १९६३ को प्रारम्भ हुआ, जिसमें बयासी भाई-बहिनों ने भाग लिया। इस शिविर के संचालन का दायित्व चंदनमलजी मेहता (जोधपुर) ने संभाला तथा साधना संबंधी प्रशिक्षण में मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) का विशेष योगदान रहा। उपासक संघ प्रारम्भ करने के पीछे गुरुदेव का प्रारम्भिक चिंतन था श्रावक समाज में विवेक का जागरण। इस दृष्टि से विवेगे धम्ममाहिए' यह आगमिक सूक्त शिविर का घोष रखा गया। साधना के साथ-साथ समाज में अणुव्रत आंदोलन का रचनात्मक रूप प्रस्तुत किया जाए। जीवन-परिमार्जन और विवेक-जागरण की दृष्टि से यह प्रयोग बहुत सफल रहा। उपासक शिविर के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का विश्वास निम्न शब्दों में व्यक्त हुआ-'उपासकों का वह शिविर मेरी दृष्टि में भावी समाज के लिए एक नया दिशादर्शन था। जिस प्रकार अणुव्रत और नया मोड़ एक दिशादर्शन था, वैसे ही उपासक संघ था। प्रथम बार में उसका सुनियोजित रूप सामने नहीं आ पाया, पर भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। मानव-समाज आज जिस घोर प्रताड़ना में जी रहा है, उसे ऐसे दिशादर्शन की बहुत बड़ी अपेक्षा है। धर्माचार्यों का यह काम होना चाहिए कि वे मानव समाज को राह दिखाएं। इस शिविर में विशेष रूप से इन विषयों पर प्रशिक्षण दिया गया - आहार एवं खाद्यसंयम। - क्रोध एवं आवेश से बचने के उपाय। - साधना में ज्ञान, दर्शन और आचार का स्थान। - आग्रह का नियंत्रण। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १४४ - भक्ति और श्रद्धा का विकास। - सहअस्तित्व की उपयोगिता। - वाक्संयम। - अनुशासन का महत्त्व। उपासक संघ का दूसरा शिविर १३ अक्टूबर १९६४ को बीकानेर में प्रारम्भ हुआ। जिसमें मोहनलालजी बांठिया, संतोषचंदजी बरडिया, जयचंदलालजी दफ्तरी, श्रीचंदजी रामपुरिया, जेठाभाई जवेरी एवं मोहनलालजी कठौतिया आदि विशिष्ट कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। पूज्य गुरुदेव ने शिविर का उद्देश्य स्पष्ट करके उपासकों को प्रतिबोध देते हुए कहा- "इस साधना शिविर में मैं छुटपुट संघर्षों की बातों को लेना नहीं चाहता और न उन्हें बीच में लाना ही चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि कार्यकर्ताओं में क्षमता की वृद्धि हो। उसका स्वरूप यह हो १. अतीत की विस्मृति की क्षमता। २. अपनी दुर्बलता और दूसरों की विशेषता स्वीकार करने की क्षमता। ३. समाजहित के लिए सामंजस्यपूर्ण विचारों की क्षमता।.. ४. व्यक्तिगत विचारों को एक सीमा तक ही महत्त्व देने की क्षमता। ___ उक्त सूत्रों का विकास तभी हो सकेगा, जब दिमाग स्वच्छ व रिक्त होगा। स्लेट पर तभी लिखा जा सकेगा, जब वह साफ होगी। मुझे आशा है कि आप लोग इस शिविर-साधना द्वारा लक्षित दिशा में अधिकाधिक विकास करेंगे और अपना आत्मबल जगाएंगे। इस दृष्टि से मैं भी साधना के कुछ विशेष प्रयोग करना चाहता हूं। जैसे • प्रतिदिन एकाशन करना। • भोजन में नौ द्रव्यों से अधिक नहीं खाना। • दूध के अतिरिक्त कोई विगय नहीं खाना। • जप के विशेष प्रयोग करना। • ध्यान व अनुप्रेक्षा (चिन्तन) करना। पुनः लाडनूं प्रवास में १ मई १९७२ से एकमासीय साधना-सत्र का प्रारम्भ हुआ। इस शिविर का आयोजन पारमार्थिक शिक्षण संस्था के Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ अध्यात्म के प्रयोक्ता ८-९ प्रांगण में हुआ। शिविर के दौरान अनेक नए प्रयोग करवाए गए। यह शिविर प्रेक्षाध्यान की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। प्रयोगों की ऐतिहासिक सुरक्षा की दृष्टि से शिविर की मुख्य दिनचर्या का यहां उल्लेख किया जा रहा है४.३०-५.३० अर्हम् जप एवं श्वासदर्शन का ध्यान ६.३०-७.३० आसन-प्राणायाम योग सम्बन्धी चर्चा ९-१० अर्हम् जप एवं ध्यान १०-११ कायोत्सर्ग २-३ जैन तत्त्व-विद्या का प्रशिक्षण ३-४ योग विषयक प्रवचन ८.३०-९.३० अर्हम् जप एवं ध्यान - व्यस्तता एवं संघीय दायित्व से आबद्ध होते हुए भी पूज्य गुरुदेव ने लगभग सभी कार्यक्रमों में अपनी सन्निधि एवं मार्गदर्शन प्रदान किया। शिविर का संचालन मुख्य रूप से मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) एवं मुनि किशनलालजी ने किया। उपासक दीक्षा .. मुमुक्षु दीक्षा एवं समण दीक्षा की भांति सन् १९८५ में आध्यात्मिक विकास की एक और नयी श्रेणी की कल्पना गुरुदेव ने समाज के समक्ष प्रस्तुत की। सन् १९८५ में पर्युषण पर्व के दौरान उपासक दीक्षा का आध्यात्मिक प्रयोग प्रारम्भ किया गया। प्रथम प्रयोग में समाज के अनेक भाई-बहिनों ने इसमें अपनी सहभागिता दिखाई। उपासक दीक्षा के लिए अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन दोनों विधान रखे गए। दीक्षा स्वीकृति की अवधि में नियमित दिनचर्या के साथ साधना के विशेष प्रयोगों का प्रावधान रखा गया। इस साधना के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट अभिमत था कि यह साधना व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित बनाकर उसे सामाजिक क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका निभाने की क्षमता और विश्वास देती है।" उपासक दीक्षा की योजना इस प्रकार रखी गयी १. उपासनांकाल-कम से कम एक सप्ताह से जीवन भर । २. वेशभूषा-श्वेत भारतीय गणवेश तथा ऊपर उत्तरीय। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १४६ ३. श्रम-कम से कम तीन घंटा-संस्था का दायित्व। ४. कार्य-संगठन, संस्कार, सेवा, अणुव्रत ग्राम-निर्माण, प्रचार-प्रसार आदि। ५. व्यवस्था-जैन विश्व भारती, तुलसी अध्यात्म नीडम् से। विशेष स्थिति में अपना खर्च भी किया जा सकता है। ६. साधना - बारह व्रतों का स्वीकरण। - उपासनाकाल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन। - गृहकार्यों से मुक्ति। - अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा प्रामाणिकता की विशेष साधना । उपासना काल में व्यक्तिगत संग्रह के रूप में साधक के पास संपत्ति नहीं रह सकेगी। वर्तमान में प्रतिवर्ष पर्युषण के दौरान उपासक-साधना का क्रम अनवरत चलता है, जिसमें अनेक साधक भाग लेते हैं और आध्यात्मिक दिशा-दर्शन प्राप्त करते हैं। योगक्षेम वर्ष सन् १९८७ में पूज्य गुरुदेव ने एक महान् स्वप्न देखा। इस आयोजन की पृष्ठभूमि में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी के निवेदन एवं आचार्य महाप्रज्ञजी के चिंतन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी के शब्दों में इस देश की धरती पर एक ऐसा वर्ष मनाया गया, जो न संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा घोषित था न किसी राजनीतिक संगठन द्वारा प्रेरित था और न किसी महान् पुरुष की स्मृति से जुड़ा हुआ था। उस वर्ष को मनाने का एक उद्देश्य था सर्वांगीण व्यक्तित्व-निर्माण।" सन् १९८९-९० में पूरे साल चतुर्विध धर्मसंघ को सामूहिक रूप से लाडनूं जैन विश्व भारती में अध्यात्म का प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया गया। इस वर्ष को योगक्षेम वर्ष के रूप में घोषित किया गया। इसके कार्यक्रमों को 'प्रज्ञापर्व' नाम से अभिहित किया गया क्योंकि प्रज्ञा का जागरण इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था। "पण्णा समिक्खए" इस आगम-सूक्त को प्रतीक के रूप में रखा गया। इस सांवत्सरिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण के Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ अध्यात्म के प्रयोक्ता पीछे पूज्य गुरुदेव का लक्ष्य या संकल्प उन्हीं की भाषा में पठनीय है— 'चतुर्विध धर्मसंघ के व्यक्तित्व का निर्माण करना, उनकी बौद्धिक क्षमता को बढ़ाना, भावनात्मक विकास करना, स्वभाव - परिवर्तन की कला सिखाना और प्रायोगिक जीवन जीना सिखाना, एक वाक्य में कहा जाए तो आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण करना।' योगक्षेम वर्ष को अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का प्रायोगिक वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि पूरे वर्ष प्रशिक्षणार्थी को अनेक विषयों के ज्ञान के साथ योगासन, ध्यान, कायोत्सर्ग, जप, अनुप्रेक्षा आदि के प्रयोग भी कराए गए। यद्यपि सैकड़ों साधु-साध्वियों को एक साथ प्रशिक्षित करने का यह प्रयोग इतना सरल नहीं था लेकिन पूज्य गुरुदेव का मनोबल और संकल्पबल हर असंभव को संभव करके दिखा देता था । उनके प्रयोगधर्मा व्यक्तित्व की ही फलश्रुति थी कि इतना बड़ा और महान् अनुष्ठान सानन्द सफल हुआ और अनेक व्यक्तियों ने विधिवत् प्रशिक्षण ग्रहण किया। इस प्रयोग के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव की दृढ़ आस्था इन पंक्तियों में पठनीय है- 'सही चिंतन, व्यवस्थित योजना, समुचित उपकरण और पर्याप्त पुरुषार्थ हो तो कोई भी काम कठिन नहीं होता । पुरुषार्थ की परिणति में देर हो सकती है, पर अन्धेरे का वहां अवकाश नहीं है। हम जीवन भर प्रयत्न करें, प्रयोग करें, तभी उसका वांछित परिणाम हमें मिल सकेगा। हाथ-पैर हिलाते - हिलाते दही से मक्खन निकल सकेगा।.......मेरा विश्वास है कि इस प्रयोग से कुछ बहुश्रुत तैयार होंगे। वे अपने भावनात्मक विकास के द्वारा ऊंचाई और गहराई को एक साथ आत्मसात् कर एक उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।' प्रशिक्षण में भाग लेने वाले हर प्रशिक्षणार्थी को पांच सूत्र दिए गए, जो व्यावहारिक होते हुए भी विशुद्ध आध्यात्मिक थे - ( १ ) प्रामाणिक व्यवहार (२) जागरूक व्यवहार ( ३ ) विनम्र व्यवहार (४) मृदु व्यवहार (५) संघनिष्ठा । पूरे वर्ष प्रवचनों, व्याख्यानों एवं गोष्ठियों के माध्यम से अनेक नए तथ्यों का प्रकटीकरण हुआ। साथ ही ध्यान - जाप आदि के भी विभिन्न प्रयोग कराए गए। इस वर्ष की विस्तृत जानकारी एक स्वतंत्र खंड दी जाएगी। अणुव्रत आंदोलन किसी भी देश के विकास का आकलन चौड़ी सड़कों, बांधों, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ___ १४८ विद्युत् परियोजनाओं, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, अट्टालिकाओं, वाहनों या कम्प्यूटरों के आधार पर नहीं हो सकता। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की दृष्टि में विकास की मूल भित्ति है- संयम, सादगी, भाईचारा, अनुशासन आदि आध्यात्मिक मूल्य। चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए देश की स्वतंत्रता के साथ गुरुदेव ने एक नैतिक आन्दोलन चलाया, जो अणुव्रत के नाम से प्रसिद्ध है। यह आंदोलन जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा से ऊपर एक असांप्रदायिक आंदोलन है। ___ अणुव्रत आचरण प्रधान धर्म है। इसने धार्मिक जीवन के द्वैध को मिटाने का प्रयत्न किया है। अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मंदिर में जाकर भक्त बन जाए और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी। अणुव्रत कहता है धर्म किसी मंदिर या पुस्तक में नहीं, बल्कि जीवनव्यवहार एवं वाणी में होना चाहिए। धार्मिकता के साथ नैतिकता का गठबंधन करके अणुव्रत ने एक धर्मक्रांति प्रस्तुत की है। अणुव्रत का आह्वान है- . धार्मिक है पर नहीं कि नैतिक, बहुत बड़ा विस्मय है, नैतिकता से शून्य धर्म का, यह कैसा अभिनय है? . इस उलझन का धर्मक्रांति ही, है कमनीय किनारा। बदले युग की धारा॥ अणुव्रत आंदोलन की गूंज गरीब की झोंपड़ी से लेकर राष्ट्रपति के भवन तक पहुंची है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद कहते हैं- 'आज के युग में जबकि मानव अपनी भौतिक उन्नति से चकाचौंध होता दिखाई दे रहा है और जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों की अवहेलना कर रहा है, वहां ऐसे आन्दोलनों द्वारा ही मानव अपने संतुलन को बनाए रख सकता है और भौतिकवाद के विनाशकारी परिणामों से बचने की आशा कर सकता है।' अणुव्रत अध्यात्म का मध्यम मार्ग है, जिसे अपनाकर मनुष्य अपनी मनुष्यता को कायम रखता हुआ शोषणविहीन समाज की स्थापना कर सकता है। अणुव्रत के बारे में पूज्य गुरुदेव की कल्पना उन्हीं के शब्दों में पठनीय है- 'मेरे मन में बहुत बार ऐसी भावना उठती है कि अणुव्रत अध्यात्म की ऐसी प्रयोगशाला बने, जहां मनुष्य मानवीय समता का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके। अणुव्रत गुरुदेव के जीवन का विशिष्ट कार्यक्रम है अतः इसकी विस्तृत चर्चा अलग खंड में की जाएगी। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रेक्षाध्यान जैनों की कोई स्वतंत्र ध्यान-पद्धति नहीं है, यह बात पूज्य गुरुदेव के पास अनेक बार उपस्थित हुई। सन् १९६२ उदयपुर चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को संकेत दिया कि जैन परम्परा में ध्यान-योग की परम्परा विच्छिन्न जैसी हो गयी है। यदि आगम में विकीर्ण सामग्री के आधार पर इसका पुनरुद्धार हो जाए तो जैन शासन की बहुत प्रभावना होगी। मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञजी) ने इस दिशा में अनेक प्रयोग किए। अन्य योग पद्धतियों का भी तुलनात्मक अध्ययन किया। अन्त में सन् १९७५ ग्रीन हाऊस, जयपुर में इस ध्यानपद्धति का नामकरण प्रेक्षाध्यान हो गया। प्रेक्षा के प्रयोग की पृष्ठभूमि में पूज्य गुरुदेव का एक लक्ष्य यह भी रहा कि धर्म का प्रायोगिक रूप जनता के समक्ष आए। लोगों को जीवन-परिवर्तन के लिए केवल मौखिक उपदेश ही नहीं दिया जाए वरन् प्रयोग प्रस्तुत किए जाएं, जिससे उनमें स्वतः रूपांतरण घटित हो। प्रेक्षा का उद्देश्य बताते हुए प्रेक्षा-संगान में पूज्य गुरुदेव कहते हैं प्रेक्षा का उद्देश्य है, समता का अभ्यास। पल-पल नियमितता सधे, आए नया प्रकाश॥ प्रेक्षाध्यान अंत:सौन्दर्य को प्रकट करने एवं उसे देखने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ का यह एक महान् आध्यात्मिक अवदान है। इससे हजारोंलाखों लोगों ने शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य प्राप्त किया है। . सन् १९८६ आमेट चातुर्मास में साधु-साध्वियों के लिए नौ दिवसीय प्रेक्षा-प्रशिक्षण का शिविर आयोजित हुआ। इस शिविर में साधु-साध्वियों को इन बिन्दुओं पर ध्यान रखने की विशेष प्रेरणा दी गयी - भावक्रिया का अभ्यास। - प्रायः मौन रखना। - भोजन में सीमित द्रव्यों का उपयोग करना। - सामूहिक गोष्ठियों में बराबर उपस्थित रहना। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी - १५० परस्पर चरण-स्पर्श नहीं करना, गृहस्थों से भी चरण-स्पर्श नहीं कराना । पत्र-पत्रिका आदि नहीं पढ़ना । ध्यान, कायोत्सर्ग, योगासन आदि नियमित रूप से करना । वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रेक्षाध्यान का प्रयोग किया जा रहा है। पूरे वर्ष में देश एवं विदेश में सैकड़ों शिविर आयोजित होते हैं । प्रेक्षाध्यान का स्वतंत्र विवरण एक अलग खंड में किया जाएगा। जीवन-विज्ञान विद्यार्थी देश की भावी पीढ़ी होता है । पूज्य गुरुदेव के मन में चिंतन उभरा कि शिक्षा के साथ अध्यात्म के कुछ ऐसे प्रयोग जोड़े जाएं, जिससे विद्यार्थी प्रारम्भ से ही अपने जीवन को बदल सके और एक आदर्श नागरिक की भूमिका निभा सके। शारीरिक एवं बौद्धिक प्रशिक्षण की बात स्कूलों में भी सिखायी जाती है पर इस प्रयोग के माध्यम से विद्यार्थी में मानसिक एवं भावनात्मक विकास कैसे हो, इस पर अधिक जोर दिया गया। आज देश के अनेक प्रांतों के सैकड़ों स्कूलों एवं कॉलेजों में जीवनविज्ञान के प्रयोग कराए जा रहे हैं तथा परिणाम भी बहुत आशाजनक आए . हैं। आज तक हजारों अध्यापकों को जीवन-विज्ञान का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। सरकार की ओर से भी इस दिशा में अच्छा सहयोग मिल रहा है । जीवन-विज्ञान का विस्तृत विवेचन स्वतंत्र खंड में किया जाएगा। अहिंसा सार्वभौम पूज्य गुरुदेव ने अपनी हर सोच को अहिंसा के साथ जीया था। किसी के कष्ट की कल्पना से ही उनका करुणार्द्र चित्त पिघल जाता था । अहिंसा का सामाजिक जीवन में वर्चस्व बढ़े, यह उनका निजी स्वप्न था । • इस दृष्टि से अहिंसा के क्षेत्र में नए प्रयोग एवं प्रशिक्षण का चिंतन उनकी मौलिक सोच थी । अहिंसा सार्वभौम के बारे में अपना चिंतन व्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- " अहिंसा सार्वभौम में अहिंसा के गुणगान नहीं हैं, अहिंसा की परिभाषा नहीं है, अहिंसा की व्याख्या नहीं है, इसमें है अहिंसा का अनुशीलन, शोध और उसके प्रयोग । प्रायोगिक होने के कारण यह एक वैज्ञानिक प्रस्थापना है । " Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ अध्यात्म के प्रयोक्ता अहिंसा को प्रायोगिक बनाने के लिए अपनी योजना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा- "मैं चाहता हूं कि एक शक्तिशाली अहिंसक सेना का निर्माण हो। वह सेना राजनीति के प्रभाव से सर्वथा अछूती रहे । मेरी दृष्टि में अहिंसक सेना के ये पांच तत्त्व मुख्य होंगे- समर्पण- अपने कर्त्तव्य के लिए जीवन की आहुति देनी पड़े, तो तैयार रहे। - शक्ति - परस्पर एकता हो। - संगठन- संगठन में इतनी दृढ़ता हो कि एक ही आह्वान पर हजारों व्यक्ति तैयार हो जाएं। - सेवा- एक दूसरे के प्रति निरपेक्ष न रहें। अनुशासन- परेड में सैनिक की तरह चुस्त अनुशासन हो।" अहिंसा सार्वभौम की एक अंतरंग परिषद् के सम्मुख इसके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया-"मेरा यह निश्चित अभिमत है कि संसार में हिंसा थी, है और रहेगी। हिंसा की तरह अहिंसा का भी त्रैकालिक अस्तित्व है। हिंसा की प्रबलता देखकर अहिंसा की निष्ठा शिथिल हो जाए या समाप्त हो जाए, यह चिंता का विषय है। हिंसा का पलड़ा अहिंसा से भारी न हो, ऐसी जागरूकता रखनी है। यह काम निराशा और कुण्ठा के वातावरण में नहीं होगा। प्रसन्नता, उत्साह और लगन के साथ काम करना है, अहिंसा की शक्ति को उजागर करना है। अहिंसा सार्वभौम की सफलता का पहला कदम यही होगा।" ध्रुवयोग की साधना आगमों में मुनि के लिए 'ध्रुवयोगी', 'संजमधुवजोगजुत्ते' आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है। जो अवश्य करणीय कार्यों को नियमित रूप से करता है, वह ध्रुवयोगी कहलाता है। चूर्णिकार जिनदास महत्तर के अनुसार प्रतिपल जागरूक, प्रतिलेखन आदि कार्यों को नियमित रूप से करने वाला, मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को सावधान होकर करने वाला तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय में रत मुनि ध्रुवयोगी कहलाता है।" सन् १९९५ के दिल्ली चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने ध्रुवयोग की साधना का प्रकल्प साधु-साध्वियों के समक्ष रखा। ध्रुवयोग सात हैं Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . १५२ १. प्रतिक्रमण ५. स्वाध्याय २. प्रतिलेखन ६. ध्यान/कायोत्सर्ग ३. अर्हत्-वन्दना ७. जपयोग ४. योगासन ____ ये सातों ध्रुवयोग अध्यात्म के ऐसे प्रयोग हैं, जो साधक को अन्तर्मुखी बनाने वाले हैं तथा नियमित रूप से प्रतिदिन सब साधु-साध्वियों के लिए करणीय हैं। बृहद् मंगलपाठ - जैनधर्म में मंगलपाठ श्रवण का अत्यधिक महत्त्व है। हर कार्य का शुभारम्भ मंगलपाठ सुनकर ही किया जाता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने मंगलपाठ के संदर्भ में एक नया प्रयोग प्रारम्भ किया। मंगलपाठ के साथ आगम के पद्य एवं कुछ अन्य मांगलिक श्लोकों को भी जोड़ दिया। हजारों की संख्या में लोग प्रातः और सायं मंगलपाठ का श्रवण कर आत्मशक्ति को प्राप्त करते हैं। उस समय श्रोताओं की करबद्ध भावपूर्ण मुद्रा एवं एकाग्रता देखते ही बनती है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में मंगलपाठ का श्रवण करने वाले का चित्त पूरे दिन सहज ही आध्यात्मिक भावना से ओत:प्रोत रहता है तथा चित्त भी शांत और प्रशांत बन जाता है। बृहद् मंगलपाठ की प्रविधि इस प्रकार है - नमस्कार महामंत्र....एसो पंच णमुक्कारो। - चत्तारि मंगलं (पूरा पाठ) * धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ * चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डिओ। संती संतिकरे लोए, पत्तो गइमणुत्तरं॥ देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति तं॥ * मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं स्थूलिभद्राद्याः, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं॥ * मंगलं मतिमान् भिक्षः, मंगलं भारमल्लकः। मंगलं रायचन्द्राद्याः, मंगलं तुलसीगुरुः॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता महाप्रज्ञोऽस्तु मंगलं, तेरापंथोऽस्तु मंगलं ॥ विधनहरण मंगलकरण, स्वाम भिक्षु रो नाम । गुण ओलख सुमिरण करे, सरै अचिन्त्या कामं ॥ (तीन बार ) व्यक्तित्व-निर्माण का प्रयोग १५३ I व्यक्तित्व-निर्माण संसार का सबसे कठिन कार्य है । व्यक्तित्वनिर्माण के क्षेत्र में गांधीजी के बाद पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। पूज्य गुरुदेव समय - समय पर व्यक्तित्व - निर्माण के अनेक सूत्र संघ के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे। उनकी तीव्र तड़प थी कि तेरापंथ संघ के हर सदस्य का जीवन आदर्श और प्रेरक हो । सन् १९९७ लाडनूं प्रवास में उन्होंने साधु-साध्वियों के समक्ष जीवन रूपांतरण की एक वैज्ञानिक रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसके आधार पर हर व्यक्ति अपने जीवन को स्वस्थ, संतुलित और आनन्दमय बना सकता है। साधु-साध्वियों की गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा'रूपांतरण के लिए नयी प्रतिमा बनाना आवश्यक है । " अनुरागाद् विरागः " यह अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त है। जब तक नयी प्रतिमा या नए लक्ष्य का निर्माण नहीं होगा, पुराने संस्कारों को मिटाना कठिन होता है। रूपांतरण के लिए तीन तत्त्व आवश्यक हैं 44 १. लक्ष्य का निर्धारण । २. प्रतिमा का निर्माण । ३. दृढ़ संकल्पनिष्ठा। सर्वप्रथम लक्ष्य-निर्धारण हो कि मुझे अच्छी साध्वी या अच्छा साधु बनना है । तदनन्तर प्रतिमा का निर्माण किया जाए। किसी भी रेखाचित्र में पांच अंग मुख्य रूप से अनिवार्य होते हैं। वंदना भी पंचांग प्रणति के रूप में प्रसिद्ध है । वे पांच अंग हैं - सिर, दो भुजाएं, दो पैर । आंतरिक रूपांतरण हेतु नवनिर्मित ढांचे को भावना के साथ जोड़ना आवश्यक है। इसका क्रम इस प्रकार रहेगा सिर-उपशांत कषाय । दो भुजाएं - विनम्रता और सामंजस्य । दो पैर - सहिष्णुता और सेवा - सहयोग । प्रतिमा निर्माण के बाद एकाग्रता से संकल्प एवं अनुप्रेक्षा का Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १५४ प्रयोग आवश्यक है, जिससे तदनुरूप परिणति हो सके। पूज्य गुरुदेव ने प्रशिक्षण का क्रम जारी रखते हुए कहा- "सिर शरीर का महत्त्वपूर्ण अंग है। उस स्थान पर चिंतन किया जाए कि मेरे कषाय उपशांत हो रहे हैं। आवेश करने का अर्थ है-दूसरे की गलती का बदला स्वयं से लेना अथवा स्वयं स्वयं का शोषण करना। आवेश व्यक्तित्व को दुर्बल बनाता है अत: मुझे आवेश नहीं करना है। अहंकार व्यक्ति के विकास को अवरुद्ध कर देता है अतः वस्तु एवं व्यक्ति के प्रति मेरा व्यवहार विनम्र होगा। इसी प्रकार ऋजुता और लाघव के विकास का चिंतन किया जाए। क्रोधादि कषाय उपशांत होंगे तो मस्तिष्क शांत रहेगा, उसकी कार्यक्षमता बढ़ेगी और अनावश्यक तनाव का अनुभव नहीं होगा। प्रतिदिन चिंतन करना चाहिए कि यौगलिक एवं अनुत्तरविमानवासी देवों की भांति मेरे कषाय उपशांत हो रहे हैं। हाथ कर्म के प्रतीक हैं। दोनों भुजाएं व्यक्ति को सदैव कर्म की ओर अभिप्रेरित करती रहती हैं। नवनिर्मित प्रतिमा की दायीं भुजा है विनम्रता तथा बायीं है सामंजस्य। विनम्रता और सामंजस्य- 'दोनों हाथ : एक साथ' लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाले हैं। यदि विनम्रता है तो किसी भी परिस्थिति में सामंजस्य एवं समायोजन करना कठिन नहीं होगा। सत्य शोधक सदैव विनम्र होता है। यदि हम झुकेंगे तो सामने वाला झुक जाएगा पर इसका अर्थ स्वार्थवश झुकना या चापलूसी नहीं है। सामंजस्य का तात्पर्य यह भी नहीं है कि दूसरों के गलत कार्यों में सामंजस्य किया जाए। भिन्न रुचि, भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के साथ अपने आपको समायोजित करने की वृत्ति जागे, यह सामूहिक जीवन में शांत-सहवास की पहली अपेक्षा है। पैर गति, विकास एवं सहिष्णुता के सूचक हैं। पूरे शरीर का भार पैर ही वहन करते हैं। नवनिर्मित प्रतिमा का दायां पैर है सहिष्णुता एवं बायां पैर है-सेवा और सहयोग। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को सहन करने वाला अपनी शक्ति को बढ़ाता है। सहिष्णु व्यक्ति किसी अवांछनीय स्थिति के लिए दूसरों को दोष नहीं देता इसलिए प्रत्येक अप्रिय परिस्थिति में उसका मानसिक संतुलन बना रहता है। सहिष्णुता के अभाव में कदमकदम पर साधक को अनुत्तीर्ण होना पड़ता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ अध्यात्म के प्रयोक्ता इसी प्रकार सेवा और सहयोग भी जीवन के अमूल्य रत्न हैं। जो . व्यक्ति सामूहिक जीवन में समय पर दूसरों को सहयोग देना नहीं जानता, वह दूसरों से सहयोग-प्राप्ति की आशा कैसे कर सकता है ? सेवा सबसे बड़ी तपस्या है। इसमें अपने और पराए की भेदरेखा समाप्त हो जाती है अतः पूर्ण रूप से समर्पित व्यक्ति ही सेवा का आनन्द ले सकता है। प्रतिमा का प्रेरणादायी प्रारूप प्रस्तुत करने के बाद गुरुदेव कुछ क्षण रुके और सबके चेहरों को गहराई से पढ़ने लगे। पुनः संवेग-स्रोतस्विनी की धारा प्रवाहित करते हुए गुरुदेव ने कहा- "जीवन में रूपान्तरण के लिए कुछ न कुछ प्रयोग चलते रहना चाहिए। दीक्षा लेना साधना का अथ . है, इति नहीं। यदि साधक का जीवन प्रायोगिक न हो तो जीवन जड़ बन जाता है, उसमें तेजस्विता नहीं आ सकती। यह आध्यात्मिक वैज्ञानिक प्रयोग है। प्रतिदिन अनुप्रेक्षापूर्वक यदि इस प्रतिमा का सलक्ष्य निर्माण किया जाए तो अवश्य ही जीवन में अध्यात्म के नए सूर्य का अवतरण हो सकता है तथा "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की दिशा में प्रस्थान किया जा सकता है। . संघीय साधना के ये प्रयोग साधना में परिपक्वता लाने वाले हैं। हर प्रयोग एक नया अनुभव देने वाला तथा अग्रिम प्रयोग की भूमिका को सुदृढ़ करने वाला है। इन प्रयोगों से केवल तेरापंथ धर्मसंघ ही नहीं, अपितु संपूर्ण मानव जाति उपकृत हुई है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां जादू वह है, जो सर पर चढ़कर बोले, वैसे ही साधना वही है, जो जीवन-व्यवहार में मुखर हो। साधना केवल परलोक को सुधारने के लिए नहीं, अपितु इसी जीवन में नवजागरण का अनुभव करने के लिए की जाती है। जीवन भर साधना करने के बाद भी यदि जीवन में कषाय उपशांत नहीं हैं, समता का अवतरण नहीं है, आत्मौपम्य का भाव जागृत नहीं है तो साधना केवल भारभूत है। साधक सतत शुद्ध चैतन्य का अनुभव करता है। वहां सारे बाह्य संवेदन नीचे रह जाते हैं। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में व्यक्ति समाज में रहकर साधना करे और कठिन परिस्थितियों की उपस्थिति में भी विचलित न हो, यह साधना की कसौटी है।" सैद्धांतिक भाषा में षष्ठ, सप्तम गुणस्थानवर्ती आत्मा के पर्यवों की विशुद्धि ही उसकी साधना की सफलता की कसौटी है। द्वादश, त्रयोदश गुणस्थानवर्ती वीतराग जैसे व्यवहार वाले साधक विरले ही होते हैं। गुरुदेव के हर जीवन-व्यवहार से उनकी आंतरिक पर्यव-शुद्धि का आभास हमें मिलता रहता था। __ पूज्य गुरुदेव की सहज साधना से उद्धृत निष्पत्तियों को जब हम आधुनिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के संदर्भ में देखते हैं तो लगता है कि वे मौलिक वृत्तियों से बहुत ऊपर उठ चुके थे। इस अध्याय को पढ़कर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि एक सामान्य व्यक्ति की भांति वे इन वृत्तियों के दास कभी नहीं बने। उन्होंने स्वयं को इनके अधीन नहीं बल्कि इनको खाद्य-संयम, अभय, समता, सहिष्णुता, अनासक्ति और अनाग्रह में बदलने का तीव्र प्रयत्न किया। पूज्य गुरुदेव को जब भी देखा, जहां भी देखा, साधना उनके रोम-रोम से प्रस्फुटित होती दिखाई दी। उनके चरणों में आने वाला हर व्यक्ति उनके साधनामय तेजोवलय से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता था। उनका जीवन अखंड आनन्द और शांति का अविरल स्रोत था, जिसमें हर क्लांत एवं श्रांत व्यक्ति अपने दैन्य और ताप का प्रक्षालन कर सकता था। गुरुदेव तुलसी ने नश्वर शरीर से अविनश्वर विभूति को प्राप्त कर संसार को संभूति एवं प्रज्ञा का दान दिया था। संयम की प्रकृष्ट साधना से Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ साधना की निष्पत्तियां उन्हें जो कुछ हासिल हुआ, उसे शब्दों में बांधना कठिन है फिर भी सत्यनिष्ठा, आत्मबोध आदि कुछ बिन्दुओं में उनकी साधना की निष्पत्तियों स्फुट रूप से प्रदर्शित किया जा रहा है सत्यनिष्ठा सच्चं भयवं, सच्वं लोयम्मि सारंभूयं, सत्येनोत्तम्भिता भूमिः ये शाश्वत स्वर सत्य की महत्ता के स्वयंभू प्रमाण हैं । सत्य की व्याख्या करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे - " सत्य के प्रति आस्था का अर्थ है— अपने प्रति आस्था, जगत् के अस्तित्व के प्रति आस्था, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में आस्था, कर्म और उसके फल में आस्था तथा मोक्ष और उसके साधनों में आस्था।" हर महापुरुष अपने ढंग से सत्य की खोज करते हैं पर सत्य देश और काल से अबाधित होता है। सत्य की खोज कहीं भी किसी भी समय की जाए, उसका परिणाम समान आएगा। यद्यपि दूसरों के द्वारा खोजे सत्य से भी जीवन चलाया जा सकता है पर महावीर ने कहा" 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा" अर्थात् स्वयं सत्य खोजो। इसी बात को प्रकारांतर से पूज्य गुरुदेव इन शब्दों में अभिव्यक्ति देते हैं- "दूसरों द्वारा खोजा हुआ सत्य बासी हो जाता है। हम बासी रोटी खाना पसन्द नहीं करते तो बासी सत्य से काम क्यों चलाएं? सत्य की खोज में लगे रहें तो कभी न कभी कोई दरवाजा स्वयं खुल जाएगा और अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगा ।" यही कारण था कि वे कभी पुरानी लकीरों पर चलकर ही आत्मतोष का अनुभव नहीं करते थे सदैव कुछ न कुछ नया सोचते रहते थे । बचपन से ही पूज्य गुरुदेव की सत्यनिष्ठा प्रकर्ष पर थी। सत्य के प्रति अडिग विश्वास को व्यक्त करने वाला यह संस्मरण उन्हीं की भाषा में पठनीय है- " सच्चाई के प्रति मेरा सदा से अटूट विश्वास रहा है। मुझे याद है कि एक दिन मोहनलालजी की बहू (बड़ी भाभी) ने मुझसे कहा- "जाओ, ये पैसे लो और बाजार में जाकर कुछ लोहे की कीलें ला दो ।" नेमीचंदजी कोठारी, जो मेरे मामा होते थे, मैं उनकी दुकान पर गया । उन्होंने बिना पैसे लिए ही मुझे कीलें दे दीं। वापस आकर मैंने वे कीलें भाभी को दीं और साथ ही साथ पैसे भी दे दिए। यदि मैं चाहता तो पैसे आसानी से मेरे पास रख सकता था, पर सच्चाई के नाते मैंने वे नहीं रखे।' Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १५८ पूज्य गुरुदेव ने अपने सम्पूर्ण जीवन को सत्य की खोज में समर्पित कर दिया था। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में "आचार्य तुलसी का जीवन एक दर्शन है और दर्शन का वह महाग्रन्थ है, जिसमें परमसत्य को खोजा जा सकता है।" केदारनाथ चटर्जी ने गुरुदेव के प्रथम दर्शन में अपनी अनुभूति लिखते हुए कहा- 'बहुत कम लोगों के मुख पर मैंने सत्य और पवित्रता की वह उज्ज्वल ज्योति अपने पूरे तेज के साथ चमकते हुए देखी, जो आचार्य तुलसी में है। मैं पारदर्शी, सत्यनिष्ठ और तेजोमय महापुरुषों की अगली पंक्ति में आचार्य श्री तुलसी का स्थान देखता हूँ। गुरुदेव तुलसी ने सत्य को साक्षात् जीया। उनके ७० वर्ष के संन्यस्त जीवन के कुछ अनुभव इन पंक्तियों में पढ़े जा सकते हैं "मेरा एक-एक रोम सत्य के लिए समर्पित है। सत्य मेरा जीवन है, प्राण है और श्वासोच्छ्वास है। मेरी समूची साधना सत्य के लिए है। मेरा यह अटूट विश्वास है कि सत्य कभी हारता नहीं है। हर प्रतिकूल परिस्थिति में उसका तेज निखरता है किन्तु व्यवहार के धरातल पर उसे जय-पराजय के साथ जोड़ने का औचित्य समझ में नहीं आता।" * मेरे चिंतन में कहीं ठहराव नहीं है। मैं तो सत्य का खोजी हूं। सत्य की खोज में आगे बढ़ रहा हूं। कहीं भी सत्य की कोई किरण दिखाई दे, उसे स्वीकार करने में परहेज नहीं करता।.......मेरे कदम निरंतर सत्य की राह को मापते रहें और मैं जीवन के एक-एक क्षण को सार्थक करूं, यही आशा और अभीप्सा है। * सत्य का फल सदा मधुर होता है पर मधुरता के परिपाक होने तक तपस्या भी आवश्यक है। तप तपे बिना, कष्ट सहे बिना, सत्य को नहीं पाया जा सकता। * सत्य के प्रति मेरे मन में अखण्ड आस्था है। मैं यह मानता हूं कि सत्यनिष्ठ व्यक्ति या समूह का कोई अनिष्ट हो ही नहीं सकता। शर्त एक ही है कि आस्था निश्छिद्र हो........ सत्य, शिव और सौंदर्य के विकास के लिए मैंने सदा यत्न किया है। किन्तु मैं मानता हूं कि सौंदर्य से भी पहले सत्य की सुरक्षा होनी चाहिए क्योंकि सत्य के बिना सौन्दर्य का मूल्य नहीं हो सकता। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां सत्य की साधना मितभाषण के साथ जुड़ी हुई है। अधिक बोलने वाले व्यक्ति से जाने-अनजाने में असत्यभाषण हो ही जाता है। "मेरा जीवन: मेरा दर्शन" पुस्तक में प्रदत्त यह अनुभव इसी तथ्य को उजागर करने वाला है - "मैंने अनुभव किया है कि सत्य की साधना के लिए अल्पभाषी होना आवश्यक है, अन्यथा साधना में अपूर्णता रहती है। सत्य की साधना को पुष्ट करने के लिए आत्मप्रशंसा और परनिन्दा से बचना ... बहुत जरूरी है। शास्त्रों में असत्य भाषण के चार कारण बतलाए गये हैंक्रोध, लोभ, भय और हास्य । इनके रहते सत्य की सर्वांगीण साधना कैसे संभव है ? चिंतन की प्रक्रिया आत्मनिरीक्षण के क्षणों में साधक को उद्वेलित कर देती है । उस दिन मेरा मन भी कुछ अधिक उद्विग्न हो गया था । सूक्ष्मता के साथ सत्य की विशेष साधना में संलग्न रहने का संकल्प जगा । .. उस सिलसिले में प्रश्न - व्याकरण सूत्र का सत्य सम्बंधी पाठ मुझे बहुत प्रेरक लगा - १५९ अणेगपासंडपरिगहियं, जं तं लोकम्मि सारभूयं । गंभीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतरगं मेरुपव्वयाओ ॥ सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ। विमलतरं सरयनहतलाओ, सुरभितरं गंधमादणाओ ॥ सत्य ऐसा तत्त्व है, जो सभी धर्म-सम्प्रदायों द्वारा सम्मत है। वह लोक में सारभूत है, महासमुद्र से अधिक गंभीर है, मेरु पर्वत से अधिक स्थिर है, चन्द्रमण्डल से अधिक सौम्य है, सूर्यमण्डल से अधिक तेजस्वी है, शरद ऋतु के आकाश से अधिक निर्मल है और गंधमादन पर्वत से अधिक सुगंधित है। सत्य और अहिंसा मेरी आस्था के ध्रुवतत्व हैं। 1 मैं अपने प्रवचनों में भी इन पर पर्याप्त बल देता हूं। सिद्धान्ततः प्रायः सभी लोग इनके महत्त्व को स्वीकार करते हैं किन्तु सिद्धान्त और व्यवहार की दूरी पाटने के समय उनके कदम ठिठक जाते हैं।" " हिरण्यमयेण पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं" यजुर्वेद का यह सूक्त इस बात की ओर संकेत करता है कि सत्य का मुख प्रलोभनों से ढका हुआ है । हरेक व्यक्ति उस पथ पर नहीं चल सकता । पूज्य गुरुदेव के शब्दों में सत्य का पथ फूलों से नहीं, कांटों से भरा है। कांटों को गले लगाने Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १६० वाला या प्रसन्नता से उन्हें स्वीकार करने वाला ही सत्य की सौरभ को प्राप्त कर सकता है। - १६ सितम्बर १९६६ का घटना प्रसंग है। ब्रह्मबेला में पूज्य गुरुदेव की सन्निधि में स्वाध्याय का क्रम चल रहा था। गुरुदेव ने शैक्ष साधुओं को आह्वान करके उनके समक्ष एक प्रश्न उपस्थित किया- 'पांच महाव्रतों में कठिन महाव्रत कौनसा है?' उत्तर में प्रायः संतों ने ब्रह्मचर्य का नाम लिया। गुरुदेव ने इसके विपरीत अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए कहा- 'वैसे तो सभी महाव्रत कठिन हैं किन्तु सत्य महाव्रत कठिनतम है। मुनि हिंसा से विरत रह सकता है; अदत्त ग्रहण नहीं करता, मैथुन-विरमण कर सकता है, ममकार भाव को भी मिटा सकता है किन्तु समय पर सत्य पर दृढ़ रहना अत्यन्त कठिन है।' अपनी बात की पुष्टि में वक्तव्य जारी रखते हुए गुरुदेव ने कहा- "बड़ी से बड़ी त्रुटि हो जाने पर भी यथातथ्य बतला दे, किंचित् भी वाच्य-परिवर्तन न करे, वही महान साधक है। सत्य-पालन में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं होती। सत्य में हृदय की सरलता बोलती है। जो सत्यवादी होता है, वही समय पर अभय रह सकता है क्योंकि असत्यभाषण के पीछे कोई न कोई भय छिपा रहता है। मेरा ऐसा दृढ़ विश्वास है कि अगर सत्य सिद्ध हो गया तो अन्यान्य सारे गुण स्वतः सिद्ध हो जाएंगे। सत्य को जन-जन के मानस में प्रतिष्ठित करने की उनकी उदा आकांक्षा काव्य की इन पंक्तियों में पठनीय है सत्य धर्म का झंडा जन-जन के, मंदिर में लहराए, धर्म नाम से शोषण अत्याचार, कभी ना हो पाए। ऐसा करें प्रचार व्यवस्थित, और संगठन रूप लिए। जिएंनजीने के हितहमसब, अटल साधना लिए जिएं॥ सत्य की मिठास उपलब्ध होने पर व्यक्ति किसी भी स्थिति में उसे छोड़ नहीं सकता पर सामान्य आदमी सोचता है कि सत्य के आधार पर जिंदगी नहीं चल सकती। सब लोग असत्य के सहारे ऊपर चढ़ रहे हैं, सम्मान पा रहे हैं, विजय हासिल कर रहे हैं तो अकेला मैं ही क्यों पीछे रहूं-इस मिथ्याधारणा का प्रतिवाद करते हुए पूज्य गुरुदेव ने नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा- "सत्य की साधना का सम्बन्ध जय-विजय के Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ साधना की निष्पत्तियां साथ नहीं, आत्मा के विकास से है। सत्य का साधक आत्म-विकास के शिखर पर आरोहण कर सकता है किन्तु जीवन के हर मोड़ पर वह विजय का वरण करे, ऐसी प्रतिबद्धता नहीं होती। व्यवहार में एवं न्यायालय में अनेक प्रसंगों पर सत्यवादी को हारते हुए एवं असत्यभाषी को जीतते हुए देखा जा सकता है।" इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का चिंतन भी मननीय है- "जैसे पहाड़ पर बरसा हुआ पानी अधिक समय तक ऊपर नहीं ठहरता, नीचे आ जाता है, वैसे ही परिस्थिति के चक्र में अशांति की बात कभी-कभी आ जाती है किन्तु जिस व्यक्ति का मन सत्य से जुड़ा हुआ है, जिसके मन में सत्य के प्रति गहरी आस्था है, वहां अशांति टिक नहीं पाती। आती है और चली जाती है। अर्हद्वाणी' में पूज्य गुरुदेव सत्यशोधक के वैशिष्ट्य को उजागर करते हुए कहते हैं विहत अरति रति से जब होता, नहीं संतुलन अपना खोता। सुख-दुःख में संक्लेश न जिसको वही सत्य का अनुसंधानी आयारो की अर्हत्-वाणी॥ जो मेरा है, वह सत्य है इस आग्रह का समर्थन मैं नहीं कर सकता और न ही इस बात को मान्यता दे सकता हूं कि जो भी सत्य है, वह मेरा ही है इसीलिए मैं आग्रह से बहुत दूर रहता हूं। कभी-कभी आग्रह करता भी हूं पर सम्बन्धित विषय की अयथार्थता प्रतीत होते ही मैं तत्काल उसे छोड़ देता हूं।" पूज्य गुरुदेव के इस मार्मिक वक्तव्य से स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है कि सत्य किसी की बपौती नहीं हो सकता। सत्य का सूर्य उसी दरवाजे पर दस्तक देता है, जो अपने चिन्तन की खिड़कियों को खुली रखता है। आग्रही व्यक्ति का स्पर्श पाकर सत्य भी असत्य हो जाता है। पूज्य गुरुदेव अनेक बार इस तथ्य को प्रकट करते थे कि हम जो जानते हैं और कहते हैं, वह सत्यांश होता है। सत्य के अंश को पूर्ण सत्य मानना धोखा है। जहां-जहां सत्य का अंश मिले, उसे स्वीकार करने का मनोभाव बना रहे तो सत्य के अनेक अंशों का अवबोध किया जा सकता है। सत्य को समझने में अनेकांतदृष्टि का उपयोग किया जाए, तभी पूर्ण सत्य के Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १६२ अवबोध की दिशाएं खुल सकती हैं। अनेकान्त द्वारा हर तत्त्व में सापेक्ष सत्य के दर्शन किए जा सकते हैं। पूज्य गुरुदेव ने अनेकान्त को जीया था, इसलिए वे सभी प्रकार के आग्रह एवं अभिनिवेशों से मुक्त थे। अनेक बार इस सत्य का प्रतिपादन करते हुए वे कहते थे- "मैं अहिंसाधर्मी हूं और समन्वय में विश्वास करता हूं। मैंने धर्म को रूढ़ि और आग्रह के रूप में स्वीकार नहीं किया है, किन्तु सत्यनिष्ठा के रूप में स्वीकार किया है। इसलिए आग्रह के वशीभूत होकर किसी को चोट पहुंचाना या भिन्न विचारों के प्रति असहिष्णु होना न मेरा कर्त्तव्य है और न मैं इसे पसन्द करता हूं" सत्य तो एक विराट् तत्त्व है, उसको उसी रूप में देखा या जीया जाए, तभी उसे पाया जा सकता है। इस विशाल दृष्टिकोण को स्वीकार करने के कारण पूज्य गुरुदेव सत्य को सम्प्रदाय-विशेष में आबद्ध नहीं देखते थे। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण धर्मविशेष पर आक्षेप करने वालों को जब गुरुदेव प्रतिबोध देते तो उनकी सत्यनिष्ठा प्रकर्षरूप में प्रकट होती थी। वे अनेक बार इस पीड़ा को व्यक्त करते थे कि हमारी शक्ति सम्प्रदायों के महल खड़े करने में नहीं अपितु सत्य को उजागर करने में लगे। जैन शब्द को भी वे वहीं तक पकड़े रहना चाहते थे, जहां तक वह सम्पूर्ण मानव-हितों से विसंगत नहीं होता हो। सम्प्रदाय के संदर्भ में उनके ये वक्तव्य प्रकृष्ट सत्यनिष्ठा के द्योतक हैं * सम्प्रदाय में सत्य है पर सम्प्रदाय ही सत्य नहीं है। सम्प्रदाय के बाहर भी अनन्त-अनन्त सत्य विद्यमान है- इस तथ्य को स्वीकार कर चलने से हमारे सामने कोई कठिनाई या उलझन पैदा नहीं होगी। *"मेरी आस्था इस बात में है कि सम्प्रदाय अपने स्थान पर रहें और उनका उपयोग भी हो किन्तु वह सत्य का स्थान न ले। सत्य का माध्यम ही बना रहे, स्वयं सत्य न बने।" । सम्प्रदाय और सत्य के बारे में कहे गये उक्त वक्तव्य एक नयी सोच प्रस्तुत करते हैं कि सत्य की उपलब्धि के लिए सम्प्रदाय हो, न कि सम्प्रदाय की सुरक्षा के लिए सत्य।उनका सत्यग्राही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक वैमनस्य एवं विग्रह को शमन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। 'प्रयाणगीत' में उन्होंने इसको क्रांतस्वर में अभिव्यक्ति दी है Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ साधना की निष्पत्तियां आत्मशुद्धि का जहां प्रश्न है, सम्प्रदाय का मोह न हो। चाह न यश की और किसी से, भी कोई विद्रोह न हो। स्वर्ण-विघर्षण से ज्यों सत्य, निखरता संघर्षों के द्वारा॥ आग्रह की भांति तर्क भी सत्य-प्राप्ति में बाधक तत्त्व है। तर्क सत्य को निश्छल नहीं रहने देता। इसलिए कहा जाता है कि सत्य बोला नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, पढ़ा नहीं जा सकता पर पाया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि तर्क बौद्धिक व्यायाम है। अधिक तर्क एक प्रकार से शिरस्फोटन है। वे कहते थे– 'एक समय था जब मैं स्वयं तर्कवाद को पसन्द करता था और उसके आधार पर अनेक तार्किकों को परास्त भी किया करता था पर अब तर्क में मेरा कोई रस नहीं रहा। आज कोई तार्किक व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं मौन हो जाता हैं। मैंने अनुभव किया है कि तर्क सत्य की कसौटी नहीं है। वह पूर्व को पश्चिम तथा पश्चिम को पूर्व में बदल सकता है, पर सत्य को नहीं पा सकता। वाद-विवाद के प्रसंग में भी मेरा अनुभव है कि तर्कों का सहारा छोड़कर सामंजस्य और अनेकान्त का सूत्र खोजने वाला समस्याओं का पार पा लेता है और सत्य को खोजने में कामयाब बन सकता है।' महात्मा गांधी ने भी इसी अनुभूति को व्यक्त किया है- "जिस प्रकार हीरा केवल पृथ्वी के गर्भ से ही प्राप्त हो सकता है, उसी प्रकार सत्य केवल गंभीर चिन्तन द्वारा आत्मा की गहराइयों में ही मिल सकता है। ___ सत्यनिष्ठ व्यक्ति को वचनसिद्धि का वरदान स्वतः मिल जाता है क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपने वचन की रक्षा करता है। सत्य की अखंड साधना से पूज्य गुरुदेव को वचनसिद्धि प्राप्त हो गयी थी। महर्षि पतंजलि ने सत्य की महत्ता इसी रूप में उद्गीर्ण की है-सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। पूज्य गुरुदेव के जीवन में हजारों ऐसे प्रसंग घटित हुए, जब सहज रूप से निकला हुआ उनका वचन उसी रूप में परिणत हो गया। सन् १९६० का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव रणकपुर से सायरा की ओर विहार कर रहे थे। मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को आगम-कार्य के लिए राजसमंद जाने का निर्देश दिया गया। उस रात गुरुदेव ने मुनि नथमलजी के Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १६४ साथ काफी समय तक अंतरंग बातें कीं। उस दिन डायरी में गुरुदेव ने जो विचार लिखे, वे पठनीय हैं- "मुनि नथमलजी पर मुझे काफी भरोसा है। ये गुरु-दृष्टि की सूक्ष्मता से आराधना करते हैं। साहित्य के क्षेत्र में इन्होंने अच्छी प्रगति की है। मेरा विश्वास है कि कई विषयों में इनकी शासन को बड़ी देन होगी। इनके स्वास्थ्य को लेकर मैं कभी-कभी चिंतित हो जाता हूं। फिर सोचता हूं कि शासन का भविष्य उज्ज्वल है। हमारे द्वारा शासन की सेवा होनी है, उसमें इनका सहयोग मिलना अवश्यंभावी है तो मिलेगा ही। फिर चिंता क्यों करूं? समय पर सब ठीक होगा।" ४४ साल पूर्व कही गयी गुरुदेव की यह वाणी आज अक्षरशः सत्य प्रतीत हो रही है। पूज्य गुरुदेव ने सुजानगढ़ में २०२० का चातुर्मास लाडनूं में फरमा दिया। गुरुदेव सुजानगढ़ से बीदासर पधार गए। चातुर्मास का संवाद मिलते ही लाडनूं के प्रसिद्ध श्रावक हनुमानमलजी बैंगानी, सदासुखजी कोठारी एवं मांगीलालजी नाहटा आदि कुछ गणमान्य व्यक्ति बीदासर पहुंचे। चातुर्मास सम्बन्धी व्यवस्था का विवरण प्रस्तुत करने के बाद लोगों ने निवेदन किया कि साध्वीश्री मनोहरांजी के कैंसर की बीमारी ने असाध्य रूप धारण कर लिया है। उनके शरीर से खून इतना प्रवाहित हो रहा है कि उन्हें मूल ठिकाने से निर्धारित साध्वियों के स्थान पर ले जाना अत्यन्त जटिल समस्या है। पूरी बात सुनने के बाद गुरुदेव कायोत्सर्ग एवं ध्यानमुद्रा में लीन हो गए। लगभग दो मिनिट बाद आंखें खोलकर कहा- 'यह कोई समस्या नहीं है।' लोगों का मन समाहित नहीं हुआ। प्रस्थान के समय मंगलपाठ सुनते समय लोगों ने फिर साध्वीश्री वाली समस्या गुरुदेव के चरणों में रखी। गुरुदेव ने कठोर मुद्रा में फरमाया- 'मैंने कह दिया समस्या नहीं है और तुम कहते हो समस्या है।' लाडनूं पहुंचते-पहुंचते भाइयों को रात हो गई अतः प्रातः जल्दी ही वे चाकरी करने वाली साध्वियों के दर्शन हेतु गए। दर्शन करते ही वहां देखा कि साध्वीश्री मनोहरांजी का स्वर्गवास हो गया है। उनका पार्थिव शरीर नीचे खंभे से बंधा हुआ था। पूज्य गुरुदेव की वाक्सिद्धि का चमत्कार ही मानना चाहिए कि साध्वी मनोहरांजी स्वयं तो समस्या से मुक्त हो ही गईं दूसरों के लिए भी उनकी व्यवस्था में कोई समस्या नहीं रही। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ साधना की निष्पत्तियां योगक्षेम वर्ष के प्रारम्भ में गुरुदेव के स्वास्थ्य में कुछ व्यवधान आ गया अत: लगभग एक मास तक वे प्रवचन, स्वाध्याय आदि कार्यक्रमों में उपस्थित नहीं हो सके। गुरुदेव ने युवाचार्य महाप्रज्ञजी को निर्देश देते हुए कहा- "इस बार प्रवचन तुमको करना है। इसलिए तुम अस्वस्थ मत हो जाना। लगता है गुरुदेव की इस वाणी का ही चमत्कार हुआ कि पूरे वर्ष में अस्वस्थता के कारण उन्होंने केवल एक दिन प्रवचन करने का कार्य छोड़ा। पूरे साल व्यवस्थित कार्यक्रम चला। जिस व्यक्ति के चिन्तन एवं चिन्तन की परिणति में वैषम्य होता है, वह सत्य की साधना नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव ने इस खाई को पाटने का प्रयत्न किया है। वे अपने श्रद्धालु भक्तों को भी प्रेरणा देते हुए कहते थे- "मैं शाब्दिक अभिनन्दन में विश्वास नहीं करता। मैं बहुत बार कहा करता हूं कि मेरा सच्चा अभिनन्दन तभी होगा, जब अभिनन्दनकर्ता मन, वचन और कर्म से एकरूप होगा।" उनके सत्यनिष्ठ व्यक्तित्व की झांकी जैनेन्द्रजी के शब्दों में पठनीय है- 'आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व में मुझे विघटन कम प्रतीत होता है। आचार, उच्चार और विचार में बहुत कुछ एकसूत्रता है। इसी से उनके व्यक्तित्व में वेग और प्रवाह है।" सत्य के पांच लक्षण बताए गए हैं - कथनी-करनी की एकरूपता। - प्रतिष्ठा एवं आत्मख्यापन की भावना से मुक्ति। - कर्तृत्व के अहंकार से मुक्ति। - असत्प्रवृत्ति से बचाव। - आवेशमुक्ति। पूज्य गुरुदेव के जीवन में ये पांचों बातें सहजरूप से चरितार्थ थीं अतः सत्य-साधना में उनके जीवन में आंतरिक रूप से कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। उनकी पवित्रता इतनी सध चुकी थी कि सत्य का तेज स्वतः प्रस्फुटित हो गया था। गुरुदेव की दृढ़ आस्था थी कि पवित्रता और आत्मशुद्धि के मार्ग पर चलना है तो सत्य को अपनाना ही होगा। बिना सत्य-साधना के पवित्रता को नहीं पाया जा सकता। अर्हत्-वाणी में उद्गीत सत्य का वैशिष्ट्य सबको एक अभिनव प्रेरणा देने वाला है Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ..१६६ धैर्य सत्य में ही धारण कर, सत्य नाव से भव-सागर तर, निरत सत्य में जो मेधावी, कर्मविजेता वह बलिदानी। आयारो की अर्हदवाणी। सत्य के प्रयोगों की दृष्टि से महात्मा गांधी का जीवन प्रसिद्ध रहा है। पूज्य गुरुदेव ने ७० वर्ष के संयमी-जीवन में सत्य के अनेक प्रयोग किए थे। वे अनेक बार इस संकल्प को दोहराते थे- "मेरे कदम निरन्तर सत्य की राह को मापते रहें और मैं जीवन के एक-एक क्षण को सार्थक करूं, यही अभीप्सा है।" 'मेरा जीवन: मेरा दर्शन' पुस्तक में उनकी सत्यनिष्ठा अनेक स्थलों पर प्रकर्ष रूप से उजागर हुई है। यहां पूज्य गुरुदेव की सत्यनिष्ठा के कुछ आयाम उकेरे गए हैं। सत्य को क्षण-क्षण जीकर गुरुदेव ने सत्य का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, वह सत्य-साधना की बारीकियों का अभिलेख है। उनकी सत्यनिष्ठा का सात्मीकरण साधना के क्षेत्र में हर साधक के लिए प्रेरणापाथेय है। गुरुदेव ने सत्य को केवल पढ़कर नहीं, अपितु जीकर कहा और लिखा, इसलिए उसकी महत्ता शतगुणित है और आने वाली पीढ़ी के लिए नया आलोक है। आत्मबोध प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा- "पदार्थों को जानने एवं उनके रहस्य खोजने में मैंने अपना पूरा जीवन लगा दिया लेकिन अब मैं ज्ञाता को जानना चाहता हूं। जब तक ज्ञाता को ज्ञेय नहीं बनाया जाएगा, विज्ञान की खोज अधूरी रहेगी। यदि मुझे पुनर्जन्म में मानव-देह मिलेगी तो मैं आत्मा को जानने में अपनी संपूर्ण शक्ति लगाना चाहता हूं। अब मेरे ज्ञेय का विषय ज्ञाता होगा।" आइंस्टीन का यह वक्तव्य आत्मबोध की.तीव्र तड़प को व्यक्त करने वाला है। साधक और आत्मबोध- ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो आत्मज्ञानी नहीं, वह हजारों वर्ष साधना करने के बावजूद भी ' अपनी लक्षित मंजिल को प्राप्त नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां अभिमत था कि सब कुछ जानकर भी जिसने यह नहीं जाना कि मैं कौन हूं ? वह रीता का रीता रह जाता है अतः आत्म-ज्ञान सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है ।' स्वामी रामतीर्थ अपने अनुभव को इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं- 'एन्थोनी ने प्रेम में, ब्रूटस ने कीर्ति में और सीजर ने साम्राज्यविस्तार में आनन्द ढूंढा । प्रथम को अपमान, द्वितीय को घृणा और तृतीय को कृतज्ञता मिली एवं प्रत्येक नष्ट हो गया। संसार की सभी वस्तुएं जब अनुभव की तराजू पर तौली गयीं तो सबकी सब निकम्मी निकलीं अर्थात् सबके सब निस्सार प्रतीत हुए। केवल आत्मज्ञान ही हृदय को आनन्द देने वाला निकला।' १६७ आत्मबोध पुस्तकीय ज्ञान से नहीं अपितु आभ्यंतर जागृति से उपलब्ध होता है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव की अनुभवपूत वाणी द्रष्टव्य है— 'ज्ञानी होने का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान या उपाधियां हासिल करने से नहीं है । ज्ञानी वह होता है, जिसकी प्रज्ञा जागती है, अन्तर्दृष्टि खुलती है । ढेर सारी जानकारियों के आधार पर व्यक्ति ज्ञानी बनता तो संसार में ज्ञानी लोगों की भीड़ लग जाती । स्थिति यह है कि बहुत खोज करने पर भी मुश्किल से कुछ व्यक्ति ऐसे मिलते हैं, जो ज्ञानी होने का गौरव पा चुके हैं । ' आत्मबोध के बिना बाह्य को पहचानने की भी सही दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती। “जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ " इस सूक्त के द्वारा भगवान् महावीर ने इसी सत्य का संगान किया है। पूज्य गुरुदेव ने इसी अर्हद्-वाणी का काव्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया है जो अध्यात्मतत्त्व का वेत्ता, वही बाह्य को जान सकेगा। बाह्य वस्तुविज्ञाता ही, अध्यात्म-तत्त्व पहचान सकेगा ॥ एक दूसरे को बिन जाने, एकांगी वह अल्पज्ञानी । आयारो की अर्हत्वाणी ॥ पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का आत्मबोध इतना जागृत था कि कोई Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १६८ भी प्रगति यदि साधना में अवरोधक बनती तो वह उन्हें अभिप्रेत नहीं थी। साधना को गौण करके युगप्रवाह में बहने के वे कट्टर विरोधी थे। गुरुदेव तुलसी संघ का बहुमुखी विकास चाहते थे किन्तु आत्मपक्ष को गौण करके नहीं। वे कहते थे मेरे सामने अनेक कार्य हैं। सबसे पहला कार्य हैअपनी साधना। आध्यात्मिक विकास मेरी साधना का लक्ष्य है। मैं जहां कहीं भी रहूं और कुछ भी करूं, इस लक्ष्य को विस्मृत नहीं कर सकता।" पूज्य गुरुदेव के जागृत आत्मबोध का रेखांकन महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी इन शब्दों में करती हैं- "उन्होंने कभी रुकना नहीं सीखा, हटना नहीं सीखा, मुड़ना नहीं सीखा, लौटना नहीं सीखा। उनका पुरुषार्थ उनके फौलादी व्यक्तित्व की जीवंत कहानी है। किन्तु एक बिन्दु पर आकर वे रुकते हैं, हटते हैं, मुड़ते हैं और वापिस भी लौट जाते हैं। वह बिन्दु है- आत्म-बोध। जिस क्षण उन्हें यह अहसास हो जाता है कि अमुक रास्ता अस्तित्व-बोध की मंजिल तक नहीं जाता तो वे तत्काल रुक जाते हैं।" .. __ पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में साधुत्व का पहला लक्ष्य है- आत्मसाधना अर्थात् स्व को केन्द्र में रखकर परिधि का विकास किया जाए, जिससे साधना तेजस्वी बने। 'व्यवहार-बोध' में साधना को प्राथमिकता देने का अवबोध देते हुए वे कहते हैं प्रथम व्यक्तिगत साधना, गणविकास सायास। सार्वजनिक कल्याण फिर, जब भी हो अवकाश॥ साधना को गौण करके किए गए विकास को वे ह्रास की संज्ञा देते थे। युग के बदलते प्रवाह एवं भौतिकता के रंग को देखकर वे अत्यंत चिंतित थे। उनका धर्मसंघ युग-प्रवाह में अपने अस्तित्व को न भूल जाए, इसके लिए वे सतत जागरूक थे। अनेक बार प्रवचनों के माध्यम से वे अंतरंग परिषद की चेतना झंकृत करते रहते थे- "मैं प्रगति चाहता हूं पर इस बात का ध्यान रहे कि हम अपने अस्तित्व को भूलकर युग-प्रवाह में न बह जाएं। हमें अपनी अध्यात्म साधना को सदा जागृत रखना है और साधना में उत्कर्ष लाने के लिए नये-नये प्रयोग करते रहना है। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ पर आचार की कमी मेरे लिए असहय है। खुद पतित Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ साधना की निष्पत्तियां और भ्रष्ट होकर औरों का हित साधने की प्रक्रिया का मैं कभी समर्थन नहीं कर सकता।" उनके मुख से निःसृत काव्य की ये पंक्तियां आत्मोदय से प्राप्त सुख और आनन्द की स्पष्ट अभिव्यक्ति है आत्मपक्ष के सम्मुख, सभी लक्ष्य फीके लगते हैं। मिथ्या मानदंड उन्नति के, खुद को ही ठगते हैं। पूज्य गुरुदेव क्रांत कवि थे, सृजनशील साहित्यकार थे, कुशल वक्ता थे, मधुर संगायक थे पर इन सबसे पहले वे आत्म-साधक थे। साधना के समक्ष उनके सामने सारी प्रवृत्तियां अकिंचित्कर थीं। वे कहते थे- 'आत्मभाव का तिरस्कार कर यदि साहित्य का सृजन या प्रकाशन होता है तो मुझे वह प्रिय नहीं है। मैं मानता हूं साहित्य की साधना, विद्या की आराधना और शास्त्रों का अन्वेषण बहुत आवश्यक है पर इससे भी अधिक अपेक्षित है अपनी आत्मा की साधना, आराधना और अन्वेषणा। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण और आत्म-संशोधन की त्रिपदी स्वीकार कर ली जाए तो सत्य की उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। 'पंचसूत्रम्' में उनकी लेखनी से यही शाश्वत स्वर मुखर हुआ है मुमुक्षुत्वमिदं पुण्यं, न च ग्रन्थादिलेखनम्। फलोपमं तदेतत् स्यात्, मूलं फलै विशिष्यते॥ अग्निपरीक्षा पुस्तक वापस लेने पर साहित्यकारों तथा कुछ मनीषी संतों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि इतने सुन्दर प्रबंधकाव्य को वापस लेकर आपने साहित्यजगत् के प्रति न्याय नहीं किया है। एक सुन्दर साहित्यिक कृति से विद्वानों को वंचित कर दिया, यह साहित्य-जगत् का अपमान है। पूज्य गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'मैं पहले अहिंसा का साधक संत हूं, फिर साहित्यकार हूं। यह निर्णय मैंने बाध्य होकर नहीं, अपितु अहिंसक होने के नाते शांति स्थापना के उद्देश्य से कर्त्तव्य समझकर किया है। जहां अहिंसा का प्रश्न है, वहां हमारा आचरण और व्यवहार अलौकिक ही होना चाहिए- इस सिद्धान्त में मेरी गहरी आस्था है। मैं चाहता हूं कि यह आस्था व्यापक बने।' ___सामान्य व्यक्ति ईंट, मिट्टी एवं चूने से बने मकान को अपना घर मानता है किन्तु आत्म-ज्ञान होने के बाद व्यक्ति के अपने घर की परिभाषा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १७० बदल जाती है। पूज्य गुरुदेव ने ११ वर्ष की अवस्था में गृहत्याग कर दिया। - मिट्टी से बना ऐसा कोई घर नहीं था, जिसे वे अपना कहें। पर उनके शब्दों में वे सदा अपने घर में रहते थे— “एक घर ऐसा भी है, जिसमें सदा रहा जा सकता है, जहां पहुंचने के बाद लौटने की बात समाप्त हो जाती है तथा छोटे-बड़े, अपने-पराए की भेदरेखा मिट जाती है। वह घर है व्यक्ति की अपनी आत्मा । जो आत्मा में रहने की कला सीख लेता है, वह घर के बाहर रहे या भीतर, उसे कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । " जब तक अध्यात्म आत्मा की मांग नहीं बनता, व्यक्ति की दौड़ बाह्य पदार्थों की ओर होती रहती है, वह केवल शरीर के स्तर पर जीता है, उसे अन्तर्जगत् के वैभव का ज्ञान नहीं होता। सारी साधन-सामग्री होने पर भी वह विपन्नता का अनुभव करता रहता है । आत्मबोध होने के पश्चात् व्यक्ति उस अखूट वैभव को प्राप्त कर लेता है, जिसके समक्ष संसार का समस्त वैभव अकिंचित्कर हो जाता है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव के ये अनुभव पठनीय हैं— " अन्तर्मुखता के क्षणों में जो रसानुभूति होती है, वह बहिर्मुखता की स्थिति में नहीं हो सकती । सामान्यतः व्यक्ति सोच ही नहीं सकता कि भीतर कितनी रसकूपिकाएं हैं, कितनी सुखद अनुभूतियां हैं।" "जब तक आत्मबोध की दिशा प्राप्त नहीं होती है, व्यक्ति • शरीर को देखता है । वह उसे सुन्दर देखना और दिखाना चाहता है। इसके लिए वह प्रसाधन-सामग्री का उपयोग भी करता है । अपनी ओर से पूरी तैयारी के बाद जब वह दर्पण हाथ में लेकर अपनी आकृति निहारता है अथवा आदमकद आईने के सामने खड़ा होकर अपना प्रतिबिम्ब देखता है, तब अपने सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता है। किन्तु वह नहीं जानता कि इस शरीर में कोई ऐसा तत्त्व भी है, जो सहज सुन्दर है । उसकी रमणीयता कभी कम नहीं होती। बीमारी और बुढ़ापे का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । शारीरिक सौन्दर्य तो क्षणिक है । काल का कोई भी निर्मम आघात इस सौन्दर्य - प्रतिमा को खंडित कर सकता है । इसलिए हम उस सौन्दर्य का दर्शन करें, जो कालजयी है, पदार्थजयी है और स्वाभाविक है । ' पूज्य गुरुदेव ने अध्यात्म के शिखर को छूने का प्रयत्न किया था। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ . साधना की निष्पत्तियां संसार की भौतिक शक्तियां एवं वैभव उनके चरणों में प्रणत थे पर वे सब आकर्षणों से निर्लिप्त सतत अपनी साधना में लीन रहते थे। उनकी दृष्टि में आत्म-शक्ति की तुलना में संसार की सारी शक्तियां बौनी थीं। इस संदर्भ में उनका अनुभवपूत वक्तव्य पठनीय है- "विद्या, कला, तंत्र और दैवी शक्ति आत्मशक्ति की तुलना में अकिंचित्कर है, इसलिए हर साधक के मन में यह भरोसा होना चाहिए कि इच्छाओं से भी अनंतगुणित शक्ति उसकी आत्मा में है। आत्मशक्ति का बोध होने के बाद संसार का कोई कार्य असंभव नहीं रहता।" गुरुदेव ने अपनी आत्मशक्ति का भरपूर उपयोग किया इसीलिए वे नेपोलियन की भाषा में कहते हैं- 'दुनिया में असम्भव जैसा कोई कार्य है ही नहीं, यदि सही रूप में शक्ति का नियोजन किया जाए।' काव्य की इन पंक्तियों के द्वारा उन्होंने जन-जन की सोयी आत्मशक्ति को जगाने का प्रयत्न किया तोड़ अब इन बन्धनों को स्वयं को तू स्वयं पा, सुप्त अपनी चेतना को स्वयं के द्वारा जगा बना केन्द्रित शक्तियों को प्राप्त कर अपनी प्रभा, स्वच्छ अभ्र-विमुक्त नभ में चन्द्र-ज्योतिस्सन्निभा॥ सामान्य व्यक्ति दूसरों के प्रति अधिक जागरूक रहता है। दूसरा क्या करता है, इसे देखने में ही जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यतीत कर देता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी दूसरों के साथ स्वयं के प्रति भी जागरूक थे। दूसरों के प्रति जागरूक रहने के दायित्व को भी वे बखूबी निभाते थे पर उनकी अपने प्रति जागरूकता और आत्मनिष्ठा उल्लेखनीय थी। __सामान्यत: व्यक्ति दूसरों की गलती देखने में जितना सचेत होता है, उतनी सतर्कता अपनी त्रुटियों एवं गलतियों को देखने में नहीं होती। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि स्वयं का सबल पक्ष और दूसरों का दुर्बलपक्ष तो कोई भी व्यक्ति सहजतया जान जाता है पर अपना दुर्बल पक्ष एवं संसार का सबलपक्ष जानना कठिन है।" सुदूर यात्रा-प्रवास का घटना प्रसंग हैपूज्य गुरुदेव जिस मकान में विराज रहे थे उसकी पेड़ियां बहुत खराब थीं। असावधानी के कारण उस दिन अनेक लोगों को चोट आयी। चोट खाए हर व्यक्ति ने उस पेड़ी को तथा उसके निर्माता को कोसा । गुरुदेव पेड़ी के पास Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १७२ 'ही बैठे थे अतः उनके आक्रोश भरे शब्द उनके कानों में पड़ रहे थे। | गुरुदेव शाम के समय सबको प्रतिबोध देते हुए कहा- 'परदोष दर्शन कितना सहज होता है और आत्मदोषदर्शन कितना कठिन - यह इस पेड़ी की बात सिद्ध कर दिया है। हर कोई चोट खाने वाला पेड़ी को दोष देता है जबकि वस्तुतः दोष अपनी असावधानी का है। पेड़ी की बनावट में कुछ कमी हो सकती है फिर भी कुछ दोष अपनी ईर्यासमिति के प्रमाद का भी है।' अनुशास्ता होने के कारण दूसरों की गलती या दोष पर उनका सहज ध्यान जाता था पर उसके पीछे उनका एकमात्र लक्ष्य यही था कि उस व्यक्ति का सुधार हो, वह अपने जीवन को बदले । उनकी दृष्टि में दूसरों को गलती या त्रुटि बताने का अधिकार उसी को है जो स्वयं अपने दोष देखता हो, दूसरों से दोष सुनने की क्षमता रखता हो अथवा उस दोष से मुक्त हो । पूज्य गुरुदेव स्वयं की समालोचना सुनने में अत्यंत सजग एवं जागरूक थे। विरोधी बात में भी यदि उन्हें सारपूर्ण बात प्रतीत होती तो उसे तत्काल ग्रहण कर लेते थे । उनका यह आत्मनिवेदन आत्मलक्षी वृत्ति का स्पष्ट निदर्शन है— "मैं दूसरों के प्रमाद को ही नहीं देखता, अपना भी प्रतिलेखन करता हूं। कब अहंकार आया ? कब गुस्से से आविष्ट हुआ ? कब इच्छाओं का दास बना ? इन सबका लेखा-जोखा मैं बराबर करता रहता हूं।".....' मैं अपने हृदय की बात कहता हूं कि कभी-कभी लम्बे समय तक कहीं आलोचना नहीं सुनता हूं तो लगता है क्या बात है, मैं कहीं गलती पर तो नहीं चला जा रहा हूं। फिर जब कहीं से थोड़ी आलोचना आ जाती है तो अपना आत्मालोचन करने का अवसर मिल जाता है और तब सोचता हूं, नहीं मैं विपथ पर तो नहीं हूं।' प्रवचन के माध्यम से आत्मदर्शन का सक्रिय प्रशिक्षण देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- "यदि तुम्हारे मुखद्वार की सीढ़ियां मैली हैं तो पड़ोसी के छत पर पड़ी गंदगी की शिकायत करना व्यर्थ है अत: पहले तुम स्वयं सुधरो, स्वयं की गंदगी हटाओ, साफ-सुथरा रहना सीखो फिर दूसरों को सफाई का उपदेश दो।" आत्मबोध होने के बाद भीतरी जागरण घटित जाता है। व्यक्ति अपने करणीय के प्रति सजग हो जाता है। पूज्य गुरुदेव Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ साधना की निष्पत्तियां के जागृत आत्मबोध ने विकास की नयी संभावनाओं के द्वार उद्घाटित किए तथा अनेक लोगों को आत्मस्थता की दिशा में प्रस्थित किया। सम्यग्दर्शन भगवान् महावीर ने धार्मिक की प्रथम पहचान बताई है- सम्यग् दृष्टिकोण। उन्होंने कहा- सम्यग दृष्टिकोण सब धर्मों का मूल है और मिथ्या दृष्टिकोण सब पापों का मूल है। आचार्य महाप्रज्ञजी की दृष्टि में सम्यग्दर्शन का अर्थ है-निरंतर आत्मा में रहना, आत्मा में समाधान पाना। जब तक दृष्टि सम्यक् नहीं होती, सत्य के प्रति दृष्टि संदिग्ध बनी रहती है तथा आचरण और व्यवहार सम्यक् नहीं हो सकता। दृष्टि विशुद्ध होने के बाद साधक न कहीं उलझता है और न ही अटकता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में सम्यग्दृष्टि की कसौटी व्यक्ति स्वयं है, दूसरा नहीं। वे कहते थे- "हीरे की पहचान जौहरी करता है, सोने की पहचान स्वर्णकार करता है पर मैं सम्यग्दृष्टि हूं या नहीं, इसकी पहचान दूसरे से नहीं, अंतरात्मा से ही होगी। बुराइयों से निवृत्त होते समय आपकी आत्मा उसका अनुमोदन करे और बुराइयों में प्रवृत्त होते समय आपके दिल में चुभन पैदा हो तो आप निश्चित ही अपने आपको सम्यग्दृष्टि समझिए।' - पूज्य गुरुदेव ने दृष्टिकोण के परिमार्जन पर अत्यधिक बल दिया। उनका सोचना था कि दृष्टिकोण सही है तो व्यक्ति कितनी ही बड़ी बुराई से क्यों न लिप्त हो, एक दिन उससे अवश्य मुक्त हो जाएगा। किन्तु जो बुरा करके उसे अच्छा बताता है, वह बुराई से कैसे मुक्त होगा? दृष्टिकोण की स्पष्टता के बिना व्यक्ति को अपनी बड़ी से बड़ी गलती छोटी दिखाई देती है और दूसरों का साधारण सा दोष भी पहाड़ जितना लगता है। जब तक सही दृष्टिकोण का निर्माण नहीं होता, चेतना की पवित्रता का लक्ष्य नहीं बन सकता तथा सम्यक्-असम्यक् की सही समीक्षा नहीं हो सकती। दृष्टि स्पष्ट होते ही अहंकार उल्टे कदमों भाग खड़ा होता है। पूज्य गुरुदेव का दृष्टिकोण स्फटिक की भांति निर्मल और पारदर्शी था, इसलिए स्वयं की हर अल्पता तत्काल उनके दृष्टिपथ पर प्रतिबिम्बित हो जाती थी। उनका मानस इस बात के गणित में नहीं उलझता था कि दूसरे उस गलती में कितने प्रतिशत संभागी थे। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १७४ ___ भयंकर गर्मी का समय था। सरदारशहर में गुरुदेव दरवाजे के बीच विराज रहे थे। कुछ कबूतर बार-बार उड़-उड़कर बाहर से अंदर तथा अंदर से बाहर आ रहे थे। गुरुदेव को बार-बार अपना सिर नीचे करना पड़ रहा था। संतों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि आपको बार-बार असुविधा हो रही है अत: किसी दूसरे सुविधाजनक स्थान पर विराज जाएं। गुरुदेव ने मुस्कराते हुए फरमाया- "इसमें असुविधा की क्या बात है? कबूतर के बार-बार आने-जाने से स्वाभाविक हवा आ.जाती है। इनकी हवा स्वास्थ्यप्रद होती है। हम असुविधा को क्यों देखें? हमें तो हर चीज में से गुण लेने चाहिए।". जयपुर का प्रसंग है। पंचमी समिति जाते समय पूज्य गुरुदेव का आचार्य गणेशीलालजी से मिलन हुआ। संवत्सरी के दूसरे दिन खमतखामणा का अवसर था। संवत् २००५ तक गुरुदेव प्रायः राजस्थानी भाषा में ही बोलते थे। राजस्थानी भाषा में 'आपके' स्थान पर "थे" प्रयुक्त किया जाता है। गुरुदेव ने सहजता से गणेशीलालजी के लिए 'आप' के स्थान पर 'थे' का प्रयोग कर दिया। उन्होंने इसे मान-हानि समझकर विवाद का मुद्दा बना लिया। गणेशीलालजी उत्तेजित होकर बोले- 'तुम लोगों को बोलने की सभ्यता नहीं है। अपने को बड़ा समझते हो, दूसरों को नहीं।' गुरुदेव ने विनम्रता से समझाने का प्रयत्न किया कि उनका लक्ष्य किसी को अपमानित करना नहीं था। राजस्थानी भाषा में सहज रूप से ऐसा प्रयोग होता है। बहुत कहने पर भी उनकी मानसिकता नहीं बदली, समन्वय की बात केवल मुख पर ही रही, क्रियात्मक नहीं बनी। वे एक शब्द में उलझ गए और पूरे चातुर्मास में विरोध चलता रहा। "संस्मरणों के वातायन" में गुरुदेव इस घटना-प्रसंग के संदर्भ में अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहते हैं- "उस दिन हमको एक बोधपाठ मिला और उसके साथ कुछ आश्चर्य भी हुआ। हमारे द्वारा सहजभाव से आत्मीयतापूर्ण वातावरण में प्रयुक्त एक शब्द पर इतनी आपत्ति की गयी और सामने वाले पक्ष की ओर से वातावरण में उत्तेजना भरने की बात को भी अनुचित नहीं माना गया। खैर! हम संभल गए। हमने तय कर लिया कि भाषा का प्रयोग भी बहुत सोच-समझकर करना चाहिए।" Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ साधना की निष्पत्तियां सम्यग्दृष्टि मनुष्य शरीर चलाने के लिए पदार्थ का उपयोग करता है पर भोग नहीं करता। वह जानता है कि संसार में रहते हुए कामनाओं का अंत पाना कठिन है पर कामनाएं चेतना पर हावी हो जाएं, यह उसे काम्य नहीं होता। मिथ्यादृष्टिकोण वाला व्यक्ति उसी पदार्थ का भोग आंतरिक आसक्ति के साथ करता है अत: वह उसमें बंध जाता है। क्रिया एक होने पर भी दृष्टिकोण के अंतर से उसकी परिणति में बहुत बड़ा अन्तर आ जाता है। इस अंतर का कारण है कि मिथ्यात्वी पदार्थ के साथ एकाकार हो जाता है। जबकि सम्यक्त्वी चैतन्य के सिवाय किसी के साथ नहीं बंधता। इसी बात को पूज्य गुरुदेव उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहते हैं- "मनुष्य जिस आंख से अपनी पत्नी को देखता है उसी आंख से पुत्री को देखता है पर देखने-देखने में बहुत बड़ा अंतर रहता है। बिल्ली अपने बच्चों को जिस आंख से देखती है, उसी आंख से चूहों को देखती है। बच्चों के प्रति उसके मन में सहज प्यार उमड़ता है, पर चूहों को देखते ही उसकी मुद्रा आक्रामक हो जाती है, यह दृष्टि का ही अन्तर है। पदार्थ के भोग की भी पृथक्-पृथक् दृष्टियां होती हैं।" अध्यात्म-पदावली में दृष्टिकोण के भेद में रहे तत्त्वों की सुंदर प्रस्तुति हुई है दृष्टि विपर्यय है सही, ममता का परिणाम। ... आत्मा की अनुभूति में, आत्मोदय अभिराम॥ दृष्टि विशुद्ध होते ही व्यक्ति का मन अपने आप सधने लगता है। कोई भी विक्षेप उसके मानस को चंचल, विक्षिप्त या तनावयुक्त नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि दृष्टिकोण की स्पष्टता किसी भी कार्य की सफलता का वह बिन्दु है, जिसे नजरंदाज कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता और न ही जीवन-व्यवहार को सम्यक् बना सकता है। दृष्टिकोण की विशुद्धता व्यक्ति के चिंतन को सम्यग् बना देती है। बंगाल के नियामतपुर गांव में गुरुदेव विराज रहे थे। उनका रात्रिकालीन प्रवास जी.टी.रोड पर स्थित एक मकान में था। प्रवचन प्रारम्भ हुआ पर मोटर-गाड़ियों के आवागमन से प्रवचन में बाधा पड़ रही थी। गुरुदेव को प्रवचन करते हुए बार-बार रुकना पड़ रहा था। श्रोताओं को Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १७६ झंझलाहट आ रही थी। उनके अंतर का आवेश बार-बार उनके चेहरों पर अंकित हो रहा था। किसी का आवेश तो वाणी में भी प्रकट हो गया। उस परिस्थिति में परिषद् की दृष्टि का परिमार्जन करते हुए गुरुदेव ने फरमाया'यह अच्छा ही तो हो रहा है। यदि मोटर न आए तो वक्ता को विश्राम कैसे मिले? धाराप्रवाह अस्खलित प्रवचन करने वाले प्रवचनकार के मुख से नि:सृत एक वाक्य ने लोगों के दिल को प्रकाश से भर दिया। महापुरुषों की सम्यग्दृष्टि हर प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूलता में ढाल देती है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति न किसी की बुराई सुनता है और न ही किसी पर दोषारोपण करता है। गुरुदेव के मुखारविंद से प्रवचनों के दौरान अनेक बार यह सुना जाता था कि समस्या की मूल जड़ है मनुष्य का एकांगी या गलत दृष्टिकोण। दृष्टिकोण एकांगी होगा तो वह कभी सुख और शांति को उपलब्ध नहीं कर सकता। दृष्टिकोण सम्यक् हो जाए तो भौतिक सामग्री के अभाव में भी हर क्षण आनंद की अनुभूति की जा सकती है। यदि दृष्टिकोण का विपर्यास है तो तीन सौ चौंसठ दिन सुखी रहने पर भी एक दिन भी दुःख आ गया तो व्यक्ति तीन सौ चौंसठ दिन के सुख को भूल जाता है। सन् १९६५ का घटना प्रसंग है। गुरुदेव का प्रवास लाडनूं के मूल ठिकाणे (सेवाकेन्द्र) में था। पंडाल में किसी कारण से आग लग गई। आग लगने से लोग चिंतित हो गए। गुरुदेव ने उनके मानस को समाहित करते हुए कहा- 'देव, गुरु और धर्म के पुण्य प्रभाव से बहुत बचाव हुआ है। यदि मैं दस मिनिट पहले पंडाल पहुंच जाता उस समय हजारों भाईबहिन एकत्रित हो जाते। अथवा रात्रि के व्याख्यान का समय होता, जबकि चार-पांच हजार व्यक्तियों की उपस्थिति रहती उस समय क्या होता? इसलिए चिन्तित या दुःखी होने की अपेक्षा नहीं है। जो हुआ उसे अच्छे रूप में स्वीकार करना चाहिए।' पूज्य गुरुदेव का प्रबल आत्मविश्वास था कि धरती डोल सकती है, पहाड़ डोल सकता है पर दृष्टिकोण सम्यक् होने के बाद व्यक्ति का मन किसी भी स्थिति में विचलित नहीं हो सकता। वह अंधकार को उजालों में बदल देता है। दृष्टिकोण सही न होने पर निराशा और असफलता पग-पग पर व्यक्ति को दु:खी और संत्रस्त करती रहती है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ साधना की निष्पत्तियां निष्काम कर्म "महत्त्वाकांक्षा अच्छी भी है और बुरी भी। जब तक वह विवेक के वलय से संवेष्टित है, उससे विकास के द्वार खुलते रहते हैं। शक्तियां जागृत होती हैं। लेकिन जहां विवेक लुप्त हो जाता है, वहां महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरा देती है, अवनति की ओर ले जाती है।" पूज्य गुरुदेव के मुख से निःसृत ये पंक्तियां उनके निस्पृह एवं निस्संग व्यक्तित्व की झलक प्रस्तुत करती हैं। गुरुदेव साधक ही नहीं, साधकों के अनुशास्ता थे पर वे अपनी साधना को प्रसिद्धि, वाहवाही, चमत्कार एवं ख्याति के साथ नहीं जोड़ना चाहते थे। साधना स्वान्तः सुखाय एवं आत्मोन्नति के लिए होती है। दिखावा, प्रतिष्ठा या प्रदर्शन की भावना से उसमें स्थायित्व एवं आनन्द नहीं रहता अत: उसका स्रोत अंतरात्मा की ओर प्रवाहित होना चाहिए। उनका मानना था कि अंदर रही हई साधना जितना फल देती है, उतना वह बाहर आकर नहीं दे सकती। उससे कुछ न कुछ प्रतिष्ठा की भावना आ ही जाती है और अधिक लोगों में प्रकट होकर साधना स्वयं भार भी बन जाती है।' - पूज्य गुरुदेव अपने धर्मसंघ को नाम और ख्याति से दूर साधना के शिखर पर देखना चाहते थे। समय-समय पर उनका आत्ममंथन इस विषय में नयी प्रेरणा ग्रहण करता रहता था। पूज्य गुरुदेव ने तीर्थंकर के सम्पादक डॉ. नेमीचंदजी जैन का एक लेख 'साधु : उपदेश अधिक साधना कम' पढ़ा। लेख पढ़कर उनके साधक मानस पर जो प्रतिक्रिया हुई, वह उन्हीं के शब्दों में पठनीय है- "लेख कड़ा है पर चिन्तनीय जरूर है। मेरे मन में बार-बार यह विचार आता है कि धर्मसंघों में यश, ख्याति आदि.की लालसा बढ़ रही है, यह एक विचारणीय विषय है। हमारे संघ में इस प्रवृत्ति से बचाव अत्यन्त अपेक्षित है। कुछ युगीन कठिनाइयां जरूर हैं पर साध्वाचार की शिथिलता तो अहितकारी ही होती है। हमें भी इस विषय । पर चिन्तन अवश्य करना चाहिए। हमारा संघ संगठित और व्यवस्थित है। इसलिए वह अनेक अवांछनीय स्थितियों से अवश्य ही बचा हुआ है और बचा रहेगा। यद्यपि युग की कुछ अवश्यंभावी कठिनाइयों के कारण प्रवाहपातिता से बचना बहुत मुश्किल है पर इस दिशा में सतत जागरूकता तो रखनी ही चाहिए रखनी ही होगी।" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी किसी आकांक्षा या आशा से बंधकर साधना करने वाला साधक उपलब्धि के अभाव में निराश और हताश हो जाता है किन्तु पूज्य गुरुदेव निष्कामभाव से निरन्तर आत्म-साधना और जन-उत्थान करने का भीष्मव्रत धारण किए हुए थे। अपने ५८वें जन्मदिन पर सम्पूर्ण मानव-जाति को विशेष संदेश देते हुए उन्होंने कहा- "निष्काम काम करने की प्रेरणा देने के लिए मैं अपने आपको सक्रिय रूप से प्रस्तुत करना चाहता हूं। यदि काम के पीछे नाम, प्रतिष्ठा आदि की भावना है तो काम करने में मजा नहीं आता। निष्काम कर्म फलदायी होता है, इस आस्था को लेकर ही मैं घूम रहा हूं और काम कर रहा हूं।" पंजाब समझौते में पूज्य गुरुदेव की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। स्वयं गृहमंत्री आमेट में गुरुदेव को बधाई देने पहुंचे। अनेक राष्ट्रीय स्तर के लोगों की बधाइयां गुरुदेव तक पहुंचीं किन्तु गुरुदेव ने इस प्रसंग पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- "लम्बे संघर्ष के बाद नए सवेरे की भांति सरकार और संत लोंगोवाल के बीच हुए समझौते में कड़ी बनने का श्रेय हमको दिया जा रहा है। पर हमारी मंसा किसी श्रेय को पाने की नहीं, केवल देश में अहिंसक शक्तियों को प्रतिष्ठित करने की है।" ___ एक पुरोहित गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होकर बोला- मैंने आपके दर्शन तो आज ही किए हैं लेकिन मैं आपका पक्का प्रशंसक हूं। लोगों के बीच में आपकी प्रशंसा करता रहता हूं। मैंने अनेक लोगों को आपके दर्शन की प्रेरणा दी है। गुरुदेव ने गंभीर मुद्रा में फरमाया'पुरोहितजी! हमें आपकी प्रशंसा नहीं चाहिए, हम उसका क्या करें? आप अपने जीवन का उत्थान करें, सत्य को पहचानें, यही कल्याण का रास्ता है। हम यही चाहते हैं कि सबका जीवन उत्कर्ष को प्राप्त हो।' ये घटनाप्रसंग सबको फलाशासंयम की अभिनव प्रेरणा देने वाले हैं। अपने जीवन के आठवें दशक में उन्होंने निस्पृह, निष्काम एवं आकिंचन्यभाव का एक महान् आदर्श आचार्य-पद का विसर्जन करके किया। एक ओर जहां मरणासन्न स्थिति में भी व्यक्ति, सत्ता, संपदा एवं अधिकार की लालसा छोड़ना नहीं चाहता, वहां समर्थ एवं सक्षम होते हुए भी इतने प्रतिष्ठित पद का त्याग निस्पृहता का श्रेष्ठ उदाहरण है। आचार्यपद-विसर्जन के द्वारा वे समाज को सक्रिय प्रशिक्षण देना चाहते थे। पद-विसर्जन के अवसर पर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ साधना की निष्पत्तियां अपनी अन्तर्भावना उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त की- "मैं प्रयोगधर्मा रहा हूं। इस छह दशक की अवधि में नए-नए प्रयोग करता रहा हूं। मैंने सोचा मैं अध्यात्म का कोई नया प्रयोग करूं। मैंने आकिंचन्य के प्रयोग का निर्णय लिया, जिससे मेरा कुछ भी न रहे और सब कुछ मेरा बन जाए।" पूज्य गुरुदेव ने लाखों लोगों को गिरने से बचाया, लाखों पतितों को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया तथा लाखों व्यक्तियों को जीवन में कभी स्खलित न होने की अभिनव प्रेरणा दी। लाखों लोग उनके एक इंगित पर अपनी कुर्बानी देने को तैयार रहते तथा उन्हें भगवान् की भांति पूज्य दृष्टि से देखते थे पर वे स्वयं को केवल साधक एवं संत ही मानते थे। एक प्रसंग पर अपनी अन्तर्भावना प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- "मैं किसी का गुरु नहीं, मैं तो अपने आपका ही गुरु हूं। अपने विचारों का गुरु हूं।" सन् १९६३ का घटना प्रसंग है। राजलदेसर में एक छोटा सा बालक गुरुदेव के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ और बोला- "इतने लोग आपको हाथ जोड़ते हैं तो क्या आप भगवान हैं ?"गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा- 'मैं भगवान् तो नहीं, पर इंसान हूं।' बच्चा तो गुरुदेव का मुंह देखता रहा पर आस-पास खड़े भक्त गुरुदेव के इस उत्तर पर श्रद्धा-प्रणत थे। __ पूज्य गुरुदेव का विश्वास पुरुषार्थ करने में था। वे परिणाम की चिंता नहीं करते थे यही कारण था कि अपना बहुमूल्य समय दूसरों के लए नियोजित करने पर भी वे किसी पर अहसान या उपकार नहीं जताते बल्कि उसे अपना कर्त्तव्य समझते थे। जब संत उन्हें कहते थे कि साधारण व्यक्ति के लिए आप इतना श्रम क्यों उठाते हैं? क्या वह नियम लेकर सुधर जाएगा? वे इसका उत्तर देते हुए वे कहते थे- 'नियम नहीं लेने से मेरी साधना निष्फल नहीं जाती। कोई नियम लेता है तो उसका हित सधता है। यदि कोई हित-उपदेश न सुने तो भी मेरी साधना सफल है। समझाना मेरा आत्म-धर्म है, वह अपने आपमें सफल है। मेरे उपदेश को यदि एक भी व्यक्ति ग्रहण नहीं करता तो भी मुझे किंचित् हानि और दुःख नहीं होता क्योंकि उपदेश देना मेरी साधना है। वह अपने आप में सफल है। मैं संस्कृत के इस सुभाषित में विश्वास करता हूं न भवति धर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्धया, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी धवल समारोह पर प्रदत्त निम्न वक्तव्य उनकी निष्काम, निस्पृह एवं उदात्त वृत्ति को प्रस्तुत करने वाला है- "मैं अपने विकास और उत्थान के लिए चला, वह दूसरों के विकास का भी निमित्त बन गया इसलिए लोग मानते हैं कि मैं उनका विकास कर रहा हूं पर मेरा संकल्प है कि प्राप्त प्रतिष्ठा में मैं और अधिक विनम्र बनूं। साधना के पथ पर और आगे बढूं।" कृत्रिम प्रतिष्ठा एवं पद का व्यामोह व्यक्ति को दिग्मूढ़ बना देता है। पद एवं प्रतिष्ठा के लोलुप व्यक्तियों को मनोवैज्ञानिक शैली में प्रतिबोध देते हुए उन्होंने कहा- ‘पद और प्रतिष्ठा से दूर भागने की कोशिश करोगे तो अनायास वे आपके पीछे दौड़ेंगे। आप 'उनका साथ छुड़ाना चाहकर भी नहीं छुड़ा सकेंगे। यदि पद और प्रतिष्ठा की भूख रखेंगे तो वे आपसे सदा दूर भागेंगे। साधकों की अनुभूति की भाषा एक स्वर में निकलती है अतः स्वामी विवेकानन्द की अनुभूति में भी संवादिता है- 'उसी के पास सब वस्तुएं आती हैं, जो किसी की परवाह नहीं करता। भाग्य एक चपला स्त्री के समान है, जो उसे चाहता है, उसकी वह परवाह ही नहीं करती पर जो व्यक्ति उसकी परवाह नहीं करता, उसके चरणों में वह लोटती रहती है। इसी प्रकार नाम और यश भी अयाचक के पास ढेर के ढेर में आता है। यहां तक कि यह सब उसके लिए एक कष्टप्रद बोझा हो जाता है। विकास महोत्सव का इतिहास इसी तथ्य को चरितार्थ करने वाला था। आचार्य पद त्यागने के बाद सबका आग्रह एवं अनुरोध रहा कि पट्टोत्सव का कार्यक्रम पूर्ववत् मनाना चाहिए। सम्पूर्ण देश से हजारों लोग अपनी श्रद्धा व्यक्त करने आते हैं अतः कार्यक्रम तो होना ही चाहिए। गुरुदेव ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा- "मैं अपने आचार्य-पद को विसर्जित कर चुका हूं अतः पट्टोत्सव क्यों मनाया जाए? सबकी भावना के बावजूद भी गुरुदेव अपने निर्णय पर अटल रहे। उसी निषेध से आचार्य महाप्रज्ञजी के उर्वर दिमाग में एक विकल्प उभरा 'विकास महोत्सव'। पट्टोत्सव तो आचार्य की सदेह स्थिति में ही मनाया जाता लेकिन विकास महोत्सव हमेशा के लिए स्थायी हो गया। प्रतिदान या प्रतिफल की भावना से दूर कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर कार्य करना उनका जीवनव्रत था। लम्बी यात्राओं के दौरान हर गांव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ साधना की निष्पत्तियां में लोग उनके चरणों में तरह-तरह की भेंट चढ़ाते थे पर वे लोगों से केवल त्याग-प्रत्याख्यान एवं बुराई की भेंट स्वीकार करते थे। (पंजाब) धुरी में वयोवृद्ध सरदार जहांगीरजी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने कुछ रुपये भेंटस्वरूप गुरुदेव के चरणों में रखते हुए कहा- 'आपने हमें वचनामृत का पान कराया है। हमारे पास आपको दक्षिणा देने के लिए यह तुच्छ भेंट है अत: आप स्वीकार करें।' गुरुदेव ने सरदारजी को समझाते हुए कहा- 'हम अपना परिवार और धन-सम्पदा छोड़कर साधु बने हैं। पैसा न तो हमारा लक्ष्य है और न इसे साधन रूप में स्वीकार करते हैं।' सरदारजी गुरुदेव की इस निस्पृहता और अनाकांक्षा की वृत्ति से बहुत प्रभावित हुए और भावविभोर होकर बोले- "गुरुजी ! मैंने जीवन में प्रथम बार ऐसे साधु देखे हैं। अभी तक मेरा वास्ता मठाधीशों एवं परिग्रही साधुओं से ही पड़ा था। मुझे विश्वास है कि आप जैसे अपरिग्रही साधु ही भारतीय संस्कृति के गौरव की अभिवृद्धि कर सकते हैं। ये आत्माभिव्यक्तियाँ उनके निष्काम एवं अकिंचन व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक हैं "मैं कोई मठाधीश या पुजारी नहीं हूं। मेरे पास चढ़ने के लिए मोटर नहीं, पैरों में चप्पल या जूते नहीं। न मैं किसी को संतान देता हूं और न धन देता हूं। न आशीर्वाद या श्राप ही दे सकता हूं। इन बाह्य आडम्बरों में मेरा विश्वास नहीं है।" *"मैं अकिंचन हूं, गरीब मानें तो सबसे बड़ा गरीब हूँ और अमीर मानें तो सबसे बड़ा अमीर हूं। गरीब इसलिए हूं क्योंकि पूंजी के नाम पर मेरे पास नया पैसा भी नहीं है, अपरिग्रही हूं। अमीर इसलिए हूं क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं है।" . गुरुदेव की निस्पृहता का अमिट प्रभाव पंडित नेहरू पर भी पड़ा। प्रथम मिलन में प्रधानमंत्री ने सोचा कि आचार्यजी अवश्य कुछ मांग करने आए हैं जैसे कि आम लोग उनके पास आते हैं। साक्षात्कार के प्रथम क्षण में ही उन्होंने गुरुदेव तुलसी से पूछा- 'बोलो, आपको क्या चाहिए?' गुरुदेव ने उत्तर दिया- 'पंडितजी! हम यहां लेने नहीं, कुछ देने के लिए आए हैं। हमारे पास सैकड़ों साधु-साध्वियां हैं। देश में नैतिकता एवं चरित्र की प्रतिष्ठा के लिए अगर आप उनका उपयोग करना चाहें तो हमारी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी सेवाएं समर्पित हैं। नेहरूजी इस बात से बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें आश्चर्य इस बात का हुआ कि आज भी ऐसे निस्पृह संत भारत में विद्यमान हैं, जो नि:स्वार्थभाव से केवल देते ही हैं, लेते नहीं। कोई भी उपाधि या सम्मान उनके साधक मानस में चेप, आसक्ति या लगाव पैदा नहीं कर पाता था। वे कहते थे कि ओढ़ी हुई उपाधियां मुझे व्याधियां लगती हैं। मैं किसी भी उपाधि को ओढने में दिलचस्पी नहीं रखता। विद्यापीठ परिवार की ओर से जब उन्हें 'भारत ज्योति' अलंकरण से विभूषित किया गया तो लोगों ने कहा कि आपको तो विश्व ज्योति से सम्मानित किया जाना चाहिए। उस समय उनके मुख से निःसृत वाणी उनकी आध्यात्मिक एवं निस्पृह व्यक्तित्व की ज्योति विकीर्ण कर रही है- "विद्यापीठ परिवार ने मुझे 'भारत ज्योति' अलंकरण से सम्मानित किया पर मैं चाहता हूं कि मैं आत्मज्योति बनूं।" इसी प्रकार जब उनके नाम के आगे अणुव्रत अनुशास्ता का प्रयोग किया जाने लगा तो तत्काल अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'अणुव्रत अनुशास्ता कोई पद नहीं है। न तो किसी ने मुझे यह पद दिया है और न मैंने इस सम्बोधन को पद की दृष्टि से स्वीकार ही किया है। यह तो एक विशेषण है। पहले मुझे अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तक कहा जाता था। इन वर्षों में अणुव्रत अनुशास्ता शब्द अधिक प्रचलित हो गया है। अनुशास्ता का अर्थ है-प्रशिक्षक। अणुव्रत का प्रशिक्षण देना मेरे कार्यक्रमों का एक अंग है। इसलिए इस शब्द-प्रयोग पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यदि इसे पद माना जाता है तो मैं इससे मुक्त होने की बात भी सोच सकता हूं।' वस्तुतः इतिहास में सात्विक गौरव का अध्याय वे ही व्यक्ति जोड़ सकते हैं, जो गौरव से सर्वथा विरक्त रहकर सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय चलें। निष्काम कर्म अध्यात्म का फलित है। आध्यात्मिक व्यक्ति ही इस दृष्टिकोण का विकास कर सकते हैं। समय-समय पर उनके मुखारविन्द से निःसृत ये अभिव्यक्तियां उनकी इसी महान् वृत्ति को प्रकट करने वाली हैं * "मुझे मूल्यांकन की चिंता नहीं। मुझे आत्मतोष है कि मैं जीवन भर ईमानदारी पूर्वक मानवता के कल्याण हेतु कार्य करता रहूं।" * "मैं चाहता हूं कि मेरे दिल की आवाज जन-जन के दिलों Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ साधना की निष्पत्तियां तक पहंचे। मैं अभिनंदन-पत्रों से खश होने वाला नहीं हैं। मैं नहीं चाहता कि स्थान-स्थान पर मुझे ये अभिनंदन-पत्र मिलें। हार्दिक भावनाएं मौखिक रूप से या कोई एक पत्र के द्वारा भी व्यक्त की जा सकती हैं। फिर सैकड़ों की संख्या में उनका प्रकाशन हो, यह सिवाय धन-अपव्यय के विशेष क्या मूल्य रखता है?" *"मैं गुजरात आया हूं, यह आप लोगों पर एहसान नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। मेरा विश्वास निष्काम कर्म में है। निष्काम कर्म फलदायी होता है, इस आस्था को लेकर ही मैं घूम रहा हूं और काम कर रहा हूं।" । आज दिखावा, प्रदर्शन और झूठे मापदण्ड हेतु नित नए आयोजन मनाने की उमंग रखी जाती है। एक बार शादी होने के बाद भी हर साल आडम्बर के साथ शादी का रिहर्सल किया जाता है। शादी की पच्चीसवीं एवं पचासवीं वर्षगांठ का तो कहना ही क्या? गुरुदेव ने समाज की इस कमजोरी को मिटाने के लिए केवल मौखिक उपदेश ही नहीं, बल्कि अपने जीवन से सक्रिय प्रशिक्षण दिया। आचार्य काल के २५ वर्ष पूरे होने पर सबका आग्रह रहा कि कोई बड़ा आयोजन किया जाए। संघ के इस निवेदन पर स्पष्ट निर्देश देते हुए आपने कहा- “धवल मेरा साध्य है। कृष्ण को त्याग कर धवल का वरण करना मुझे सदा प्रिय रहा है। इसलिए इसका समारोह मैं सदा मनाता हूं। यह धवल-समारोह यदि २५ वर्षों का प्रतीक हो तो मुझे इससे कोई लगाव नहीं है और यदि जीवन की धवलिमा का प्रतीक हो तो यह समारोह मेरा ही नहीं है, उन सबका है, जो जीवन में धवल-पक्ष का प्रतिष्ठापन करना चाहते हैं। उन सबका है, जो अनुशासन, एकता व मैत्री के दीप संजोते हैं। नैतिक व चरित्र-विकास में विश्वास बढ़ाने का यत्न हुआ तो मैं समझूगा धवल समारोह बन पाया है। अनुशासन, आचार-शुद्धि और एकता की लौ विशेष प्रज्वलित हुई तो मैं समझूगा कि मेरे २५ वर्ष सचमुच समारोह के मानदंड बन पाए हैं।' ___ भक्त हृदय से उठी श्रद्धा की हिलोरें और प्रशस्तियां उनके साधक मानस को बांध नहीं पाती थीं। वे अनेक बार अपने जन्मदिन पर यह विचार व्यक्त करते थे कि जन्मदिन के अवसर पर प्रशस्ति मुझे कतई पसंद नहीं पर आपकी कोमल भावनाओं को तोड़ना भी उचित नहीं है। इस बात Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी को दृष्टिगत रखते हुए मैं तटस्थ भाव से प्रशस्तियां सुनता हूं। मेरा सच्चा जन्मदिन आप तभी मनाएंगे जब आपका जीवन असत् से सत्, भोग से त्याग, राग से विराग, अंधकार से ज्योति एवं बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर गति करेगा। ये शब्द गिरिकंदरा में बैठा कोई योगी कहता तो आश्चर्य जैसा कुछ नहीं लगता लेकिन प्रतिष्ठा और प्रशंसा के वायुमंडल में सांस लेने वाले व्यक्ति से जब यह बात सुनी तो लगा कि प्रदूषणों की दुनिया में जीता हुआ भी वह प्रदूषण से मुक्त था। अनाग्रह साधक और आग्रह-ये दोनों ३६ के अंक के समान विपरीत दिशोन्मुख हैं। साधक सभी पूर्वाग्रहों एवं जड़ मान्यताओं से दूर रहता है क्योंकि वह जानता है कि अनाग्रही व्यक्ति ही सत्यान्वेषक हो सकता है। पूज्य गुरुदेव का जीवन सभी प्रकार के आग्रहों से मुक्त था। एक संप्रदाय विशेष से आबद्ध होने पर भी वे सत्य की असीमता एवं विराटता से परिचित थे। महावीर के अनेकान्त को उन्होंने जीवन-व्यवहार के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया था। इस संदर्भ में वे अपना अनुभव बताते थे"आग्रह का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है। मैं सदैव इससे बचने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि स्याद्वाद से मैं यह सीख पाया हूं कि सत्य उसी व्यक्ति को प्राप्त होता है, जिसके मन में अपनी मान्यताओं का कोई आग्रह नहीं होता।" ___ वैचारिक लचीलापन व्यक्ति को विविध कोणों से देखने और सोचने का अवकाश देता है। आचार्यों ने अनेकांत की दार्शनिक व्याख्या खूब की किन्तु उसे जीवन-व्यवहार के साथ जोड़ने का प्रयत्न नहीं किया। पूज्य गुरुदेव ने जन-जीवन की समस्याओं को सुलझाने में अनेकान्त का भरपूर प्रयोग किया। अनेकांत को व्यावहारिक बनाकर उसे जन-जीवन में प्रतिष्ठित करने की उनकी तड़प इन पंक्तियों में देखी जा सकती है'हमारी सबसे बड़ी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में हमने अनेकांत को जोड़ा पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना भूल गए, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ अनेकांत को जोड़ने का प्रयत्न किया है।" एकांत दृष्टि वाला व्यक्ति आग्रही होता है। मैं कहता हूं वही Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ साधना की निष्पत्तियां सत्य है इसी चिन्तन से अभिप्रेरित होकर वह हर कार्य करता है। इसलिए वह दूसरों के विचारों को कुचलकर ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। वह कभी सामंजस्यपूर्ण जीवन नहीं जी पाता। किन्तु पूज्य गुरुदेव सदैव इस भाषा में सोचते थे- "मैं कहता हूं वह सत्य हो सकता है पर तुम कहते हो, वह भी सत्य हो सकता है।' चिन्तन का यह अनाग्रह उनको सदैव सापेक्षता और सत्य के दर्शन कराता रहता था। इस संदर्भ में उनका यह वक्तव्य पठनीय ही नहीं, मननीय भी है-"हर व्यक्ति का अपना चिन्तन और अपना दृष्टिकोण है। दूसरों का चिन्तन गलत है और मेरा चिन्तन सही, ऐसा आग्रह मैं क्यों करूं? मुझे भगवान् महावीर का अनेकांत दर्शन प्राप्त है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के चिंतन में सत्य का अंश हो सकता है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां सत्य के एक अंश को सम्पूर्ण सत्य मान लिया जाता है। समस्या का दूसरा रूप है- अपने चिन्तन को सत्य मानकर दूसरों के चिन्तन को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करना। मैं अपने चिन्तन को न तो सम्पूर्ण सत्य मानता हूं और न दूसरों के चिन्तन को नितांत असत्य स्वीकार करता हूं।" ____ अनाग्रही वृत्ति के कारण ही वे स्वयं को पूर्ण न मानकर साधक एवं विद्यार्थी मानते थे। इसी विशेषता ने उन्हें अपने विरोधियों की आलोचना एवं आक्षेप को भी शांति से सुनने की क्षमता दी। यदि कटु आलोचना में भी कोई तथ्य दिखाई देता तो उसे स्वीकार करने में उन्हें हिचकिचाहट या संकोच नहीं होता था। उनका मंतव्य था कि विरोधी पक्ष को शांति से सुनने का अर्थ है सामने वाले व्यक्ति के आग्रह को समाप्त करके अपने पक्ष को स्वीकार कराने का मार्ग प्रशस्त करना।' उनकी इस विरल विशेषता ने अनेक विरोधियों को उनका उन्मुक्त प्रशंसक बना दिया। अनेक बार उनके मुख से यह सुना गया- "मैं प्रशंसकों से कहीं अधिक आलोचकों के बीच अपने आपको आनंदित पाता हूं।" प्रसिद्ध साहित्यकार यशपालजी जैन गुरुदेव की इस विशेषता से बहुत प्रभावित थे। गुरुदेव के व्यक्तित्व के बारे में अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- "जिस तरह वे अपनी बात बड़ी शांति से कहते हैं, उसी तरह दूसरे की बात भी उतनी ही शांति से सुनते हैं। अपने से मतभेद रखने वाले अथवा विरोधी व्यक्ति से भी बात करने में वे कभी उद्विग्न नहीं होते। मैंने स्वयं कई बार उनके Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १८६ संप्रदाय की कुछ प्रवृत्तियों की उनके सामने कड़ी आलोचना की है, लेकिन उन्होंने हमेशा ही आत्मीयता से समझाने की कोशिश की । " विरोधियों एवं आलोचकों के सन्मुख अनाग्रह से प्रस्तुत होने वाला साधक जीवन में मधुरता एवं सरसता बनाए रखता है। एक बार एक बौद्ध भिक्षु गुरुदेव के पास चर्चा करने के लिए उपस्थित हुआ। आचार्य-. परम्परा के विधि-विधान के अनुसार गुरुदेव पट्ट पर विराज रहे थे । बौद्ध भिक्षु ने कहा - " मैं आपसे बात करना चाहता हूं लेकिन यह तभी संभव है, जब आप भी मेरे बराबर नीचे बैठें। " गुरुदेव तत्काल पट्ट से उतरकर 1 बैठ गए। बौद्ध भिक्षु गुरुदेव के इस अनाग्रही, निरभिमानी व्यक्तित्व प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । यदि कोई आग्रही व्यक्ति होता तो वह इसे मानापमान का प्रश्न बना सकता था पर गुरुदेव का साधक मानस इतनी संकीर्ण बात में उलझकर तनाव पैदा करना नहीं चाहता था । कोई भी घटना-प्रसंग उनके अनाग्रही व्यक्तित्व के आगे उलझ नहीं पाता था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार देवेन्द्र सत्यार्थी दिल्ली में गुरुदेव के पास आए। अनेक विषयों पर विचार-विनिमय चला। चर्चा के अन्त में उन्होंने गुरुदेव को निवेदन करते हुए कहा- 'आचार्यजी ! और तो सब कुछ ठीक है पर यह मुखपट्टी जो आपने बांध रखी है, वह आपके और हमारे बीच एक दीवार है ।' पूज्य गुरुदेव ने उसी क्षण मुखवस्त्रिका को अपने मुख से उतार कर हाथ में लेकर कहा - 'इस दीवार को तो मैं अभी मिटा देता हूं। अब तो कोई दीवार नहीं है ?' गुरुदेव की सहजता और अनाग्रही वृत्ति देखकर सत्यार्थीजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। अभी तक वे दार्शनिक विषयों पर चर्चा कर रहे थे लेकिन गुरुदेव के इस नए रूप को देखकर वे स्तम्भित एवं श्रद्धाप्रणत हो गए। बद्धाञ्जलि होकर वे गुरुदेव को कहने लगे'नहीं, अब कोई दीवार नहीं है।' गुरुदेव ने आत्मविश्वास के साथ कहा'मुखवस्त्रिका हमारा चिह्न नहीं है। इसे हम सुविधानुसार खोल भी सकते हैं। यह हमारी अहिंसा-साधना में सहयोगी उपकरण है। वायु के सूक्ष्म जीवों के प्रतिघात से बचने के लिये हम इसे मुख पर धारण करते हैं । ' देवेन्द्रजी बोले- 'आचार्यजी ! अब हमेशा के लिए यह दीवार मिट गयी । अब मैं इसके लिए आपको कभी बाध्य नहीं करूंगा।' उक्त घटना-प्रसंग उनकी अनाग्रही एवं लचीली सोच का स्पष्ट निदर्शन है। - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां लचीलेपन की विरल विशेषता ने उम्र के नवें दशक में भी गुरुदेव को सरस बनाए रखा। पूज्य गुरुदेव के जीवन में आग्रह और अनाग्रह का समन्वय था । खिंचाव और ढील दोनों में उनका समान विश्वास था । वे समय के साथ बदलते थे और नित नवीन प्रतीत होते थे। साथ ही यह भी सत्य था कि वे उसी परिवर्तन को मान्य करते, जिसमें मौलिकता सुरक्षित रहे । वे कहते थे - " मैं जितना नवीनता का संग्राहक हूं, उतना ही प्राचीनता का संपोषक हूं।" मूल को खोकर प्रगति के पथ पर बढ़ना उनकी दृष्टि में बहुत बड़ी भूल थी । इस विषय में उनका यह वक्तव्य अत्यन्त मार्मिक है- 'मैं परम्परा का विरोधी नहीं हूं । किन्तु उसमें बहना भी नहीं चाहता क्योंकि बहना तो अपने आपको खोना है। अच्छी परम्पराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रांत होती रहें, यह आवश्यक है । जिस देश या समाज में `परम्परा को कांच का बर्तन मानकर एक झटके से तोड़ दिया जाता है, वह देश और समाज अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को सुरक्षित नहीं रख सकता । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वांछित एवं अवांछित— सभी प्रवृत्तियों की परम्परा आगे बढ़ाई जाए या उनका अनुकरण किया जाए ।' १८७ अनाग्रही वृत्ति व्यक्ति को सदैव ग्रहणशील बनाए रखती है । ग्रहणशील व्यक्ति के लिए बदलाव का रास्ता दुरूह नहीं होता । पूज्य गुरुदेव की ग्रहणशीलता उल्लेखनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी थी। स्वयं के बारे में यह स्वीकारोक्ति और संस्मरण इसका सशक्त प्रमाण है- "मैं यह लक्ष्य रखता हूं कि अच्छी बात कहीं से भी मिले, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। इस वृत्ति से मुझे बहुत लाभ हुआ है। एक घटना का यहां उल्लेख कर रहा हूं बहुत वर्षों पहले की बात है। मैं उपवास करता । उपवास ठीक हो जाता। पारणा कष्टप्रद होता । मैं इसका कारण नहीं समझ पाया। मैंने सोचा कि किसी अनुभवी श्रावक से बात करनी चाहिए। सुजानगढ़ के श्रावक छगनमलजी सेठिया बहुत अनुभवी व्यक्ति थे। मैंने उनसे बात की। उन्होंने पूछा- 'आप पारणे में क्या लेते हैं ?' मैं: सबसे पहले कच्चा पापड़ उसके बाद काली मिर्च और मिश्री Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १८८ लेता हूं। फिर दूध-दलिया, मोगर - पापड़ आदि जो चीजें उपलब्ध हो जाती हैं। सेठियाजी: ये चीजें आप कितनी मात्रा में लेते हैं ? मैं: उपलब्ध हो तो पेट भरकर । सेठियाजी: यह क्रम ठीक नहीं है। अधिकांश लोग पारणे में पहले दिन की कसर निकालना चाहते हैं। एक दिन उणा दूसरे दिन दूणाइस प्रकार भोजन करना ठीक नहीं है। मैं: पारणे का क्या क्रम होना चाहिए ? सेठियाजी: केवल पाव भर दूध लेना चाहिए। इससे पेट हल्का रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा और किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी । मैंने मन ही मन सोचा कि फिर पारणा ही क्या होगा ? इस सोच के बावजूद मैंने पारणे का क्रम बदल लिया । उपवास की तरह पारणा भी ठीक होने लगा । ऐसा क्यों हुआ ?" एत्थं पि अग्गहे चरे" - इस सूत्र को याद कर मैंने किसी प्रकार का आग्रह नहीं रखा, पकड़ नहीं रखी, मुझे समाधान मिल गया । " पूज्य गुरुदेव अनेक बार जनभावना को महत्त्व देने के लिए अपनी भावनाओं एवं विचारों को बदल लेते थे । एकांतवास के अवसर पर निःसृत ये पंक्तियां उनके उदार एवं निराग्रही व्यक्तित्व का स्पष्ट संकेत है - " मेरी इच्छा थी कि मैं साधना काल में दिन-रात मौन रखूं तथा सर्वदा एकांत में रहूं, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। जनता के विशेष आग्रह को मैं नहीं सका और आधा घण्टा प्रवचन करने की स्वीकृति दे दी । प्रातः और सायं कुछ समय लोगों के बीच बैठता हूं । प्रातः नौ बजे से चार बजे तक गृहस्थों से मौन रखता हूं।" जो व्यक्ति जितना अधिक तनाव में रहता है, उतना ही आग्रही होता है । आग्रही व्यक्ति हर बात को इतनी तान देता है कि समस्या को सुलझाना कठिन हो जाता है। गुरुदेव स्वयं तो आग्रह से कोसों दूर थे ही दूसरों को भी समय-समय पर आग्रह एवं अभिनिवेश से मुक्त होने की प्रेरणा देते रहते थे। जब कभी उनके सामने समाज, परिवार या व्यक्तिगत विवाद के मामले आते, वे दोनों पक्षों को सापेक्ष एवं अनाग्रही बनने की बात कहते। एक बार दो भाइयों में विवाद उत्पन्न हो गया। एक भाई कहने Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ साधना की निष्पत्तियां लगा कि गुरुदेव मंदिर भी जाते हैं । दूसरे ने कहा- 'गुरुदेव मंदिर नहीं जाते हैं ।' पक्ष और विपक्ष के रूप में दोनों भाई अपनी-अपनी बात पर डटे हुए थे। आखिर समझौते के लिए वे गुरुदेव के पास पहुँचे और उनको मंदिर में जाने की प्रार्थना की । यद्यपि गुरुदेव साधुचर्या के कारण काफी व्यस्त थे, फिर भी तत्काल उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मंदिर जाने की स्वीकृति पाकर मूर्तिपूजक दिगम्बर श्रावक ने विवाद को श्रीचरणों में प्रस्तुत करते हुए कहा- 'आज आपने मेरी बात रख दी। आज मंदिर में चर्चा चली कि आचार्य तुलसी केवल समन्वय की बातें करते हैं पर वास्तव में वे कट्टर हैं मंदिर में पैर तक नहीं रखते। मैंने कहा - 'नहीं ऐसी बात नहीं है। वे मंदिर में भी प्रवचन करते हैं । उनकी भ्रांति दूर करने के लिए मैंने आपको मंदिर में जाने के लिए निवेदन किया।' उनकी बात सुनकर गुरुदेव ने कहा- " यह बात मुझे मालूम होती तो मैं एक के बजाय सात बार मंदिर चला जाता। मैं नहीं चाहता कि मैं किसी के आग्रह का विषय बनूं। यह बात सत्य है कि मूर्तिपूजा में मेरा विश्वास नहीं है। एक अमूर्तिपूजक धर्मसंघ का आचार्य होते हुए भी मैं समन्वय और वस्तुस्थिति के अंकन की दृष्टि से अनुदार नहीं हूँ । मैं इस तथ्य को स्वीकार | करता हूँ कि मूर्ति कला की प्रतीक होती है, एकाग्रता में सहायक बनती है. तथा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती है । इन्हीं गुणों के कारण मैं समय-समय पर मंदिरों में जाता हूं, ध्यान करता हूं, वहां भजन गाता हूं और प्रवचन भी करता हूं। मैं मानता हूं कि विचारों के द्वैध में भी मैत्री और शालीनता का परिचय दिया जा सकता है। ऐसी बातों में उलझना साम्प्रदायिक अभिनिवेश को बढ़ावा देना है।' पूज्य गुरुदेव का चिंतन था कि उपासना-पद्धति सबकी भिन्न हो सकती है लेकिन अपनी ही उपासना-पद्धति को श्रेष्ठ साबित करना आग्रह है। एक बार कुछ विद्यार्थी साधु चर्चा में उलझ गए। कुछ का कहना था ध्यान श्रेष्ठ है तथा कुछ स्वाध्याय की महत्ता पर जोर दे रहे थे । गुरुदेव ने इस वार्ता को सुना और उद्बोधन देते हुए कहा- "एक साधक ध्यान करता है और दूसरा स्वाध्याय करता है। ध्यान और स्वाध्याय दोनों साधना के अंग हैं तथा निर्जरा के भेद हैं। तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो दोनों एक * Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १९० दूसरे के पूरक हैं। लेकिन स्वयं की अहंमन्यता से एक को ही प्रधानता दी जाए, यह अभिनिवेश साधना में विघ्न है।" इस विवाद का हल योगक्षेम वर्ष के इन प्रवचनांशों में भी खोजा जा सकता है * "कुछ व्यक्तियों की अवधारणा में तपस्या ही साधना है। कुछ लोग स्वाध्याय, जप आदि में साधना का दर्शन करते हैं तो कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो सेवा को साधना के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करते हैं। मेरा अभिमत इन मंतव्यों से कुछ भिन्न है। मैं यह मानता हूं कि एकांगी दृष्टि से की जाने वाली साधना अधूरी होती है। एक व्यक्ति ध्यान करता है। ध्यान करना अच्छी बात है पर स्वाध्याय के बिना ध्यान में नया विकास कैसे होगा? इसी प्रकार केवल जप या केवल स्वाध्याय के द्वारा अन्तर्दृष्टि का जागरण कैसे होगा?" * रुचिभेद की बात को मैं अस्वीकार नहीं करता। रुचि के आधार पर मुख्यता और गौणता की स्थिति को मान्यता दी जा सकती है पर किसी एक अंग को पकड़कर अन्य सभी अंगों से निरपेक्ष हो जाना बड़े लाभ से वंचित होना है। ध्यान साधना है तो स्वाध्याय, जप, पदयात्रा, प्रवचन, जन-सम्पर्क, सेवा आदि प्रवृत्तियां भी साधना है। अपेक्षा एक ही है कि इन सब प्रवृत्तियों के पीछे साधना का दृष्टिकोण रहे। दृष्टिकोण सम्यक् न हो तो ध्यान को साधना मानने का आधार भी लड़खड़ा जाता पूज्य गुरुदेव ने अनाग्रहवृत्ति के वैशिष्ट्य से संघ में तथा अपने जीवन में नए-नए उन्मेषों का उद्घाटन किया तथा अपने व्यक्तित्व को व्यापक बनाया। उनकी अनाग्रही वृत्ति उन सब रूढ़ एवं स्थिति-पालक लोगों को प्रेरणा देने वाली है, जिनके चिंतन में दूसरों के चिंतन का या नए चिंतन का कोई स्थान नहीं रहता। अपनी कमजोरी स्वीकार करने की क्षमता __ चलने वाला व्यक्ति गिर सकता है, स्खलित हो सकता है पर साधक वह है, जो स्खलित होकर भी अपनी गलती का अहसास करता है और भविष्य में उससे प्रेरणा लेकर सावधान हो जाता है। 'इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं'- अब मैं वह गलती पुन: नहीं दोहराऊंगा, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ साधना की निष्पत्तियां जो आज तक प्रमादवश करता आया हं। महावीर की यह आर्ष-वाणी उसके कण-कण में व्याप्त रहती है। स्खलना होने पर संशोधन का लक्ष्य रहे तो साधक उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहां से स्खलित होने की संभावना कम या क्षीण हो जाती है और विकास की रेखाएं स्वत: उद्घाटित हो जाती हैं। गुरुदेव श्री तुलसी अपनी हर अच्छी-बुरी प्रवृत्ति के प्रति जागरूक थे।अपनी हर कमजोरी को वे इतनी सहजता से जनता के समक्ष प्रस्तुत करते कि सुनने वाला हर श्रोता विस्मयविमुग्ध हो जाता। हर स्खलना या घटना उनको नया प्रतिबोध दे जाती थी। उनका मानना था कि हर व्यक्ति के पास एक ऐसी आंख होनी चाहिए, जिससे वह अपनी त्रुटियों को, कमियों को देख सके और करणीय के प्रति सचेत हो सके।' इस संदर्भ में ५ अगस्त १९६३ की डायरी का पन्ना उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जो अनेक लोगों के हृदय में अभिनव प्रकाश भरने वाला है- "मैं एक साधक हूं, मेरा लक्ष्य है वीतरागता। मैं अपने लक्ष्य की दिशा में निरंतर गतिशील रहना चाहता हूं। मेरा प्रस्थान सही दिशा में है या नहीं? मेरी गति में निरंतरता है या नहीं? अपनी साधना से मुझे संतोष है या नहीं? लक्ष्य की दूरी कम हो रही है या नहीं? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करते समय कभी-कभी मैं बहुत उत्साहित हो जाता हूं।संघीय दायित्व, व्यापक जनसंपर्क आदि कारणों से कई बार मेरी व्यक्तिगत साधना में शैथिल्य आ जाता है, उसे देखकर कभी-कभी निराश भी होता है। .....जीवन के शुक्ल पक्ष को देखना बहुत अच्छा लगता है पर मैं यह भी जानता हूं कि साधनाकाल में कोई भी साधक सिद्ध नहीं होता। यदि साधक अपने कृष्णपक्ष को नहीं देखेगा तो जीवन में पूर्णता नहीं आ पाएगी।....मेरी कमियों को बताने में लोग संकोच करते हैं, इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने अपने आपको देखना शुरू किया। आत्मनिरीक्षण के समय मेरे आंतरिक जीवन का जो चित्र निर्मित हुआ वह इस प्रकार है- "लोगों की दृष्टि में मैं बहुत ऊँचा हो सकता हूं, पर अपनी खुद की दृष्टि से जब मैं अपना चित्र खींचता हूं, तब प्रतीत होता है कि भीतर और बाहर में कितना अंतर है? जिस दिन यह अंतर सिमटेगा, भीतर और बाहर में एकता हो जाएगी, तभी जीवन सार्थक होगा।" निम्न घटना प्रसंग उनकी इसी परिष्कृत दृष्टि को उजागर करने वाले हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी - एक बार कपाट की चौखट से गुरुदेव को ठोकर लग गई। इस कारण वे संभल नहीं पाए और गिर पड़े। गुरुदेव तुरन्त उठे और संतों से बोले- "चलते-चलते मेरी दृष्टि गमनपथ से हट गई थी अतः मुझे ठोकर लग गई। ईर्यासमिति की विस्मृति का दंड मुझे मिल गया। एक-एक कदम देखकर आगे बढ़ना साधु जीवन का व्रत है। इस व्रत में एक क्षण की भूल ने मुझे सजग कर दिया।" सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में दूसरों की त्रुटि को ही देखता पर गुरुदेव का साधक मन हर घटना को अपने प्रमाद से जोड़कर नयी प्रेरणा ग्रहण कर लेता था। उनका मानना था कि गलतियों को छिपाने में दक्षता प्राप्त करने वाला विकास के पथ पर आरोहण नहीं कर सकता। जो अपनी बुराई को बुराई समझता है, वही बदलाव की दिशा में प्रस्थान कर सकता है। सन् १९५७ में बीदासर के पास एक गांव में गुरुदेव को जुखाम हो गया। संतों के आग्रह पर गुरुदेव ने एक टेबलेट लेकर विहार कर दिया पर गोली की प्रतिक्रिया हुई। बेचैनी बढ़ गयी। रात भर नींद भी नहीं आई। सवेरे गुरुदेव ने फरमाया- 'सामान्यतः जुखाम में तीन दिन दवा नहीं लेनी चाहिए पर मैंने विधि को भंग करके भूल की अतः दण्ड तो मुझे मिलना ही चाहिए। मुझे गोली की प्रतिक्रिया भुगतनी पड़ी।' दूसरों द्वारा की गयी सत्-असत् आलोचना को समभाव से सुनना महानता का असाधारण लक्षण है। विरोधियों द्वारा की गई आलोचना को गुरुदेव इतनी तटस्थता से सुनते कि कभी-कभी तो विरोधकर्ता स्वयं दंग रह जाता और श्रद्धाप्रणत हो जाता। दूसरों द्वारा की गई आलोचना को गुरुदेव प्रगति का कारण मानते थे। उनका मानना था कि स्वस्थ आलोचना प्रशस्ति से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे बुराइयों को निकालने का अवसर मिलता है। सामान्यतः दूसरों के द्वारा त्रुटि पर अंगुलिनिर्देश किए जाने पर व्यक्ति आगबबूला हो जाता है। ऐसे लोगों के लिए पूज्य गुरुदेव का यह चिंतन सोच की नयी खिड़कियां खोलने वाला है- "मैं चाहता हूं मुझे कोई मेरी गलती बताए तो मैं क्षमा का परिचय दूं और सहिष्णुता से उसे सुनं।" काव्य की पंक्तियों में साधकों को वे यही प्रतिबोध देते हैं अपनी दुर्बलता कमी, स्खलना और प्रमाद। पहचानें पूछे करें, परिष्कार अविवाद। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ साधना की निष्पत्तियां सफलता एवं प्रगति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने द्वारा अपने को मापता रहे और स्वयं की स्खलनाओं का अहसास करता रहे। गुरुदेव तुलसी का स्पष्ट मंतव्य था कि गलती होना कोई बड़ी बात नहीं पर उसको स्वीकार न करना या उस पर आत्मग्लानि न करना मूर्खता है।" साधना के पथ पर चरणन्यास करने पर भी यदि साधक अकरणीय कार्यों से निवृत्त नहीं होता है तो वह अपने लक्ष्य के दर्शन नहीं कर सकता। ___ अतीत का प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति ही वर्तमान को सुधार कर भविष्य में नयी प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। पूज्य गुरुदेव ने अतीत की चिंता का भार न ढोकर उससे नया बोध-पाठ लिया। उम्र के नवें दशक में वे समय के अंकन के बारे में अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहने लगे- "मैं बहुत बार सोचता हूं कि बालवय और किशोरवय में समय का मूल्य समझ पाता तो आज न जाने कहां पहुंच जाता। कभी-कभी मन में आता है कि बचपन लौट आए पर वह अब लौटने वाला नहीं है। यद्यपि मैंने अपने बचपन को यों ही नहीं खोया है फिर भी जितना उपयोग होना चाहिये था वह नहीं हो पाया।" इसी प्रकार धर्म को व्यापक बनाने के संदर्भ में अपनी असमर्थता को डायरी के पन्नों में वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- "मेरा हृदय यह कह रहा है कि धर्म को ज्यादा से ज्यादा व्यापक बनाना चाहिए पर समूचे संघ में मैं इस भावना को भरने में समर्थ नहीं हुआ। हो सकता है मेरी भावना में इतनी मजबूती नहीं हो अथवा और कोई कारण हो।" . सामान्यतया व्यक्ति अपने अतीत के उज्ज्वल पक्ष को याद रखता है और कृष्णपक्ष को छिपाना चाहता है या जल्दी भूल जाता है। पूज्य गुरुदेव को अपने बचपन की छोटी-बड़ी भूलें ऐसे याद थीं, मानो वे कल ही घटित हुई हों। मेरा जीवन: मेरा दर्शन' पुस्तक में गुरुदेव ने अनेक प्रसंगों की चर्चा की है, उनमें से यहां एक प्रसंग प्रस्तुत किया जा रहा है। मुनि अवस्था में गुरुदेव पूज्य कालूगणी की सन्निधि में व्याख्यान कर रहे थे। व्याख्यान के प्रारम्भ में उन्होंने एक गीत गाया औ जुगजाल सुपन की माया, इस पर क्या गरभाणा रे। घट गई आब रयण नहीं पावै, क्या राजा क्या राणा रे॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' `शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी साधना १९४ ढाल सुनकर पूज्य कालूगणी ने फरमाया-' कैसे गाते हो ? एक पद्य में पांच गलतियां हैं। जुगजाल नहीं, जगजाल है। सुपन नहीं, स्वपन है । गरभाणा नहीं, गरवाना है। आब नहीं आउ है, रयण नहीं, रहण है । ' पूज्य गुरुदेव को एक नया प्रतिबोध मिल गया। मुनि अवस्था में गुरुदेव ने कालूगणी के निर्देश से संस्कृत व्याकरण सीखना शुरू किया। गुरुदेव ने कालूगणी के पास चंद्रिका कंठस्थ करनी प्रारम्भ की। गुरुदेव प्रातः काल प्रतिलेखन के बाद सूर्योदय के समय तक कालूगणी के पास पढ़ने जाते। उस समय की मनःस्थिति पर अनुताप की अभिव्यक्ति “संस्मरणों के वातायन" में पूज्य गुरुदेव के शब्दों में ही पठनीय है- “ उस समय मेरी इच्छा रहती थी कि मैं साध्वियों के सामने पढूं ताकि वे समझें कि मुझ पर गुरुदेव की कितनी कृपा है और मैं कितना अध्ययन करता हूं। साध्वियों को दिखाने के लिए महीनों तक गुरुदेव के पास सूर्योदय के समय पढ़ने का क्रम चलाया।' 44 मैत्री दिवस के अवसर पर जब गुरुदेव क्षमायाचना करते तो लगता मानो क्षमा स्वयं साकार हो गयी हो। अपनी मजबूरी का उल्लेख भी वे इतने मार्मिक शब्दों में करते थे कि वह भी उनकी महानता की झलक बन जाती थी। यहां उनके द्वारा प्रतिदिन लिखे जाने वाले प्रेरक वाक्य का एक उद्धरण देना असंगत नहीं होगा - " मैं कभी-कभी क्लान्त होता हूं, कभी-कभी उदास या निराश भी होता हूं। इसका मूल कारण मेरी अपनी दुर्बलता ही है । ' श्रद्धालुवर्ग उनकी एक कृपा दृष्टि को पाकर निहाल हो उठता था पर कभी-कभी व्यस्तता या किसी अन्य कारण से जब गुरुदेव लोगों की . वंदना को स्वीकार नहीं कर पाते तो श्रद्धालुओं का मानस खिन्न हो जाता। यद्यपि यह उनकी भूल नहीं, अपितु मजबूरी थी पर इसे वे अपनी भूल स्वीकारते हुए कहते थे— “मैं कभी-कभी वंदना की स्वीकृति भी नहीं दे पाता। मेरी स्वीकृति श्रद्धालुओं के लिए निधि हो सकती है पर मैं व्यस्तता या विवशता के कारण स्वीकृति देना भी भूल जाता हूं। इसके लिए मैं अपने आपको दोषी कहूं तो कह सकता हूं।' लोग उन्हें भगवान् मानकर श्रद्धा अर्पित करते पर वे कहते- 'मैं Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ साधना की निष्पत्तियां 44 सिद्ध नहीं, साधक हूं।' लोग उन्हें पूर्ण मानकर मार्गदर्शन प्राप्त करने आते पर वे कहते थे— “ मनुष्य सब दृष्टियों से पूर्ण नहीं होता। कुछ न कुछ अपूर्णताएं रह ही जाती हैं । मेरे में भी कुछ अपूर्णताएं हैं । ' सत्योन्मुख व्यक्ति ही अपनी अपूर्णता का अहसास कर सकता है क्योंकि वह सत्य की विराटता से परिचित होता है । वह मानता है कि वीतराग व्यक्ति ही पूर्ण हो सकता है, अन्य नहीं। उनका मंतव्य था कि प्रारम्भिक स्टेज में साधक सब बातों में दक्षता प्राप्त करे किन्तु यदि भूल छिपाने में दक्षता प्राप्त करता है तो यह बहुत बड़ी माया और आत्मप्रवंचना है ।" जो साधक यह मानता है कि मुझसे कभी भूल होती ही नहीं, यह उसका झूठा अहंकार है । ऐसे लोगों को प्रेरणा देने के लिए उनका कवि मानस बोल उठा औरों की भूलों को भूलें, अपनी भूल सुधारें । कभी न करता मैं गलती, इस अहं वृत्ति को मारें ॥ जो नेता अपने अनुयायियों से केवल प्रशंसा सुनना चाहे, वह कभी उनके मन में अपना विशिष्ट स्थान नहीं बना पाता। असफलता एवं स्खलना सुनने की क्षमता भी उसमें होनी चाहिए। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी द्वारा जब उनका यात्रा - विवरण लिखा गया तो उस पर टिप्पणी करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- " तुमने श्रद्धा के कारण सफलता का पक्ष अधिक स्पर्श किया पर इससे यथार्थ रूप सामने नहीं आता। दूसरा पक्ष जो असफलता का है, उसे भी अभिव्यक्ति देनी चाहिए, जिससे पाठक को वास्तविकता मिले किन्तु प्रायः ऐसा नहीं होता और इसीलिए लोग इतिहास को अधूरा मानते हैं।' इन शब्दों में उनका साधक हृदय बोल रहा है। व्यक्ति पूर्वाग्रह एवं अहं से इतना जकड़ा हुआ होता है कि अपनी गलती का अहसास होने पर भी उसे स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पाता। इस संदर्भ में खलील जिब्रान का अनुभवपूत वक्तव्य सबको आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देने वाला है - "मैंने कुछ क्षणों में क्षुद्रता का अनुभव किया। जब मैंने अपराध किया और अपराध का समर्थन करने के लिए पाप पक्ष का समर्थन किया।" अपनी क्षुद्रता देखना महानता का लक्षण है । साधक व्यक्ति ही अपनी भूल या त्रुटि के प्रति जागरूक हो सकता है। जहां भी पूज्य गुरुदेव को अपने विचारों में परिवर्तन की अपेक्षा हुई या अपनी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . .. १९६ अल्पज्ञता का अहसास हुआ, उसे वे तत्काल समूह के मध्य प्रकट कर देते थे। इस संदर्भ में यहां कुछ प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किए जा रहे हैं - "कवि साहित्यकार आदि लेखन के संदर्भ में जब मूड की बात करते तो यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी। मैं मानता था कि व्यक्ति लिखने के लिए संकल्पित हो जाए तो किसी भी समय लिखा जा सकता है। किन्तु 'व्यवहारबोध' लिखने का संकल्प वर्षों तक फलित नहीं हुआ। अब मैं सोचता हूं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनुकूलता के बिना कोई काम सम्पादित नहीं होता। लेखक का मूड भी इन्हीं में से किसी का अंग होगा।" एक बार पूज्य गुरुदेव के पैर की बिवाई फट गई, उस अनुभव को सुनाते हुए गुरुदेव फरमाते हैं- "किसी संत की बिवाई फटती तो मैं कहता- "इतने बड़े पैर में यदि बिवाई फट गई तो क्या हुआ? पर एक बार मेरे पैर की बिवाई फट गई तब मुझे महसूस हुआ कि यह लोकोक्ति सत्य ही है- 'जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई' मुझे लगता है कि जब कभी मैंने स्वयं को बड़ा माना, तत्काल शिक्षा मिल गई।" उत्तरप्रदेश की यात्रा के दौरान गुरुदेव इलाहबाद पधारे। वहां प्रवचन में गुरुदेव ने विस्तार से जैन मुनि की भिक्षाचर्या की अवगति दी। प्रवचन में राजर्षि टण्डन भी उपस्थित थे। प्रवचन के बाद उन्होंने गुरुदेव को अपने घर भिक्षा के लिए आग्रह किया। गुरुदेव स्वरूपरानी पार्क से जैन धर्मशाला पधार गए। साधु-साध्वियों की भिक्षा एवं आहार लगभग २ बजे सम्पन्न हुआ। आहार सम्पन्न होने के बाद गुरुदेव को टण्डनजी की प्रार्थना याद आई। संतों से पूछने पर पता चला कि उनके घर भिक्षा के लिए कोई नहीं गया था। गुरुदेव ने सोचा अब तो उनके वहां सबने भोजन कर लिया होगा। फिर भी जब मैंने उनकी प्रार्थना स्वीकार की है तो इस विस्मृति और प्रमाद का प्रायश्चित्त करने के लिए मुझे स्वयं वहां जाना चाहिए। गुरुदेव संतों के साथ टण्डनजी के यहां पहुंचे। टण्डनजी सपरिवार साधुओं का इंतजार कर रहे थे। गुरुदेव ने वहां पहुंचते ही खेद व्यक्त करते हुए कहा'टण्डनजी! आपने भिक्षा के लिए अनुरोध किया था पर हम भूल गए। अब तो आप खाना खा चुके होंगे।' टण्डनजी ने कहा- 'आचार्यजी ! आज हम पहले खाना कैसे खा लेते? आपने प्रवचन में कहा था कि जैन साधुओं के Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ साधना की निष्पत्तियां लिए अतिरिक्त भोजन नहीं बनाना है। अपने लिये बने भोजन में से कुछ हिस्सा देना है। यदि हम भोजन कर लेते तो फिर भिक्षा में क्या देते? अभी तक परिवार के किसी सदस्य ने भोजन नहीं किया है।' गुरुदेव ने उनके यहां अपने हाथ से भिक्षा ग्रहण की। उक्त घटना से स्पष्ट है कि भूल या विस्मृति का परिमार्जन करने में उनकी दृष्टि कितनी जागरूक थी। तेरापंथ की नियति है कि यहां अहंकारी का अस्तित्व टिक नहीं सकता। तेरापंथ में आज तक अनेक विद्वान् मुनि अपने अहंकार के कारण संघ से पृथक् हुए या संघ से पृथक् कर दिए गए। एक विद्वान मुनि ने असहनीय त्रुटि की। गुरुदेव ने उन्हें संभलने का अवसर दिया। पर वह अपने अहं के कारण गुरुदेव के निर्देशों को टालता रहा। गुरुदेव ने उसे संघ से पृथक् कर दिया। उस समय गुरुदेव को भीषण आन्तरिक संघर्ष का सामना करना पड़ा। तत्कालीन अपनी मनःस्थिति को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'यह वर्ष मेरे लिए भारी रहा। अगर मैं कहूं कि उन बहिष्कृत या उनको सहयोग देने वाले व्यक्तियों के प्रति मेरे मन में कुछ नहीं आया तो यह औपचारिक बात होगी। मेरे मन में छद्मस्थतावश आक्रोश या अन्यथा भावना आई है अतः मैं उन सबसे क्षमायाचना करता हूं। यद्यपि आक्रोश मुझ में पानी की लकीर जैसे अधिक देर टिकता नहीं, फिर भी मुझे क्षमायाचना करनी ही चाहिए।' भूल-स्वीकार एवं उसका परिमार्जन बिना साधना के संभव नहीं है। पूज्य गुरुदेव के जीवन के ये प्रेरक संस्मरण हर साधक को आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देते हैं तथा दूसरों की त्रुटि न देखकर स्वयं की भूल देखने का सबक सिखाते हैं। अप्रतिबद्धता नाव पानी में रहे, यह जग विख्यात है किन्तु यदि नाव में पानी आ जाए तो खतरनाक स्थिति है। साधक संसार में रहे यह ठीक है किन्तु यदि साधक के मानस में संसार बसने लग जाए तो साधना निस्सार हो जाती है। महावीर ने साधक को कमल से उपमित किया है। जैसे कमल कीचड़ में रहकर भी उससे अलिप्त रहता है, वैसे ही साधक संसार में रहता हुआ भी संसार से निर्लिप्त रहता है। यही कारण है कि उसका आनन्द पदार्थ के Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १९८ साथ प्रतिबद्ध नहीं होता। पदार्थ मिलने या न मिलने पर भी उसकी प्रसन्नता एवं आनन्द में कोई अन्तर नहीं आता । पूज्य गुरुदेव निर्लिप्तता के साकार प्रतिरूप कहे जा सकते हैं। वे न किसी पदार्थ से लिप्त थे न पद-विशेष से । न शरीर में आसक्त थे न शिष्य-सम्पदा में । न प्रतिष्ठा प्राप्ति में प्रतिबद्ध थे, न सम्प्रदाय विशेष से । यही कारण है कि अल्पतम साधन-सामग्री में भी वे अपने आनन्द को मन्द नहीं होने देते थे । धर्मसंघ के शिखर पुरुष होने पर भी वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कभी किसी पर भार डालना नहीं चाहते थे। साधक किसी पदार्थ या व्यक्ति से प्रतिबद्ध रहे, यह गुरुदेव को रुचिकर नहीं लगता था। उनका मानना था कि विवशता या प्रतिबद्धता व्यक्तित्व का दुर्बल पक्ष है, वह चाहे खान-पान सम्बंधी हो या आदत सम्बंधी । साधक की प्रतिबद्धता साधना है, स्थिति या परिस्थिति नहीं । पदार्थ या परिस्थिति से बंधने वाला साधक साधना के क्षेत्र में आगे गति नहीं कर सकता । व्यक्ति की जीवन्तता इसी में है कि साधक जीवन भर अप्रतिबद्ध और निर्लिप्त बना रहे।' अच्छे से अच्छा पदार्थ एक या दो दिन लेने के बाद तीसरे दिन गुरुदेव उसे तत्काल छोड़ देते थे। संतों का आग्रह भी उनके संकल्प को कमजोर नहीं कर पाता था । सन् १९९६ लाडनूं का घटना-प्रसंग है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दोपहर के समय डॉक्टर ने गुरुदेव को कुछ रस लेने का परामर्श दिया। तीन दिन गुरुदेव ने रस ग्रहण किया। चौथे दिन लेने से इंकार कर दिया। साध्वियों ने बहुत प्रार्थना की- आज गुरुदेव कृपा करके रस ग्रहण करें' । गुरुदेव ने फरमाया - " शरीर की आवश्यकता न होने पर भी पदार्थ ग्रहण करना प्रतिबद्धता और पराधीनता है । 'रामोद्वर्नाभिभाषते ।' मेरा संकल्प पक्का है अतः जो यह पथ्य लाया है, वही ग्रहण करे, मैं नहीं करूंगा।" बिना दृढ़ संकल्प के इस अप्रतिबद्धता को नहीं साधा जा सकता। अमुक पदार्थ मिलना ही चाहिए, अमुक परिस्थिति में ही काम किया जा सकता है, ऐसी प्रतिबद्धता को वे साधना का विघ्न मानते थे पर सत्य, संयम और स्वभाव की प्रतिबद्धता को वे हर क्षण काम्य मानते थे । आचार्य महाप्रज्ञका अनुभव है कि यदि पदार्थ के साथ साधक की कोई प्रतिबद्धता Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ साधना की निष्पत्तियां न हो तो व्यर्थ विकल्पों को उभरने का अवकाश ही नहीं मिलता। आदमी किसी के साथ बंधता है, तभी वह बेचैनी को निमंत्रण देता है। जो व्यक्ति अप्रतिबद्ध हो, अनासक्त हो, किसी के साथ बंधा हुआ न हो, उसे दुःख क्यों होगा? वह किसकी चिन्ता करेगा और किसलिए करेगा?" कहा जा सकता है कि सहज, शांत और सुखी जीवन का राज अप्रतिबद्धता में अन्तर्निहित है। सन् १९६२ की घटना है। विहार के दौरान बार्गीलिया गांव में स्थान का अत्यन्त अभाव था। जिस मकान में गुरुदेव विराज रहे थे, वहां पक्का फर्श नहीं था। फर्श के लिए चौके लाए हुए पड़े थे। संत पट्ट की खोज में बाहर जाने लगे पर गुरुदेव ने फरमाया- 'दो तीन चौकों को ठीक से लगा दो आज इसी पर विश्राम करेंगे। मुझे ऐसा मौका कभी-कभी ही मिलता है। 'मही रम्या शय्या, विपुलमुपधानं भुजलता' का साक्षात् अनुभव आज करना चाहिए। संत उनकी इस निस्पृहता एवं अप्रतिबद्धता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। इसी प्रकार सन् १९६७ की गुजरात यात्रा के दौरान गुरुदेव मोमायमोरा गांव पधारे। जिस आवासस्थल में गुरुदेव विराजे, वहां की धरती बहुत उबड़-खाबड़ थी। संत तख्त लाने हेतु जाने लगे पर जब गुरुदेव को ज्ञात हुआ कि तख्त बहुत भारी है तो संतों को आदेश की भाषा में कहा- "दुनिया में लाखों लोग नीचे जमीन पर सोते हैं फिर मैं कौन सा विशेष हूं। यह निर्लिप्तता एवं आकिंचन्य का भाव उन्हें विशेष साधना से प्राप्त था। अवस्था प्राप्त होने पर भी शारीरिक सेवा की दृष्टि से उन्होंने स्वयं को प्रतिबद्ध नहीं बनाया। ७० वर्ष की उम्र में लम्बे विहारों में भी तेलमालिश या पैर दबवाने की सेवा ग्रहण करना उनको रुचिकर नहीं लगता था। ७५ वर्ष की उम्र में अपनी मानसिकता को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'दक्षिण यात्रा के दौरान मैं कभी-कभी संतों से पैर दबवा लिया करता था पर मैंने इसे बुढ़ापे का लक्षण समझा और वैयावृत्य लेना बंद कर दिया।' यह अप्रतिबद्धता और ताजगी ही उनके अक्षुण्ण यौवन का राज थी। अणुव्रत विहार से गुरुदेव का विहार हो रहा था। अचानक श्वास Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २०० प्रकोप के कारण सोने, बैठने, बोलने में अवरोध होने लगा। उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ। सर्दी के दिनों में जब भी जुखाम लगता या कफ बढ़ जाता तो उनकी श्वास-नलिका प्रभावित हो जाती थी। डॉक्टरों ने परामर्श दिया'आप एलोपैथी गोली का प्रयोग करवा लिया करें'। गुरुदेव ने फरमाया'यह प्रतिबद्धता अच्छी नहीं है। किसी भी चीज के लिए विवशता साधना का पलिमंथु है। रोग होना शरीर का धर्म है पर इसे हमेशा दवा लेकर परवश बनाना मुझे पसंद नहीं । व्यक्तित्व की जीवटता इसी में है कि जीवन भर स्वस्थ होकर काम करते रहें।' श्वास के लिए उपयोगी बतायी गयी एलोपैथिक दवा के लिए गुरुदेव ने इन्कार कर दिया। काफी कष्ट एवं कठिनाई का अनुभव हुआ पर गुरुदेव के मन पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। पूज्य गुरुदेव के हाथों में अनेक अंतेवासी शिष्य दिवंगत हुए पर गुरुदेव के मानस पर कोई असर नहीं हुआ। वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे- 'कांस्य का बर्तन स्नेह आदि से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मोहाविल संसार में रहता हुआ भी मैं निर्लिप्त रहने का प्रयास करता हूं तथा दूसरों को भी इसकी प्रेरणा देता रहता हूं।' सन् १९६२ का घटना प्रसंग है। मातुश्री वदनाजी गुरुदेव के उपपात में बैठी सेवा कर रही थीं। विहार का समय निकट आ रहा था। वे अपने आपको मातृहृदय के स्नेह एवं पुत्रमोह से विलग नहीं कर सकीं। उन्होंने विगलित हृदय से गुरुदेव को प्रार्थना की- 'गुरुदेव! ग्रीष्म ऋतु है। अतः लम्बे विहार करके शरीर के साथ अन्याय न करें।' गुरुदेव ने स्मित हास्य से मातुश्री को समझाते हुए कहा'क्या आप नहीं जानतीं कि गौतम स्वामी ने भगवान् के शरीर पर मोह किया, उससे उनको केवलज्ञान आते-आते रुक गया। आपको भी मोह छोड़ना है। यदि कभी सताए तो इसे सत्स्वाध्याय या सच्चिंतन से भगा देना है। यह प्रतिबोध सुनकर मातुश्री की आंखों में हर्ष एवं स्नेह के आंसू बहने लगे। पर पास में खड़ा समुदाय गुरुदेव के निर्लिप्त एवं वीतरागी मानस के प्रति प्रणत हुए बिना नहीं रह सका। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी उनकी इस विशेषता से मंत्रमुग्ध थे। पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व का आकलन वे इन शब्दों में करते हैं- 'मैं Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ साधना की निष्पत्तियां लेखक हूं, कलम चलाना मेरा काम है अतः किसी के प्रति सहज झुकने को तैयार नहीं हूं। मैं अच्छा खासा आलोचक हूं..... इन सबके बावजूद आचार्यश्री के व्यक्तित्व के प्रति मेरी सच्ची आत्मीयता है। वे सत्य की प्राप्ति में लगे हुए हैं। उनकी कुछ सीमाएं हैं, किन्तु वे किसमें नहीं होती, अस्तित्व मात्र में होती हैं । पर आचार्यश्री में उन पर चिपटे रहने का आग्रह नहीं है। लाखों व्यक्ति उनके पीछे लगे हुए हैं अतः कुछ बंधन सा हो जाता है किन्तु आचार्यश्री में तेज और सत्य की लगन है अत: वे इसे बंधन नहीं बनने देते।' . _ हर प्रतिकूल परिस्थिति को उनका निर्लिप्त एवं नि:संग व्यक्तित्व अनुकूलता में ढाल लेता था। राशमी गांव में विरोधी लोगों ने गुरुदेव को ठहरने के लिए स्थान नहीं दिया। आखिर एक स्थान पर ठहरने की व्यवस्था हो गयी। श्रद्धालु लोगों के मन में रोष उभर आया पर गुरुदेव ने उन्हें सम्बोध देते हुए कहा- "स्थान न देने पर हमें रोष क्यों हो? जिस दिन से हमने साधना-पथ स्वीकार किया हमारा कोई स्थान है ही नहीं। यदि यह जगह भी नहीं मिलती तो मैं वृक्ष के नीचे आनन्द से समय बिता देता। स्थान मिलने और न मिलने पर यदि खुशी या रोष आए तो फिर साधना ही क्या है? मेरी प्रकृति ही ऐसी है कि मैं किसी भी व्यक्ति या वस्तु में प्रतिबद्ध होकर व्यथा से विचलित नहीं होता।" _ व्यक्ति एवं वस्तु की प्रतिबद्धता की भांति साम्प्रदायिक प्रतिबद्धता भी व्यक्ति को दिग्मूढ़ कर देती है। केवल सम्प्रदाय में प्रतिबद्ध व्यक्ति सत्य के दर्शन नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव एक सम्प्रदाय विशेष के अनुशास्ता थे पर साम्प्रदायिकता से कोसों दूर थे। वे मानते थे- 'व्यक्ति और वस्तु की प्रतिबद्धता से भी बड़ा खतरा है सम्प्रदाय की प्रतिबद्धता। जहां साधना की बात गौण हो जाए, आचार का पलड़ा हल्का हो जाए, उस संघ से प्रतिबद्ध रहकर साधक क्या पाएगा? साधना में सहयोग न मिलने पर भी केवल सुविधा के नाम पर किसी सम्प्रदाय से बंधकर रहना खतरा है। इस खतरे से वही बच सकता है, जो अप्रतिबद्धता की मूल्यवत्ता से परिचित होता है।' अप्रतिबद्ध दृष्टिकोण का ही फलित है कि उनके कार्यक्रम में समय-समय पर सभी धर्माचार्य उपस्थित होते थे और वे स्वयं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २०२ भी उनके द्वारा आमंत्रित कार्यक्रमों में भाग लेते थे । पूज्य गुरुदेव का कहना था कि मैं सम्प्रदाय में रहता हूं पर सम्प्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता, यही कारण है कि जहां साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं, वह कार्यक्रम किसी भी सम्प्रदाय द्वारा आयोजित हो, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए मैं उनके साथ हूं और रहूंगा। मैं अपने सम्प्रदाय को मानवता से अलग नहीं मानता हूं। जहां भी मुझे संम्प्रदाय में कोई बात मानवता से अलग प्रतीत होती है, वहां पर मैं उसे मोड़ दे देता हूं।' उनकी साम्प्रदायिक अप्रतिबद्धता का मूर्त रूप अणुव्रत में देखा जा सकता है। अणुव्रत जाति, वर्ण, लिंग, रंग एवं सम्प्रदाय सबसे अप्रतिबद्ध है । पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके सार्वभौम एवं सार्वजनिक स्वरूप को प्रकट करने वाला है - 'किसी भी सम्प्रदाय में रहता हुआ व्यक्ति अणुव्रती बन सकता है। किसी भी जाति या भाषा से जुड़ा हुआ व्यक्ति अणुव्रतों की साधना कर सकता है। किसी भी रूप में परमात्मा को मानने वाला व्यक्ति अणुव्रत का आचरण कर सकता है और परमात्मा की सत्ता में विश्वास न करने वाला व्यक्ति भी अणुव्रती बनने का गौरव अर्जित कर सकता है। अप्रतिबद्ध होते हुए भी पूज्य गुरुदेव सृजनधर्मिता से सदैव प्रतिबद्ध रहे । नवनिर्माण के प्रति उनका आकर्षण सदैव बढ़ता रहा। सृजनधर्मिता के प्रति तीव्र अनुबंध उन्हीं की अभिव्यक्ति में पठनीय है- "सृजन मेरी अभिरुचि है। मैं प्रारंभ से ही सृजनधर्मिता से प्रतिबद्ध रहा हूं । मेरी यह प्रतिबद्धता अक्षरविन्यास से शुरू होकर व्यक्ति निर्माण तक पहुंच गई है ।" अभय साधक का सबसे बड़ा सुरक्षाकवच है - अभय । इस कवच को पहनकर वह हर खतरे से स्वयं को सुरक्षित रख सकता है, किन्तु बिना शक्ति एवं सहिष्णुता के व्यक्ति अभय का विकास नहीं कर सकता । 'भीतं खु भया अइंति लहुयं, 'भीतो भूतेहिं घेप्पइ' इत्यादि आर्षवाणी स्पष्ट करती है कि भयभीत को ही भय सताता है तथा भूत भी उसे ही पकड़ते हैं, जो भयभीत होता है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां गुरुदेव तुलसी ने अभय को अपना आदर्श माना । वे अपने संकल्प की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते थे- 'मैं तीर्थंकर का अनुगामी हूं। उनकी अनासक्ति और अभय - साधना में मेरी आस्था है, मैं उसका अभ्यास एवं प्रयोग कर रहा हूं।" इसी संकल्प का प्रतिफल था कि बड़े से बड़े विरोध एवं झंझावात में भय की लहर भी उनके मानस का स्पर्श नहीं कर पाती थी। हर जोखिम का स्वागत करने में वे आनन्द का अनुभव करते थे । अभय-साधना की सिद्धि से असंभव जैसा शब्द उन्होंने अपने मानस से बाहर निकाल दिया था। हर बाधा एवं अवरोध को चीरकर नया सूर्य उगाना उनकी अभिरुचि का विषय था । आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में अभय का बाह्य लक्षण है- सहज प्रसन्नता । अभय साधक दुःख को जानता है लेकिन उसे भोगता नहीं अतः कोई भी परिस्थिति उसे भयभीत या विचलित नहीं कर पाती । " २०३ 44 1 कुछ लोगों ने गुरुदेव के पास आकर आक्रोश भरी भाषा में कहा- 'आप संस्कार-निर्माण का कार्य करें किन्तु यदि लोगों को जैन बनायेंगे तो रायपुर और चूरू की घटनाएं दुहराई जा सकती हैं।' गुरुदेव ने साहस के साथ उत्तर देते हुए कहा- 'मेरा किसी को जैन बनाने का लक्ष्य नहीं है। मेरा यह विश्वास भी नहीं है कि किसी के बनाने से कोई कुछ बन जायेगा। मेरा लक्ष्य है आदमी को आदमी बनाना । अपने आप ही कोई कुछ बनता है और इसके लिए रायपुर, चूरू की घटनाएं पांच सौ बार भी दुहराई जाती हैं तो मुझे कोई भय नहीं है । मेरा कार्य मनुष्य को संस्कारी बनाना है । जिन लोगों को दलित और उपेक्षित कर दिया है, उन्हें ऊपर उठाना है, इसके बाद वे क्या बनते हैं, इसकी चिन्ता मैं क्यों करूं?" यही प्रसंग यदि किसी साहसहीन, भयभीत व्यक्ति के सामने उपस्थित होता तो वह स्वीकृत पथ से विचलित हो जाता। गुरुदेव की इस विशेषता का अंकन आचार्य महाप्रज्ञजी के शब्दों में पठनीय है- "सत्य और अभय की समन्विति ने आचार्य श्री को यथार्थ कहने की शक्ति दी है। इसीलिए उनमें अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार करने और दूसरों की दुर्बलताओं को उन्हीं के सन्मुख कहने की क्षमता विकसित हुई है।" भगवान् महावीर कहते हैं कि 'भीतो भरे न नित्थरेज्जा' अर्थात् भयभीत आदमी किसी वजनी दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता और न Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २०४ ही लकीर से हटकर कुछ कार्य करने की बात सोच सकता है। पूज्य गुरुदेव की संकल्पशक्ति और मनोबल इतना प्रबल था कि वे जिस पथ पर चरण बढ़ा देते फिर भयभीत होकर पीछे मुड़ने की बात नहीं सोचते । वे अनावश्यक वीरता दिखाने के पक्षपाती नहीं थे पर परिस्थिति के सामने कायरता या ... दीनता दिखाना भी उन्हें काम्य नहीं था । वे अपने आदर्श को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते थे- 'हम जिस रास्ते पर चलते हैं, उसमें बाधा न आए, ऐसी कल्पना करने वाले हम कौन होते हैं ? रास्ता खुला है, उस पर हम भी आ रहे हैं, बाधाएं भी आ रही हैं। उनको देखकर हम भयभीत क्यों बनें ? हमारी क्षमता इतनी अधिक हो, हमारी धृति इतनी प्रगाढ़ हो कि विघ्न-बाधाओं की उपस्थिति में भी किसी प्रकार की विचलन न हो। " पूज्य गुरुदेव कहते थे - " जब तक संभव होता है, मैं विरोधों और संघर्षों से बचता रहता हूं । किन्तु जब वे सामने आ जाते हैं तब मुझे अज्ञात शक्ति मिलती है और मैं उन्हें पूरी शक्ति से प्रतिहत करने का प्रयत्न करता हूं।' इस आदर्श के पीछे संस्कृत का यह सुभाषित उनके मानसपटल पर अधिक सक्रिय रहा " तावद् भयाद्धि भेतव्यं यावद् भयमनागतम् । आगतं तु भयं वीक्ष्य, प्रहर्त्तव्यमशंकया ॥ भय से तभी तक डरना चाहिए, जब तक वह सम्मुख उपस्थित न हो । भय से सामना होने पर निःशंक होकर उसका मुकाबला करना चाहिए । एक पाश्चात्त्य विद्वान् का कहना है कि मूर्ख भय से पहले डरता है, कायर भय के समय तथा साहसी भय के बाद डरता है । कहने का तात्पर्य यह है कि साहसी व्यक्ति हर घटना से नयी प्रेरणा ग्रहण करता है, जिससे वैसी परिस्थिति पुनः उपस्थित न हो । जैन विश्व भारती में एक रूसी दम्पत्ति गुरुदेव की उपासना में उपस्थित हुए। बातचीत के दौरान उन्होंने गुरुदेव से पूछा - 'जिस समय आप दक्षिण में गए, उस समय हिन्दी का भयंकर विरोध चल रहा था। क्या आपको दक्षिण यात्रा के दौरान भय की अनुभूति नहीं हुई ?' गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'भय किस बात का ? हम तो अपने तरीके से कार्य कर रहे थे। हमारी भाषा प्रेम की भाषा थी अतः विरोध होने का प्रश्न ही नहीं उठता।' रूसी दम्पत्ति आश्चर्यचकित होकर गुरुदेव की साहसी मुखमुद्रा " Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ साधना की निष्पत्तियां को देख रहे थे। उन्होंने फिर प्रश्न पूछते हुए कहा- 'आपको इतनी शक्ति कहां से मिलती है ? क्या प्रथम गुरु आचार्य भिक्षु से मिलती है ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'भिक्षु से तो मिलती ही हैं । मेरे परमगुरु कालूगणी से भी मुझे प्रेरणा मिलती रहती है।' रूसी दम्पत्ति इस उत्तर से . पूर्ण संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने फिर प्रतिप्रश्न करते हुए कहा - 'इस अभयसाधना का दूसरा भी कोई रहस्य होना चाहिए क्योंकि हम तो थोड़ी सी विपरीत स्थिति में घबरा जाते हैं।' गुरुदेव ने फरमाया- - गुरुओं की शक्ति के साथ मैं अपने मनोबल और हृदय को मजबूत रखता हूं। जब भय की या प्रतिकूल परिस्थिति सामने आ जाती है तो मैं उसका मुकाबला करने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाता हूं।' पूज्य गुरुदेव के इसी साहसी व्यक्तित्व का रेखांकन सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने इन शब्दों में किया है - 'एक अपराजेय वृत्ति उनमें पाई गई, जो परिस्थिति की ओर से अपने में शैथिल्य लेने को तैयार नहीं है। बल्कि अपने आस्था, संकल्प - बल पर उन्हें बदल डालने को तत्पर है। धर्म के परिग्रहहीन आकिंचन्य के साथ इस पराक्रमपूर्ण सिंहवृत्ति का योग अधिक नहीं मिलता । साधुता निवृत्त और निष्क्रिय हो जाती है, वही जब प्रवृत्त और सक्रिय हो तो निश्चय ही मन में आशा उत्पन्न होती है । ' जो व्यक्ति कभी प्रमाद नहीं करता, वही अभय की साधना कर सकता है क्योंकि प्रमादी व्यक्ति पग-पग पर स्खलित होता है, त्रुटियां करता है अतः वह भय मुक्त होने की कल्पना नहीं कर सकता । पूज्य गुरुदेव का जीवन हर प्रकार के प्रमाद से दूर था अतः स्खलना से होने वाले भय के प्रसंग उनके जीवन में कभी उपस्थित नहीं हुए। जो व्यक्ति सबके प्रति करुणा एवं मैत्री से भरा हो, उसके मन में किसी के प्रति भय नहीं रहता। अभय वहीं सिद्ध होता है, जहां अहिंसा और मैत्री होती है। मन में हिंसा का भाव जागते ही व्यक्ति भयभीत हो जाता है। पूज्य गुरुदेव विरोधियों एवं निन्दकों से भी मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना जानते थे। ऋग्वेद का यह सूक्त उनके जीवन में पूर्णरूपेण चरितार्थ होता था Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २०६ अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्। अभयं नक्तं अभयं दिवा, सर्वा आशा मम मित्राणि संतु॥ मैं मित्रों से अभय हूं, दुश्मनों से अभय हूं, प्रत्यक्ष में अभय हूं, परोक्ष में अभय हूं। रात में अभय हूं, दिन में अभय हूं। सब दिशाएं मेरी मित्र हों। ____ अनुशास्ता होने के कारण उनको कहीं-कहीं दूसरों को भय भी दिखाना पड़ता था पर बिना मतलब किसी को भयभीत बनाना उनकी दृष्टि में हिंसा थी। उनकी अभय-दान की चेतना का प्रकर्ष इस घटना के आलोक में देखा जा सकता है- "सरदारशहर प्रवास में गुरुदेव के निवास-स्थान में छज्जे पर एक कपोत युगल बैठा था। एक साधु भूल से उस ओर जाने लगा।आहट सुनकर कपोत युगल कुछ भयभीत एवं विचलित हो गया और अपने पंख फड़फड़ाने लगा। गुरुदेव की दृष्टि इस दृश्य पर पड़ी। तत्काल उन्होंने साधु को रोकते हुए कहा- "इधर आओ, उधर क्यों जाते हो? एक अहिंसक को अपनी किसी प्रवृत्ति से दूसरे को भयभीय नहीं करना चाहिए।" यह घटना छोटी सी है पर बहुत बड़ी प्रेरणा देने वाली है। संसार में अनेक भय हैं। कुछ को प्रतिष्ठा का भय सताता है तो कुछ को सम्पत्ति की सुरक्षा का। किसी को प्रिय के वियोग का तो किसी को अप्रिय के संयोग का भय रहता है। रोग, बुढ़ापा और मृत्यु-ये तीन संसार के व्यापक भय हैं। गुरुदेव तुलसी इन सभी भयों से ऊपर उठ चुके थे। उनका मानना था कि विज्ञान और तकनीकी का कितना ही विकास हो जाए पर बुढ़ापा, मौत, बीमारी या दूसरी प्रतिकूल स्थितियां टलने की नहीं हैं अतः इनमें निराश या भयाक्रान्त होना दुर्बलता है। ऐसी स्थिति में तो आनन्द का अनुभव ही साधकता का लक्षण है। __ गुरुदेव के शरीर का कोई अवयव ऐसा नहीं था, जिसकी भयंकर पीड़ा का अनुभव उन्हें नहीं हुआ हो पर हर वेदना को उन्होंने प्रसन्नता एवं समभाव से सहा। उनके मनोबल का ही प्रभाव था कि बुढ़ापा उनके पास आने से ही डरता था। मृत्यु का भय उन्होंने इस चिंतन से जीता- 'काम करते-करते यदि मर जाएं तो क्या चिन्ता है और यदि काम न करते निकम्मे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ साधना की निष्पत्तियां पड़े हैं तो कल न मरकर आज मरें तो भी क्या चिन्ता है ?' जिस व्यक्ति के मन में अपने शरीर के प्रति आसक्ति या ममत्व की भावना नहीं होगी, उसे मौत के कोई दरवाजे भयभीत नहीं कर सकते।' मृत्युदर्शन की बात समझ में आने के बाद जीवन-दर्शन स्वतः शुद्ध हो जाता है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का यह वक्तव्य उद्धरणीय है-"जो मरना जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता। लोग उसे ही मारने की बात सोचते हैं, जो मरना नहीं जानता, मरना नहीं चाहता तथा जो मौत के नाम से डरता है। जो व्यक्ति जीने की कला जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता।" ____रायपुर पण्डाल में आग लगने पर सबने गुरुदेव से आग्रहपूर्ण भाषा में निवेदन किया कि आग बहुत निकट है अत: आप यहां से उठकर दूसरी ओर पधार जाएं; किन्तु गुरुदेव के मन और चेहरे पर भय की कोई रेखा दिखाई नहीं पड़ी। वे वहीं अविचल बैठे रहे और साहस के साथ कहा- "मैं आग से भयभीत होकर यहां से उठकर नहीं जाऊंगा क्योंकि अहिंसक कायर नहीं हो सकता। जो मरने से डरता है, वह अहिंसा का अंचल भी नहीं छू सकता। मैं यहीं बैठा हूं, यहां से एक इंच भी नहीं उठेंगा, देखें क्या होता है।' उस भयावह स्थिति में भी उनके मानस में कंपन नहीं हुआ, उनके अविकम्प मानस को देखकर अग्नि भी भयभीत हो गई और उसने अपनी दिशा बदल दी। इसी प्रकार गुजरात के लाकोदर गांव में गुरुदेव संतों की गोष्ठी को उद्बोधित कर रहे थे। बाहर से कोलाहल एवं हलचल की आवाज सुनाई दी। गुरुदेव को सूचना मिली कि सर्प के दिख जाने से जनता में हलचल एवं भगदड़ मच गयी है। गुरुदेव तत्काल बाहर पधारे और जनता को अभय का संदेश देते हुए यह पद्य फरमाया रह्या रात लाकोदरे, उरपुर रो उपसर्ग। श्रमण गोष्ठी भीतर सझी, बहिरातुर जनवर्ग। मृत्यु के भय को जीतना सबसे बड़ी साधना है। बिना अभय का विकास हुए व्यक्ति पग-पग पर मौत से भयभीत होता रहता है। पूज्य गुरुदेव का यह संबोध अनेक लोगों को मौत के समक्ष अभीत रहने की प्रेरणा देने वाला है- 'मौत एक दिन निश्चित है, डरेंगे तो भी और न डरेंगे तो भी। डर के बिना जो मौत आएगी, वह दुःखद नहीं होगी। जो डर के Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २०८ साथ आएगी, वह भयभीत होगी।' इस संदर्भ में राणावास का निम्न प्रसंग उनके साहस, अभय एवं आत्मजयी वृत्ति को प्रकट करने वाला है। कलकत्ता निवासी माणकचंद जी चोरड़िया का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने परिवार वालों को दरसाव देते हुए कहा- - 'तुम लोग २२ जुलाई, १९८२ से पूर्व गुरुदेव के दर्शन कर लो, अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा।' बात की अफवाह सभी जगह इतनी फैली कि श्रद्धालु मानस उद्वेलित हो उठे। उनका खाना, पीना, सोना दूभर हो गया । २२ जुलाई के पहले अनेक लोग गुरुदेव की सेवा में राणावास पहुंच गए। साधु-साध्वियों ने तपस्या, जप आदि के अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिए। कलकत्ता, बम्बई से अनेक लोग राणावास पहुंच गए। श्रद्धालु व्यक्तियों के मन में अस्थिरता एवं बेचैनी थी किन्तु गुरुदेव की दिनचर्या एवं मुखमुद्रा में कोई अन्तर परिलक्षित नहीं हुआ । २२ जुलाई के दिन ९ बजे संयम समवसरण खचाखच भर गया । निश्चित समय पर गुरुदेव पण्डाल में पधार गए। लोगों की उत्सुकता को देखकर जनसमूह को सम्बोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा- "पिछले कई दिनों से समाज में हलचल है। जो कुछ हुआ, उसको हम अच्छे रूप में लें। मैं सोचता हूं, मेरे लिए तो यह बहुत शुभ हुआ । मैं प्रतिदिन सोचा करता था कि मैंने साधना क्षेत्र में कहां तक प्रगति की है, इसकी कभी परीक्षा होनी चाहिए। इस बार अनायास ही यह प्रसंग उपस्थित हो गया। घटना सुनने के बाद तब से अब तक मेरे असंख्य आत्मप्रदेशों के एक प्रदेश में, एक रोम में, एक क्षण के लिए भी भय जैसी बात नहीं आई। मौत के भय से ऊपर उठना साधना की एक बहुत बड़ी कसौटी है। मैं इस कसौटी पर खरा उतरा, यह मेरा अहं नहीं पर कभी सत्य को व्यक्त करना भी आवश्यक हो जाता है। अगर मुझे मृत्यु का भय होता तो मैं कुछ अतिरिक्त काम करता पर मैंने इस प्रसंग को लेकर न नींद खोयी, न तपस्या की और न जाप-ध्यान आदि किया। शयन, जागरण, वाचन, अध्यापन, प्रवचन, जप, ध्यान आदि में कहीं कोई अतिरिक्तता नहीं आने दी । आगमों में लिखा है कि साधक को काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए। मैं प्रतीक्षा करता रहा- कब आता है वह क्षण ? कब आता है २२ जुलाई का दिन ? कब आता है नौ बजे का समय ? आज Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ साधना की निष्पत्तियां वह प्रतीक्षा पूरी हो गयी। मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ, इससे बढ़कर आत्मतोष क्या हो सकता है?" गुरुदेव तुलसी की अभय-साधना की सिद्धि में पूज्य कालूगणी का प्रशिक्षण अधिक उपयोगी बना। इस सन्दर्भ में उनकी यह स्वीकारोक्तियां पठनीय हैं * "सत्य की अनुपालना के लिए मुझे अपने गुरु से प्रशिक्षण मिला- डरो मत। न बुढ़ापे से डरो, न रोग से डरो, न शोक-संताप से डरो और न मौत से डरो।" * 'मैंने अपने गुरुवर से अभय का बोध-पाठ पढ़ा, तब मैं समझ सका कि अभय पीठिका है अहिंसा और सत्य की। इसके बिना अहिंसा और सत्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती।' अभय की इन कसौटियों पर पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन को कसा था और जन-जन को अभय होने का महामंत्र दिया था। उनकी अभयचेतना के आलोक में अनेक साधक अपना मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है। साम्ययोग समभाव का विकास साधना का प्रत्यक्ष फल है। यदि साधना के साथ समता का विकास नहीं है तो समझना चाहिए साधक की दिशा सही नहीं है। समता साधना की कुंजी है, जिसे प्राप्त कर हर समस्या के ताले को खोला जा सकता है। पूज्य गुरुदेव की हर प्रवृत्ति में समता के दर्शन होते थे। जीवन की उतार-चढ़ाव की स्थिति में भी उनका मानसिक सन्तुलन कभी डोलता नहीं था। स्थितप्रज्ञ की भांति किसी भी अप्रिय घटना को द्रष्टाभाव से देखकर उसको समाधान तक पहुंचा देना उनकी सहज प्रवृत्ति थी। अपने इकसठवें जन्मदिन पर अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'इस साठ वर्षों में मैंने दो प्रमुख कार्य किए हैं- मूर्छा का परित्याग और समता की साधना। मुझे प्रशंसा भी खूब मिली और निंदा का शिकार भी होना पड़ा। मुझे सम्मान मिलता है तो मैं फूलता नहीं और अपमान मिलता है तो कुण्ठित नहीं होता। इसी कारण मैं निंदा और प्रशंसा इन दोनों स्थितियों में समान रूप से गति कर सका। मैं इस बात से प्रसन्न हूं कि मेरी जिंदगी विरोध और अभिनन्दनों का संगम रही है। एक स्थान Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २१० पर मेरा अभिनन्दन होता है तो दूसरे स्थान पर विरोध । कभी-कभी तो एक ही स्थान पर अभिनन्दन और विरोध दोनों होते हैं। इसे मैं अपने लिए शुभ मानता हूं अगर अभिनन्दन मिलता तो शायद फूलने का मौका मिलता, केवल तिरस्कार ही तिरस्कार होता तो खिन्नता आ सकती थी। अभिनन्दन और विरोध जीवन में सन्तुलन बनाए रखते हैं।' अपने ७१वें जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने इसी तथ्य को जीवन-सूत्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा- मेरे जीवन की सफलता में तीन प्रेरणा-सूत्र रहे हैं - प्रशंसा में प्रसन्नता न हो। - विरोधों में विषण्णता न हो। - असफलता में निराशा न हो। इन तीन सूत्रों के आधार पर ही मैं अपने पैर जमीन पर टिका कर चलता रहा हूँ और हर स्थिति में समता का अभ्यास कर सका हूं।' उनके मुख से नि:सृत उक्त पंक्तियां साम्ययोगी व्यक्तित्व की जीवन्त निशानी कही जा सकती हैं। जीवन की हर स्थिति में वही व्यक्ति सन्तुलन रख सकता है, जो जीवन को एक कसौटी मानता है और उसमें खरा उतरना जानता है। जो इस सत्य को स्वीकार करके चलता है कि सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान- ये सभी द्वन्द्व जीवन को संतुलित बनाते हैं तथा कुछ नया सबक सीखने की प्रेरणा देते हैं, वही व्यक्ति जीने का सही आनन्द पा सकता है। सन् १९७० का घटना प्रसंग है। दक्षिण यात्रा से लौटते समय पूज्य गुरुदेव उज्जैन पधारे। अत्यधिक भीड़ के कारण गुरुदेव बहुत व्यस्त थे। एक भाई आया और गुरुदेव के पैरों की अंगुलियां सहलाने लगा। सहसा सबको जोर से खुशबू आने लगी।' गुरुदेव ने देखा- 'एक भाई पैरों में तरल पदार्थ लगा रहा है। गुरुदेव चौंके और अपने पांव खींचते हुए बोले- 'यह क्या कर रहे हो?' भाई ने कहा- 'मैं इत्र बेचता हूं। आपके चरणों में इत्र लगा सकू, इससे बढ़कर मेरा और क्या सौभाग्य होगा?' गुरुदेव ने फरमाया- 'हम साधु हैं अतः इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों का सेवन नहीं करते।' पास में बैठे लोगों के मानस पर कुछ दिनों पूर्व घटित देवास की घटना उभर आई, जब किसी भाई ने पत्थर से प्रहार किया, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ साधना की निष्पत्तियां लेकिन गुरुदेव के चेहरे पर क्रोध एवं उत्तेजना की झलक तक नहीं देखी गयी। उज्जैन में उस भाई द्वारा इत्र लगाने पर भी मुख पर प्रसन्नता या गर्व की रेखाएं नहीं उभरीं। 'वासी-चंदणकप्पो य' महावीर की यह वाणी उनके जीवन में साक्षात् घटित हो रही थी। कवि की ये पंक्तियां पूज्य गुरुदेव पर यथार्थ चरितार्थ होती थीं कोउक वंदत कोउक निंदत, कोउक भाव से देत है मच्छन, कोउक आय लगावत चंदन, कोउक डारत है तन तच्छन। कोउ कहै यह मूरख दीसत, कोउ कहै नहीं है रे विचच्छन, 'सुंदर' कोहू पे राग न रोष तो, ये सब जानिये संत के लच्छन॥ निन्दा सुनकर उत्तेजित न होने वाले अनेक व्यक्ति मिल सकते हैं पर प्रशस्ति एवं प्रशंसा सुनकर अप्रभावित रहना बहुत कठिन है। किसी पाश्चात्त्य विचारक ने लिखा है- 'प्रसिद्धि बड़े आदमियों की सबसे अंतिम कमजोरी है।' पर गणाधिपति तुलसी को इसका अपवाद कहा जा सकता है। वे अनेक बार इस बात को दोहराते थे कि मुझे प्रशस्ति में रस नहीं आता। राष्ट्र के सर्वोच्च व्यक्तियों द्वारा उनका स्वागत एवं सम्मान हुआ पर अहंकार एवं मद उनको छू तक नहीं गया। प्रायः सार्वजनिक अभिनन्दन-सभाओं में वे इस बात को दोहराते रहते थे- 'यह स्वागत मेरा नहीं, आध्यात्म का है, सत्य, अहिंसा और मैत्री का है, भारतीय संस्कृति का है और अणुव्रत का है।' यह घटना प्रसंग उनकी निस्पृहता एवं प्रशस्ति से अप्रभावित रहने के विशिष्ट मनोभाव को प्रकट करने वाला है। एक बार कानोड़ के एक पटेल परिवार पर भूमि के लिए किसी व्यक्ति ने केश दायर कर दिया। कई दिनों तक केश चला पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला। आखिर पटेल भाई ने गुरुदेव के नाम का स्मरण करते हुए मन ही मन प्रार्थना की- 'गुरुदेव! मुझे उबारिए, सांच पर आंच आ रही है। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जब तक आपके दर्शन नहीं कर लूंगा, तब तक मैं घी और गेहूं नहीं खाऊंगा।' आस्था और संकल्प ने चमत्कार दिखाया और वह अदालत में मुकदमा जीत गया। परिस्थितिवश वह दो माह तक गुरुदेव के दर्शन नहीं कर सका। दो मास के बाद जब उसने पूज्य गुरुदेव के दर्शन किए, तब उसने सारा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २१२ घटना-प्रसंग गुरुदेव के श्रीचरणों में प्रस्तुत किया। घटना सुनने के बाद गुरुदेव ने गंभीर होकर पूछा- 'क्या मुकदमा सच्चा था?' पटेल ने कहा'बिल्कुल सच्चा था।' गुरुदेव ने सावधान करते हुए कहा- 'कहीं मेरे नाम से असत्य को प्रोत्साहन मत दे देना।' यह एक वाक्य ही साधक और असाधक के बीच भेदरेखा खींचने में पर्याप्त है। साधारण व्यक्ति इस बात को सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाता कि मेरे नाम से ऐसा चमत्कार घटित हुआ। वैसे भी साधारण और महान् पुरुषों के बीच कोई स्थूल रेखा खचित नहीं होती पर चिंतन की दृष्टि से साधारण और महान् व्यक्ति में धूप-छांव जितना अन्तर होता है। आत्म-निरीक्षण करने वाला साधक ही समता की सम्यक् साधना कर सकता है। दूसरों को देखने वाला व्यक्ति पग-पग पर विक्षेप का अनुभव करता है। आत्मदर्शन एवं परदर्शन के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह मंतव्य मननीय है- 'साम्ययोग के लिए अपेक्षित है-स्वयं का दुर्बल पक्ष देखना और संसार का सबल पक्ष देखना।' प्रायः मनुष्य दूसरे का दुर्बल पक्ष एवं स्वयं का सबल पक्ष देखता है पर साम्ययोग के लिए इस क्रम को बदलना आवश्यक है।' साम्ययोग का फलित है- अव्यथ होकर हर प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेना। गुरुदेव के जीवन से सम्बन्धित ऐसी सैकड़ों घटनाओं को उद्धृत किया जा सकता है; जब प्रतिकूल परिस्थिति को उनके साम्ययोग ने अनुकूलता के रूप में अंगीकार किया। वे मानते थे कि अब तो मेरी प्रकृति ही ऐसी हो गयी है कि किसी भी व्यथा में मैं विचलित नहीं होता। उनकी स्पष्ट अवधारणा थी कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहने वाला साधक ही आगे बढ़ सकता है। परिस्थिति से घबराने वाला व्यक्ति जीवन-रण में हार जाता है। दक्षिण यात्रा के दौरान गुरुदेव मोरवी पधारे। वहां स्थानीय जैन समाज के आग्रह पर गुरुदेव का प्रवास स्थानक में निश्चित किया गया। जैन समाज में सौहार्द बढ़े, इस दृष्टि से यात्रा-व्यवस्थापकों ने उस स्थान पर ठहरने का निर्णय मान्य कर लिया। ८ जून, १९६७ को गुरुदेव मोरवी पधारने वाले थे पर ७ जून को लोगों ने स्थान देने से इन्कार कर दिया। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां व्यवस्थापक एक बार निराश हो गए पर तत्काल दूसरे स्थान की खोज में लग गए। उनके प्रयत्न से मोरवी नरेश का विशाल राजमहल उपलब्ध हो गया। राजमाता उस समय बम्बई थीं पर उन्होंने फोन पर सहर्ष अपने स्थान पर रुकने की अनुमति दे दी। स्थानक से भी अच्छा एवं सुविधाजनक स्थान मिल गया। गुरुदेव के मन में न स्थानक वालों के प्रति रोष प्रकट हुआ और न ही राजमहल में रहने की अतिरिक्त प्रसन्नता या गर्व की अनुभूति हुई। २१३ आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनका इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि विरोधी पक्ष ने उनको जितनी प्रसिद्धि दी, उतनी उनके अनुयायियों ने नहीं । पूज्य गुरुदेव का जीवन संघर्षों का जीवन रहा । अंतरंग और बहिरंग दोनों संघर्षों को जिस शांतभाव से उन्होंने सहा, वह इतिहास का दुर्लभ दस्तावेज है। गुरुदेव तुलसी ने विरोध को हमेशा विनोद के रूप में स्वीकार किया। कट्टर से कट्टर विरोधी के प्रति भी वे कभी कटु नहीं बनते थे। वे कहते थे- 'मुझे सद्भावना और सहिष्णुता का दृष्टिकोण पसन्द है अतः जिन लोगों ने मेरे साथ अशिष्ट एवं गलत व्यवहार किया है, उनके प्रति मैं सद्भावना व्यक्त करता हूं और यही कामना करता हूं कि उन लोगों में भी सद्बुद्धि आए।' गुरुदेव के इसी विधायक एवं सन्तुलित चिंतन ने घोर विरोधी एवं आलोचक व्यक्तियों को भी एक दिन प्रशंसक बना दिया । लाडनूं के एक श्रावक थे सूरजमलजी बोरड़ । अनेक विशेषताओं के साथ उनमें आलोचना की वृत्ति बहुत प्रबल थी । वे लोगों के बीच तेरापंथ धर्मसंघ एवं गुरुदेव की कटु आलोचना करते थे। उनके कारण अनेक व्यक्तियों की श्रद्धा डांवाडोल हो गयी। जीवन के अन्तिम क्षणों में वे बीमार हो गए। उन दिनों गुरुदेव लाडनूं में विराजते थे । उनका व्याख्यान नोहरे में होता था। जब सूरजमलजी ने व्याख्यान में गुरुदेव को गाते हुए सुना तो उनका मानस बदल गया । उन्होंने गुरुदेव को दर्शन देने के लिए निवेदन करवाया। गुरुदेव बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने प्रति विरोध उगलने वाले व्यक्ति को दर्शन देने पधारे। गुरुदेव के पधारने से वे भाव-विभोर हो गए और आत्मग्लानि करते हुए बोले- 'गुरुदेव ! मैं नीच हूं, पापी हूं, जीवन भर आपकी और धर्मसंघ की आलोचना करता रहा लेकिन आप Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २१४ महान हैं। मुझ जैसे व्यक्ति को भी आपने वात्सल्य दिया और संसार-समुद्र से तार दिया। ___ अपनी सीमा को विस्तार देने से पूर्व गुरुदेव ने अपने मानस को इस रूप में प्रशिक्षित कर लिया था कि यदि कुछ कार्य करेंगे तो विरोध होगा। विरोध सहे बिना गति नहीं हो सकती। विरोध के सामने विरोध लेकर बढ़ेंगे तो विरोध बढ़ेगा और यदि उसको पीठ देकर अपना कार्य करते रहेंगे तो वह विरोध अपने आप खत्म हो जायेगा।' इस उन्नत चिंतन के सशक्त अवलम्बन ने उन्हें हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और वे विषम स्थितियों एवं विरोधों को टालने में सफल हुए। 'यपुर एवं चूरू के घटना-प्रसंग इसके प्रबल साक्ष्य हैं। । ___ यहां कलकत्ता का एक घटना-प्रसंग प्रस्तुत करना असमीचीन नहीं होगा, जो उनके उत्कृष्ट साम्य-योग को प्रकट करके छिछले स्तर के व्यक्तियों को गंभीरता की नयी प्रेरणा देने वाला है। कलकत्ता के दैनिक पत्र विश्वबंधु में सात महीनों तक तेरापंथ के विरोध में अनर्गल बातें छपी। जब पूज्य गुरुदेव का कलकत्ता से प्रस्थान होने वाला था, उस समय विश्वबंधु के संपादक अवधकिशोर सिंह गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। गीली आंखों के साथ वे गुरु-चरणों में क्षमा मांगने लगे। अनुनय भरे शब्दों में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की और आशीर्वाद मांगा। गुरुदेव ने कहा- 'मैंने दुराशीष और श्राप कब दिया था, जो आपको आशीर्वाद मांगने की जरूरत पड़ी।' गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर वे संकोच का अनुभव करने लगे। गुरुदेव ने उनको समाहित करते हुए कहा- 'आपने अपने पत्र में एक पृष्ठ हमारे लिए निश्चित रखा। चार महीनों तक जी भर कर निंदा लिखी, अनर्गल संवाद प्रकाशित किए, उस समय भी हमने आपके प्रति दुर्भावना नहीं की, धैर्य नहीं छोड़ा, सहिष्णुता नहीं छोड़ी, क्या यह आशीर्वाद नहीं है? यदि यही बात आप किसी अन्य पर लिखते तो शायद परिणाम दूसरा ही होता। आज भी यदि आपका हृदय पसीजा है तो समझना चाहिए कि सुबह का भटका मानव शाम को घर आ गया। मैं उस समय भी अपनी समता साधना में था और आज भी अपनी साधना में हूं। आपके प्रति मुझे कोई रोष नहीं है।' पत्रकार ने पुनः पूछा- 'विरोध में Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ साधना की निष्पत्तियां इतना लिखने के बावजूद आपके मन में मेरे प्रति कोई वैमनस्य का भाव नहीं उभरा?' गुरुदेव ने शांतभाव से उत्तर देते हुए कहा- "मेरा विरोध करने वालों को विरोध करने से यदि कुछ प्राप्त होता है तो मुझे संतोष है। मेरा संकल्प है- 'चाहे कोई मेरी निन्दा करे, आलोचना करे या आक्षेप भी करे तो भी मुझे अपने समता धर्म को नहीं छोड़ना है। मुझे अपने हृदय में किसी के प्रति घृणा, जुगुप्सा या वैमनस्य के भाव को नहीं उभरने देना हैइस समता के संकल्प ने ही मुझे संतुलित और स्थिर रहना सिखाया है।' ___मद्रास प्रवास में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण गुरुदेव का घोर विरोध हुआ। अश्लील एवं भद्दे पेम्पलेट छापे गए। इस अवसर पर अन्य धर्मावलम्बी गुरुदेव के पास आए और प्रश्नों की लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत कर दी- 'आचार्यजी! आपका इतना विरोध क्यों होता है ? विरोध की स्थिति में आपके मानस की क्या स्थिति रहती है ? क्या विरोधों को देखकर आपका मानस विचलित नहीं होता?' प्रश्नों का उत्तर देते हुए गुरुदेव ने कहा- 'मैं सोचता हूं कि ये हमारा विरोध नहीं कर रहे हैं बल्कि अपनी सुरक्षा का प्रयत्न कर रहे हैं। गाय किसी अपरिचित को देखकर उसके सामने अपने सींग दिखाती है। गाय को उस व्यक्ति से द्वेष नहीं होता किंतु अपनी सुरक्षा के लिए वह ऐसा करती है। इसी प्रकार हमारा विरोध भी अपनी सुरक्षा के लिए किया जाता है। उन्हें भय है कि कहीं हमारे अनुयायी आचार्यजी के पास न चले जाएं। विरोधी लोगों द्वारा यदि गलत बातें न फैलाई जाती तो हमारे पास किसी की इच्छा होती तो आता किन्तु भ्रांति फैलाने से तो लोग अधिक आकृष्ट होकर आते हैं। इससे तो हमारा प्रचार और अधिक बढ़ता है अतः एक दृष्टि से वे हमारे उपकारी हैं। दाम और समय स्वयं का व्यय करते हैं और काम हमारा करते हैं।' काका कालेलकर, शिवाजी भावे आदि अनेक प्रबुद्ध व्यक्ति तेरापंथ एवं गुरुदेव के बारे में प्रचारित विरोधी साहित्य एवं पेम्पलेट देखकर ही उनके निकट आए। एक बार शिवाजी भावे ने गुरुदेव के पास आकर कहा- 'आपके विरोध में प्रचारित पुलिन्दा मेरे पास पहुंच गया।' मैंने सोचा- "दूसरी ओर से भी इसके प्रतिकार स्वरूप कुछ आना चाहिए, लेकिन आपकी ओर से प्रतिकार स्वरूप कुछ भी प्रकाशित नहीं हुआ। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी जिस व्यक्ति ने उदार हृदय से इतना विष निगलकर हजम कर लिया, वह जरूर आधुनिक युग का शंकर है। विरोध का प्रतिकार विरोध से नहीं किया, वह व्यक्ति अवश्य ही कोई शक्तिसम्पन्न एवं सामर्थ्यवान् होना चाहिए। यही देखकर मुझे आपके पास आने की प्रेरणा मिली।' पज्य गुरुदेव विरोधियों का प्रतिकार करने का प्रयास नहीं करते, किन्तु उनकी सहिष्णुता एवं समता से स्वत: विरोध का प्रतिकार हो जाता था। काव्य की निम्न पंक्तियों में वे सबको यही प्रेरणा देते हैं सहें विरोध विनोद समझ, यह वीरों का वीरत्व मिला। जीवन को आलोकित करने, वाला अभिनव तत्त्व मिला। सामान्य घटना-प्रसंग से अधीर होने वाले अनुयायियों को भी वे साम्ययोग का प्रशिक्षण देते रहते थे। प्रशिक्षण का क्रम कभी प्रवचन के रूप में चलता तो कभी लेखन के रूप में प्रकट होता था। कभी-कभी व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए तो कभी-कभी पद्य के रूप में। यहां साम्ययोग को प्रकट करने वाली कुछ प्रेरणाएं एवं घटनाएं उद्धत की जा रही हैं, जो हरेक व्यक्ति को सक्रिय प्रशिक्षण देने वाली हैं "जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि पाने की कला का नाम हैसाम्ययोग। आप लोग बहत्तर कलाओं में कुशल बनें या न बनें पर एक साम्ययोग की कला को सीख लें तो वास्तविक कलाकार बन सकते हैं।" * "मैं पूँजीपति या शक्तिशाली को बड़ा नहीं समझता, मैं बड़ा उसे मानता हूं, जो वैमनस्य को मिटाने के लिए पहल करता है। वह फिर चाहे साधारण स्थिति वाला ही क्यों न हो, हर परिस्थिति में समता रखने वाला सामने वाले को झुका लेगा, हृदय-परिवर्तन कर देगा और गति को मोड़ देगा।" मेरी हरकत सहे सहज वह, मैं भी उसकी क्यों न सहूं। साथी रूप निभाना है तो, सहिष्णुता के साथ रहूं॥ १९७२ की घटना है। एक बहिन गुरुदेव के पास आकर दिलगीर होने लगी। वह डबडबाई आंखों से गुरुदेव से बोली- 'लोग जब आपके विरोध में बोलते हैं, अपशब्दों का प्रयोग करते हैं तो वह मैं नहीं सुन सकती। मेरा धैर्य सीमा तोड़ देता है। उस समय मैं असन्तुलित बन जाती Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ साधना की निष्पत्तियां हूं।' गुरुदेव ने उस बहिन को समझाते हुए कहा- 'बहिन! हमारा पथ शांति, प्रेम और सहिष्णुता का है। इसलिए हमारे भीतर कभी कमजोरी नहीं आनी चाहिए। जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है। हमारा कर्तव्य है कि हम समता की भावना का विकास करें, तभी जीवन कलापूर्ण एवं शांतिमय बन सकेगा। मद्रास प्रवेश का घटना प्रसंग है। गुरुदेव विशाल जुलूस के साथ मद्रास शहर में प्रवेश कर रहे थे। विरोधी लोग बड़ी तीव्रता से नारे लगा रहे थे। उनकी उत्तेजित हरकतों को देखकर युवकों में जोश आना स्वाभाविक था। किन्तु गुरुदेव ने शांति के लिए युवकों को सम्बोधित किया। शांतिपूर्ण प्रेरणा की ही फलश्रति थी कि सभी सदस्य शांत एवं मौन भाव से आगे बढ़ने लगे। एक तरफ की शांति को देखकर विरोधी लोग और अधिक उत्तेजित हो गए। उन्होंने जुलूस को विरोधी हरकतों से भंग करने का प्रयत्न किया किन्तु स्वयंसेवकों ने दोनों ओर मजबूत कतार बना रखी थी। युवकों ने पीछे से धक्कों एवं मुक्कों की मार सही पर शांत बने रहे। उस दिन वातावरण में शांति बनी रहने का एक मात्र कारण था- गुरुदेव का उद्बोधन। वैसी विषम स्थिति में भी युवकों ने शांति एवं शालीनता का परिचय दिया। युवकों की अनुशासनप्रियता देखकर गुरुदेव के मुख से अनायास निकल पड़ा, ऐसे अनुशासित युवकों पर हर किसी को गौरव हो सकता है। मैं जब युवकों की ऐसी शांति एवं शालीनता देखता हूं तो मुझे सात्त्विक गर्व हुए बिना नहीं रहता।' ___ आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि साम्ययोग में वही रह सकता है, जो आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, आत्मा की सन्निधि पा जाता है। कोई व्यक्ति आत्मा की अनुभूति किए बिना समता की साधना नहीं कर सकता। जहां बाहरी वातावरण है, वहां परिस्थिति की अनुकूलता-प्रतिकूलता का चक्र चलता रहता है, वहां समता की सिद्धि नहीं हो सकती। सुखदुःख, संयोग-वियोग आदि जो बाहरी निमित्त हैं, उनके परे जाकर जो आत्मा और चैतन्य का अनुभव करता है, वही समता की साधना कर सकता है। जहां आत्मा है, वहां विषमता नहीं है। जहां आत्मा है, वहां उतार-चढ़ाव नहीं है। जहां आत्मा है, वहां कोई मलिनता नहीं है। जो Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २१८ आत्मा की अनुभूति कर लेता है, उसके लिए समता की साधना पृथक् नहीं होती। पूज्य गुरुदेव सतत आत्मा का अनाहत नाद सुनते रहते थे अतः समता की साधना उनके लिए सहज साध्य थी। अनासक्ति सत्य के द्वार को उद्घाटित करने में आसक्ति सबसे बड़ी बाधा है। वह चाहे शरीर पर हो या मन पर, धन पर हो या पूजा प्रतिष्ठा पर, तनाव एवं दुःख ही देती है। भोगासक्त व्यक्ति किसी उदात्त लक्ष्य के साथ नहीं जुड़ सकता क्योंकि उसकी चेतना बार-बार बाहर की ओर दौड़ती है। आसक्ति को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव संगान करते हैं संग, मूर्छा और ममता, बस यही आसक्ति है। साम्य, समता, सहजता, वैराग्य की अभिव्यक्ति है। इंद्रिय-विषयों का प्रयोग आसक्ति नहीं है पर उसमें चेप, लगाव या मूर्छा होने से वह क्रिया आसक्ति बन जाती है। अनासक्त व्यक्ति खाता है, पीता है, पहनता है पर उसमें रस नहीं लेता। वह पदार्थ का भोग नहीं, केवल उपयोग करता है। आसक्त व्यक्ति पदार्थ का भोग न करने पर भी उसमें बंध जाता है। पदार्थ के प्रति उसकी दृष्टि उपयोगिता प्रधान न होकर भोग प्रधान होती है। आसक्ति अनासक्ति के सूक्ष्म रहस्य को पूज्य गुरुदेव आगम के आलोक में स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'व्यवहार में भोजन को ही भोग मान लिया जाता है। निश्चय दृष्टि के अनुसार भोजन भोग नहीं है। भोग है भोजन के प्रति होने वाली आसक्ति। जिस व्यक्ति में आसक्ति होती है, वह भोगी है। इसका फलित यह है कि भोगी भोग कर सकता है। अभोगी कभी भोग नहीं करता। भोगी भमइ संसारे'- चूंकि भोगी भोग करता है, इसलिए संसार में परिभ्रमण भी वही करता है। भोग छूटते ही संसार छूट जाता है।' भगवान् महावीर ने आसक्ति से मुक्त होने के लिए एक सूत्र दिया- "तम्हा संगं ति पासहा" अर्थात् अपनी आसक्ति को देखो। देखने वाला साधक किसी पदार्थ का उपभोग करते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो सकता। पूज्य गुरुदेव महावीर-वाणी का अनुवाद करते हुए कहते Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ साधना की निष्पत्तियां पश्यक द्रष्टा का प्रयोग जो, साधारण जन वस्तु भोग जो, दोनों में अंतर है इतना 'धा' मां सुत - लालन में जितना अनासक्ति की अकथ कहानी । आयारो की अर्हत् वाणी ॥ गीता का यह पद्य भी आसक्ति परिहार का सुन्दर क्रम प्रस्तुत करता है विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । निवर्तते ॥ रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा अर्थात् इंन्द्रिय-विषयों का भोग न करने से विषय तो छूट जाते हैं से पर पदार्थ के प्रति रस या आसक्ति परम अर्थात् भीतर के सौन्दर्य को देखने छूट सकती है। वह व्यक्ति कभी आत्मरमण या परम का दर्शन नहीं कर सकता, जो विषयासक्त है। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि अध्यात्म की प्रबलता ही आसक्ति को दुर्बल बना सकती है । अनासक्ति के रथ पर आरूढ़ होने वाला आत्मिक सुख को प्राप्त कर सकता है। पूज्य गुरुदेव की संकल्प शक्ति इतनी प्रबल थी कि वे अपने मन को किसी भी विषय में आसक्त नहीं होने देते थे । वे इस सत्य को स्वीकार करते थे कि आसक्ति का धागा इतना सूक्ष्म है कि वह पकड़ में नहीं आ सकता पर गुरु के सही मार्गदर्शन से आसक्ति को देखने की कला प्राप्त हो जाती है । सन् १९६८ का घटना प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव को मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञजी) आहार करवा रहे थे । मुनिश्री रोटियां परोसने के लिए उन्हें उलट-पलट कर देख रहे थे । उन्होंने एक रोटी, 'यह कच्ची है' ऐसा कहकर अलग रख दी। दूसरी जब परोसने लगे तो तत्काल बोले 'यह जी हुई है। यह भी ठीक नहीं है।' मुनिश्री नथमलजी ने तीसरी रोटी पात्र में रख दी और स्वयं शान्त भाव से बैठ गये । जब रोटी पूरी होने वाली थी तब उन्होंने सहज भाव से गुरुदेव से पूछा- 'यह तो ठीक है ?' गुरुदेव ने फरमाया- 'यदि मन में समता और अनासक्ति हो तो सब ठीक है। तुम्हारे द्वारा तीन बार रोटी बदलने पर भी रोटी आई वह..... ।' मुनिश्री चौंककर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी बोले- 'क्या वह रोटी खराब थी ?' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा'अनासक्ति के बिना किसी भी स्थिति में आनंद की उपलब्धि नहीं हो सकती। रोटी तो अच्छी ही थी पर उसमें घी दुर्गन्धयुक्त था । ' प्रस्तुत घटना उनकी विशिष्ट अनासक्त साधना की द्योतक है। २२० अनासक्त होकर कर्म करना अकर्म की ओर पदन्यास करने की प्रक्रिया है। साधना के साथ संग, आसक्ति या कामना का योग होते ही उसकी उत्कृष्टता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जब तक मनुष्य मूर्च्छा का आवरण नहीं उतारेगा, सुख का दर्शन भी नहीं हो सकेगा। बहुत कठिन है मूर्च्छा के चक्रव्यूह को तोड़ना । एक बार में पूरी सफलता न भी मिले, उसके लिए प्रयास तो करना होगा । चक्रव्यूह प्रवेश तो करना होगा। एक सीमा तक ही सही, मूर्च्छा टूटे बिना सुख की अनुभूति नहीं हो सकती, प्रसन्नता नहीं मिल सकती क्योंकि अति आसक्ति दुःख है । हुंकार के साथ अनासक्ति की प्रेरणा देते हुए पूज्य गुरुदेव गा उठे तू स्वयं है दिव्य ज्योति, है विलक्षण शक्ति तेरी, पर तुझे करती हतप्रभ, मोह-माया की अंधेरी । अपरिमित विभुता प्रपूरित, हो रहा क्यों तू भिखारी ? जो अतुल संवेदना वह, क्यों हुई है सुप्त सारी ॥ सन् १९५९ का घटना - प्रसंग है। बिहार के जोगिया गांव में गुरुदेव विराजमान थे । कुछ बहिनें गुरुदेव के चरणों में पहुंचीं । गुरुदेव ने सहजता से पूछा - 'कहां की रहने वाली हो ?' गुरुदेव के इस प्रश्न ने उनके दुःख को प्रकट कर दिया । वे दुःख विगलित स्वरों में बोली‘हमारी सारी सम्पत्ति पाकिस्तान में रह गई। हमें कुछ नहीं मिला।' गुरुदेव ने उनकी वेदना को समाहित करके शांति का रहस्य खोलते हुए कहा'बहिनों ! अध्यात्म का सूत्र यह है कि पदार्थ में न सुख है और न दुःख । धन का व्यामोह और पदार्थासक्ति ही दुःख का हेतु है । यह सत्य है कि आप पाकिस्तान से कुछ नहीं लाईं लेकिन गहराई से सोचो जब आदमी पैदा होता है तो अपने साथ क्या लाता है और मर जाने पर अपने साथ क्या ले जाता है ? मरने वाले के लिए सारा संसार पाकिस्तान बन जाता है। धन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ साधना की निष्पत्तियां किसी के साथ नहीं जाता पर धन की आसक्ति व्यक्ति को व्यर्थ ही दुःख और संक्लेश देती रहती है। व्यामोह को त्यागो तो प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। मन को 'मैं' और 'मेरा' यह भावना ही दुःख देती है। जब यह समाप्त हो जाती है तो व्यक्ति सुखी हो जाता है।" अनासक्ति का यह प्रेरक संदेश हर आसक्त व्यक्ति की आंखों को खोलकर भीतरी समृद्धि के दर्शन कराने वाला है। भगवान् बुद्ध से जब पूछा गया कि समृद्धि का सार क्या है? तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा- 'अनासक्ति (विमुक्ति) ही वैभव एवं समृद्धि का सार है।' अध्यात्म पदावली में पूज्य गुरुदेव ने अनासक्ति के इसी स्वरूप को काव्यबद्ध किया है जागे सुख-दुःख के प्रति, अंतः सम्यग्दृष्टि। घटित तभी होती सहज, अनासक्ति की सृष्टि॥ कुछ साधक इंद्रियों को नष्ट करने की बात कहते हैं। उनके अनुसार आंख का आकर्षण मिटाने के लिए आंख को फोड़ देना चाहिए। भगवान् महावीर ने इस मान्यता का खंडन किया। उन्होंने कहा- "आसक्ति का मूल स्रोत हमारी वृत्तियां या कुत्सित विचार हैं । इंद्रियां तो खिड़कियां हैं, जिनमें से आसक्ति झांकती है।" इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव के मंतव्य पठनीय हैं * "इंद्रियां किसी विषय में आसक्त नहीं हो सकतीं। वे तो प्रिय-अप्रिय सभी विषयों को निर्विकार रूप से ग्रहण करती हैं। प्रियताअप्रियता का सम्बन्ध आसक्ति, उत्सुकता एवं आकर्षण से है।" * पदार्थ से या उसके भोग से हमारा कोई अहित नहीं होता क्योंकि दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। खतरा होता है मूर्छा से, राग से। जब तक मर्छा के संस्कार नहीं टूटेंगे, दुःख को कम नहीं किया जा सकता। मनुष्य को भटकाने वाली न इंद्रियां हैं और न विषय हैं । आसक्ति के कारण व्यक्ति भटकता रहता है। अध्यात्म पदावली में उत्तराध्ययन की गाथा का भावानुवाद करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं शक्य नहीं है शब्द न सुनना, खुले स्रोत के हैं जब द्वार। शक्य यही है हो न शब्द में, द्वेष-राग का अनुसंचार॥ चंचलता और आसक्ति का अनादिकालीन सहानवस्थान है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२२ चैतसिक चंचलता कम होते ही अनासक्ति अपने आप अवतरित हो जाती है। चंचलता व्यक्ति को फलाशंसा से मुक्त नहीं रहने देती। निम्न घटना प्रसंग से भी पूज्य गुरुदेव यही संबोध देना चाहते हैं। ___कुछ साधु भिक्षा लेकर स्थान पर पहुंचे। आहार का कार्य सम्पन्न हो गया। आहार के पश्चात् स्थान की सफाई में कुछ असावधानी रह गयी। इसलिए भोजन के एक-एक कण पर सैकड़ों चींटियां एकत्रित हो गयीं। गुरुदेव की दृष्टि उन पर टिक गयी। गुरुदेव ने एक साधु को पानी का हल्का सा छिड़काव करने को कहा। वैसा करने से चींटियों का मुख मुड़ गया। वे इधर-उधर घूमने लगीं। उस प्रसंग को प्रेरणा बनाकर अनासक्ति का प्रतिबोध देते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया- 'देखो, चींटियों को खाने के लिए कितना सा चाहिए? पर इनकी आसक्ति इतनी विशाल है कि सारे दिन दौड़-धूप करती हैं। साधक जीवन में भी आसक्ति है तो स्थिरता की साधना नहीं हो सकती।" उक्त घटना-प्रसंग से अनेक साधुओं को आत्मनिरीक्षण कर अपनी-अपनी आसक्ति देखने का जीवन्त बोध मिल गया। प्राप्त शक्ति का चमत्कार में उपयोग करना शक्ति का दुरुपयोग है। अनासक्त साधक का मन बाह्य चमत्कारों एवं तुच्छ उपलब्धियों में नहीं अटकता। गंभीरचेता और निर्लेप होने के कारण पूज्य गुरुदेव बाह्य चमत्कारों के आकर्षण में नहीं बंध पाते थे। साधना से प्राप्त शक्ति के चमत्कार प्रदर्शन के बारे में उनका मंतव्य अनेक साधकों को प्रेरणा देने वाला है- 'एक बात बार-बार सुनने में आती है कि जहां इतना बड़ा संघ हो, वहां चमत्कार भी होने चाहिए। चमत्कार को नमस्कार की दुहाई देकर उक्त बात की पुष्टि की जाती है। एक दृष्टि से बात ठीक है, आकर्षण पैदा करने वाली है। कभी-कभी मन में भी आ जाती है किन्तु आगे चलकर यहीं चिंतन रहता है कि जहां कहीं ऐसे प्रयोग हुए हैं, उन्हें तात्कालिक लाभ अवश्य मिला है, उनकी ख्याति भी हुई है, उन्हें राज्याश्रय और जनाश्रय भी प्राप्त हुआ है पर उससे आगे का परिणाम सुखद नहीं रहा।'... मेरा स्पष्ट मंतव्य है कि शक्ति प्रयोग का रास्ता निरापद नहीं है। यदि कभी विशिष्ट उपलब्धि उत्पन्न हो जाए तो उसे भीतर पचा लेना चाहिए।' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ साधना की निष्पत्तियां भारतवर्ष की पुण्यभूमि में अनेक साधकों ने अनासक्ति और अनाकांक्षा के शिखर पर आरोहण करने का प्रयत्न किया है। पूज्य गुरुदेव के साधक-मानस पर रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानंद के घटना-प्रसंग का विशेष प्रभाव था। प्रवचन के दौरान अनेक बार वे विवेकानन्द के जीवन का घटना-प्रसंग सुनाते थे। युवक नरेन्द्र जब रामकृष्ण के चरणों में उपस्थित हुआ तो रामकृष्ण ने पूछा- 'क्या तुम अणिमा लब्धि पाना चाहते हो? उससे तुम बिल्कुल छोटे हो सकते हो। महिमा लब्धि से तम मनचाहा आकार बढ़ा सकते हो। हल्के और भारी बनने की भी लब्धियां हैं। यदि चाहो तो आकाशगामिनी विद्या भी तुम्हें दे सकता हूं। बोलो तुम्हें क्या चाहिए?' रामकृष्ण की बात सुनकर नरेन्द्र की मुखमुद्रा गंभीर हो गयी। उसने प्रतिप्रश्न पूछते हुए कहा- 'इन सबसे मुझे क्या मिलेगा?' स्वामी रामकृष्ण ने कहा- 'इससे तुम्हारा नाम होगा प्रतिष्ठा और ख्याति बढ़ जायेगी।' नरेन्द्र ने कहा- 'गुरुदेव! मुझे यह सब नहीं चाहिए। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो वह तत्त्व दीजिए, जिससे मैं स्वयं को पा सकू।' . रामकृष्ण ने उसकी आकृति को पढ़ा, अंत:करण को परखा और उसे अध्यात्म-विद्या के योग्य घोषित कर दिया। उनकी वर्षों की खोज पूरी हुई और उसे अपना शिष्य बना लिया। भारतीय अध्यात्म-विद्या को उजागर करके उसे पाश्चात्य देशों में प्रतिष्ठित करने हेतु स्वामी विवेकानंद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनकी इसी अनासक्ति ने उन्हें विश्व प्रसिद्ध बना दिया। __ साधक चमत्कार एवं प्रलोभनों से दूर रहता है, यह बात यथार्थ है पर यह भी उतना ही सत्य है कि साधना के प्रयोग से स्वतः ऐसे चमत्कार घटित होते हैं, जहां तर्क-शक्ति भी कुंठित हो जाती है। पूज्य गुरुदेव साधना के उस शिखर पर आसीन थे, जहां उनका नाम ही मंत्राक्षर की भांति चामत्कारिक बन गया था। गुरुदेव को ७० वर्ष की लम्बी संयमसाधना से अनेक आंतरिक उपलब्धियां प्राप्त थीं। आगमों में वर्णित आमदैषधि, मलौषधि आदि अनेक लब्धियां उनको सहज प्राप्त थीं पर वे उनसे निर्लिप्त रहे। उनकी चरणधूलि से जुड़े सैकड़ों चमत्कार हैं। ऐसी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२४ असाध्य बीमारी वाले लोग, जो जीवन से हताश हो चुके थे, वे पूज्य गुरुदेव . की चरणधूलि के प्रयोग से पूर्ण स्वस्थ हो गए। अनेक लोग उनके मुख से मंगलपाठ सुनने मात्र से शांति एवं स्वास्थ्य का अनुभव करने लगे। 'गुरु के प्रभाव से गूंगा बोलने लगता है और पंगू पहाड़ पर चढ़ने लगता है।' इस उक्ति को सार्थक करने वाली उनके जीवन की अनेक घटनाएं हैं। यहां कुछ घटना-प्रसंग ही प्रस्तुत किए जा रहे हैं । भीनासर निवासी छगनलालजी सेठिया आदि पाँच भाई पूज्य गुरुदेव के दर्शनार्थ बीकानेर से गाड़ी में चढ़े। रेलगाड़ी में चढ़ते समय भीड़ कारण उनके मुंह पर चोट लगी। गाड़ी में चढ़ते ही चोट ने इतना विस्तार लिया कि मुंह पर गहरे घाव हो गए, मवाद झरने लगा, चारों ओर सूजन आ गयी और पूरा चेहरा लाल हो गया । स्थिति देखकर भाई उन्हें वापस भीनासर ले जाने के लिए तैयार हुए लेकिन छगनलालजी ने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाए गुरु- दर्शन के बिना घर नहीं जाऊंगा। वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। गुरुदेव उन दिनों मेवाड़ में थे। अपने भाइयों के साथ दर्शन करके वे स्वयं को धन्य अनुभव करने लगे। दूसरे दिन उन्होंने गुरुदेव की चरणरज ली और उस पानी से मुंह के घावों की सफाई की। न दवा ली और न डॉक्टर को दिखाया। केवल चरणरज को ही दवा बना लिया। दो तीन दिन में सूजन और लालिमा कम हो गयी। मवाद आना बंद हो गया। धीरे-धीरे वे बिल्कुल स्वस्थ हो गए। जयसिंहपुर के पूनमचंदजी रूणवाल के तीसरा बच्चा जन्म से ही कमजोर था । न वह बोल सकता था और न ही चल सकता था । बम्बई के डॉक्टर ने परीक्षण करके बताया कि बच्चे के हृदय में छेद है अतः इसके हृदय का ऑपरेशन होगा। बम्बई में एक्सरे करवाकर ऑपरेशन की तारीख निश्चित हो गयी । एक दिन पति-पत्नी के मन में विकल्प उठा कि अभी ऑपरेशन की देरी है अतः गुरुदेव के दर्शन करके मंगलपाठ सुनवा दें। उस समय गुरुदेव का प्रवास लाडनूं में था। वे लाडनूं आए और दो दिन में तीन बार गुरुदेव के मुख से मंगलपाठ सुनाया। ऑपरेशन के दो दिन पूर्व वे बम्बई पहुंचे। बच्चे के दसों बीसों टेस्ट हो चुके थे। पहले के सब रिकार्ड बता रहे थे कि ऑपरेशन जल्दी होना चाहिए। डॉक्टरों ने कहा- 'ई.सी.जी. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ साधना की निष्पत्तियां करवाने की अपेक्षा नहीं है तथा एक्सरे भी बार-बार नहीं करवाने चाहिए। यह सुनकर श्रीमती सविता रूणवाल बोली- 'डॉक्टर साहब! मेरा मन कहता है कि आप इसका एक्सरे फिर करके देखिए।' यद्यपि डॉक्टरों का मन नहीं था पर मां के आग्रह से पुनः सभी टेस्ट करवाए। पहला एक्सरे आते ही डॉक्टर आश्चर्यचकित हो गया। एक-एक कर सारे परीक्षण किए। परीक्षणों का यह परिमाण आया कि बच्चे के हृदय में कोई छेद नहीं है। डॉक्टर ने कहा कि मैं स्वयं नहीं समझ पा रहा हूं कि क्या बात है पर यह निश्चित है कि बच्चे के हृदय में वर्षों से जो छेद देख रहे थे, वह अब नहीं है अतः ऑपरेशन की जरूरत नहीं है। लगता है कि आपका भाग्य बहुत तेज है। धीरे-धीरे बच्चा चलने लगा। यद्यपि वह अच्छी तरह बोलता नहीं है पर रूणवाल दम्पत्ति को विश्वास है कि गुरुदेव की कृपा से बच्चा अवश्य बोलेगा। कलकत्ता प्रवास में पूज्य गुरुदेव विवेकानंद रोड पर स्थित चौपड़ों के मकान में विराज रहे थे। दर्शनार्थियों की भीड़ में एक बंगाली दम्पत्ति गुरुदेव के दर्शन करने आया। आते ही बंगाली भाई श्रद्धा भरे शब्दों में कहने लगा- "आप हमारे लिए साक्षात् भगवान हैं। यह मेरी पत्नी वर्षों से क्षय रोग ग्रस्त थी। अनेक उपचार से भी कोई लाभ नहीं हआ। बीमारी खतरनाक स्थिति को प्राप्त हो गयी। मेरा पक्का विश्वास हो गया था कि अब यह बचने वाली नहीं है। कुछ दिनों पूर्व मैंने आपका प्रवचन सुना। मुझे उसमें दिव्य ध्वनि का अनुभव हुआ। दूसरे दिन प्रवचन पण्डाल से लौटते वक्त आपकी चरणधूलि साथ लेकर गया। उसे मैंने स्वच्छ डिब्बे में रखा और दवा के रूप में प्रतिदिन उसको दिया। उसने श्रद्धा से आपकी चरण-रंज का सेवन किया। आपकी चरणधूलि का ही प्रभाव है कि आज मेरी धर्मपत्नी आपके समक्ष पूर्णतया स्वस्थ होकर खड़ी है।" साधना के इन दृश्य परिणामों एवं चमत्कारों में पूज्य गुरुदेव की अधिक आस्था नहीं थी। उनका स्पष्ट मंतव्य था कि दृश्य परिणाम एवं चमत्कार के लिए साधना होनी भी नहीं चाहिए। ऐसी साधना एक सीमा तक पहुंचकर सीमित हो जाती है फिर भी यह बात सही है कि साधना से आत्मोपलब्धि के साथ बाह्य उपलब्धि भी होती है। इसके प्रति साधक की Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२६ जितनी निरपेक्षता और अनासक्ति होगी, उतनी ही अधिक उपलब्धि होगी।' यदि क्रिया के साथ चेतना जुड़ जाती है तो भोजन, पानी, वस्त्र और मकान सभी चीजें आसक्ति के साधन नहीं बनते। आसक्ति बांधने वाला तत्त्व है और अनासक्ति मुक्ति का द्वार है। इस तत्त्व को समझकर पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में अनासक्ति के अनेक प्रयोग किए। उनकी अनासक्त साधना देहरी का वह दीपक था, जिससे न केवल उनकी आत्मवीथी आलोकित हुई बल्कि उनके निकट रहने वाला हर साधक भी उस प्रकाश से स्वयं को आलोकित अनुभव करता रहा। सहजता "सहजता के बिना शास्त्रों का अध्ययन विडम्बना बन जाता है और तीर्थ-यात्रा में कोई सार नहीं निकलता इसलिए सहजता ही आत्मदर्शन के लिए आईना बन सकती है"- पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके सहज व्यक्तित्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। सहज साधक घटना को तटस्थ दृष्टि से देखता है। वह उसमें अपने संवेगों को जोड़कर सुखी या दुःखी नहीं होता। जब तक सहजता का विकास नहीं होता, व्यक्ति कभी पदार्थ में अनुरक्त होता है तो कभी व्यक्ति में प्रतिबद्ध होता है। वह बाह्य आकर्षणों में लुब्ध होने के कारण भीतरी आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव का कहना था कि जब तक हम विभाव में रहेंगे, सहजता नहीं आएगी और बिना सहजवृत्ति के आत्मरमण नहीं होगा अतः जितनी सहजता उतना सुख, जितना अहं और बड़प्पन का भाव उतना दु:ख। सुख और दुःख की इस व्याप्ति को समझने वाला व्यक्ति अपने चारों ओर सुख का सागर लहराता देखता है।" सहज व्यक्ति किसी भी स्थिति में दूसरों पर दोषारोपण नहीं करता। वह अपनी और दूसरों की क्षमता और सामर्थ्य के बीच तालमेल बिठाना जानता है अतः कोई भी विरोधी स्थिति उसे प्रभावित नहीं कर पाती। सन् १९६७ का घटना प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव के नवसारी पधारने पर शहर में बहुत सुंदर वातावरण बना। कुछ विरोधी लोगों ने मिथ्या एवं अनर्गल बातों से भरा पत्रों का एक पुलिंदा प्रिंसिपल श्री जे.जे. शुक्ला के नाम से भेजा। श्री शुक्ला विरोधी वातावरण से अनजान थे। उन पत्रों को Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ साधना की निष्पत्तियां देखकर वे दुःखी एवं व्यथित हो गए। वे गुरुदेव के पास आए और बोले'आपको दुःख या पीड़ा न हो तो एक बात निवेदन करूं।' गुरुदेव ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। शुक्ला जी मे विरोधी पर्चों को दिखाते हुए अपना खेद प्रकट किया। गुरुदेव ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा'बस! यही बात है, इसमें दुःख जैसी क्या बात है?' शुक्ला ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- 'क्या इन बातों की आपको अवगति है? लोग आपके साथ ऐसा क्यों करते हैं?' गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'जिनकी जैसी आदत है, वे वैसा ही काम करते हैं। हम दुःख क्यों करें? हर अच्छी प्रवृत्ति का एक बार विरोध होता है, कोई अपनी बुराई नहीं छोड़ सकता तो हम अपनी अच्छाई क्यों छोड़ें?' सहजता में रमण करने वाला साधक कभी इन बातों में उलझकर दुःखी नहीं होता। जबजब जीवन में सहजता टूटती है, तनाव एवं दुःख पैदा हो जाता है। उक्त घटना प्रसंग उनकी सहज साधना का स्पष्ट निदर्शन है। ___सहजता व्यक्ति को हल्केपन की अनुभूति कराती है। यही कारण है कि विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता होने पर भी उन्होंने कभी भार या खिन्नता का अनुभव नहीं किया। इसका सबसे बड़ा कारण उनकी सहज वृत्ति थी। इस संदर्भ में उनका यह अनुभव अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है"संघ का नियन्ता होने पर भी मैं प्रायः निर्भार रहता हूं। भारीपन की अनुभूति तभी होती है, जब सहजता टूटती है। सहजता का राज हैतटस्थ दर्शन अर्थात् परिस्थितियों का अस्वीकार । परिस्थितियां व्यक्ति को भारी नहीं बनाती हैं, भारीपन का हेतु है उनकी स्वीकृति। स्वीकार और पलायन दोनों से मुक्त रहने वाला व्यक्ति ही स्वस्थ, दीर्घजीवी और सुखी बन सकता है।" विनोबा से पूछा गया- साधना कहां तक की जाए? उत्तर देते हुए विनोबा ने कहा- 'जब वह अपने आप होने लगे तब तक।' इस सहजावस्था को पाना ही साधक का ध्येय होता है। फिर साधक का हर प्रयत्न साधना बन जाता है। "उत्तमा सहजा वृत्तिः" संस्कृत का यह सूक्त पूज्य गुरुदेव के जीवन में साकार देखा जा सकता था। वे अपनी हार्दिक भावना इन शब्दों Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२८ में प्रकट करते थे- "बहुत बार सोचता हूं कि साधना करनी ही न पड़े वह सहज हो जाए, यह स्थिति सुन्दर है।" इसी संकल्प की फलश्रुति है कि उनकी किसी क्रिया एवं व्यवहार में कृत्रिमता या औपचारिकता नहीं झलकती थी। उन्हें अनुकूलता मिलती थी तो निस्पृह भाव से उसका उपयोग कर लेते, प्रतिकूलता आती तो बिना द्वेष के उसे सहन कर लेते। साधकों को भी वे यही प्रतिबोध देते- "सुखद और दुःखद जो भी स्थिति सामने आए, उसे स्वीकार करें। कभी हर्ष और कभी विषाद न करें। सहज रहें। कोई भी स्थिति आपको प्रभावित नहीं कर पाएगी।" कलकत्ता यात्रा के दौरान एक गांव में पट्ट आदि की व्यवस्था नहीं होने के कारण संतों ने अवसाद व्यक्त करते हुए कहा- 'आज पट्ट की व्यवस्था नहीं हो पाई है।' गुरुदेव ने तत्काल सामने वाले शिलाखंड की ओर इशारा करते हुए कहा- 'अरे! प्राकृतिक पट्ट विद्यमान है, फिर कृत्रिम पट्ट की क्या आवश्यकता है? प्राकृतिक वस्तुओं में जो आनंद मिलता है, वह कृत्रिम में कहां है?' एक बार भयंकर गर्मी का मौसम था। रात को प्रायः हवा ने कायोत्सर्ग का अभ्यास कर लिया। गर्मी के कारण रात में गुरुदेव को बेचैनी महसूस होने लगी। पूज्य गुरुदेव पट्ट से उतरे और नीचे दरवाजे के सामने सो गए। सवेरे संतों ने पूज्य गुरुदेव को जमीन पर शयन करते देख आश्चर्य किया। सभी संत अनुताप का अनुभव कर रहे थे कि हमें ज्ञात ही नहीं हुआ कि गुरुदेव कब बिछौने को उठाकर स्वयं ही नीचे पधार गए। संतों के मानसिक विषाद को हल्का करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया- "जीवन में सहजता होनी चाहिए। आचार्य से पूर्व मैं स्वयं को साधु मानता हूं। वैसे तो मुझे कभी काम पड़ता ही नहीं लेकिन मौका मिलने पर स्वावलम्बन और निर्जरा के अवसर को नहीं चूकना चाहिए।" सहजता हर स्थिति में व्यक्ति को व्यवस्थित एवं संतुलित रखती है। यदि सहजता नहीं है तो थोड़ी सी कमी भी व्यक्ति को उद्वेलित कर देती है, सहज वृत्ति होने के कारण गुरुदेव प्रकृति में होने वाली हर घटना को अच्छे रूप में ग्रहण करते थे। उनकी प्रसन्नता बाह्य निमित्तों से प्रभावित होकर विषण्णता में परिणत नहीं होती थी। सन् १९५९ का घटना प्रसंग है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ साधना की निष्पत्तियां - विहार के दौरान गुरुदेव ढाबधाम गांव पधारे। ढाबधाम गांव में चार- पांच घरों की ही बस्ती थी । २० फुट लम्बे और सात फुट चौड़े एक कमरे में गुरुदेव का विराजना हुआ। गोबर से लिपे छोटे से कमरे में भी गुरुदेव का मुखारविंद अलौकिक प्रसन्नता से दीप्त हो रहा था । एक साधु के मुख से सहसा निकल पड़ा कि स्थान बहुत छोटा है, ठीक से बैठने की जगह भी नहीं है। यह बात गुरुदेव के कानों में भी पड़ गई। गुरुदेव ने इसका प्रतिकार करते हुए कहा- " आचार्य भिक्षु को प्रथम निवास के लिए जो स्थान मिला था, क्या यह उससे छोटा है ? साधु जीवन में सहज रूप से जो कुछ मिले, उसी में आनंद मनाना चाहिए । इस प्रतिबोध ने सबकी चेतना को झंकृत कर दिया। अब वह संकीर्ण स्थान भी सबको बड़ा और सुविधाजनक नजर आने लगा । इन्दौर निवासी गृहस्थयोगी नेमीचंदजी मोदी की ये पंक्तियां गुरुदेव के जीवन में मूर्तिमान् दिखाई पड़ती थींसहजे - सहजे सहजानंद, अन्तर्दृष्टि परमानंद । जहां देखूं तहां आत्मानंद, सहजे छूटे विषयानंद ॥ 'कृत्रिमता में मेरा किंचित् भी आकर्षण नहीं है। मैं प्रकृति का उपासक हूं । प्रकृति से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है' - पूज्य गुरुदेव के इस अनुभव से स्पष्ट है कि सहजता प्रकृति में जीने वालों को ही उपलब्ध हो सकती है। कृत्रिम जीवन जीने वाला प्रकृति का आनंद नहीं ले सकता । गुरुदेव को प्रकृति से प्रेम था । आज के यांत्रिकीकरण के युग में मानव की कृत्रिम दिनचर्या को देखकर उनका बेचैन मन कह उठा- 'आदमी जितना प्रबुद्ध और सम्पन्न होता जा रहा है, प्रकृति में जीने की आदत बदल रहा है। न वह प्राकृतिक हवा में सोता है, न प्राकृतिक ईंधन से बना खाना खाता है, न प्रकृति के साथ क्रीड़ा करता है। शायद इसी कारण प्रकृति अपने तेवर बदल रही है और मनुष्य को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है।' 44 एक बार आचार्य महाप्रज्ञजी के समक्ष अपनी मनोभावना प्रकट करते हुए गुरुदेव ने कहा- "हम कुछ लेट हो गए। यदि प्रारंभ से ही प्राकृतिक जीवन जीते तो शतजीवी बनते । खैर 'जब जागे तभी सवेरा'जब से हमें ज्ञान हुआ, हमारा दृष्टिकोण बदल गया । अस्वास्थ्य की अवस्था Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २३० में जहां तक संभव हो गुरुदेव प्राकृतिक चिकित्सा को ही प्राथमिकता देते थे। दक्षिण यात्रा के दौरान अतिश्रम के कारण गुरुदेव ज्वर से आक्रान्त हो गए। डॉक्टर और वैद्यों ने दवा के लिए अनुरोध किया। उनकी प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए गुरुदेव ने उपवास कर लिया। दूसरे दिन साधारण पेय पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिया। परिणामतः ज्वर से मुक्ति मिल गयी। पूज्य गुरुदेव अपने संघ में भी सहजता का प्रायोगिक प्रशिक्षण देना चाहते थे। प्रशिक्षण के क्रम में कभी वे अपने जीवन से प्रतिबोध देते तो कभी मौखिक रूप से। वे किसी घटना प्रसंग से भी शिक्षण देते थे। एक बार बाल साधुओं को संबोध देते हुए उन्होंने कहा- 'ध्यान आदि साधना प्रयत्नजन्य है, उसे सब कर सकें या नहीं, पर गति को तो सब जानते हैं। उसमें इतना तन्मय बन जाओ कि तुम स्वयं गति बन जाओ।' डालमिया नगर से विहार के दौरान एक कुत्ता गुरुदेव के साथ हो गया। लोगों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि यह कुत्ता बहुत निश्चिंत है। सहज भाव से कोई रोटी देता है तो खा लेता है और नहीं देता तो झपटता नहीं, भूखा ही बैठा रहता है। इसके प्रति सहज ही लोगों की इतनी सहानुभूति जाग गयी है कि न जाने कहां-कहां से दूध और रोटी का ढेर लग जाता है। यह ताजी रोटी नहीं खाता इसलिए यहां के ठाकर ने अनेक रोटियां सखा रखी हैं। अनेक लोग इसके लिए दूध के रुपये दे जाते हैं। यह इतना मस्त है कि भूख होती है तो दूध पीता है, अन्यथा नहीं। इस घटना प्रसंग को सुनकर पूज्य गुरुदेव ने सहजता की प्रेरणा देते हुए कहा- 'जो प्राणी निश्चिंत और सहज होता है उसके लिए प्रायः किसी चीज की कमी नहीं रहती। पर कमी यही है कि व्यक्ति इतना निश्चिंत नहीं रह पाता। जीवन में यदि सहजता का अवतरण हो जाए तो परिस्थितियां भी अपने आप अनुकूल बन जाती हैं।' मालवा यात्रा के दौरान उज्जैन में एक मैनेजर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुआ। उसने गुरुचरणों में अपनी व्यथा प्रस्तुत करते हुए कहा'मैं जब भजन या प्रार्थना करने बैठता हूं, तब कुछ समय स्थिर होता हूं फिर मन उचट जाता है। जबरदस्ती मन को खींचकर एकाग्र रखने का प्रयत्न Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ साधना की निष्पत्तियां करता हूं पर अभी तक सफलता हासिल नहीं हुई। अब आप ही कुछ मार्गदर्शन दिखाएं।' गुरुदेव ने उसको समाहित करते हुए कहा- "सहजता में विश्वास रखो। मन के साथ जबरदस्ती क्यों करते हो? क्या मन को साधने का एक ही तरीका है ? तपस्या, स्वाध्याय, जप, सेवा आदि अनेक प्रक्रियाएं हैं, जो मन को एकाग्र बनाती हैं। किसी का मन सेवा या स्वाध्याय में लगता है, वह यदि उसे तपस्या में लगाता है तो उसका परिश्रम सफल नहीं होता। आप भी हर क्रिया में सहजता, विवेक-जागृति और संयम को महत्त्व दें। आपका जीवन शांत और पवित्र बन जाएगा।" मैनेजर को समस्या का समाधान मिल गया। . सहज साधक बाहर और भीतर से एक रूप होता है। उसकी कथनी और करनी में द्वैध नहीं होता। गुरुदेव ने अपने जीवन में कथनी और करनी की एकरूपता को साधने का प्रयत्न किया। वे मानते थे कि सोचने और करने में जब तक एकात्मकता नहीं होती, न आत्म साक्षात्कार हो सकता है और न ही दूसरा काम सिद्ध हो सकता है।" सहजता के कारण वे अपनी हर मानसिक स्थिति को एक बच्चे की भांति प्रकट कर देते थे। उनके जीवन के सैकड़ों घटना प्रसंग आज उनकी महानता के प्रतीक बन गए हैं। वि. सं. १९९८ का चातुर्मास राजलदेसर में घोषित था। विहार के दौरान पूज्य गुरुदेव चाड़वास में विराज रहे थे। उन दिनों गुरुदेव संतों को स्याद्वाद मंजरी का अध्यापन करवाते थे। आचार्य मल्लिषेण ने व्याख्या के दौरान एक बात लिखी कि गुरु का उपदेश कितना ही हितकर और लाभकारी क्यों न हो, वह अभव्य के कानों में वैसे ही खटकता है, जैसे कान में गया हुआ शुद्ध जल कर्णशूल बनकर कष्ट देता है। गुरुदेव का मन आचार्य की इस बात पर अटक गया कि कान में गया पानी शूल का काम कैसे कर सकता है? तीसरे दिन गुरुदेव ने मुंह का लुंचन करवाया। सफाई करते हुए थोड़ा पानी कान में चला गया। बचपन में गुरुदेव का एक कान क्षतिग्रस्त हो गया था, उसी में पानी चला गया। थोड़ी देर में वह शूल की भांति खटकने लगा। सुनने में कठिनाई होने के साथ उनके मुंह का स्वाद भी बदल गया। पानी का प्रतिकूल प्रभाव देखकर गुरुदेव ने चिंतन किया"परसों स्याद्वादमंजरी में जो बात पढ़ी, उसके प्रति अवज्ञा का भाव आ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २३२ गया था संभवतः यह उसी का फल है। ज्ञान के प्रति अविश्वास या अवज्ञा का फल मुझे दीर्घकाल तक भोगना पड़ा । " गुरुदेव की सहजता और सरलता ने तत्काल अपनी सूक्ष्म मानसिक अवज्ञा को भी पहचान लिया और उससे एक प्रतिबोध ले लिया। व्यवहार में अपने-पराए की भेदरेखा खींचने वाला साधक अपनी सहजता को खो देता है । पूज्य गुरुदेव का 'स्व' पर ' मैं इतना आत्मसात् हो चुका था कि उन्हें कभी 'पर' की अनुभूति हुई ही नहीं। उनका सुख-दुःख भी इतना विराट् हो गया था कि व्यक्तिगत सुख-दुःख की बात गौण हो गई थी । सहिष्णुता " जो चोटों को नहीं सह सकता, वह प्रतिमा नहीं बन सकता । हम सहन करें, हमारा जीवन एक लयात्मक संगीत बन जाएगा' – पूज्य गुरुदेव की यह आर्षवाणी जीवन - विकास की अमूल्य थाती है। सहनशीलता साधना की प्रथम एवं अंतिम सीढ़ी है। साधनाकाल में आए कष्टों को सहन नहीं करना लक्ष्य से विमुख होना है। जिस व्यक्ति में कष्ट सहने की क्षमता नहीं होती, वह साधारण लक्ष्य को भी नहीं पा सकता, महान् लक्ष्य तो बहुत दूर की बात है । यदि साधक परवशता से सहन करता है तो कुण्ठा आदि मानसिक विकृतियां उभर सकती हैं। स्ववशता से सहने वाला साधक शक्ति को बढ़ाता हुआ प्रत्येक परिस्थिति को अपनी साधना का अंग मानकर सहन करता है और उससे प्राप्त होने वाले आनन्द का अनुभव करता है। इस तथ्य को पूज्य गुरुदेव ने इस रूपक से प्रकट किया है" दीपक से प्रकाशित होने की चाह सबमें रहती है किन्तु तिल-तिल दीपक को जलना पड़ता है। जलना दीपक का धर्म है, उसी प्रकार सहना साधक का आत्मधर्म है। सहना दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए हितकर है। इस सिद्धान्त में विश्वास रखने वाला साधक हर परिस्थिति को सहने की मानसिकता बना लेता है । " पूज्य गुरुदेव ने उपदेश एवं प्रवचन के माध्यम से ही नहीं, अपितु अपने जीवन से सहनशीलता का जागृत सन्देश दिया। जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों एवं परिस्थितियों में उन्होंने अपनी सहिष्णुता को अक्षुण्ण रखा था क्योंकि सहिष्णुता को वे आत्मधर्म मानते थे । प्रबल विरोध की Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ साधना की निष्पत्तियां परिस्थिति में वे अपनी अन्तर्भावना को दृढ़ संकल्प के साथ प्रस्तुत करते रहते थे * "हमें कैंची नहीं, सूई बनना है। कैंची बड़ी होती है पर जोड़ना उसका काम नहीं है। उसका काम है एक के दो करना। सूई छोटी होती है पर उसका काम है फटे हुए को जोड़ना, दो को एक करना।" "साधारणतया सामने वाला आग बने तो दूसरे केरोसीन बनने की भूमिका ही निभाते हैं। वहाँ जल बनना बहुत कठिन होता है। ऐसे कठिन समय में ही व्यक्ति की सहनशीलता की परीक्षा होती है। हमारा विश्वास है कि हम हर परिस्थिति में जल की भूमिका निभा सकते हैं।" घटना प्रसंग से भी वे अपने अनुयायियों को सहिष्णु रहने की प्रेरणा देते रहते थे। सन् १९५९ में बंगाल का घटना प्रसंग है। गुरुदेव का भोजन समाप्त प्रायः था। उनके पास ही एक पात्र में दूध तथा एक नींबू का टुकड़ा पड़ा था। गुरुदेव ने फरमाया- 'सुना है कि नींबू की एक बूंद दूध को फाड़ देती है। आज इस सच्चाई का प्रयोग करना चाहिए। गुरुदेव ने दूध के पात्र में दो-चार बूंदें नींबू की निचोड़ दीं पर दूध फटा नहीं। पुनः कुछ बूंदें और निचोड़ी पर दूध पर कोई असर नहीं हुआ। पास बैठे एक साधु ने निवेदन किया- 'दूध ठण्डा है, इसलिए नहीं फटा।' गुरुदेव ने तत्काल घटना को प्रेरणा का माध्यम बनाते हुए कहा- "शीतल को कोई विकृत नहीं कर सकता । जहाँ उत्ताप है, वहाँ विकार है। शान्त और सहिष्णु व्यक्ति का कौन अहित कर सकता है ? इसलिए सहना धर्म है, सहना उपशम और श्रेय की दिशा में गति है। साधक को सहिष्णु बनकर उससे प्राप्त होने वाले आनन्द का अनुभव करना चाहिए। सहिष्णुता के अभाव में साधुता की अग्रिम भूमिकाओं पर आरोहण की कल्पना ही नहीं की जा सकती।" रायपुर एवं चूरू के घटनाकाण्ड में पूज्य गुरुदेव की सहिष्णुता निखरकर कुन्दन के रूप में जनता के सामने आई। वे स्वयं इस बात को अंगीकार करते थे कि रायपुर के सम्पूर्ण घटनाकाण्ड में हमने प्रबल पुरुषार्थ और सहिष्णुता का परिचय दिया। परिस्थितियों से घबराकर हमने कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया, जिसके लिए हमें पश्चात्ताप करना पड़े। हमें हर्ष है कि हमारी सहनशीलता, का लोगों ने अंकन किया। रायपुर का काण्ड हमारे Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २३४ लिए वरदान सिद्ध हुआ। यदि हम अपना थोड़ा सा भी संतुलन खो देते तो शायद हमारे भविष्य के कार्यक्रमों पर गलत असर पड़ सकता था।" रायपुर से विहार होने के बाद देवास गाँव में पत्थरों की बौछार होने से कुछ कार्यकर्ताओं को चोट लगी। एक नुकीला पत्थर सनसनाता हुआ गुरुदेव की पीठ के बाएं कंधे पर लगा। पीठ से टकराकर पत्थर के दो-तीन टुकड़े हो गए। चोट लगने से पृष्ठभाग पर खून बहने लगा पर गुरुदेव शांत, गम्भीर एवं अविचल मुद्रा में खड़े रहे। चोट लगने के पश्चात् युवकों के खून में जोश उभरना स्वाभाविक था। गुरुदेव ने स्थिति की गम्भीरता को समझा और तत्काल सबको शांत रहने की प्रेरणा देते हुए ओजस्वी वाणी में प्रतिबोध दिया- "मैं अपने अनुयायियों को समता, सहिष्णुता और शांति का विशेष प्रशिक्षण देना चाहता हूं क्योंकि सहनशील बनकर ही हम अपने अस्तित्व पर मंडराने वाले खतरों से बच सकते हैं। ऐसी निम्नस्तर की हरकतों पर हमें बिलकुल भी उत्तेजना नहीं आनी चाहिए। न ही मन में असद्भावना का भाव आना चाहिए। उन लोगों पर क्या गुस्सा किया जाए, जो अज्ञानी हैं ? हम कामना करें, इनको सद्बुद्धि मिले और सही पथदर्शन मिले। जहाँ भी हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा से दिया जाता है, वहाँ आक्रोश, ध्वंस और हत्याओं का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। एक भूल के साथ अनेक भूलों का इतिहास जुड़ जाता है। मुझे विश्वास है हमारे अनुशासन-प्रिय युवक इस स्थिति में भी शांति का परिचय देंगे।" गुरुदेव के इस प्रेरक उद्बोधन से उग्र वातावरण शांत हो गया। असहिष्णु व्यक्ति न सह सकने के कारण प्रतिहिंसक हो जाता है। किन्तु सहिष्णु होने के कारण पूज्य गुरुदेव जीवन्त अहिंसा के व्याख्याता थे। उनका अनुभव था कि जब मैं अनुलोम-प्रतिलोम उपसर्गों को सहन करता हूं तो मुझे लक्ष्य के दर्शन होने लगते हैं।' प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ते का यह अनुभव उनके जीवन में साक्षात् देखा जा सकता था- 'जब-जब लोग मेरी बुराई करते हैं, मैं अपनी आत्मा को इतनी ऊंचाई पर ले जाता हूं कि उनके द्वारा की गई बुराई वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती।' जहाँ जीवन है, वहाँ परिस्थितियों से नहीं बचा जा सकता। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ साधना की निष्पत्तियां परिस्थिति आने पर भी प्रतिक्रिया न करना सहनशीलता का उत्कृष्ट नमूना है। अमुक व्यक्ति ने मेरे साथ गलत व्यवहार किया इसलिए मैं भी उसके साथ अभद्र व्यवहार करूंगा, यह प्रतिक्रिया है। सामान्य मानव क्रिया कम करता है, प्रतिक्रिया अधिक करता है। जो मन सहने की भाषा नहीं जानता, वह प्रतिक्रिया करके नयी-नयी दुःखद परिस्थितियों को उत्पन्न करता रहता है। एक बार सहने का अर्थ है- परिस्थितियों का अंत । पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट चिन्तन था कि प्रतिकूल परिस्थिति में घबराहट पैदा हो जाए तो साधना कैसे होगी? यदि प्रतिकूल परिस्थिति ही नहीं आए तो साधक की कसौटी क्या होगी? पूज्य गुरुदेव की प्रतिक्रियाविरति की साधना दूसरों के लिए आदर्श थी। उनकी सहनशक्ति देखकर कभी-कभी विरोधी व्यक्ति भी आश्चर्यचकित हो जाते थे। गुरुदेव तुलसी की सहनशक्ति का राज इस पद्य में खोजा जा सकता है विकारहेतौ सति विक्रियन्ते। __ येषां न चेतांसि त एव धीरा॥ अर्थात् विकृति का हेतु उपस्थित होने पर भी जिनका चित्त विकृत नहीं होता, उद्वेलित नहीं होता, वे धीर पुरुष हैं। एक बार पत्रकारों ने गुरुदेव के समक्ष एक प्रश्न उपस्थित किया'आप इतनी विरोधी एवं विपरीत स्थिति में सन्तुलन एवं सहिष्णुता कैसे रख पाते हैं? क्या आपके मन में कभी प्रतिशोध या प्रतिक्रिया के भाव जागृत नहीं होते?' गुरुदेव ने सहज मुस्कान के साथ पत्रकारों को समाहित करते हुए कहा- 'अहिंसा का साधक कटु सत्य भी नहीं बोल सकता, फिर वह किसी पर कटु आक्षेप कैसे लगा सकता है, इस बोध-पाठ ने मुझे संयत.एवं सन्तुलित रहना सिखाया है।' गुरुदेव की दृष्टि में सहिष्णुता का अर्थ यह नहीं कि अन्याय को सहन किया जाए। उनका स्पष्ट अभिमत था कि अन्याय का प्रतिकार होना चाहिए और उसके परिष्कार पर ध्यान देना चाहिए। असहिष्णु व्यक्ति दूसरे के परिष्कार या रूपान्तरण की बात नहीं सोच सकता, वह तो केवल प्रतिक्रिया करके स्वयं या दूसरे को विक्षिप्त बनाता रहता है। . सहिष्णुता के चार रूप हैं- शारीरिक सहिष्णुता, वाचिक सहिष्णुता, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २३६ मानसिक सहिष्णुता और भावनात्मक सहिष्णुता। “सीओसिणच्चाई से निग्गंथे" महावीर का यह सूक्त उनके कण-कण में समाया हुआ था, यही कारण था कि पूज्य गुरुदेव की शारीरिक सहिष्णुता इस हद तक सध चुकी थी कि न वे सर्दी-गर्मी से प्रभावित होते और न किसी बीमारी एवं वेदना में व्यथित होते। अनेक बार तो अत्यधिक सहिष्णुता के कारण उनकी बीमारी एवं वेदना का उनके आस-पास रहने वाले संतों को भी अहसास नहीं हो पाता था। उनके चेहरे पर उभरती शांति की दिव्य छटा में वेदना की झलक भी नहीं मिल पाती थी। वे नहीं चाहते थे कि उनकी वेदना में दूसरे व्यक्ति भी सहभागी होकर वेदना या कष्ट का अनुभव करें। अस्वस्थ अवस्था में किसी को कुछ न कहना और समतापूर्वक सब सह लेना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। सहिष्णुता के बिना काटे की पीड़ा को सहना भी कठिन होता है। दूसरों के सुख के लिए स्वयं कष्ट सहना बिना साधना के सम्भव नहीं है। यह घटना प्रसंग उनकी कष्ट सहिष्णुता का जीवन्त निदर्शन हैसन् १९५६ जे.के. नगर में एल्यूमीनियम फैक्ट्री के मैनेजर ने गुरुदेव को कर्मचारियों के बीच प्रवचन एवं प्रेरणा देने का निवेदन किया। प्रवचन के लिए ११.३० बजे का समय निर्धारित किया गया। भोजन करते समय गुरुदेव को सूचना मिली कि ११ बजकर २० मिनिट हो गये हैं तो वे तत्काल भोजन को अधूरा छोड़कर नियत समय प्रवचनस्थल पर पहुँच गए। सारे मजदूर शामियाने में बैठ गए, जो बरामदे से काफी दूर था। गुरुदेव ने सोचा- 'वक्ता और श्रोता के बीच इतनी दूरी नहीं रहनी चाहिए।' वे तत्काल मजदूरों के पास जाकर धूप में बैठ गए। सन्तों ने प्रार्थना की- 'धूप में बैठने से आपको जुखाम हो जाता है अत: छाया में ही विराजने की कृपा करें।' पर गुरुदेव के मानस पर उस प्रार्थना का कोई असर नहीं हुआ। सब लोग श्रद्धाभिभूत होकर देखते रहे कि प्रतिदिन धूप में बैठने वाले छाया में थे और छाया में बैठने वाले धूप में। प्राकृतिक सर्दीगर्मी एवं वर्षाजन्य कष्टों में कायर न होने की प्रेरणा वे समय-समय पर देते रहते थे- 'प्रकृति पर कोई नियन्त्रण नहीं कर सकता। जिस समय प्रकृति की जो देन होती है, उसको उसी रूप में सहन करना लाभप्रद है। साधक Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ साधना की निष्पत्तियां . को उसकी अनुकूलता - प्रतिकूलता में प्रसन्न या खिन्न न होकर सदैव सहिष्णुता से उसे सहन करना चाहिए। ग्रीष्मकाल की उच्छृंखल लू और कड़ी धूप दुर्बल मन वाले व्यक्ति को बेचैन बना सकती है पर साधक सदा सर्वत्र समभाव में रहता है ।' अनुशास्ता में यदि वाचिक सहिष्णुता नहीं होती तो संगठन को छिन्न-भिन्न होने में समय नहीं लगता । साठ साल के लम्बे नेतृत्व में गुरुदेव का अनुभव रहा कि गाली का जवाब गाली से देना कमजोरी है पर सक्षम और सबल होकर दूसरों के कुवचनों एवं विरोध को सहना बहुत बड़ी साधना है ।' पूज्य गुरुदेव अपनी भाषा के सम्यक् प्रयोग के प्रति प्रारम्भ से ही जागरूक रहे थे। वे किसी की कटु आलोचना और आक्षेप को पाप मानते थे । वे कहते थे - 'विचारभेद कहीं भी हो सकता है पर विचारभेद को लेकर किसी पर कटु शब्दों से प्रहार करना मेरी दृष्टि में `कदापि उचित नहीं है। मैं इसमें एक प्रकार की हिंसा के दर्शन करता हूँ।' वाचिक सहिष्णुता के ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं, जब खुलकर अखबारों और पोस्टरों में उनका निम्नस्तरीय विरोध हुआ लेकिन उन्होंने उसके प्रत्युत्तर में अपनी जबान नहीं खोली। 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में वे लिखते हैं- "विरोध में मुझे जो ग्राह्य प्रतीत हुआ, उससे लाभ उठाया पर हम विरोध में उलझे नहीं । यदि उलझ जाते तो हमारी ऊर्जा समाप्त हो जाती। इस सन्दर्भ में कवि कबीर की अनुभव - वाणी हमारी स्मृति में रही --- निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करत सुभाय ॥ हमने सदैव यही चिन्तन किया कि आलोचक और विरोधी लोग हमें सजग कर रहे हैं। हम स्वयं अपनी समीक्षा करें और लक्ष्य की दिशा में गति करते रहें, यही हमें अभीष्ट है ।" "पुढ़वीसमे मुणी हवेज्जा" दशवैकालिक के इस भिक्षु आदर्श को उन्होंने जीवन्त किया था। अनुशास्ता के रूप में वे अपनी सफलता का बहुत कुछ श्रेय सहिष्णुता को देते थे । यही कारण है कि उनकी मानसिक सहिष्णुता उच्च शीर्ष पर थी । प्रकृति का कोई भी तेवर उनके मनोबल को Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २३८ विचलित नहीं कर पाता था। दक्षिण यात्रा की ओर प्रस्थान करते समय विहार के दौरान एक बार प्रकृति ने एक दिन में तीन बार रूप परिवर्तन किया। मौसम के उतार-चढ़ाव का उनके सहिष्णु मानस पर कोई असर नहीं हुआ। यदि मौसम का मनःस्थिति पर प्रभाव पड़ता है तो यह उनकी दृष्टि में मानसिक दुर्बलता थी। सहिष्णुता का उत्कृष्ट रूप है- भावनात्मक स्तर पर सहन करना। पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि जिस व्यक्ति के संवेग सन्तुलित रहते हैं, उसकी सहिष्णुता को कोई नहीं छीन सकता। उसकी विनम्रता, उदारता, धृति, करुणा, अनुशासनप्रियता आदि विशेषताएं कभी क्षीण नहीं हो सकतीं।' समय पर भावनात्मक सहिष्णुता रखना अत्यन्त कठिन कार्य है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जातीय और साम्प्रदायिक असहिष्णता मनुष्य को जंगली जानवर से भी अधिक क्रूर बना देती है। भारतवर्ष का इतिहास धार्मिक असहिष्णुता की घटनाओं से भरा पड़ा है। पूज्य गुरुदेव ने साम्प्रदायिक विरोध में जो सहिष्णुता का परिचय दिया, वह इतिहास का दुर्लभ दस्तावेज है। वे मानते थे- 'मतभेद रहे पर मनभेद न हो। व्यक्ति की अपनी मान्यता कुछ भी रहे पर दूसरों की मान्यता के प्रति कीचड़ उछालना असहिष्णुता है।' जयपुर में बाल-दीक्षा के प्रबल विरोध के अवसर पर हरियाणा से आए भाइयों के खून में उबाल आ गया। उन्होंने कहा- 'हम अन्याय को सहन नहीं करेंगे।' गुरुदेव ने उनकी उत्तेजना के पारे को शान्त करते हुए कहा- "आप लोगों की थोड़ी-सी असहिष्णुता पूरे धर्मसंघ को बदनाम कर सकती है। अभी आवेश करने का अवसर नहीं है। हमारा काम शांति को सुरक्षित रखना है। सहिष्णुता सदा विजयी होती है, असहिष्णुता व्यक्ति को निर्बल बनाती है। यदि आप सच्चे अर्थों में मेरे अनुयायी हैं तो किसी भी स्थिति में असहिष्णु नहीं बनेंगे।' __ पूज्य गुरुदेव की भावनात्मक सहिष्णुता का एक घटना प्रसंग प्रसिद्ध साहित्यकार यशपालजी जैन के शब्दों में पठनीय है- "एक जैन विद्वान् आचार्य तुलसी के बहुत ही आलोचक थे। हम लोग बम्बई में मिले थे। संयोग से आचार्यश्री भी उन दिनों वहीं थे। मैंने उस सज्जन से कहा कि आपको जो शंकाएं हैं और जिन बातों में आपका मतभेद है, उनकी चर्चा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ साधना की निष्पत्तियां आप स्वयं आचार्यश्री से क्यों न कर लें? वे तैयार हो गये। हम लोग गये। काफी देर तक बातचीत होती रही। लौटते समय उस सज्जन ने मुझसे कहा- 'यशपालजी! तुलसीजी महाराज की एक बात की मुझ पर बड़ी अच्छी छाप पड़ी है।' मैंने पूछा- 'किस बात की? बोले, 'देखिये, 'मैं. बार-बार अपने मतभेद की बात उनसे कहता रहा, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। एक शब्द भी उन्होंने जोर से नहीं कहा।शक्तिसम्पन्न होने पर भी दूसरे के विरोध को इतनी सहनशीलता से सुनना और सहना आसान बात नहीं है।' इस घटना के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह सम्बोध असहिष्णु एवं शक्तिहीन लोगों को नयी प्रेरणा देने वाला है- "मजबूरन तो सारा संसार ही सहन करता है। पर वह सहन करना वस्तुतः सहन करना नहीं है। वह तो एक प्रकार की कायरता है और कड़े शब्दों में कहा जाये तो हिंसा है। सच्ची वीरता तो इसमें है कि प्रतिकार करने की शक्ति रखने के बावजूद भी 'सहन करना मेरा आत्मधर्म है'-ऐसा चिंतन कर व्यक्ति शांत और सहिष्णु रहे, यही सच्ची सहिष्णुता या क्षमा है।' - पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन के प्रसंगों से सहिष्णुता को जीवन्त बनाया। उन्हें सहिष्णुता का प्रतिरूप कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी क्योंकि उन्होंने प्रकृति और पुरुष दोनों को सक्षम होकर सहा और दिनकर की इन पंक्तियों को साकार किया क्षमा शोभती उस भजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो॥ कर्म और अकर्म में संतुलन साधक के समक्ष कर्म और अकर्म तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का द्वंद्व सदैव बना रहता है। श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म और अकर्म की व्याख्या में विद्वान लोग भी दिग्मूढ़ बन जाते हैं। गीता में उन्होंने विस्तार से इसकी चर्चा की है। तीसरे अध्याय में कर्म और अकर्म के बीच सन्तुलन स्थापित करने का सुन्दर प्रयत्न हुआ है न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव, सिद्धिं समधिगच्छति॥ अकर्म बनना साधक का लक्ष्य है लेकिन कोई भी साधक सहसा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४० अकर्म नहीं बन सकता। गीता के अनुसार- 'न हि देहभृतां कश्चित् त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः' अर्थात् कोई भी प्राणी संपूर्ण रूप से कर्ममुक्त नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में पूज्य गुरुदेव का यही चिंतन था कि मेरी समझ में कर्म करना जितना सरल है, अकर्म रहना उतना ही कठिन है। कठिन ही नहीं, सक्रियता से सर्वथा मुक्त होना असंभव है क्योंकि मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्म का निरोध तो हो सकता है पर आध्यात्मिक सक्रियता शैलेशी या सिद्धावस्था में भी समाप्त नहीं होती। वहां कोई दृश्य क्रिया भले ही न हो पर चेतना की स्वाभाविक क्रियाशीलता अनवरत चालू रहती है।' स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 'प्रवृत्ति के केन्द्र में मैं' रहता है। जब 'मैं' का भाव घटने लगता है, तभी निवृत्ति का उदय होता है।' ___ यदि वृत्ति संशोधित हो जाए, कषाय और आसक्ति के भाव को कम कर दिया जाए तो कर्म भी अकर्म बन जाता है। संशोधित वृत्ति वाला व्यक्ति कर्म करता हुआ भी बंधन से मुक्त रहता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि दीमक की तरह हजारों पुस्तकें चाट जाने से या गधे की भांति चंदन का भार ढोते रहने से कोई लाभ नहीं है, यदि कर्म स्वच्छ नहीं बने।' इसीलिए पूज्य गुरुदेव ने अपने कर्म को परिमार्जित एवं परिष्कृत करने का प्रयत्न किया था। गीता का "योगः कर्मसु कौशलम्" सूक्त उनके जीवन में पूर्णतया घटित होता था। गुरुदेव की ये अभिव्यक्तियां भी इसी तथ्य की संपुष्टि करने वाली हैं * हमें निष्क्रिय नहीं, अपितु क्रिया करते-करते अक्रिय बनना है। * कर्म में मेरी रुचि है। मैं चाहता हूं कि अकर्म के साथ अन्तिम श्वास तक कर्मशील बना रहूं। कर्मशील व्यक्ति स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है, इस विश्वास के साथ मैं सतत निर्माण कार्य में लगा रहता हूं और प्रसन्नता का अनुभव करता हूं। साधनाकाल में यदि साधक अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म देखने का अभ्यास कर ले तो समस्या का समाधान हो सकता है पर यह स्थिति अभ्यास से प्राप्त होती है। एक कर्म के अतिरिक्त बाकी सब कर्मों की विस्मृति कर्म में अकर्म की साधना है। इसी प्रकार ऊपर से सब Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ साधना की निष्पत्तियां क्रियाओं को छोड़कर मन को यायावर बनाए रखना अकर्म में कर्म का प्रयोग है। गीता में भी इसी सत्य का उद्घाटन हुआ है कि जो व्यक्ति कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म को देखता है, वही प्रज्ञावान् है।" इस संदर्भ में महात्मा गांधी का मंतव्य भी उल्लेखनीय है- "एक स्थिति ऐसी होती है, जब मनुष्य को विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती। उसके विचार ही कर्म बन जाते हैं, वह संकल्प से कर्म कर लेता है। ऐसी स्थिति जब आती है, तब मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है।" निवृत्ति के बाद जो प्रवृत्ति होती है, उससे चेतना के केन्द्र में विस्फोट होता है अतः प्रवृत्ति की तेजस्विता और सक्रियता के लिए निवृत्ति आवश्यक है। इसी सत्य का संगान अध्यात्म पदावली में हुआ है-- क्रिया-अक्रिया का युगल, जीवन का चिर सत्य। वही क्रिया है सत्क्रिया, जहां अक्रिया तथ्य॥ कोरा कर्म आदर्शों को निष्क्रिय बना देता है अतः प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति की साधना भी अत्यन्त अपेक्षित है। समिति के साथ गुप्ति का संतुलन होना आवश्यक है। जो कर्म के बाद अकर्म का अनुभव नहीं करता, उसकी कर्मशक्ति कुंठित हो जाती है। निरंतर धड़कने वाला हृदय भी विश्राम करता है। गति और स्थिति, आहार और अनाहार, भाषा और मौन-ये सब जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। पूज्य गुरुदेव ने कर्म में अकर्म . की साधना को साधने का प्रयत्न किया था। इतने बड़े संघ का संचालन करने के बावजूद भी वे प्रतिक्षण एक द्रष्टा की भांति स्थिरयोगी ही दिखाई पड़ते थे। उनके किसी क्रिया-कलाप में अधीरता, आसक्ति या चंचलता के दर्शन नहीं होते थे। उनकी हर क्रिया संयम से अनुप्राणित थी अतः उनका जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन का प्रतीक था। बाह्य दर्शन में वे हरपल कर्मप्रवृत्त दिखाई देते थे लेकिन भीतर की स्थिरता उनको प्रतिक्षण अकर्म की अनुभूति कराती रहती थी! पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव का स्वागत किया जा रहा था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने स्वागत भाषण बोलते हए कहा- 'आज की सबसे बड़ी समस्या है- प्रवृत्ति का अतिवाद । प्रवृत्ति के अतिवाद ने हमें अणुअस्त्रों के युग तक पहुँचा दिया है अतः हम आपसे निवृत्ति का Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४२ पाठ पढ़ना चाहते हैं। प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का संतुलन ही हमें विभीषिका से बचा सकता है।' पूज्य गुरुदेव ने अर्हद्-वाणी में प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन को बहुत सुन्दर शब्दों में गुम्फित किया है— सहयायी बन सदा निवृत्ति प्रवृत्ति रही है, धूप-छांह की संरचना क्या सही नहीं है ? फिर निश्चय व्यवहार क्यों नहीं साथ चलेगा ? दोनों से ही संयम तप उद्यान फलेगा ॥ 1 हिसार में एकांतवास के अवसर पर गुरुदेव से प्रश्न पूछा गया कि आप अत्यधिक व्यस्त रहते हैं अतः एकांतवास की इस लम्बी अवधि में आपको कुछ विचित्रता की अनुभूति नहीं हुई? पूज्य गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'व्यस्तता मेरा स्वभाव बन गया है। इस प्रयोगकाल से पहले मैं व्यस्त था बाद में भी संभवतः व्यस्त रहूंगा और वर्तमान में भी उतना ही व्यस्त हूं। आज भी मेरी व्यस्तता मिटी नहीं है । उसका मार्गान्तरीकरण अवश्य हुआ है। जिनका व्यस्त रहने का अभ्यास है, उन्हें अपने सामने काम चाहिए, फिर वह किसी प्रकार का क्यों न हो? मेरी पहले की व्यस्तता जन-सम्पर्क में अधिक थी, अब वह एकांत अनुष्ठान में परिणत हो गई है। खाली बैठने की मुझे आदत नहीं है, वह पहले भी नहीं थी और आज भी नहीं है । " गुरुदेव के मस्तिष्क में "कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः " गीता का यह पद्य अनुगुंजित होता रहता था । " योगिनः कर्म कुर्वन्ति, संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये" इस सूक्त को ध्यान में रखते हुए पूज्य गुरुदेव कर्म करते हुए भी आसक्ति और कर्तृत्व के अहं से परे थे । यही कारण है कि कोई भी कर्म का फल उन्हें बेचैन नहीं बनाता था। जहाँ कर्त्ताभाव जुड़ जाता है, वहाँ निश्चय ही फलाशंसा भी व्यक्ति को बांध देती है। गीता का 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' तथा दशवैकालिक का 'नन्नत्थ निज्जरट्ठाए' आदि वाक्य सदैव उनके मानस पटल पर तरंगित होते रहते थे अतः उनका कोई भी कर्म प्रतिदान या प्रतिफल की भावना से संपृक्त नहीं होता था। पूज्य गुरुदेव के अभिमत से कर्त्ताभाव से दूर रहने का तात्पर्य यह नहीं था कि व्यक्ति कोई गलत कार्य करे और उसका दायित्व अपने ऊपर न ले। मिलावट, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ साधना की निष्पत्तियां धोखाधड़ी, शोषण जैसी अवांछनीय प्रवृत्ति करने के बाद कहे कि मैं क्या करूं? ईश्वर की जैसी मर्जी। अच्छे-बुरे सब कार्य कराने वाला भगवान है अत: मैं उनका फल भी उन्हीं को समर्पित करता हूं। यह अकर्त्ताभाव या अकर्म की साधना नहीं, बल्कि सिद्धांत का दुरुपयोग है।' कर्तृत्व के अहं से दूर रहकर वृत्तिसंशोधन की ओर प्रयाण करना ही अकर्म साधना का प्रतिफल है। पूज्य गुरुदेव स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि मैं परिणाम की अपेक्षा प्रवृत्ति की पवित्रता का चिंतन अधिक करता हूँ। ___ साधना के क्षेत्र में कर्म के साथ अकर्म की साधना भी आवश्यक है। अकर्म रहना आलस्य या प्रमाद नहीं, अपितु एक प्रकार की भीतरी सक्रियता है। हार्ट के रोगी को संपूर्ण विश्राम का परामर्श दिया जाता है। लेकिन यह विश्राम भीतरी सक्रियता के लिए होता है। भगवान् महावीर भी इसी भाषा में बोलते हैं कि "न कम्मुणा कम्म खवेइ बाला, अकम्मुणा कम्म खवेइ धीरा" अर्थात् कर्मों का क्षय कर्म से नहीं, अकर्म से ही संभव है। कायोत्सर्ग अकर्म साधना का मुख्यद्वार है। पूज्य गुरुदेव की कायगुप्ति इतनी सधी हुई थी कि देखने वाले आश्चर्यचकित रह जाते थे। उम्र के नवें दशक में ६-६ घण्टे एक ही आसन में बिना हलचल के वे स्थिर बैठे रहते थे जबकि सामान्य व्यक्ति के लिए आधा घंटा स्थिर बैठना भी कठिन होता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में कर्म और अकर्म दोनों को सापेक्ष मूल्य दिया था। कर्म को उन्होंने वृत्ति-संशोधन के साथ जोड़कर उसे अकर्म के रूप में परिणत करने का प्रशस्त प्रयत्न किया था। सहजानंद की अनुभूति . साधक हर स्थिति में आनंद-निमग्न रहता है। सदा प्रसन्न रहने वाला साधक प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थिति से प्रभावित होकर खिन्नता या प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता। समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए', महावीर की यह आर्षवाणी सदैव उनकी स्मृति-पटल पर तैरती रहती थी। पूज्य गुरुदेव के जीवन में विरोधों के अनेक आंधी-तूफान आए। उच्चस्तरीय प्रशंसा एवं प्रशस्ति के क्षण भी उपस्थित हुए पर उनकी मुखाकृति पर न वेदना के चिह्न देखे गए और न अतिरिक्त प्रसन्नता के। उनका अनुभव था कि अधिक प्रसत्ति और अधिक विषाद दोनों ही साधना में बाधक तत्त्व हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४४ मानसिक प्रसन्नता जितनी अधिक रहेगी, सफलता उतना ही सन्निकट रहेगी। इसलिए साक्षीभाव से हर परिस्थिति को पार करना चाहिए। परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से सहज मुस्कान बिखेरते रहना गुरुदेव का जीवन-क्रम बन गया था। सहज आनन्द उनके रोम-रोम से टपकता था। उदासी या मायूसी को वे अपने पास फटकने भी नहीं देते थे। व्यथा का उनके साथ दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था। ये विचार उनके इसी प्रसन्न व्यक्तित्व की अभिव्यक्तियां हैं * मैं आज भी अपने आपको पूरी तरह से तरोताजा अनुभव करता हूं। मेरी इस ताजगी का रहस्य है-प्रसन्नता। यदि मैं प्रसन्न रहना नहीं जानता तो जी नहीं सकता। मैं आप सबसे कहना चाहता हूँ कि यदि आप युवा रहना चाहते हैं, दीर्घजीवी होना चाहते हैं तो प्रसन्न रहना सीखिए। व्यथित रहकर जीना भी कोई जीना है। मैं एक वर्ष जीऊं. पांच वर्ष जीऊं या पचास वर्ष जीऊं, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। मैं जितना जीऊं प्रसन्नता और आनन्द से जीऊं, यही मेरी चाह है।' * मनुष्य के लिए अनेक वस्तुएं प्राप्तव्य हैं। उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है- आनंदोपलब्धि। मेरी दृष्टि में आनंद से बढ़कर कोई प्राप्तव्य नहीं है। यदि हम आनंदयुक्त जीवन जीते हैं तो हमारा जीवन कलात्मक है अन्यथा वह पशु जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं कहा जा सकता। * दुनिया वैभव में सुख मानती है पर हम आकिंचन्य में सुख का अनुभव करते हैं। दुनिया बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में सुख मानती है पर हम टूटे झोंपड़े में आनंद पा लेते हैं। दुनिया भूख से डरती है पर हम भूखे रहकर भी आनन्द की अनुभूति करते हैं।' भावना से अनुप्राणित साधक को कोई भी स्थिति खिन्न या उद्वेलित नहीं कर सकती। पूज्य गुरुदेव ने धर्मक्रान्ति के रूप में जनता के समक्ष इसी तथ्य को प्रकट किया- "भले एक व्यक्ति मंदिर, मस्जिद न जाए, पूजा-पाठ न करे पर कषाय उपशांत रखे, भाव-विशुद्धि रखे और निषेधात्मक भावों से बचता रहे तो वह धार्मिक हो सकता है। उसकी प्रसन्नता को कोई छीन नहीं सकता।" अपना अनुभव बताते हुए उन्होंने यही कहा- "मैं भाव-विशुद्धि का प्रयोग कर रहा हूं इसलिए बुढ़ापा, बीमारी आदि स्थितियां मुझे सताती नहीं। इसी कारण मैं वेदना या व्यथा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ साधना की निष्पत्तियां का अनुभव नहीं करता। मुझे लगता है दिन-प्रतिदिन मेरी प्रसन्नता बढ़ रही है, मुझमें अधिक ताजगी और तारुण्य आ रहा है । मेरी साधना की स्फूर्ति मेरे हर स्वप्न को साकार बनाने में लगी हुई है। मैं साधना के माध्यम से अपनी मानसिक प्रसन्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहता हूँ । ' पूज्य गुरुदेव यदि किसी के चेहरे को बुझा-बुझा या उदास देखते तो तत्काल उसे प्रफुल्ल एवं प्रसन्न रहने की प्रेरणा देते थे । उनकी प्रेरणा की एक झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है - 'मुस्कान जीवन की कला है । जो मुस्कराना जानता है, वही जीना जानता है । मुस्कान के अभाव में जीवन का फूल मुरझा जाता है । मैं अपने लिए मुस्कराहट को बहुत अधिक मूल्यवान मानता हूँ। मैं स्वयं प्रसन्न रहना चाहता हूँ और अपने परिपार्श्व को प्रसन्न देखना चाहता हूँ। मेरी यह इच्छा रहती है कि मेरे निकट रहने वाला व्यक्ति हर क्षण प्रफुल्ल रहे ।' सरदारशहर में पूज्य गुरुदेव समाचारपत्र का अवलोकन कर रहे थे । मुखपृष्ठ पर पांच-सात अपरिचित व्यक्तियों की मुखाकृतियां चित्रित थीं । गुरुदेव ने आसपास बैठे शैक्ष साधुओं को प्रतिबोध देते हुए कहा- 'देखो ! ये व्यक्ति कितने प्रसन्न हैं ? सचमुच प्रसन्नता भी जीवन का एक महान् गुण है। यह प्रकृति का अनुपम वरदान है । यह सबके लिए है पर आश्चर्य है, सब इसके लिए नहीं होते। इसका वरण वही कर सकता है, जो सामंजस्य को जानता है । मुझे उदासी कभी अच्छी नहीं लगती। मेरे सामने यदि किसी की खिन्न या उदास आकृति आ जाती है तो मन में एक वेदना होने लगती है । " प्रसन्न रहने वाला साधक अनेक कठिनाइयों को सहज ही पार कर देता है। महावीर कहते हैं कि शत्रुता का भाव रखने वाला प्रसन्न नहीं रह सकता इसलिए मानसिक प्रसन्नता साधना की निष्पत्ति ही नहीं अपितु उसमें सहायक भी है। गुरुदेव की तीव्र अभीप्सा थी कि साधना के द्वारा आनन्द-प्राप्ति के ऐसे स्रोतों की खोज की जाए जिससे कोई भी समस्या व्यक्ति को दुःख न दे सके। विपरीत परिस्थिति या मानसिक संवेग व्यक्ति के मानस को उद्वेलित न कर सकें। आनंद-प्राप्ति की तीव्र तड़प उनकी डायरी के पन्नों में पठनीय है- 'आज आत्म-विद्या या आनंद-प्राप्ति के गुर लुप्त हैं । हमारा धर्मसंघ उसकी खोज में लगा हुआ है । मैं स्वयं भी इसके लिए प्रयत्नशील हूं। कुछ तथ्य उपलब्ध हुए भी हैं पर उपलब्धि की Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी गति मंद है। फिर भी मेरा विश्वास प्रबल हो रहा है कि एक दिन हम अपने प्राप्तव्य को प्राप्त करके रहेंगे।' पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में सुख, शांति और आनंद को प्राप्त करने हेतु तीन अपेक्षाएं हैं १. जीवन प्रकाशमय बने। २. मोह का आवरण दूर हो। ३. राग-द्वेष क्षीण हों। चेतना के आनन्द में बाधा डालने वाला एक बड़ा तत्त्व हैटेंशन/तनाव। पूज्य गुरुदेव का मानस टेंशन से सर्वथा मुक्त था। अनुशास्ता होने के नाते उनके जीवन में अनेक प्रसंग ऐसे आए जबकि उन्हें कड़ा अनुशासन भी करना पड़ा। लेकिन दूसरे ही क्षण उस घटना से मुक्त होने, के बाद उनके चेहरे पर कोई शिकन तक देखने को नहीं मिली। कोई व्यक्ति उनके चेहरे को देखकर यह सोच भी नहीं सकता था कि कुछ क्षण पूर्व उन्होंने किसी को इतना कड़ा उलाहना दिया है क्या? वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे कि पानी की लकीर की भांति मेरा टेंशन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। गीता का यह पद्य उनके चिंतन, वाणी और कर्म में सदैव तरंगित होता रहता था प्रसादे सर्वदुःखानां, हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु, बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥ वह साधक कभी आत्मा में रमण नहीं कर सकता, जो पदार्थ में आसक्त है। अपरिमित आकांक्षाएं एवं इच्छाएं व्यक्ति को सुख-शांति और आनंद से नहीं जीने देतीं। एक इच्छा की पूर्ति अनेक इच्छाओं को जन्म देती है। व्यक्ति आकांक्षा के चक्रव्यूह में इतना फंस जाता है कि उससे निकलने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का संबोध मननीय है- 'यदि आप शांति और आनंद-प्राप्ति के इच्छुक हैं तो अपनी आकांक्षाओं को सीमित करना होगा। इस संसार में पदार्थों की सीमा है। आप असीम संपदा पाना चाहते हैं, यह कैसे संभव है?' पदार्थ में आसक्ति सबसे बड़ा दुःख है, जो व्यक्ति इस सत्य से परिचित हो जाता है, वह अनंत आत्म-सुख को प्राप्त कर सकता है। महर्षि अरविंद इसी अनुभूति को व्यक्त करते हैं- 'आवश्यकताओं को कम करने वाला ही प्रसन्न रह सकता है।' Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ साधना की निष्पत्तियां सुख और आनंद के अनुभव में बहुत अन्तर होता है। सुख भौतिक पदार्थों से मिल सकता है, पर परिणाम में वह नीरसता, चित्तभ्रम या पागलपन पैदा करता है किन्तु आनंद भीतर से फूटता है, वह समता और समरसता की स्थिति में अनुभूत होता है। सुख और आनंद का भेद महात्मा गांधी के शब्दों में पठनीय है- 'सुख-दुःख देने वाली बाहरी चीजों पर आनंद का आधार नहीं है। आनंद सुख से भिन्न वस्तु है। मुझे धन मिले और मैं उसमें सुख मानूं, यह मोह है। मैं भिखारी होऊ, खाने का दुःख हो, फिर भी मेरे इस चोरी या किन्हीं दूसरे प्रलोभनों में न पड़ने में जो बात मौजूद है, वह मुझे आनंद देती है।' पूज्य गुरुदेव ने अपनी दिव्य दृष्टि से इन दोनों में भेद का अनुभव किया और भीतर के आनंद का स्वाद चखा। उनके मुख से आत्मविश्वास के साथ अनेक बार ये पंक्तियां निःसृत होती रहती थीं- "आनंद का स्रोत व्यक्ति के अपने अंत:करण में प्रवहमान है। • आप चाहें तो उसमें अवगाहन कर सकते हैं और चाहें तो छलांग मारकर उसके ऊपर से निकल सकते हैं। आप चाहें तो उसे रेगिस्तानी टीलों की ओर मोड़कर सुखा सकते हैं और चाहें तो उससे अपने जीवन की बगिया को सरस बना सकते हैं।' - सृजनशील व्यक्ति हर क्षण सृजन के आनंद में निमज्जित रहता है अतः सुख और दुःख उसकी चेतना का स्पर्श नहीं कर पाते। वह जानता है कि दुःख और समस्या एक नहीं है। घटना को तटस्थ द्रष्टा की भांति देखने के कारण उसके संवेग में कोई अन्तर नहीं आता। उसके भीतर प्रतिक्षण आनंद का स्रोत बहता रहता है। इस संदर्भ में दिनकर के जीवन का यह अनुभव पठनीय है- 'धनाभाव की पीड़ा, दफ्तरों में मिलने वाला प्रच्छन्न अपमान, बेटियों के विवाह की चिंताएं और पारिवारिक कष्ट- मैंने बहुत सहे हैं। कुछ क्लेश मुझे अपने स्वभाव-दोष अथवा मूर्खता के कारण भी उठाने पड़े। किन्तु पीड़ाओं और कष्टों का मुझ पर कोई प्रभाव पड़ा हो, ऐसा आभास मुझे नहीं मिलता। दुःख और सुख के भेद मुझे कभी ज्ञात ही नहीं हुए।' यह स्थिति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसे अपने आपमें रहने का अभ्यास हो। आनंद वह पारसमणि है, जिसको छूने से हर दुःख स्वर्णिम बन जाता है। आनंद की अनुभूति में निमग्न साधक कभी जड़ता या शैथिल्य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४८ का अनुभव नहीं करता । सहजानंद में रमण करने वाला साधक शोक, दुःख, दैन्य और पीड़ा की अनुभूति से दूर सदा आत्मलीन रहता है। सहजानंद को व्यक्त करने वाली पूज्य गुरुदेव के जीवन की निम्न घटनाएं अनेक संत-महात्माओं को प्रतिबोध देने वाली हैं - पूज्य गुरुदेव पीपल गांव में एक छोटी-सी घास की टपरी में. विराजे । टपरी में लगा घास स्थान- स्थान से खिसका हुआ था । वैशाख का महीना था। प्रचंड गर्मी का मौसम था। टपरी के आसपास प्राकृतिक दृश्य बहुत सुंदर था। उस दिन की अनुभूति लिखते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं 4. 'हम कहते हैं कि सुख - दुःख व्यक्ति के भीतर होता है, पदार्थ में नहीं । यह बात सही है। यदि पदार्थ में सुख होता तो आज हमें कष्ट की अनुभूति होती । किन्तु यहां रहकर जो आनन्दानुभूति हुई है, वह प्रमाणित करती है कि सुख बाहर नहीं, भीतर ही है । गोपड़ी गांव में गुरुदेव को किसी कारण से चार बार स्थान परिवर्तन करना पड़ा। जिस संत को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी मनुहार के साथ अपने भवन में ले जाना चाहते थे, इतनी बार स्थान - परिवर्तन के बावजूद भी उनकी मनःस्थिति में कोई अन्तर नहीं आया, यह विशिष्ट साधना की फलश्रुति है । उस समय की अपनी मानसिक स्थिति का चित्रण करते हुए वे स्वयं ही कह उठे - 'बार-बार स्थान - परिवर्तन करने पर भी कष्ट की अनुभूति नहीं हुई प्रत्युत् एक नैसर्गिक आनंद का अनुभव हुआ और मन में आया कि यह तो चार बार ही स्थान परिवर्तन करना पड़ा यदि सौ बार भी करना पड़े तो भी कोई बात नहीं । यही समता और सहजता साधु जीवन की मौज है।' इसी बात को लक्ष्य कर नैसर्गिक काव्य-धारा उनके मुखारविंद से फूट पड़ी कोठी हो चाहे कुटी, समुचित संत अदीन । पचपदरो और गोपड़ी, देखो दोनूं सीन ॥ कोठी आपे आज ओ, जनता से उमड़ाव । काल कुटी में हैं कियो, चार बार बदलाव ॥ गुरुदेव भव्य अट्टालिका में जितनी प्रसन्नता से निवास करते उतनी ही प्रसन्नता से एक कच्ची झोपड़ी में अपने समय को बिता देते थे। वस्तु के भाव-अभाव का उनके साधक मानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ साधना की निष्पत्तियां था। सहजानंद की धारा में वे स्वयं ही निमजित नहीं होते, दूसरों को भी आप्लावित करते रहते थे। सदैव आनंदनिमग्न रहने की प्रेरणा उनके मुखारविंद से अनेक रूपों में प्रकट होती रहती थी। यदि कोई दुःखी या खिन्न व्यक्ति उनके चरणों में उपस्थित होता तो उसे भी वे ऐसी प्रेरणा देते, जिससे वह अपनी पीड़ा को भूलकर आनंद-सागर में निमग्न हो जाता। दक्षिण यात्रा के दौरान एक बार जेल में कैदियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा'जेल में रहकर भी व्यक्ति आत्मनिरीक्षण करे तो बन्धन को मुक्ति में परिणत कर सकता है। दुःखानुभूति की इन घड़ियों को भी आनन्द में बिता सकता है, बशर्ते कि अतीत को भूलकर भविष्य के बारे में चिंतन किया जाए।' सदा प्रसन्न रहने वाले साधक का आभामंडल पवित्र रहता है। आभामंडल की शुद्धता और पवित्रता का प्रभाव शरीर और मन की प्रसन्नता का हेतु भी बनता है। गुरुदेव के आभामंडल की पवित्रता और निर्मलता की अनुभूति उनके निकट रहने वाले हर व्यक्ति को होती रहती थी। साधक के जीवन में यदि आनन्द का स्रोत नहीं फूटता है तो साधना उसके लिए भार बन जाती है। फिर खाद्य-संयम, मौन, जप या अन्य क्रियाएं भी उसके भीतरी आनंद या शक्ति के स्रोत को खोलने में योगभूत न बनकर भारभूत बन जाती हैं। पूज्य गुरुदेव साधु मार्ग की हर कठिनाई को प्रसन्नता से स्वीकार करते थे। इसलिए किसी भी नियम का पालन वे परवशता या भार समझकर नहीं करते बल्कि उसको अपने भीतरी आनन्द को जगाने का साधन बना लेते थे। उनका मानना था कि थकान किसी कार्य को भार मानने से आती है। मेरे मन और शरीर पर किसी बात का कोई भी भार नहीं रहता अत: किसी भी कार्य को करने में मुझे थकान की अनुभूति नहीं होती।' शारीरिक कष्ट की स्थिति में भी उनकी मानसिक प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आता था। उनका अनुभव था कि मनःप्रसत्ति स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा उपचार है। जब-जब उनके जीवन में शारीरिक अस्वस्थता का प्रसंग उपस्थित होता, वे उसे प्रसन्नता से वरदान के रूप में स्वीकार करते थे। एक बार गुरुदेव तीव्र ज्वर से आक्रांत हो गए। सबके मुख पर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५० उदासी के भाव उभर आए पर गुरुदेव ने अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहा- 'बुखार नहीं होता तो विश्राम नहीं मिलता। जो कुछ होता है, वह अच्छे के लिए होता है । ' मेवाड़ के बिलोदा गांव से गुरुदेव का विहार हो रहा था । मार्ग में कमर में भयंकर दर्द उठ खड़ा हुआ। दो बार रास्ते में विश्राम किया किन्तु दृढ़ मनोबल के साथ संतों और श्रावकों के मना करने पर भी वे निर्धारित स्थान पर पहुंच गये। एक बजे आवास-स्थल पर डॉ. खाब्या और बाबेल आए। इस असह्य पीड़ा को अपने अनुभव के साथ जोड़ते हुए गुरुदेव मुस्कराते हुए डॉक्टरों से कहने लगे- 'मैंने अपने जीवन में बहुत अनुभव किए हैं। अनेक प्रकार की बीमारियों का अनुभव भी किया है। आंख, कान, नाक आदि सभी अवयवों के दर्द का मुझे अनुभव है। पर कभी कमर में दर्द नहीं हुआ आज यह भी एक नया अनुभव और जुड़ गया।' उनका प्रसन्न मानस असह्य पीड़ा को भी अपने अनुभव के साथ जोड़कर आनंद की अनुभूति करता था । आचार्य महाप्रज्ञ का अनुभव है कि आनंद हमेशा सत्य होता है इसलिए जो व्यक्ति आनंद का खोजी है, सत्य अपने आप उसका सहचर हो जाता है। वह सत्यं शिवं, सुंदरम् से आंदोलित होकर प्रतिक्षण आनन्द-1 द- निमग्न होता रहता है । ' सरलता 'मैं कैसा हूं यह मेरे लिए पर्यालोच्य है पर इतना अवश्य जानता हूं कि टेढ़े की अपेक्षा सीधा अधिक हूं।' पूज्य गुरुदेव की यह आत्माभिव्यक्ति उनके ऋजु एवं सरल जीवन की संकथा कह रही है। " धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ" महावीर की यह आर्षवाणी ऋजुता के वैशिष्ट्य को सत्यापित करने वाली है । ईसा के अनुसार ईश्वर का साम्राज्य वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन बच्चे की भांति निश्छल और पवित्र होता है। ऋजु व्यक्ति ही सत्य की साधना कर सकता है क्योंकि ऋजुता और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पूज्य गुरुदेव की यह अभिव्यक्ति उनकी सत्यसाधना के साथ जुड़ी ऋजुता का श्रेष्ठ उदाहरण है - " मैं सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील हूँ। आप पूछेंगे कि क्या आपको भी अभी तक सत्य नहीं मिला है ? मैं कहूंगा हां, नहीं मिला है। यदि पूर्ण सत्य का Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ साधना की निष्पत्तियां साक्षात्कार हो जाता तो फिर मुझे कोई प्रयत्न करने की अपेक्षा ही नहीं. होती। आप कहेंगे कि इतनी साधना के बाद भी सत्य की प्राप्ति क्यों नहीं हुई? इसका कारण यह है कि सत्य असीमित है परन्तु हमारी दृष्टि सीमित है। जिस दिन हमारी दृष्टि असीमित हो जाएगी, उस दिन हमारा सत्य से साक्षात्कार हो जाएगा। अन्तःचक्षु खुलते ही हम सत्य को प्राप्त कर लेंगे।' युवाचार्य महाश्रमणजी को ऋजुता का पर्याय कहा जा सकता है। उनके हर व्यवहार में सरलता और सहजता झलकती है। वे आर्जवभाव को परिभाषित करते हुए कहते हैं- 'आर्जव की साधना का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति धोखा खाता रहे। धोखेबाज व्यक्ति के प्रति प्रतिशोध की भावना किए बिना उसके चक्रव्यूह से निकलना चतुराई है। इससे आर्जवभाव दूषित नहीं होता।' __अनुशास्ता होने के नाते पूज्य गुरुदेव को साम, दाम, दण्ड आदि का प्रयोग करना पड़ता था किन्तु साधक होने के नाते सरलता उनकी सहचरी थी। साधक यदि माया या प्रवंचना करता है तो यह उनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध था। सरलता को परिभाषित करते हुए वे कहते थे- 'मन के उस प्रकाश की साधना, जहां छिपाव और दुराव स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं, सरलता कहलाती है।' पूज्य गुरुदेव का जीवन खुली पुस्तक के समान स्पष्ट था। ऐसे व्यक्तियों को वे बहुत खतरनाक मानते थे, जिनमें बाहर और भीतर की एकरूपता नहीं होती तथा जो ऊपर से मधु से भी अधिक मीठा बोलते हैं पर भीतर से छुरी चलाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति को वे बहुत सरल एवं बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करते हुए कहते थे- 'कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सामने तो प्रशंसा करते हैं और पीठ पीछे निंदा करते हैं। वे कहते हैं- 'क्या है जी! सामने तो कहना ही पड़ता है पर हैं जैसे ही हैं। ऐसे दुमुहें व्यक्ति ढके कुएं हैं। खुले कुएं में व्यक्ति गिरता नहीं, कोई अन्धा भले ही गिर जाए। लेकिन कुएं पर एक गलीचा बिछा दिया जाए और फिर उस पर किसी को बिठाया जाए तो बताइए वह बचेगा क्या? मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि ऐसे निन्दकों से तो वे निन्दक कहीं अच्छे हैं, जिन्हें लोग स्पष्ट जानते हैं। जो सरलता से स्पष्ट रूप से अपनी बात कहते हैं।' तीर्थंकर के संपादक नेमीचंदजी जैन सरलता को परिभाषित करते हुए Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५२ कहते हैं- 'सरलता का अर्थ है-घुमावरहित होना, गतिशील होना, बहना, चक्करदार न होना, पेचीदा, जटिल न होना। यदि आपके व्यक्तित्व में घुमाव नहीं है, आप समतल हैं, आपमें दुर्गम घाटियां नहीं हैं, चक्करदार गलियां नहीं हैं तो आप सरल हैं।' पूज्य गुरुदेव के शब्दों में ऊपर से नासूर की सफाई होती रहे और अन्दर ही अन्दर पीप सड़ती रहे तो स्वास्थ्यलाभ नहीं हो सकता। उसी प्रकार आंतरिक सरलता के बिना बाहरी सरलता से आत्मा का हित नहीं सध सकता। __ अपनी कमी या वस्तुस्थिति को सहजता से प्रकट कर देना साधना की महान् निष्पत्ति हैं। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी पूज्य गुरुदेव की सरलता से अत्यधिक प्रभावित हैं। इस सन्दर्भ में वे अपनी सोच प्रस्तुत करती हुई कहती हैं- 'आचार्यश्री की साधना के जिस पक्ष ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है, वह है उनकी ऋजुता। जो व्यक्ति ऋजु होता है, वही अपने जीवन को खोलकर रख सकता है। आचार्यश्री ने समय-समय पर अपने बारे में लिखित या मौखिकरूप में जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें सामने रखकर सोचती हूं तो मन में आता है कि इस स्थान पर मैं होती तो यह बात इस रूप में कभी नहीं कह पाती।' पूज्य गुरुदेव के जीवन के ऐसे सैकड़ों प्रसंग है, जब प्रवचन में या साधु-समुदाय के बीच उन्होंने अपनी कमी या भूल को स्पष्टता से रख दिया। मेरा जीवन : मेरा दर्शन' पुस्तक में उन्होंने अनेक ऐसे प्रसंग उजागर किए हैं, जिनको पढ़कर श्रोता दंग रह जाते हैं। वे कहते थे- 'मैं अपनी प्रशस्ति-कथा नहीं, आत्मकथा लिख रहा हूं। आत्मकथा में सभी प्रकार के प्रसंगों का समावेश हो जाता है। समय-समय पर ऐसे और भी अनेक प्रसंग सामने आते रहेंगे। जीवन की किसी घटना का सम्बन्ध दुर्बल पक्ष से है, इस कारण मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि मैंने भगवान् महावीर को पढ़ा है, आचार्य भिक्षु को पढ़ा है, महात्मा गांधी को पढ़ा है। इन महापुरुषों ने अपने जीवन के सबल और दुर्बल दोनों पक्षों को उजागर किया है। उनके जीवन से मुझे प्रेरणा मिली है। मैं सोचता हूं कि महावीर, भिक्षु और गांधी जो काम कर सकते हैं तो तुलसी क्यों नहीं कर सकता? जो महापुरुष मेरे लिए प्रेरणास्रोत बने हैं, उनका अनुगमन करना मेरा कर्त्तव्य है, यही सोचकर मैं अपनी जीवन-पोथी के कुछ अंतरंग पृष्ठ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ साधना की निष्पत्तियां खोलकर रखू तो वह अस्वाभाविक नहीं होगा।' यह वक्तव्य अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ साधक के सरल मानस से ही उद्गीर्ण हो सकता है। पूज्य गुरुदेव की निश्छलता को प्रकट करने वाले कुछ घटना प्रसंग सबके लिए प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। मर्यादा महोत्सव का अवसर था। पूज्य गुरुदेव तुलसी ने आचार्य भिक्षु एवं संघ की उत्कीर्तना में जो गीतिका बनाई, उसे स्वयं न गाकर साधुओं से संगान करवाया। यह पहला ही अवसर था जब गुरुदेव ने स्वयं गीत नहीं गाया। लोगों के मन में जिज्ञासा उभर आई। उन्हें समाहित करते हुए गुरुदेव ने परिषद् के मध्य फरमाया- 'आज मैं गीतमय श्रद्धांजलि स्वयं अर्पित न करके साधुओं से करवा रहा हूं। इसका कारण यह है कि इस अवसर पर मैंने जो गीतिका बनाई है, उसकी राग मुझे ठीक से नहीं आ रही थी। मैंने धारने का प्रयत्न भी किया पर मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि मेरे कंठ में अभी तक राग ठीक से नहीं बैठी है। इसलिए आज मैंने गीतिका नहीं गाई है। सर्वोच्च पद पर आसीन अनुशास्ता की इस सरल एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति ने सबको अभिभूत कर दिया। पूज्य गुरुदेव जब आचार्य-पद पर आसीन हुए तो उन्होंने सोचा संघ में इतने तत्त्वज्ञ और चर्चावादी साधु हैं वे मुझसे पूछे इससे पहले मैं ही उनके सामने ऐसे प्रश्न रख दूं, जिससे मेरी विद्वत्ता और ज्ञान की धाक जम जाए अतः गुरुदेव ने साधु-साध्वियों के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न रखे, जिनका वे सही उत्तर नहीं दे पाए। इस प्रसंग पर गुरुदेव ने अपनी आत्मालोचनपूर्वक टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा- 'अध्यात्म की दृष्टि से छल आदि का प्रयोग सर्वथा परिहार्य है, किन्तु व्यवहार के धरातल पर मैंने इनका उपयोग किया। साधु-साध्वियों से उस समय जो प्रश्न पूछे गये थे, उनकी ज्ञानवृद्धि एवं बुद्धि की परीक्षा के उद्देश्य से नहीं पूछे गए थे। उस प्रसंग में मेरा मुख्य लक्ष्य था अपना प्रभाव स्थापित करना। उससे साधु-साध्वियों के ज्ञान में वृद्धि हुई और उन्हें सम्भलने का मौका मिला, यह प्रासंगिक बात थी।' __मुनि अवस्था का घटना प्रसंग है। मुनि कुन्दनमलजी एवं नथमलजी बाल मुनियों को लिपि लिखना सिखाते थे। इससे अनेक मुनियों की लिपि सुन्दर हो गयी। पूज्य गुरुदेव की लिखावट सुंदर नहीं थी। मंत्री मुनि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५४ मगनलालजी स्वामी ने इस सन्दर्भ में कालूगणी को निवेदन किया। उनके निवेदन पर कालूगणी स्वयं आहार करने के बाद पट्ट पर रेत बिछाकर मुनि तुलसी का हाथ पकड़कर उस पर अक्षर लिखना सिखाते। अक्षर लिखाने का क्रम वि. सं. १९९१ तक चला। इस प्रसंग को अभिव्यक्ति देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'लिपि के लिए मैंने सलक्ष्य प्रयत्न भी किया पर वह मोड़ नहीं सीख सका। पूज्य कालूगणी की मेहनत का कुछ परिणाम सामने तो आया किन्तु उस कला में मैं निष्णात नहीं हो पाया।' कुछ व्यक्ति भोलेपन और सरलता में अन्तर नहीं कर पाते हैं। इन दोनों में भेदरेखा को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'स्वयं फंसना भोलापन है तथा औरों को फंसाना छल है। सरल व्यक्ति इन दोनों स्थितियों से ऊपर होता है। पूज्य गुरुदेव की आर्जव-साधना प्रकर्ष पर थी। अनेक बार उनकी ऋजुता का लोग दुरुपयोग कर लेते थे पर वे सरलता को पवित्रता एवं आत्मालोचन का अपरिहार्य अंग मानते थे। सरलता की प्रेरणा देने का उनका तरीका भी अद्भुत था। किसी भी घटना प्रसंग को माध्यम बनाकर वे जनता को सरल एवं पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा दे देते थे। पूज्य गुरुदेव ने आमेट पधारने की घोषणा कर दी। लोगों के हर्ष का पार नहीं था। स्वागत में सभी व्यक्ति उत्साह से अगवानी में जा रहे थे। जुलूस में ४-५ हजार लोगों की उपस्थिति थी। पंडाल में पहुंचने के दो मार्ग थे। एक मार्ग से जुलूस जा रहा था। दूसरा मार्ग थोड़ा छोटा था। अनेक लोग शार्टकट के रास्ते में पहले पहुंचकर प्रवचन-पंडाल में आगे बैठ गए। गुरुदेव ने लोगों को पहले से ही प्रवचन-पंडाल में बैठे देखा तो विनोदपूर्ण भाषा में प्रेरणा देते हुए कहा- 'आप लोग सीधा-सरल रास्ता चाहते हैं। क्या ही अच्छा हो आप अपने जीवन-व्यवहार में भी इसी सीधे सरल रास्ते को अपना लें। सादगी एवं सरलता से जीवन बिताना कितने लोगों को पसन्द है?' गुरुदेव का यह तीखा प्रश्न सबके अन्तर्मन को कुरेदने लगा पर उत्तर देने का साहस किसी के पास नहीं था। . कलकत्ता विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान् सतकौडी मुखर्जी गुरुदेव के सरल एवं निश्छल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। गुरुदेव से हुई मुलाकात को उन्होंने इन शब्दों में प्रकट Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ साधना की निष्पत्तियां किया- 'आचार्य तुलसी की निश्छलता और सरलता के सन्मुख मैंने स्वयं को शिशु रूप में पाया। लगा कि उनकी पैनी दृष्टि हम लोगों के अन्तस्तल को भेदकर हमारी कुटिलता और कलुषता को प्रक्षालित कर रही है । ' विशाल धर्मसंघ का एकछत्र नेतृत्व करते हुए भी पूज्य गुरुदेव ने बचपन जैसी सरलता और निश्छलता को सुरक्षित रखा, यह उनकी विशिष्ट साधना का परिणाम था । विनम्रता 'प्रकृति से मैंने विनम्रता का गुण सीखा है और अपने व्यक्तिगत जीवन में उतारकर देखा है कि जो झुकना जानता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता। विकास के सारे दरवाजे उसके लिए खुल जाते हैं।' पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके विनम्र व्यक्तित्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है- 'अहंकार के नाग को वश में किए बिना साधक साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर • सकता तथा उसके आत्मबोध की दिशाएं प्रशस्त नहीं हो सकतीं।' महात्मा बुद्ध से पूछा गया कि ध्यान किसे कहते हैं ? बुद्ध ने उत्तर दिया- विनम्रता । विनय को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे कि कृत्रिमता, चापलूसी, पराधीनता आदि की प्रेरणा से मुक्त, अहं मुक्ति से निष्पन्न, आंतरिक ऋजुता और व्यावहारिक मधुरता को मैं विनय कहता हूँ । पूज्य गुरुदेव अहंकार को प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व मानते थे । उनकी दृष्टि में जो साधक विनम्र नहीं, उसके लिए सत्य के दरवाजे नहीं खुल सकते। इसलिए सत्यशोधक सहज विनम्र और ग्रहणशील बन जाता है। विनम्र एवं सत्यशोधक दृष्टि का ही परिणाम था कि किसी भी परिस्थिति में अहं उन पर हावी नहीं हो पाता था । हर प्रतिकूलता में भी उनको अनुकूलता नजर आती थी। वे वर्षों से श्वास की बीमारी से आक्रांत थे पर इसके प्रति भी उनका कितना विनम्र दृष्टिकोण था - 'श्वास की बीमारी को मैं अपना मित्र मानता हूँ। यह मुझे बार-बार चेतावनी देती है कि मैं अहंकार न करूं कि मैं स्वस्थ हूँ। मैं भी अस्वस्थ होता हूँ । ' पूज्य गुरुदेव ने अपने गुरु कालूगणी का असीम वात्सल्य पाया। उस वात्सल्य को उन्होंने अपने विकास का माध्यम बनाया न कि अहंकारवृद्धि का । बड़ों की जरा सी कृपा-दृष्टि प्राप्त करके व्यक्ति उसको पचा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५६ नहीं पाता। किन्तु गुरुदेव ने उस विपुल वात्सल्य को न केवल पचाया बल्कि अपनी विनम्रता से गुरु के दिल में प्रारम्भ से ही एक विशेष स्थान बना लिया। यह आत्माभिव्यक्ति इसका स्वयंभू प्रमाण है- 'गुरुदेव की कृपा का मैंने कभी दुरुपयोग नहीं किया। प्रारम्भ से ही मैंने आपकी चाह को अपनी चाह बनाने का लक्ष्य रखा। मुझे याद नहीं, अध्ययन के लिए आपसे बार-बार कहलवाया हो। एक बार जो निर्देश मिलता, मैं उसके प्रति सजग रहता।' थोड़ा सा ज्ञान कर लेने पर भी व्यक्ति स्वयं को पंडित मानने लगता है। किन्तु मौलिक विचारों से परिपूर्ण सैकड़ों ग्रंथ प्रकाशित होने के बाद भी गुरुदेव कहते थे- 'मैंने कुछ नया कहा ही नहीं। संसार में कुछ नया है ही नहीं। मैं तो प्राचीन ऋषि-मुनियों की बात को ही नयी पद्धति से कहने का प्रयास करता हूं।' धवल समारोह पर व्यक्त किया गया उनका संकल्प विनम्रता का साकार रूप कहा जा सकता है- 'प्राप्त पूजा में और अधिक विनम्र बन, साधना के पथ पर और आगे बढ़े, लोक-कल्याण में और अधिक निमित्त बनूं, यही संकल्प मेरे अग्रिम जीवन के प्रकाश-दीप होंगे।' - सामान्यत: व्यक्ति अपनी किसी भी रचना या कार्य में दूसरे का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता। वह सोचता है कि मैंने लिखा, वही सही है लेकिन पूज्य गुरुदेव का दृष्टिकोण इससे सर्वथा भिन्न था। वे जब किसी काव्य की रचना करते तो सभी प्रबुद्ध संत-सतियों को आमंत्रित करके सुझाव मांगते थे। अपनी नयी कृति 'श्रावक संबोध' की सम्पन्नता पर लाडनूं में उन्होंने साधु-संतों की संगोष्ठी बुलाकर कहा- 'मैंने लिख दिया वह ठीक है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। आप लोगों का कोई भी सुझाव हो तो अभी भी परिष्कार किया जा सकता है, नया जोड़ा जा सकता है और कांट-छांट की जा सकती है, मेरी इस रचना को सब व्याख्यान की दृष्टि से नहीं, आलोचना की दृष्टि से सुनें और मुक्तभाव से सुझाव दें। सुझाव देने में हर कोई स्वतंत्र है।' संघ के सर्वोच्च आसन पर आसीन नेता के मुख से निकलने वाले ये उद्गार निश्चित रूप से उनकी निरहंकारी चेतना के स्पष्ट निदर्शन हैं। काव्य की इन पंक्तियों में भी ज्ञान के साथ आने वाले अहंकार पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ साधना की निष्पत्तियां सबसे पहले समझें क्या है, जीवन की परिभाषा। भूल न जाएं फूलन जाएं, पाकर ज्ञान जरा सा॥ - विनम्र व्यक्ति कभी किसी की अवमानना नहीं कर सकता क्योंकि अकड़पन में ही व्यक्ति दूसरे का पराभव या तिरस्कार करता है। पूज्य गुरुदेव आत्मौपम्य भाव में विश्वास करते थे अतः कड़ा अनुशासन करने पर भी किसी को अपमानित या प्रताड़ित करने का लक्ष्य नहीं रहता था। कभी कोई ऐसा घटना प्रसंग घटित हो जाता तो वे विनम्रता से अपने विचारों में परिमार्जन कर लेते थे। यहां उनके जीवन की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है, जो सबके अन्तस्तल को छूने वाली हैं। . बम्बई प्रवास में लोगों ने कहा कि यहां की वर्षा दिनचर्या को अस्त-व्यस्त कर देती है। एक दिन प्रवचन में गुरुदेव ने फरमाया'बम्बई की वर्षा को लेकर हमें बहुत विभीषिका दिखाई गयी किन्तु निरन्तर वर्षा के बावजूद हमें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई। सब काम व्यवस्थित रूप से चल रहे हैं। गुरुदेव के ऐसा कहते ही प्रकृति ने अपना भीषण रूप दिखाना शुरू कर दिया। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि शायद प्रकृति ने मेरे कथन को मेरा अहं मानकर उस पर चोट करने का निर्णय कर लिया या मुझे अपनी ही नजर लग गयी। कई बार मैं अपने स्वास्थ्य या कार्य की प्रशस्ति में कुछ कह देता हूं तो अविलम्ब मुझे उसका परिणाम भोगना पड़ता है।' अनवरत वर्षा से प्रवचन और गोचरी में बाधा उपस्थित होने लगी। पूरे दो सप्ताह तक धूप निकलना तो दूर, सूरज भी दिखाई नहीं दिया। गुरुदेव ने चिंतन किया- 'प्रकृति की अवमानना क्यों की जाए, इस चिंतन के साथ प्रकृति के अधिष्ठायक को सम्बोधित करते हुए कहा"मैंने जो कुछ कहा वह अहंभाव के कारण नहीं कहा। सहज भाव से कही गयी बात भी किसी को अखरी हो तो मैं शुद्ध मन से खमतखामणा करता हूं।' गुरुदेव के ऐसा कहते ही उस दिन अनायास वर्षा रुक गयी और धूप निकल आयी। गुरुदेव की इस सहज विनम्रता और सहजता से बम्बई की जनता विस्मय-विमुग्ध हो गयी। लाडनूं का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव के पास एक संत की शिकायत Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५८ आई। शिकायत से सम्बन्धित संत गुरुदेव से दीक्षा-पर्याय में बड़े थे। गुरुदेव ने सम्बन्धित संत को याद किया और गलती के लिए कड़ा उपालम्भ दिया। मुनि ने उस उपालम्भ को बहुत समता, शांति और विनम्रता के साथ सहा। उनके मन में एक ही विचारसरणि प्रवाहित होती रही कि गुरु का उपालम्भ जीवन के लिए अमृत का प्याला होता है। किसी भाग्यशाली को ही गुरु के वचन सुनने को मिलते हैं, मुझे भी आज यह स्वर्णिम अवसर मिला है। दूसरे दिन मुनि गुरुदेव के चर में पहुंचे और विनम्रतापूर्वक निवेदन किया- 'आपने बहुत कृपा की, मेरे परिष्कार के लिए आपने कल शिक्षा फरमाई लेकिन वह गलती मैंने नहीं की थी। संभवत: किसी ने भ्रमवश आपको ऐसा निवेदन कर दिया है। उनकी विनम्रता और सत्यवादिता ने गुरुदेव को बहुत प्रभावित किया। रात को संतों की गोष्ठी बुलाई और घटना का उल्लेख करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'कल मैंने इनको बिना गलती के इतना कड़ा उपालम्भ दे दिया और बिना पूरी जानकारी किए ही इन पर इतना कड़ा अनुशासन किया, यह मैं अपनी भूल मानता हूं। अब ये प्रायश्चित्त से मुक्त हैं। किन्तु इसके प्रायश्चित्तस्वरूप कल मैं एकासन करूंगा। संतों ने निवेदन किया आपने तो जानकारी के आधार पर कर्तव्यवश उपालम्भ दिया, इसमें प्रायश्चित्त की क्या बात है? गुरुदेव ने दृढ़ता से फरमाया- 'भूल तो भूल ही है। सबसे भूल होती है, मुझसे भी हो सकती है अत: कल मुझे इसका प्रायश्चित्त करना ही है।' यह विनम्रता किसी महान् अनुशास्ता में ही संभव है। सामान्य पद या दायित्व भी व्यक्ति को अतिरिक्त अनुभूति करा देता है। अपने समक्ष उसे सभी व्यक्ति बौने प्रतीत होते हैं। उसकी बोली और व्यवहार में स्पष्ट अंतर झलकने लगता है। संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन होने पर भी पूज्य गुरुदेव सदैव इस भाषा में सोचते थे कि पद बड़प्पन की भूमिका नहीं, अपितु कार्य की कसौटी है। पद अहंपूर्ति का साधन नहीं अपितु और अधिक विनम्र एवं सहिष्णु बनने का मौका है। सुजानगढ़ का घटना प्रसंग है। गुरुदेव पंचमी से वापिस पधार रहे थे। मार्ग में एक किसान ऊंट पर लकड़ियां लादे जा रहा था। एक साथ सभी श्रावक उसे तेजी से एक ओर हटने के लिए कहने लगे। उनके स्वरों Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ साधना की निष्पत्तियां में मृदुता भी नहीं थी। किसान दिग्मूढ़ होकर चारों ओर देखने लगा। एक व्यक्ति ने ऊंट की नकेल पकड़कर उसे एक ओर कर दिया। यह दृश्य देखकर गुरुदेव ने श्रावकों को उलाहना देते हुए कहा- 'तुम लोगों की यह क्या आदत है? किसी को कोई बात कहनी हो तो शांति से क्यों नहीं कहते? मैं कोई बादशाह तो हूं नहीं जो एक ओर से नहीं निकल सकता। मैं तो साइड से भी निकल सकता हूं। इसके लिए किसान को कष्ट क्यों देना चाहिए?' पूज्य गुरुदेव की इस अमृतमयी वाणी को सुनकर निष्कपट किसान आनंदविभोर होकर गुरुदेव के चरणों में प्रणत हो गया। जहां पद को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है, वहां व्यक्ति और संघ का बहुत बड़ा अहित हो जाता है। 'संस्कारबोध' के माध्यम से वे यही प्रतिबोध समाज को देना चाहते थे * पद आए जाए भले, रहें सदा मध्यस्थ। साधे बनकर सतयुगी, सदा साधुता स्वस्थ॥ * प्रतिष्ठा पद से नहीं, पद तो व्यवस्था मात्र है। ध्यान रखना चाहिए, हम स्वयं कितने पात्र हैं। जो व्यक्ति लचीला होता है, समय पर झुकना जानता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता। जिस व्यक्ति का अहं पुष्ट होता है, वह ग्रहणशील नहीं हो सकता। प्रयत्न करके भी वह कुछ पा नहीं सकता क्योंकि कुछ न जानने पर भी वह स्वयं को पूर्ण मानता है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का मानना था कि लचीला व्यक्ति अपने चिंतन के वातायन को सदैव खुला रखता है। वह अपनी ग्रहणशीलता के कारण विशिष्ट से विशिष्टतम बन जाता है। पूज्य गुरुदेव ने अपने लचीलेपन से अनेक अवसरों को प्रतिबोध का माध्यम बनाया था। यदि उनका अहं प्रबल होता तो वे उसे अपनी मानहानि का प्रश्न भी बना सकते थे। जयपुर के मेडीकल कॉलेज में प्रवचन का कार्यक्रम था। छात्र, अध्यापक और प्रिंसिपल सभी उपस्थित थे। गुरुदेव के वक्तव्य से सभी बहुत प्रसन्न हुए। प्रवचन के अंत में गुरुदेव ने एक गीत का संगान किया देश के विद्यार्थियों से कहनी दो बात है। बड़ी करामात है, जी बड़ी करामात है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६० इस गीत को सुनकर सब झूम उठे पर कॉलेज के प्रिंसिपल शास्त्रीय संगीत के प्रेमी थे। उन्हें यह गीत अखरा। उन्होंने गुरुदेव को कहा'आपके मुख से ऐसी फिल्मी रागों में गीत शोभा नहीं देते। पूज्य गुरुदेव 'संस्मरणों के वातायन' में लिखते हैं कि उस दिन के बाद मैंने उस गीत को कभी काम में नहीं लिया और भविष्य के लिए एक बोधपाठ ले लिया कि कभी फिल्मी गीतों की धुनों को काम में नहीं लेना है। प्रस्तुत घटनाप्रसंग उनकी ग्रहणशील चेतना की ओर संकेत करता है। - व्यक्ति को अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए स्वाभिमान रखना आवश्यक है पर अभिमान अस्तित्व के लिए खतरा है। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि व्यक्ति अपने आपको ऊंचा और दूसरों को हीन मानकर आत्मोत्कर्ष करता है, यह उसका अभिमान है, आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। प्रेक्षा वर्ष में प्रवचन श्रृंखला के दौरान अभिव्यक्त उनके विचार हर किसी की अहं चेतना पर चोट करने में सक्षम हैं- मेरे चित्त पर कभीकभी अभिमान की छाया आ जाती है। मैं चौंककर उसे देखता हूं और सोचता हूं कि मैं अभिमान किस बात का करूं? ज्ञान का? संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जो अनेक क्षेत्रों में मेरे से अधिक ज्ञानी हैं। कुछ विषय ऐसे भी हैं, जिनका मैं ककहरा भी नहीं जानता। यदि मेरे पास केवलज्ञान होता तो संभवतः अभिमान का प्रसंग हो सकता था पर केवलज्ञानी अभिमानमुक्त होते हैं। तो क्या तप का अभिमान करूं? मैंने तो बेले-तेले ही किए हैं? भगवान् महावीर तो छह-छह माह की तपस्या सहज ही कर लेते थे। यह भी नहीं तो क्या बुद्धि का अभिमान करूं? अभयकुमार जैसी बुद्धि हो तो भले ही अभिमान किया जा सके पर अभयकुमार और स्थूलिभद्र की सात बहिनों जैसी बुद्धि कहां? इसी प्रकार बाहुबलि जैसा बल होता तो बल पर अभिमान करने का प्रसंग हो सकता था। दर्शन की दृष्टि से क्षायक सम्यक्त्व और चारित्र की दृष्टि से क्षायक चारित्र होता तो अभिमान का विषय बनता। इसी प्रकार सनत्कुमार और मघवागणी जैसा मेरा रूप होता तो अभिमान का हेतु बनता। अन्यथा रूप का अभिमान क्या करना? ऐश्वर्य का भी कैसा अभिमान? शालिभद्र जैसा ऐश्वर्य कहां? मैं तो सोचता रहता हूं कि जिन लोगों के पास यह सब था उन्हें भी अभिमान नहीं हुआ तो मेरे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ साधना की निष्पत्तियां पास तो अभिमान करने लायक कुछ है ही नहीं, फिर अहंकार किस बात का करूं? मेरी स्पष्ट मान्यता है कि मैं महान् हूं, आकर्षक वक्ता हूं, प्रमुख लेखक हूं, कवि हूं- ये सब अभिमान के चिह्न हैं। साधक को इन सब अहंमन्यताओं से ऊपर उठना चाहिए।' पूज्य गुरुदेव की आत्मतेज युक्त यह अनुभवपूत वाणी अहंकार की जड़ों पर प्रहार कर विनम्रता की नयी पौध लगाने में सक्षम होगी, ऐसा विश्वास है। निश्चय और व्यवहार का समन्वय निश्चय और व्यवहार ये दो सत्य हैं। इन दोनों का अपने-अपने स्थान पर मूल्य है। साधक निश्चय और व्यवहार इन दोनों भूमिकाओं के मध्य जीता है। एकान्त निश्चय या एकान्त व्यवहार का आग्रह व्यक्ति को लक्ष्य से भटका देता है। इनमें उलझने वाला आत्मस्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाता अत: व्यवहार के दरवाजे से निश्चय में प्रवेश करने वाला साधक इन दोनों का समन्वय करता हुआ चलता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की दृष्टि में व्यवहार से सर्वथा कटकर निश्चय अपनी उपयोगिता के आगे प्रश्नचिह्न लगा देता है तथा निश्चय से कटकर कोरा व्यवहार छलावा मात्र रह जाता है। साधक कितना ही समझदार या विवेकशील क्यों न हो, केवल व्यवहार के धरातल पर वह कभी स्वयं से परिचित नहीं हो सकता। आत्मबोध के लिए उसे निश्चय में रहना होगा। साधक समूह में रहता है, इसलिए व्यवहार निभाना आवश्यक होता है तथा आत्मा में निवास करता है इसलिए निश्चय का महत्त्व है। पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में निश्चय और व्यवहार में सामंजस्य बिठाया। उनकी यह अभिव्यक्ति इसी बात की साक्षी है . * "निश्चय की दृष्टि से मैं अकेला हूं। दूसरा कोई भी मेरा अपना नहीं है। व्यवहार के धरातल पर खड़ा होकर देखता हूं तो प्रतीत होता है कि धर्मसंघ के सात सौ साधु-साध्वियां मेरे हैं। मैं इनके सुख में सुखी होता हूं और दुःख में दु:खी हो जाता हूं। ऐसी मनःस्थिति में मैं अकेला कहां रहा हूं?' 'अर्हद्वाणी' में भी उनकी यही भावना व्यक्त हुई है निश्चय में मैं एक हूं, ज्ञान दर्शनाकार। विविध रूप व्यवहार में, क्यों हो अस्वीकार॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी मैं आत्मा, मैं चेतना, मैं हूं सचित्रूप। गणाधिपति गुरु साधुहूं, अनुशास्ता अनुरूप॥ गण में हूंगण का ऋणी, गणहित चिंतनयुक्त। करूं व्यक्तिगत साधना, तब गण चिंतामुक्त॥ निश्चय में आत्मा ही सत्य है, वह शुद्ध है उसे कोई परिस्थिति विकृत या मलिन नहीं बना सकती किन्तु व्यवहार के धरातल पर व्यक्ति समाज से प्रभावित होता है, सुख-दुःख के निमित्तों से आक्रान्त होता है तथा आत्मा भी विभावों से आवृत एवं मलिन होती है। निश्चय-व्यवहार की इस दार्शनिक गुत्थी को अनेक आचार्यों ने सुलझाने का प्रयत्न किया लेकिन उन्होंने इनकी दार्शनिक व्याख्या अधिक की। पूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक धरातल पर इसे सुलझाने का प्रयत्न किया। उनके ये वक्तव्य इस दिशा में हमारी सोच को परिष्कृत करने वाले हैं "हमारा काम है निश्चय और व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करना। यह काम कुछ कठिन है पर इसे कठिन मानकर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। हम क्या, स्वयं तीर्थंकर भी इनमें सामंजस्य स्थापित करते हैं। जब तक वे तीर्थ की स्थापना नहीं करते, तब तक तीर्थंकर नहीं हो सकते।" "तीर्थंकरों जितना सामर्थ्य साधारण आदमी में नहीं होता। फिर भी यथाशक्ति सामंजस्य बिठाने की बात की जा सकती है क्योंकि निश्चय को भुलाना एक भूलं है तो व्यवहार को भूलना दूसरी भूल है। मंजिल तक पहुंचने के लिए पड़ावों पर ठहरना वर्जित नहीं है किन्तु पड़ाव को ही मंजिल मान लिया जाए तो आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।" * "व्यवहार के धरातल पर कोई व्यक्ति यह आग्रह कर सकता है कि वह किसी दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकता या सहन नहीं कर सकता। पर निश्चय नय के अनुसार छोटे-बड़े हर प्राणी का स्वतंत्र अस्तित्व है।" 'अर्हद्वाणी' के ये पद्य भी निश्चय और व्यवहार में संतुलन बिठाने वाले हैं * निश्चय में नर एक है, दो होना व्यवहार। भीतर में निश्चय रहे, ऊपर संव्यवहार॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ साधना की निष्पत्तियां * निश्चय को कर गौण जो, हो व्यवहार-प्रधान। खोकर वह नवनीत को, करे तक्र का पान॥ * पचे नहीं मंदाग्नि से, ज्यों नवनीत गरिष्ठ। तक्र सुपचं प्रारम्भ में, त्यों व्यवहार अभीष्ट ॥ मन निश्चय में लीन हो, साधे तन व्यवहार। सप्रण पनिहारी गति, होगी कभी न हार॥ निश्चय तो श्री वीतराग ही साध सकेगा। उससे पहले बस केवल व्यवहार टिकेगा॥ यह कोरी मन की उड़ान है, भूल न जाना। दोनों को ही साधक, साथ-साथ रख पाना॥ पूज्य गुरुदेव का जीवन निश्चय और व्यवहार का निकुञ्ज था। वे जितने व्यावहारिक थे, उतने ही आत्मोन्मुखी थे। व्यवहार को कुशलता से . निभाते हुए भी वे सदैव आत्मा में रमण करते रहते थे। व्यवहार के धरातल पर परमार्थ का प्रयोग करने वाले पूज्य गुरुदेव का जीवन सबके लिए प्रेरणा और आदर्श की नयी मिसाल था। आस्था-बल साधक की सच्ची सम्पत्ति श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ है-सत्य को धारण करना। सत्य के प्रति आस्थाशील व्यक्ति ही श्रद्धाशील बन सकता है। श्रद्धा और आस्था के बिना अहं से अहम् तक पहुंचने की यात्रा में आने वाली बाधाओं का मुकाबला नहीं किया जा सकता। जिस साधक की श्रद्धा डांवाडोल होती है, वह किसी भी सिद्धान्त या नियम के प्रति सजग नहीं रह सकता। श्रद्धा को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'जिस साधना-पथ को चुन लिया, उस पर कदम बढ़ाते समय हजार कठिनाइयां उपस्थित हो जाएं पर एक क्षण के लिए भी मानस विचलित न हो, इसका नाम है-श्रद्धा।' श्रद्धाबल के सहारे व्यक्ति हर अंधेरी घाटी को पार कर लेता है। महात्मा गांधी कहते हैं- 'आस्था तर्क से परे की चीज है। जब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बंद कर देती है, उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रूप से चमकती है और हमारी मदद को आती है।' साधना के क्षेत्र में व्यक्तिगत आस्था का Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६४ निर्माण बहुत अपेक्षित है। आस्था के अभाव में बहुत सारे प्रवचन, वाचन, शिक्षण एवं प्रशिक्षण भी उतने प्रभावी नहीं हो सकते। गणाधिपति तुलसी की आद्यप्रवर्तक आचार्य भिक्षु एवं अपने गुरु कालूगणी के प्रति इतनी प्रगाढ़ आस्था थी कि हर प्रतिकूल परिस्थिति में उनकी स्मृति उन्हें मेरु की भांति अडोल रखती थी। वे इस सत्य को स्वीकारते थे कि मेरी आस्था ज्ञान से ज्यादा श्रद्धा पर आकर टिकी है क्योंकि श्रद्धा से होने वाले काम ज्ञान से नहीं हो सकते। मेरे जीवन में कितने अंतरंग और बहिरंग विरोध आए। चाहे-अनचाहे उनका मुकाबला करना पड़ा। उस विषम परिस्थिति में एक क्षण के लिए भी हृदय से उस अदृश्य शक्ति को नहीं भूला इसीलिए आत्मबल बढ़ता गया और मैंने अपने आपको कभी कमजोर महसूस नहीं किया। गुरु का अनुग्रह प्राप्त हो तो कष्ट की स्थिति में भी आनन्द का अनुभव हो सकता है, यह मेरा भोगा हुआ सत्य है।" अपने परम उपकारी महामना पूज्य गुरुदेव कालूगणी को वे अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक याद करते रहते थे। पूज्य गुरुदेव का अपने गुरु कालूगणी के साथ इतना तादात्म्य था कि वे उनके उपकार को एक क्षण भी अपनी स्मृति से अलग नहीं कर पाते थे। यहां गुरुदेव की रूसी विद्वान् के साथ हुई एक चर्चा का कुछ अंश प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। लाडनूं-प्रवास के दौरान एक रूसी विद्वान् गुरुदेव की सन्निधि में पहुंचा। प्रवचन सुनने के बाद उसने गुरुदेव से पूछा- 'आपके शक्तिकेन्द्र पूज्य कालूगणी हैं तो क्या अब भी आपका उनसे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है?' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- 'ऐसा कोई भी दिन खाली नहीं जाता जब वे मेरी स्मृति में न आएं।' पुनः उस रूसी भाई ने जिज्ञासा प्रस्तुत की- 'कालूगणी से आपका कभी साक्षात्कार हुआ?' गुरुदेव ने उसकी आंखों में झांकते हुए उत्तर दिया- 'प्रत्यक्ष तो नहीं पर मुझे ऐसा लगता है कि वे मेरे हर कार्य में सहयोगी रहते हैं। उनसे मुझे हर पल प्रेरणा और ऊर्जा मिलती रहती है।' यह सुनकर वह विदेशी भाई भावविभोर होकर बोला- 'गुरुदेव! आपकी भक्ति और आस्था देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कालूगणी से आपका अनेक भवों (जन्मों) का संबंध है। क्या आपको भी ऐसा आभास होता है?' गुरुदेव ने स्वीकृति में अपना सिर Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ साधना की निष्पत्तियां हिला दिया। प्रस्तुत वार्तालाप से स्पष्ट है कि पूज्य गुरुदेव के मन में अपने गुरु के प्रति कितनी श्रद्धा, लगाव एवं भक्ति थी। आचार्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में संघ के आंतरिक विरोध की स्थिति में गुरुदेव ने जब-जब मानसिक उद्वेलन की स्थिति का अनुभव किया, कालूगणी की प्रतिमा उनके सामने साकार हो जाती। उनकी डायरी के हर पृष्ठ कालूगणी की स्मृति से सजीव हैं। चिंता का भार गुरुचरणों में छोड़कर वे स्वयं निश्चिंत हो जाते। बम्बई यात्रा का प्रसंग है। मारवाड़ में कुछ साधुओं के बारे में ऐसे समाचार आए, जो संघीय दृष्टि से अनुकूल नहीं थे। एक गृहस्थ गुरुदेव के पास वहां के समाचारों का पत्र लेकर आया। उसे पढ़कर डायरी में अपनी मनोदशा लिखते हुए गुरुदेव कहते हैं * एक भाई पत्र लाया। उसमें वहां के संतों को लेकर विचित्र से समाचार हैं। वहां के कुछ लोगों में विकृति भर गई, ऐसा मालूम हुआ। गुटबंदी की बात सुनी। विषय विचारणीय व गहन लगा, पर होना क्या है? गुरुदेवः शरणमस्तु।" * आज एक पत्र फिर आया है उसी विषय का। इधर-उधर की काफी बातें हैं। पर अभी तक विश्वस्त समाचार प्राप्त नहीं हुआ है। कुछ चिंता सी है। कारण कि हम बहुत दूर हैं। मारवाड़ यहां से ७०० मील होगा। शुभकरण ने पहले ही बहुत कहा था पर मुझे ऐसा लगता था कि मैं किसी दूसरे की अंतरंग प्रेरणा से बंबई पहुंचा हूं। चिंता मुझे क्यों हो? वह अंतरंग प्रेरक स्वयं चिंता करेगा। फिर भी पुरुषार्थवादी होने के नाते उपचार करना होता है। संभव है हमारे प्रवास का अनुचित लाभ उठाने की कुछ व्यक्ति सोच रहे हों। अंतरात्मा यही साक्ष्य देती है कि होना जाना कुछ भी नहीं है। गुरुवरः शरणमस्तु।... गुरुकृपातः सर्वं सफलम्। __ अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, आस्था और समर्पण का भाव ही साधक को उन्नति के शिखरों पर पहुंचा सकता है। पूज्य गुरुदेव का अतिशायी व्यक्तित्व सदैव अपने पूर्वजों के गुण-गान में लीन रहता था। वे अपनी विशेषता और विकास का सारा श्रेय पूर्वज आचार्यों को देते थे। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में वे गुरु थे पर पूर्वजों के प्रति उनके श्रद्धागीत देखकर ऐसा लगता है कि उनका समर्पण एक शिष्य की तरह बोल रहा है।' Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६६ पूज्य गुरुदेव ने आयारो के कुछ सूक्तों का अनुवाद किया जो 'अर्हत् वाणी' के नाम से प्रसिद्ध है। एक दिन एक मुनि ने निवेदन किया'जयाचार्य ने जैसे भगवती आदि सूत्रों पर जोड़ लिखी है वैसे ही यह आयारो के पद्यानुवाद की अनूठी कृति है।' गुरुदेव ने तत्काल उत्तर देते हुए कहा'कहां जयाचार्य कहां हम! जयाचार्य का पद्यमय साहित्य शब्दानुवाद है और यह अर्हत्वाणी भावानुवाद है। भावानुवाद की अपेक्षा शब्दानुवाद अधिक कठिन पड़ता है। जयाचार्य विलक्षण ज्ञान के भंडार थे, जिन्होंने भगवती जैसे विशाल आगम पर केवल पांच वर्षों में जोड़ पूरी कर दी और हमें उसके संपादन में १५ वर्ष लग गए। साध्वीप्रमुखा का जो श्रम इस कार्य में लगा है, वह अकथनीय है। आज तो हमें अन्य अनेक साधन उपलब्ध हैं लेकिन उस समय ऐसी स्थिति कहां थी?' यह आस्था-बल और कृतज्ञ भाव ही साधक को अपने साध्य तक पहुंचाने में सहयोगी बनता है। ___ गणाधिपति पूज्य गुरुदेव जब अपने आराध्य की स्मृति में गाते या बोलते तो श्रोता आत्मविभोर हो उठते थे। उम्र के नवें दशक में प्रवेश करने के बावजूद उनकी भक्ति उन्हें बालक की निश्छलता प्रदान करती रहती थी। ये उद्धरण उनके इसी रूप को प्रकट करने वाले हैं *'पूज्य गुरुदेव कालूगणी के वात्सल्य के क्षण आज भी आंखों के सामने थिरकने लगते हैं। सोचता हूं कि वे दिन पुनः लौट आएं तो कितना अच्छा हो, लेकिन वे लौट नहीं सकते। जब-जब मैं निपट अकेला होता हूं, कभी अपने अतीत में पहुंच जाता हूं, तब मुझे लगता है कि न मैं आचार्य हूं, न विद्वान हूं और न महान् हूं। उस समय मैं वही मुनि तुलसी होता हूं, ग्यारह वर्ष का किशोर गुरुचरणों में बैठा हूं, पढ़ रहा हूं, लिख रहा हूं और अपनी पाठशाला में छोटे-छोटे बाल मुनियों को पढ़ा रहा हूं।" "मैं गुरुदेव की उतनी सेवा नहीं कर सका, जितनी मुझे करनी चाहिए थी। गौतम की महावीर के प्रति, भारीमालजी की आचार्य भिक्षु के प्रति जो श्रद्धा थी, उसकी शतांश भी उस समय मेरे में नहीं थी। आज यदि कोई भी मेरी डायरी के पन्ने उलटकर देखे तो उसे स्थान-स्थान पर श्रद्धा के दर्शन होंगे। 'गुरुदेवः शरणमस्तु'-यह वाक्य बार-बार पढ़ने को मिलेगा। मैं चाहता हूं कि साधु-साध्वियां मेरे अनुभव से लाभ उठाएंगे।"(रीछेड़ ३०/१२/६२) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ साधना की निष्पत्तियां पूज्य गुरुदेव लाखों लोगों की श्रद्धा के एकमात्र आधार थे। हर भक्त उनमें साक्षात् भगवान् के दर्शन करता था। पट्टोत्सव के अवसर पर चतुर्विध संघ मुक्त कंठ से उनकी गुणोत्कीर्तना करता पर वे इसे पसन्द नहीं करते। अपनी सफलता का सारा श्रेय वे अपने गुरु के कर्तृत्व को देना चाहते थे। उनके मुख से निःसृत ये उद्गार हर श्रद्धालु हृदय को झकझोरने वाले हैं *"मैं अभी-अभी सोच रहा था- मेरा कैसा अभिनन्दन? अभिनंदन हो पूज्य गुरुदेव श्रद्धेय श्री कालूगणी का, जिन्होंने हममें कुछ कर्तव्य के भाव भरे। जिन्होंने हमें बौद्धिक जगत् में बैठने की क्षमता दी। - यह सब कुछ जो आज दीखता है, उन्हीं की देन है। एक कुंभ का क्या अभिनन्दन हो? अभिनन्दन हो कुंभकार का, जिसकी कला ने अपना नैपुण्य घड़े में निहित किया। यह अभिनंदन हो उस संरक्षक का, जिसने घड़े को सुरक्षित रखा।" "मुझे सारा प्रशिक्षण पूज्य कालूगणी से मिला। आज भी उनकी हर क्रिया, गायन-शैली और प्रशिक्षण का तरीका हूबहू मेरी आंखों के सामने है। मैं आपको उनका सजीव चित्र दिखा देता यदि मैं चित्रकार होता।" * आचार्य भिक्षु से मुझे अध्यात्म, आचारनिष्ठा और अनुशासन के सूत्र मिले, उसके आधार पर मैंने तेरापंथ की शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न किया। जिस व्यक्ति में उपकारी के प्रति कृतज्ञता के भाव नहीं होते, वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। प्रमोदभाव व्यक्ति में दूसरों के गुणों के प्रति आकर्षण पैदा करता रहता है। गुरुदेव के इस कृतज्ञ रूप का अंकन आचार्य श्री महाप्रज्ञ इन शब्दों में करते हैं- 'कृतज्ञता का सर्वोच्च उदाहरण है- तुलसी। आचार्य भिक्षु, जयाचार्य व कालूगणी को आज विश्वव्यापी बनाने में यदि किसी को श्रेय है तो वह है गुरुदेव श्री तुलसी को।' माघ शुक्ला सप्तमी को आचार्य महाप्रज्ञजी का पदाभिषेक समारोह मनाया जा रहा था। अनेक वक्ता पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री की अभ्यर्थना Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६८ में प्रशस्ति के स्वर प्रस्तुत कर रहे थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने गुरुदेव के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा- 'आज अन्य लोग मेरा अभिनन्दन कर रहे हैं। मैं भी इस अवसर पर स्वयं का अभिनन्दन स्वयं करता हूं वह इसलिए कि मुझे ऐसे गुरु मिले हैं। मुझे तैयार करने वाले तुलसी गुरु ही हैं। यदि तुलसी नहीं होते तो नथमल आज इस रूप में नहीं होता।' पूज्य गुरुदेव ने वातावरण में नया मोड़ देते हुए कहा- 'आज लोग मेरी और महाप्रज्ञ की प्रशस्ति में उलझ गए पर सारे एक बात को भूल गए। और तो भूले सो भूले पर आचार्यजी (महाप्रज्ञजी) भी भूल गए। यह सारा प्रताप पूज्य कालूगणी का है। मैं जो कुछ हूं, उन्हीं का हूं। मैं उनका गुणगान तथा स्मृति किए बिना कैसे रह सकता हूं। महाप्रज्ञ कृतज्ञ हो गए क्योंकि इन्होंने मेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर दी। पर मैं कैसे अकृतज्ञ होऊं? मैं कृतज्ञता के मामले में इनसे भी आगे जाना चाहता हूं। मैं तो एक मिट्टी का ढेला था पर कालू प्रभु ने घुटाई-पिटाई करके मुझे कुम्भ का रूप दे दिया। करामात घड़े की नहीं, कुंभकार की है। मैंने इसीलिए यह गीत गाया कालू कालू बोलूं, अन्तर-मानस पट खोलूं रे। श्री कालू री मोहन मूरत हृदय बिठाऊं मैं॥ फिर पल-पल ध्याऊं मैं, तन्मय बण जाऊं मैं। उदाहरण ही जो चाहो, मैं स्वयं सामने आऊं। साजो सोतो वर्तमान, क्यूं अतीत में ले जाऊं। इक मिट्टी को ढेलो, देखो खेलो अलबेलो रे। कियां कुंभ को रूप दियो, कुछ सोच न पाऊं मैं। धवल समारोह के अवसर पर पूज्य गुरुदेव मातुश्री वदनांजी की स्मृति करते हुए कहने लगे- 'मां का उपकार जीवन में इतना है कि अनेक बार इच्छा होती है मैं स्वयं झोली पातरी लेकर भिक्षा लाऊं और वदनांजी को पारणा कराऊं। माताजी ने हमें संस्कार दिए हैं तो कम से कम मैं भिक्षा में रोटी तो लाऊ।' पूज्य गुरुदेव चाहते थे कि जन-जन के भीतर आस्था का भाव जागे क्योंकि आस्थाबल जीवन की हर दुर्गम घाटी में व्यक्ति के मनोबल को Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ साधना की निष्पत्तियां बनाए रखता है । जब कभी कोई व्यक्ति उनके सामने समस्या लेकर आता.. तो वे उसे आस्था रखने की बात कहते थे । अनेक बार देखा गया कि वह व्यक्ति आस्थाबल से उस समस्या को पार कर लेता। छापर की एक बहिन 1 गुरुदेव को निवेदन किया- 'मेरे शुगर की बीमारी है पर आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें कि मैं वर्षीतप कर सकूं, इसमें बीमारी बाधक न बने।' गुरुदेव ने कहा- 'आस्था रखो हो जाएगा।' आस्था का चमत्कार ही मानना चाहिए कि बहिन के प्रथम वर्ष में ही शुगर कम हो गई और दूसरे वर्ष में बिल्कुल समाप्त हो गयी। उस बहिन ने पुनः डॉक्टर से जांच करवायी तो डॉक्टर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- 'लगता है तुम्हारे बीमारी कभी थी ही नहीं । अपने तैंतीसवें पट्टोत्सव के अवसर पर उन्होंने सम्पूर्ण संघ को आह्वान करते हुए कहा- "मैं तैंतीसवें वर्ष में श्रद्धा की भावना को . विकसित करना चाहता हूं। मैं चाहे कैसी भी स्थिति - परिस्थिति से गुजरूं, भले इस शरीर का खंड-खंड हो जाए, लेकिन श्रद्धा अखंड बनी रहे, यही मेरी आत्मा की भावना है । ३३ का अंक शुभ माना जाता है। तीन की संख्या को तीन से गुणा करने पर ९ का अंक बनता है । यह अंक कभी खंडित नहीं होता इसलिए शुभ और अखंडित संख्या के प्रारम्भ में मैं संघ में श्रद्धा के विकास का प्रारम्भ करना चाहता हूं।' इसी भावना को उन्होंने काव्यबद्ध करते हुए कहा श्रद्धा और समर्पण का ले, सम्बल चरण बढाएं । और साधना - दीवट पर, सेवा का दीप जलाएं। सागर में लहरें ज्यों अहं भावना स्वयं विलय हो ॥ गणाधिपति गुरुदेव तुलसी ने भक्तिरस में डूबकर अपने आराध्य के प्रति जो कुछ लिखा, उसने उन्हें तुलसी और मीरां के समकक्ष खड़ा कर दिया। उन्होंने अपने गीतों में मधुरता और सहजता से जो भक्ति रस प्रवाहित किया, वह अद्भुत है । गुरुदेव तुलसी के भक्ति गीतों में हृदय की पवित्रता और निर्मलता. का स्पष्ट आभास मिलता है। उन्होंने गीतों में दीनता नहीं, प्रत्युत् पुरुषार्थ की सजीव अभिव्यक्ति की है। उनकी भक्ति में आत्मसमर्पण है, पर Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी अंधविश्वास नहीं। वे भाव-पूजा में तन्मय दिखाई पड़ते हैं पर जड़-पूजा के कबीर की भांति कट्टर विरोधी हैं। उनकी अर्हद्भक्ति और गुरुभक्ति कभी वज्र से भी अधिक कठोर है तो कभी कुसुम से भी अधिक कोमल दिखलाई पड़ती है। फिर भी सागर में बूंद की भांति भक्ति-गीतों में उनकी श्रद्धा श्रद्धेय के साथ अभेद स्थापित करती है। भक्तिभावना से परिपूर्ण उनके गीत स्वान्तः सुख के साथ-साथ दूसरों में आध्यात्मिक भावना भरने में भी सक्षम हैं। अनागत किसी पर अपनी श्रद्धा व्यक्त कर सकता है पर जीते जी एक विशाल प्रबुद्ध जन-समुदाय की हार्दिक श्रद्धा पाना बहुत बड़ी साधना की निष्पत्ति है। पूज्य गुरुदेव का आभामण्डल इतना प्रभावी एवं वर्चस्वी था कि उसके प्रभाव से अनेक लोगों में स्वतः रूपान्तरण घटित हो जाता था। पूज्य गुरुदेव का नाम-स्मरण लोगों के लिए मंत्राक्षर है। अत्यन्त श्रद्धापूर्वक जब कभी कोई उनकी स्मृति करता है तो उसमें नवशक्ति का संचार हो जाता है। उनके नाम से जुड़े चमत्कारों का एक संकलन साध्वी श्री कल्पलताजी ने किया है, जो 'आस्था के चमत्कार भाग २' के नाम से प्रकाशित है। यहां उनकी स्मृति से होने वाले चमत्कारों के केवल दो घटना प्रसंग प्रस्तुत किए जा रहे हैं। केवलकृष्ण जैन धुरी का श्रद्धालु युवक है। गुरुदेव के अहमदाबाद चातुर्मास में उसके मन में दर्शनों की तीव्र उत्कंठा जग गयी। उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर थी फिर भी उसने सोचा कि दो सौ रुपये किसी से उधार लेकर दर्शन करने चला जाऊंगा। शाम को वह एक भाई के पास रुपए मांगने गया लेकिन उसने मना कर दिया। वह युवक एक-दो व्यक्तियों के पास और गया पर रुपए नहीं मिले। वह दुःखी और निराश हो गया। पूरी रात रोता रहा और मन ही मन बोला-'आज से प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं किसी के पास जाकर रुपए नहीं मागूंगा। गुरुदेव! आप जिस दिन मुझे दर्शन के लिए बुलाएंगे तो रुपए अपने आप आ जाएंगे तभी मैं आपके दर्शन करूंगा।' उसकी पूरी रात गुरुदेव की स्मृति में ही बीत गयी। सुबह जब उठकर वह घर के दरवाजे के पास गया तो वहां एक नया लिफाफा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ साधना की निष्पत्तियां मिला, उसे खोलकर देखा तो वह दंग रह गया। उसमें १०००/- रुपये थे। पत्नी को दिखाया तो वह भी आश्चर्यचकित थी। पूरे मुहल्ले में एक-एक के पास जाकर पूछा पर किसी के रुपए गुम नहीं हुए थे। रुपए कहां से आए, यह आज भी रहस्य बना हुआ है पर गुरुदेव के नामस्मरण से उसकी तीव्र भावना पूरी हो गयी, यह आश्चर्य का विषय है। शार्दूलपुर निवासी रेवतीदेवी बोथरा के एकाएक आंख की ज्योति विलीन हो गयी। नेत्र विशेषज्ञ डॉक्टर ने कहा- 'आपको तत्काल आंखों का ऑपरेशन करवाना पड़ेगा।' ब्लड टेस्ट किया गया तो उस समय उनकी शुगर बढ़ी हुई थी अतः आपरेशन नहीं हो सकता था। वह बहिन निराश होकर शार्दूलपुर पहुंची। एक दिन सामायिक में बैठे-बैठे श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के नाम का स्मरण किया और भक्तिपूर्वक मन ही मन बोली- "गुरुदेव! आपने मुझे आध्यात्मिक ज्योति प्रदान की है तो क्या बाह्य ज्योति नहीं देंगे? वह दिन धन्य होगा जब इस जीवन में आपके दर्शन करके आत्मतोष का अनुभव करूंगी। अपने आपको भावना से भावित करके बहिन तन्मय होकर जप करने लगी। सवेरे उठी तो बहिन को ज्योति का अनुभव हुआ। बहिन के श्रद्धाबल से उसकी नेत्र-ज्योति वापिस लौट आई। पूज्य गुरुदेव की व्यक्तिगत साधना की सिद्धि भी आस्था और श्रद्धा के साथ जुड़ी हुई थी। मेवाड़ के जड़ोल गांव में श्रद्धासिक्त भावों से लिखी गयी डायरी की निम्न पंक्तियां अनेक साधकों का मार्गदर्शन करने वाली हैं- "होली के बाद मेरे मन में संवेग और निर्वेद भाव प्रवर्धमान रहा। कई दृष्टियों से आनंद की अनुभूति हुई। औदासीन्य भावना का विकास हुआ। संवेग और निर्वेद की निरंतर अभिवृद्धि के लिए मानसिक संकल्प किया। एक वर्ष तक लगातार यह क्रम बना रहे तो आध्यात्मिक दृष्टि से नए विकास की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। गुरुदेव :शरणम्', 'गुरु कृपया सर्वं सफलम्' यह विश्वास मेरे जीवन का सबसे बड़ा आलम्बन है। __ पूज्य गुरुदेव ने लाखों करोड़ों भक्त-हृदयों पर शासन किया। उनकी श्रद्धा को पाया यह सत्य है पर जब वे अपने आराध्य की भक्ति में लयलीन होते थे तब उनका भक्त रूप भी उतना ही कमनीय था, जितना भगवान् का। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ज्ञाता-द्रष्टाभाव द्रष्टाभाव का विकास साधक जीवन की महानतम उपलब्धि है । किसी भी वस्तु या घटना के प्रति अपने प्रिय या अप्रिय संवेदन को नहीं जोड़कर घटना को केवल घटना के रूप में जानना - देखना ज्ञाता - द्रष्टाभाव है। आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि ध्यान की समूची प्रक्रिया केवल जानने और देखने की प्रक्रिया है । जानने और देखने का अभ्यास जितना प्रबल होगा, ध्यान की स्थिति उतनी ही सुदृढ़ हो जाएगी। सामान्यतः व्यक्ति कभी राग - चेतना में जीता है, कभी द्वेषपूर्ण भावों से प्रभावित होता है । इन दोनों के मध्य जीने वाला द्रष्टा होता है । द्रष्टा बनने के बाद राग और द्वेष की ग्रंथियां स्वतः खुलने लगती हैं । इन्द्रियां अपने विषयों में रमण करती हुई भी व्यक्ति को विकृत नहीं कर सकतीं। यही कारण है कि द्रष्टा सभी प्रकार की कामनाओं एवं आकांक्षाओं से विरत हो जाता है । स्वामी विवेकानन्द एक रूपक के माध्यम से द्रष्टाभाव की व्याख्या करते हैं- 'हम चित्र से अपना तादात्म्य नहीं जोड़ते क्योंकि चित्र असत् है, अवास्तविक है, हम जानते हैं कि यह एक चित्र मात्र ही है। वह न हम पर कृपा कर सकता है, न हमें चोट पहुंचा सकता है। इसका रहस्य. क्या है ? अनासक्ति ही इसका रहस्य है । अतएव साक्षी बनो, द्रष्टा बनो ।' मध्यस्थ रहने के लिए प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित यह श्लोक अनुप्रेक्षा का कार्य कर सकता है अचेतनमिदं २७२ दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः । क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ॥ दृष्टि की स्पष्टता होने के बाद ही ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास सम्भव है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में द्रष्टा मन के स्तर पर नहीं जीता अतः वह घटने वाली हर अनुकूल-प्रतिकूल घटना के साथ स्वयं को नहीं जोड़ता । वह जानता है, देखता है पर परिस्थिति एवं पदार्थों को भोगता नहीं । सुख-दुःख एवं उतार-चढ़ाव के निमित्त उपस्थित होने पर भी उसके संवेदनों से बच जाता है। परमार्थ पंचसप्तति में पूज्य गुरुदेव ने इसी तथ्य को काव्य में निबद्ध कर दिया है अज्ञानी जन भोगता, घटना को दिन-रात । पर ज्ञानी जन जानता, घटना को साक्षात् ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ साधना की निष्पत्तियां सकल भाव ये ज्ञेय हैं, ज्ञाता है यह आत्म। ज्ञाता की अनुभूति ही, कहलाती अध्यात्म॥ ज्ञाता को संयोग-वियोग की परिस्थिति प्रभावित नहीं कर सकती क्योंकि वह जानता है कि आत्मतत्त्व ही ऐसा है, जिसका न संयोग होता है और न वियोग। पूज्य गुरुदेव ने द्रष्टाभाव के विकास से हर परिस्थिति में स्वयं को संतुलित और मध्यस्थ रखा था। अण्णहाणं पासए परिहरेजा' आयारो का यह सूक्त उनके जीवन में इतना आत्मसात् हो चुका था कि उनका चलना, खाना-पीना, सोना-जगना आदि सब क्रियाएं सामान्य व्यक्ति से अतिरिक्त प्रतीत होती थीं। वे पदार्थ का उपयोग भोग के लिए नहीं, अपितु जीवन-यात्रा को उपयोगी बनाने के लिए करते थे। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि वस्तु का भोग करते समय दृष्टिकोण भिन्न हो तो भोग उपयोग बन जाता है। दृष्टिकोण गलत होता है तो भोग बंधन का निमित्त बन जाता है।" देखने का अभ्यास सधने के बाद व्यक्ति अपनी कमजोरियों के प्रति जागरूक हो जाता है। महावीर कहते हैं- 'जो अपने क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को देखता है, वह उनसे मुक्त हो जाता है।" पूज्य गुरुदेव इसी तथ्य को अनुभव की भाषा में बोलते थे- 'जिस दिन मनुष्य अपने भीतर झांक लेता है, आत्मा को उत्तेजना देने वाले तत्त्वों को देख लेता है, तब वह अपनी आंतरिक बीमारी का उन्मूलन कर लेता है।' जिस दिन व्यक्ति यह देख लेता है कि राग-द्वेष हमारे नहीं हैं, हम पर आधिपत्य जमाए बैठे हैं, उसी दिन से इनकी प्रभुसत्ता समाप्त होने लगती है। पूज्य गुरुदेव ने जागृत साक्षीभाव से राग-द्वेष की चेतना को क्षीण करने का प्रयत्न किया। द्रष्टाभाव का विकास हुए बिना रूपांतरण घटित नहीं हो सकता। बाह्य दर्शन भी रूपांतरण में महान् निमित्त बनता है फिर आंतरिक दर्शन की तो बात ही क्या है? इतिहास ऐसे अनेक घटना-प्रसंगों से भरा पड़ा है, जिनसे स्पष्ट है कि महापुरुषों की दृष्टि पड़ते ही क्रूर से क्रूर व्यक्ति में रूपांतरण घटित हो गया। देखने में कितनी शक्ति है, इसे पूज्य गुरुदेव के शब्दों में इस घटना-प्रसंग से जाना जा सकता है- 'दो दिन पहले की बात है। एक श्रावक आया। सहमता हुआ बोला- 'गुरुदेव! दो मिनिट का Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २७४ समय चाहिए।' मैंने सहज भाव से कहा- 'बोलो, क्या कहना है?' वह रुआंसा होकर बोला- 'मेरा क्या अपराध हो गया? आप मुझे माफ कर दें।' मैं उसकी ओर देखता रह गया। उसके जीवन में क्या घटित हुआ था, मुझे मालूम नहीं था। न वह अधिक परिचित था और न उसकी कोई शिकायत ही मेरे पास थी। मैंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- "क्या हुआ? मेरे ध्यान में कोई बात नहीं आ रही है।' वह गद्गद होता हुआ बोला- 'कल मैंने आपके दर्शन किए, आपने मेरी ओर देखा ही नहीं। मैं यहां से चला गया, पर मेरी आत्मा अपराध-बोध से आहत हो गई। जरूर कोई भयंकर अपराध हुआ है, अन्यथा गुरुदेव वन्दना स्वीकार क्यों नहीं करते? यही विचार मेरे मस्तिष्क में चक्कर काट रहा है, अब इस तनाव से छुटकारा पाने आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं।' ___ मैंने एक गहरी निगाह उस पर डाली। सचमुच ही उसका मन बेचैन था। उसके भ्रांत मन को शांत करने के लिए मैंने कहा- 'तुम्हारी कोई गलती नहीं है। तुम सही हो। प्रमाद तो मेरी ओर से हुआ है। मेरे मन में कोई दूसरा विचार नहीं था। तुमने वन्दना की तब मेरा ध्यान कहीं अन्यत्र होगा, इसी कारण तुम्हारे मन में यह भ्रांति हुई है।' मैंने प्रसन्नतापूर्वक उसकी ओर देखा, वह कृतार्थ हो गया। एक क्षण देखने से जो चमत्कार हुआ, उसका मैंने प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया। क्षणिक दर्शन से जब इतना बड़ा काम हो सकता है तो गहरे में उतरकर देखने से क्या नहीं होगा? अपेक्षा इतनी ही है कि जो व्यक्ति बदलाव चाहता है, वह ज्ञाता-द्रष्टा बने। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर ही व्यक्ति कुछ बन सकता है।' . महावीर कहते हैं कि "उद्देसो पासगस्स नत्थि" अर्थात् द्रष्टा के लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। द्रष्टा आत्मानुशासन की उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहां बाह्य अनुशासन कृतार्थ हो जाता है। बचपन में ही पूज्य गुरुदेव ने अपने गुरु कालूगणी के अनुशासन को कृतकृत्य कर दिया। जिस बात के लिए एक बार निर्देश या प्रतिबोध मिल गया फिर दुबारा उसके बारे में उन्हें निर्देश देने की अपेक्षा नहीं रही। यहां उनके मुनि जीवन के कुछ घटना-प्रसंग प्रस्तुत किए जा रहे हैं मुनि तुलसी की दीक्षा के तत्काल बाद कालूगणी ने सुजानगढ़ के लिए विहार कर दिया। उस समय मुनि तुलसी मात्र ११ वर्ष के थे। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ साधना की निष्पत्तियां सुजानगढ़ में पूज्य कालूगणी जब पंचमी पधारते तो बाल मुनि तुलसी आगे-आगे चलते। जंगल में ऊंचे-ऊंचे रेतीले टीले थे। एक दिन मुनि तुलसी टीले से सीधे उतर कर कालूगणी के पास आए। कालूगणी ने फरमाया- 'टीले से कैसे उतरा है? यह कोई तरीका है चलने का? ईर्यासमिति इसे कहते हैं ? नीचे हरियाली होगी तो?' मुनि तुलसी ने बाल सुलभ चपलता से कहा- 'वहां हरियाली नही है।' कालूगणी उस समय मौन रहे, लेकिन उनके वापस जाने का रास्ता उसी टीले के नीचे से था। वहां पहुंचते ही कालूगणी ने फरमाया- 'तुलसी! देख कितनी हरियाली है। आज तुमने दो गलतियां कीं। पहली गलती देखकर नहीं चले, दूसरी - अपनी गलती को गलती नहीं माना। पूज्य गुरुदेव संस्मरणों के वातायन' में कहते हैं कि वह डांट और अमृत भरी सीख साधु-जीवन की यात्रा में मील का पत्थर बन गयी।" फिर जीवन पर्यन्त उनके जीवन में ईर्यासमिति में स्खलना का प्रसंग संभवत: नहीं आया। __ वि.सं. १९८२ का मर्यादा महोत्सव राजलदेसर में था। मुनि तुलसी सायंकालीन प्रतिक्रमण कर पूज्य कालूगणी के पास वन्दनार्थ पहुंचे। पास में मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी विराज रहे थे। उन्होंने कहा- कैसे प्रमार्जन करते हो? चिड़िया उड़ानी है क्या? गुरुदेव (मुनि तुलसी) को यह अच्छा नहीं लगा उन्होंने प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'मैं तो अच्छे ढंग से प्रमार्जन करते हुए चल रहा था।' इस संस्मरण को लिखते हुए गुरुदेव कहते हैं कि वहां से जाने के बाद मुनि चंपालालजी (सेवाभावी) ने मुझे जो डांट पिलाई, उसे मैं आज तक नहीं भूला हूं। उन्होंने कहा- 'तुम कुछ समझते ही नहीं हो। मुनि मगनलालजी आचार्यों की दूसरी देह हैं। उनके सामने कैसे बोले? तुम्हें बोलने का थोड़ा भी ध्यान नहीं है। तुम्हें पता है तुम क्या बोले?' भाईजी महाराज के कहने पर मुनि तुलसी ने अपनी भूल स्वीकार कर अविनय के लिए क्षमायाचना की। पूज्य गुरुदेव उस समय की स्मृति करते हुए कहते हैं- 'मुनि चम्पालालजी के उपालम्भ ने मेरे जीवन में नई जागृति ला दी। उस दिन के बाद मैंने कभी प्रमार्जन में गलती नहीं की।' द्रष्टाभाव से शरीर में प्राण का संतुलन बढ़ता है। पीड़ित अवयव Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २७६ को देखने से प्राण का प्रवाह उसी ओर हो जाता है। इससे उस भाग की सक्रियता बढ़ती है और दर्द ठीक हो जाता है। प्रकृति में भी कुछ पक्षी अपने अंडों को सेते नहीं, केवल देखते हैं। प्रेक्षाध्यान की पूरी पद्धति गहराई से देखने की प्रक्रिया है। पूज्य गुरुदेव ने आत्मसाक्षात्कार की दिशा में ही देखने का प्रयोग नहीं किया बल्कि नेतृत्व और अनुशासन में भी केवल देखने की शक्ति का प्रयोग किया था। उनकी दृष्टि इतनी वेधक और तीक्ष्ण थी कि वह जिस किसी पर पड़ती, वह बिना कुछ कहे-सुने ही अपनी गलती का अहसास कर जागरूक हो जाता था। अपनी दृष्टि का प्रयोग जहां वे निग्रह/अनुशासनात्मक कार्यवाही के रूप में करते, वहां अनुग्रह दृष्टि से करुणा एवं वात्सल्य का अमृत भी बरसाते थे। ऐसी दर्शनशक्ति किसी विरल अनुशास्ता को ही प्राप्त होती है। विधायक दृष्टिकोण ___ साधक का सबसे बड़ा अलंकरण है-विधायक या सकारात्मक दृष्टिकोण। विधायक दृष्टिकोण जहां रचनाधर्मिता और विकास का संवाहक होता है, वहाँ निषेधात्मक चिन्तन, निराशा और ह्रास का द्योतक है। गुरुदेव ने अपने विधायक चिन्तन से सृजन की नयी दिशाओं को उद्घाटित किया। 'निषेधात्मक एवं विधायक भावों से प्रभावित व्यक्ति के व्यक्तित्व का रेखांकन पूज्य गुरुदेव इस प्रकार करते हैं- 'कुछ लोग निराशा के खोह में सोए रहते हैं। वे अतीत में जीते हैं। भविष्य में उड़ान भरते हैं। जो नहीं किया, उसके लिए पछताते हैं। नई आकांक्षाओं के सतरंगे इन्द्रधनुष रचते हैं। कभी समय को कोसते हैं। कभी परिस्थिति को दोष देते हैं और कभी अपने भाग्य का रोना रोते हैं। ऐसे लोग निषेधात्मक भावों के खटोले में बैठकर जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं। कुछ लोग आस्था के स्वरों को गुनगुनाते हैं। नए यात्रापथ पर प्रस्थान करते हैं । अवरोधों को तोड़कर रास्ता बनाते हैं, संघर्षों से हंसते-हंसते खेलते हैं। धैर्य के साथ आगे बढ़ते हैं और मंजिल तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोग विधायक भावों के अश्व पर सवारी करने वाले होते हैं।' गुरुदेव का चिन्तन सदैव सृजन के गीत गाता रहता था क्योंकि वे नकारात्मक भावों से कोसों दूर थे। उनका चिन्तन था कि सकारात्मक भाव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ साधना की निष्पत्तियां ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में नयी चेतना भर सकता है। राजनगर का घटना-प्रसंग है। वहां तेरापंथ द्विशताब्दी का विशाल कार्यक्रम आयोजित किया गया। थोड़ी सी आबादी वाले गाँव में ४० हजार लोगों की उपस्थिति हो गयी। वक्ताओं के बोलने के बाद जब पूज्य गुरुदेव ने अपना प्रवचन प्रारम्भ किया तो तेज वर्षा प्रारम्भ हो गयी। कार्यक्रम समाप्ति पर लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- 'आज के अमित आनन्द का वर्णन नहीं किया जा सकता किन्तु यदि वर्षा न होती तो बात ही अलग होती।' गुरुदेव ने तत्काल लोगों को समाहित करते हुए कहा- 'वर्षा के भी कुछ कारण हो सकते हैं। लगता है हमारे आनन्द में स्वयं देवराज इन्द्र ने अपनी सहमति प्रकट की है। दूसरी बात इस विशाल कार्यक्रम में यदि कुछ कमी नहीं रहती तो हमारे मन में गर्व आने की संभावना रहती, मगर यह अच्छा ही हुआ कि वर्षा ने वैसा नहीं होने दिया।' एक साधक ही अपनी सफलता में स्थितप्रज्ञता एवं समता का उदाहरण पेश कर सकता है। दृष्टिकोण की स्पष्टता के कारण गुरुदेव तुलसी हर परिस्थिति में अपना संतुलन बनाए रखते थे। प्रकृति एवं परिस्थिति की प्रतिकूलता को उनका विधायक दृष्टिकोण अनुकूलता में परिणत कर लेता था। प्रकृति के प्रति सकारात्मक चिन्तन की एक झलक यहाँ प्रस्तुत है- 'प्रकृति का हर तेवर अपने काम का है। लू का अपना उपयोग है, धूप का अपना उपयोग है और सर्दी का अपना उपयोग है। सर्दी-गर्मी न हो तो प्रकृति से अनेक आपदाओं का स्रोत खुल पड़ेगा। इसलिए इनके होने या न होने में न उलझकर सहजभाव से सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।' पूज्य गुरुदेव बीदासर में विराज रहे थे। दोपहर का समय था। मातुश्री वदनाजी गुरुदेव के उपपात में बैठी सेवा कर रही थीं। अचानक तेज आंधी चलने लगी। गुरुदेव के बिछौने पर धूल बिछने लगी। गुरुदेव बार-बार हाथों से धूल को झाड़ रहे थे। आंधी को कौन कहे कि तुम्हारे कारण एक महापुरुष को अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा है। पास बैठी मातुश्री मौन नहीं रह सकीं। उन्होंने निवेदन किया- 'आपको यहां की धूल सताती होगी।' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए सहजता से उत्तर दिया"जिसके पास जो वस्तु है, वह वही देता है। यहां की पृथ्वी भी धूलि के Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २७८ द्वारा हमारा स्वागत कर रही है। इसको सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।' गुरुदेव के विधायक दृष्टिकोण ने कष्ट को भी अभिनंदन के रूप में स्वीकार कर लिया। उनके जीवन के ऐसे अनेक प्रसंग है, जब प्रकृति की प्रतिकूलता में सकारात्मक नजरिए से उन्होंने नए तथ्य को ढूंढ निकाला तथा उसे अपनी साधना का एक अंग बना लिया। नांगलोई गांव में सर्दी के अत्यधिक प्रकोप के कारण गुरुदेव को पूरी रात नींद नहीं आई। प्रातःकाल संतों के समक्ष रात्रि-जागरण का अनुभव सुनाते हुए गुरुदेव ने कहा- 'यह पहला ही अवसर है कि इतने लम्बे समय तक सर्दी के कारण जागना पड़ा हो, पर यह खेद की बात नहीं है। खूब एकांत का समय मिला। मनन, चिन्तन और स्वाध्याय में खूब मन लगा। ऐसा एकांत समय मुझे कभी-कभी ही मिलता है क्योंकि सारे साधु तो गहरी नींद में सोए हुए थे केवल मैं अकेला ही जाग रहा था।' यह विधायक भाव विशिष्ट साधना की उपलब्धि है। सर्दी-गर्मी से प्रभावित होकर उद्वेलित होने वाली चेतनाओं को उनका यह वक्तव्य एक नयी सोच दे सकता है- 'कुछ व्यक्ति यह सोच सकते हैं कि इस वर्ष लू न चले तो अच्छा रहे। ऐसा सोचने से पहले व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि प्रकृति के काम में रुकावट डालने वाले हम कौन होते हैं ? प्रकृति की प्रतिकूलता का अच्छे ढंग से मुकाबला किया जा सकता है। चिन्तन सकारात्मक हो तो किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने में सुविधा हो जाती है।' ____ विधायक चिन्तन अभाव में भाव तथा कांटों की चुभन में सौरभ की अनुभूति दे सकता है। यदि कोई व्यक्ति उनके सामने निराशा या निषेधात्मक चिन्तन की बात करता तो उसमें भी वे अपने विधायक चिन्तन की पुट देकर उसे नए रूप में प्रस्तुत कर देते थे। दक्षिण यात्रा के दौरान मद्रास में चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य से गुरुदेव की लम्बी वार्ता हुई। राजगोपालाचार्य देश की स्थिति से चिन्तित थे तथा बार-बार निराशा के स्वर अभिव्यक्त कर रहे थे। गुरुदेव ने उनकी निराशा में आशा का संचार करते हुए कहा'मेरी दृष्टि में देश का भविष्य इतना अंधकारमय नहीं है। समय-समय पर ऐसे व्यक्ति पैदा होते रहते हैं, जो देश की नौका को पार लगा सकें। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ साधना की निष्पत्तियां परिस्थितियों में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। मुझे तो भारत का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है।' ___एक भाई गुरुदेव के पास एक दैनिक पत्र लेकर आया। उस पत्र में गुरुदेव के सम्बन्ध में अनेक अनर्गल बातें लिखी हुई थीं। उसी समय एक प्रतिष्ठित वकील गुरुदेव के उपपात में पहुंचे। उन्होंने वह पत्र देखा। पत्र पढ़कर वे बहुत दुःखी हुए। विगलित स्वरों में बोले- 'यह क्या पत्रकारिता है? ऐसे सम्पादकों पर मुकदमा चलाना चाहिए।' गुरुदेव ने मधुर मुस्कान के साथ कहा- 'वकील साहब! कीचड़ में पत्थर फेंकने से कोई लाभ नहीं। मैं कार्य को आलोचना का उत्तर मानता हूं अत: मुकदमा चलाने या उत्तर देने की अपेक्षा कार्य करते जाना ही अधिक अच्छा है। विरोध में शक्ति खपाना निषेधात्मक भाव है अत: विधायक दृष्टि से कार्यजन्य समाधान ही व्यक्ति को ऊपर उठाता है।' वकील साहब गुरुदेव की इस विधायक दृष्टि से चमत्कृत हो गए। जीवन की असफलता एवं प्रतिकूलता में भी कभी निराश न होने के कारण गुरुदेव का पुरुषार्थ कभी कुंद नहीं हुआ। उनकी स्पष्ट अवधारणा थी कि परिस्थिति को बदलना हमारे हाथ में नहीं है पर पुरुषार्थ, मनोबल एवं विधायक भाव से उसका मुकाबला किया जा सकता है। यही कारण है कि परिस्थिति से प्रताड़ित होकर अकर्मण्य या निराश होना उनके सिद्धान्त के खिलाफ था। इस संदर्भ में साहित्यिक शैली में लिखी गई उनकी यह टिप्पणी जनमानस को झकझोरने वाली है- "परिस्थिति के गलियारों से उठता हुआ धुंआ व्यक्ति को आंख मूंदने के लिए विवश करता है। किन्तु जो व्यक्ति उस धुंए को बर्दाश्त कर लेता है, वह बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ जाता है। उसके पदचिह्न दीपक बनकर दूसरों को राह दिखाने का महत्त्वपूर्ण काम कर सकते हैं।' __ मुनि रंगलालजी और नथमलजी आदि अनेक बहुश्रुत साधु जब किन्हीं बातों को लेकर संघ से अलग हो गए तो एक बार संघ में भूचाल जैसा आ गया। केवल गृहस्थ ही नहीं, साधु-साध्वी भी प्रभावित हो गए। सबके मन में एक ही विकल्प था कि अब क्या होगा? उस विकट स्थिति . में अपनी मन:स्थिति का चित्रण करते हुए 'मेरा जीवन: मेरा दर्शन' Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८० पुस्तक में पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'सबके मन में भय के साथ आश्चर्य का भाव प्रबल था पर गुरुओं की कृपा से उस विषम परिस्थिति में भी मेरा मनोबल मजबूत रहा। एक क्षण के लिए भी विचलित नहीं हुआ। मेरा एक भी प्रकम्पित नहीं हुआ क्योंकि मेरा चिन्तन विधायक था। मैंने कहा"जो हुआ है, अच्छे के लिए हुआ है। संदिग्ध अवस्था अच्छी नहीं होती । " ऐसी स्थिति में अनुशास्ता यदि निषेधात्मक भावों में चला जाए तो समय पर सही निर्णय लेना कठिन हो जाता है। नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण कुछ व्यक्ति सामान्य वेदना को भी अधिक मानकर उत्पीड़ित या तनावग्रस्त हो जाते हैं तथा अपने परिपार्श्व को भी अस्त-व्यस्त कर देते हैं । उन लोगों के लिए यह घटना प्रसंग प्रेरणा- दीप का कार्य कर सकता है। राजलदेसर चातुर्मास की परिसम्पन्नता पर गुरुदेव का स्वास्थ्य कुछ नरम हो गया । चतुर्विध संघ गुरुदेव के स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता का अनुभव कर रहा था । सबके मन भारी थे । गुरुदेव ने सबकी बेचैनी का अनुभव किया और प्रेरणा देते हुए कहा'जो भवितव्यता है, वह होकर रहेगी। बिना मतलब चिन्ता का भार ढोकर तनाव या बेचैनी का अनुभव करना बुद्धिमत्ता नहीं है। व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए।' सन् १९६३ का घटना प्रसंग है। एक रात अचानक गुरुदेव के श्वास का प्रकोप बढ़ गया। घंटों बैठा रहना पड़ा । श्वास प्रकोप के कारण नींद नहीं आई इसलिए विहार में भी कठिनाई रही । उस समय का चिन्तन गुरुदेव ने अपनी डायरी में नोट किया- 'कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म' कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है तथा कडाण कम्माण न अत्थि मोक्खो' – किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है, यह भगवद् वाणी है। इसके आधार पर किए कर्म भुगतने ही पड़ेंगे। चिन्ता करने से क्या होगा ? गुरुदेवः शरणम्' जब व्यक्ति दुःखद परिस्थिति को कर्मों का फल मान लेता है तो उसे वह परिस्थिति दुःखी नहीं बना सकती । इसके अतिरिक्त पूज्य गुरुदेव अत्यधिक वेदना एवं पीड़ा के क्षणों में भी चेतना के साथ संबंध बनाए रखते थे तथा उस बीमारी को निर्जरा एवं विनोद का साधन बना लेते थे। एक बार गुरुदेव तीव्र प्रतिश्याय से आक्रांत Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ साधना की निष्पत्तियां हो गए। उस समय अभिव्यक्त की गई अनुभूति उनके रचनात्मक एवं सम्यग् दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करने वाली है। बीमारी के तीन गुण हैं * "पहला कभी-कभी बीमार हो जाने से मनुष्य का अहं दबता रहता है। उसे यह समझने का अवसर मिलता है कि मैं ही सब कुछ नहीं हूं। कुछ अज्ञात शक्तियां भी हैं, जो मनुष्य को परास्त कर सकती हैं अतः मुझे संभल-संभल कर चलना चाहिए। * दूसरा बीमारी के समय बहुत थोड़े द्रव्यों को खाने से ही काम चल सकता है। .. तीसरा हमेशा खाते ही रहने से मनुष्य के कलपुर्जे कुछ शिथिल पड़ जाते हैं । बीमारी में अल्प भोजन से उन्हें विश्रांति मिल जाती है और वे एक बार फिर कार्यक्षमता प्राप्त कर लेते हैं।" विधायक भावों के कारण गुरुदेव सदा साम्ययोग में रमण करते रहते थे। चिन्तन की विधायकता उनको सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, निन्दाप्रशंसा आदि सब द्वंद्वों में सम रहने की प्रेरणा देती रहती थी। न वे कभी निराश होते और न ही कर्तृत्व के अहं से गर्वित ही होते। इस संदर्भ में उनका यह वक्तव्य पठनीय है- "मैं सारे संसार को सुखी बनाने की अति कल्पना नहीं करता तो कुछ नहीं कर सकने की हीनता भी मेरे मन में नहीं है। मैं हीनता और गर्व के बीच मध्यस्थता में रहना चाहता हूं।" विधायक भाव जगाने में आशा और उत्साह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरुदेव के मन का अमिट उत्साह अवस्था के साथ जुड़ा हुआ नहीं था। कोई जब उनके सामने कहता है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं' तो तत्काल उसका प्रतिकार करते हुए वे कहते थे- “आदमी शक्ति का पुंज है। निराशा व्यक्ति को असमय में बूढ़ा बना देती है। आशावान् और उत्साही व्यक्ति सदा युवक बना रहता है।" साधना के द्वारा उनकी दृष्टि इतनी निर्मल हो गयी थी कि उन्हें हर पदार्थ में अच्छाई ही दिखाई पड़ती थी। बीकानेर का घटना-प्रसंग है। गुरुदेव की दृष्टि अचानक चीनी पर पड़ी। गुरुदेव ने फरमाया- 'यद्यपि चीनी स्वास्थ्य के लिए उपयोगी नहीं है पर हमें हर चीज में अच्छाई ग्रहण करनी चाहिए। चीनी में चार गुण हैं- १. उज्ज्वलता २. मधुरता ३. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८२ मिलनसारिता ४. निर्लेपता । गुरुदेव ने आगे अपनी बात जारी रखते हुए कहा - "मनुष्य आज तक कई मन चीनी खा चुका पर न तो उसके समान उज्ज्वलता आई और न वाणी में मधुरता। दूध में घुलकर जिस प्रकार चीनी तादात्म्य स्थापित करती है, वैसी मिलनसारिता आज कहां मिलती है ? इसके अतिरिक्त चीनी की सबसे बड़ी विशेषता है कि एक आधार में रहकर भी प्रत्येक दाना निर्लिप्त है।' विधायक भाव व्यक्ति में दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग जगाता है। विशाल दृष्टिकोण के कारण वह बुराई में भी अच्छाई को खोज लेता है। पूज्य गुरुदेव का चिन्तन इतना ग्रहणशील था कि वे हर व्यक्ति, हर पदार्थ, हर स्थिति एवं हर घटना से एक नया बोध - पाठ ग्रहण कर लेते थे । ये वाक्यांश उनके ग्रहणशील विधायक व्यक्तित्व की जीवंत अभिव्यक्तियां हैं *मैंने अपने गुरुओं से कोरा सिद्धांत ही नहीं पढ़ा, मुझे उनके जीवन-व्यवहार से अहिंसा का सक्रिय प्रशिक्षण भी मिला। मेरे गुरु ने अभय और सहिष्णुता का विकास किया था, मेरे लिए वह सहज बोधपाठ बन गया । * मैंने अन्तर्दीप्ति से प्रज्वलित रहने का मंत्र भस्माच्छन्न अग्नि से सीखा है। * मैंने महिलाओं से बहुत कुछ सीखा है। स्वयं को देखने वाला ही विधायक भावों में रमण कर सकता है। दूसरों को देखने वाला विभाव में रमण करता है। वे कहते थे— 'किसने हमारे साथ कैसा व्यवहार किया, कौन कैसा व्यवहार करता है, कौन कैसा करेगा - ऐसे व्यर्थ चिन्तन न करके हम विधायक चिंतन करें कि हम कैसे हैं और हमें कैसा होना है ?' गुरुदेव तुलसी का यह सकारात्मक चिन्तन प्रत्येक व्यक्ति के चिन्तन को नया आयाम देकर सृजनोन्मुखी सोच को उत्पन्न करने वाला है। दृढ़ संकल्प साधक की शक्ति का स्रोत होता है- दृढ़ संकल्प - बल । आत्मानुशासन और संयम का विकास वही साधक कर सकता है, जिसका Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · साधना की निष्पत्तियां संकल्पबल प्रबल होता है। कमजोर संकल्प वाला व्यक्ति पग-पग पर अपनी इच्छाओं एवं कामनाओं का दास बन जाता है। संकल्पबल के आधार पर साधक इन बाधाओं को निरस्त कर आगे बढ़ जाता है । वह पदार्थ - जगत् को अपने अस्तित्व पर हावी नहीं होने देता । परिस्थितिवाद का बहाना बनाकर शिथिल होने वाले साधक न ध्यानी हो सकते हैं और न ही आत्मरमण कर सकते हैं क्योंकि परिस्थितिवाद संकल्पहीन व्यक्तियों के लिए सबसे बड़ी बाधा है। २८३ जब कल्पना दृढ़ निश्चय में बदल जाती है, वही संकल्पशक्ति बन जाती है। आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि संकल्प और कुछ नहीं होता वह मात्र मनुष्य के भीतर जागा हुआ एक निश्चय होता है, जागरूक प्रहरी होता है, जो परिस्थितियों, कठिनाइयों के थपेड़ों को झेलता झेलता उन्हें चूर-चूर करता हुआ अपने ही सामने आकार लेता है, यही मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता है।" पूज्य गुरुदेव कहते थे - " मैं संकल्पशक्ति से परिचित हूं । संकल्प की सफलता में मुझे संदेह नहीं है । संकल्पबल के सहारे मैंने जीवन के हर मोर्चे पर सफलता हासिल करने का प्रयत्न किया है।" इसी दृढ़ संकल्पनिष्ठा के कारण पूज्य गुरुदेव अपनी पौरुष की गति को कभी मंद नहीं होने देते थे। उनका मानना था कि हम सूरज बनने का दावा नहीं करते पर दीया बनकर अन्धकार से संघर्ष जारी रखने का संकल्प तो कर ही सकते हैं। हमसे जितना काम हो सकेगा, हम करेंगे।" पूज्य गुरुदेव का यह अटूट मनोबल शिथिल संकल्प वाले व्यक्तियों के लिए दीपशिखा का कार्य करने वाला है। संकल्पबल से उन्होंने हर परिस्थिति का लोहा लिया और आगे बढ़ते रहे। संकल्प के बारे में उनका अनुभूत सत्य पठनीय है- 'संकल्प में शक्ति है, उससे कठिन से कठिन कार्य सरल हो सकता है पर कोई यह मान बैठे कि संकल्प-शक्ति के सहारे संसार के सब सुखों को प्राप्त कर लेंगे तो यह चिन्तन उचित नहीं है । दृढ़ संकल्पशक्ति वाले व्यक्ति को बाहरी सुख-सुविधाएं मिले या नहीं पर उसका पुरुषार्थ अपने आप में सफल है।' साधना के पथ पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति की संकल्पशक्ति के Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८४ साथ पुरुषार्थ के प्रति निष्ठा होना आवश्यक है अन्यथा वह साधना के किसी भी क्रम को नियमित रूप से नहीं चला सकता। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि कठिनाइयों को चीरकर आगे बढ़ने का संकल्प पुष्ट होता है तो व्यक्ति अन्धकार को देखकर रुकता नहीं है, वह स्वयं दीपक बनकर दूसरों को पथ दिखाता है। इस बात की पुष्टि में पूज्य गुरुदेव का यह अनुभव उन्हीं के शब्दों में पठनीय है- 'मैं साधु बना, उस समय मेरी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। मैं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था इसलिए विशेष नहीं जानता था। किन्तु इतना अवश्य जानता था कि मुझे कुछ बनना है। क्या बनना है ? कैसे बनना है ? इन प्रश्नों की गहराई में जाने की जरूरत नहीं हुई। गुरुदेव के चरणों में रहकर कुछ बनना है, इस मानसिक संकल्प ने ही मुझे गुरुचरणों में पहुंचाया। गुरुदेव ने मुझे कुछ बनाने का संकल्प किया। उन दो संकल्पों के योग से मैं यहां तक पहुंचा हूं। मैं बहुत बार सोचता हूं कि मैं पहुंच सकता हूं तो अन्य लोग क्यों नहीं पहुंच सकते? इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति पुष्ट हो तो साधारण दीखने वाला व्यक्ति भी अपने गंतव्य तक पहुंच जाता है। अपेक्षा है प्रस्थान से पहले लक्ष्यनिर्धारण की।' जिस व्यक्ति की कथनी और करनी में समानता होती है, वह व्यक्ति संकल्पशक्ति का विकास कर लेता है। इसके अतिरिक्त आत्मनियंत्रण, कष्ट-सहिष्णुता एवं एकाग्रता- ये तीन तत्त्व संकल्पशक्ति को प्रबल बनाते हैं। इनके अभाव में संकल्प की तदाकार परिणति संभव नहीं है। पूज्य गुरुदेव को ये तत्त्व जन्मजात प्राप्त थे अत: उनकी संकल्पशक्ति इतनी प्रबल थी कि हजारों कठिनाइयों में भी उनका मनोबल कभी विचलित नहीं हआ। वे अनेक बार अपने अनुभव को व्यक्त करते हुए कहते थे'मैं कभी-कभी नया निर्णय करने में विलम्ब कर देता हूं पर निर्णय लेने के बाद अपने भीतर चट्टान जैसी दृढ़ता पाता हूं।' अनेक बार लोग उनके संकल्पबल की दृढ़ता को देखकर चमत्कृत हो जाते। गुरुदेव की दृढ़ इच्छाशक्ति के कुछ घटना-प्रसंग यहां प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। सन् १९७७ का चातुर्मास लाडनूं में था। शारीरिक अस्वस्थता के कारण लाडनूं में ९ मास का प्रवास हुआ। विहार की संभावना नहीं थी पर Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ साधना की निष्पत्तियां पूज्य गुरुदेव ने सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव की घोषणा कर दी। सुजानगढ़ पहुंचने पर अपनी भावना व्यक्त करते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'हालांकि लोगों को अब तक भी कल्पना नहीं थी कि मेरा लाडनूं से विहार हो जायेगा। पर मेरा संकल्प दृढ़ था कि बहुत दूर न भी जा सकूं तो कम से कम सुजानगढ़ तो अवश्य पहुंच जाऊंगा । इसी संकल्प एवं पुरुषार्थ की निष्पत्ति है कि मैं आज सुजानगढ़ में आप लोगों के बीच हूं।' 1 पूज्य गुरुदेव ने दक्षिण यात्रा की घोषणा की। इस उद्घोषणा से ज्योतिषियों में खलबली मच गई। उन्होंने अपनी भविष्यवाणी करते हुए कहा- 'आचार्य तुलसी किसी भी हालत में दक्षिण नहीं पहुंच सकेंगे । यदि वे यहां से उस ओर प्रस्थान भी कर देंगे तो बम्बई से आगे जाना नहीं होगा। इस समय आचार्य श्री के ग्रह नक्षत्र इस यात्रा के लिए अनुकूल नहीं हैं, इसलिए उनको उधर नहीं जाना चाहिए।' अनेक प्रबुद्ध लोगों ने गुरुदेव को निवेदन किया- 'दक्षिण में भाषा को लेकर प्रचण्ड विवाद चल रहा है अतः आप अपनी बात वहां की जनता तक नहीं पहुंचा सकेंगे। वहां हिन्दी के नाम पर ही मारकाट होती है अतः आप दक्षिण यात्रा का निर्णय बदलकर किसी अन्य प्रदेश की यात्रा करें तो अच्छा रहेगा। राजनैतिक स्थितियां एवं मौसम आदि की प्रतिकूलता का भय भी गुरुदेव के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। गुरुदेव ने सबकी बातें सुनीं पर अपने संकल्प पर दृढ़ रहे और दक्षिण की ऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व यात्रा करके लौटे। अर्हत् वंदना को प्रायः सभी साधु-साध्वियां वज्रासन में करते हैं । पूज्य गुरुदेव अनेक बार अर्हत् वंदना के प्रारम्भ में सभा को सम्बोधित करते हुए कहते थे— “ 'अशक्त एवं वृद्ध व्यक्ति, जो बैठ न सकें अथवा जो वृद्ध होना चाहते हैं, उन्हें छोड़कर कोई भी इस आसन का अतिक्रमण न करें।" सन् १९९७ लाडनूं प्रवास में अर्हत् वंदना का समय हो गया । गुरुदेव वज्रासन में बैठने लगे तब पैर में वातजनित दर्द होने लगा। संतों ने गुरुदेव को सुखासन में बैठने का निवेदन किया पर गुरुदेव ने दृढ़-मनोबल के साथ कहा- 'ऐसे कैसे बैठ जाएं ? जहां तक हो सके हम वंदनासन में ही अर्हत् वंदना करते हैं । झटपट इस आसन को नहीं छोड़ते।' यह कहते हुए गुरुदेव वज्रासन में विराज गए। असह्य शारीरिक पीड़ा भी उनके Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८६ संकल्पबल को कमजोर नहीं बना सकी। चित्त की परिपक्वता होती है तभी व्यक्ति का संकल्प इतना पुष्ट हो सकता है। बाणभट्ट का यह सुभाषित पूज्य गुरुदेव की संकल्पशक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाला है अंगणवेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्। वल्मीकश्च सुमेरुः, कृतप्रतिज्ञस्य धीरस्य॥ संकल्पनिष्ठ व्यक्ति के लिए पृथ्वी आंगन की वेदी के समान, समुद्र नहर के समान, पाताल स्थल के समान तथा सुमेरु वल्मीक के समान हो जाते हैं। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों के संकल्प होते हैं और दुर्बल व्यक्तियों की केवल इच्छाएं। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति अपने जीवन से संबंधित विशेष दिन को नए कपड़े खरीदकर, आमोद-प्रमोद मनाकर या स्वजनों से उपहार प्राप्त करके मनाता है किन्तु पूज्य गुरुदेव अपना जन्मदिन विशेष संकल्पों को संजोते हुए मनाते थे। धर्मशास्त्रों में जन्मदिन को ग्रंथि-प्रतिलेखन का दिवस कहा गया है। एक वर्ष में एक गांठ नई लगती है, उसके साथ पिछली गांठों का पर्यालोचन और पर्यवेक्षण भी आवश्यक है। जन्मदिन पर चित्रपट की भांति पिछला सारा जीवन साकार हो जाना चाहिए। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जन्मदिन सिंहावलोकन का दिन होता है, भूल-निरीक्षण का दिन होता है और भविष्य के लिए कुछ नए प्रयोग एवं संकल्प ग्रहण करने का दिन होता है। यही कारण है कि पश्चिम रात्रि को बहुत जल्दी जागकर वे आत्मालोचन एवं आत्मचिन्तन में लीन हो जाते थे। ४१वें जन्मदिन पर अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा- 'पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करने के लिए मैं एक वर्ष पीछे लौटा। कहीं एक-एक दिन कहीं एक-एक महीना और कहीं समुच्चय रूप से पूरे वर्ष को देखा। क्या खोया? क्या पाया? और क्या पाना है ? इस त्रिपदी के आधार पर अच्छा आत्मविश्लेषण हुआ।' इसी प्रकार सन् १९६१ में संवत्सर प्रतिलेखन करते हुए गुरुदेव ने फरमाया- "यह दिन मुझे प्रतिवर्ष हल्का और भारी बनाता है। पिछले वर्ष के चिन्तित और संकल्पित कार्यक्रमों को पूर्णता के बिंदु तक पहुंचाकर मैं हल्कापन अनुभव करता हूं। भारी इस माने में कि आगामी समूचा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ साधना की निष्पत्तियां भविष्य सामने है। भविष्य की दृष्टि से मैंने कुछ संकल्प स्वीकार किए हैं। मैं चाहता हूं कि समाज में योग-साधना की ओर विशेष गति हो।" यहां ऐतिहासिक क्रम से जन्मदिन पर किए गए कुछ वर्षों के संकल्पों की झांकी प्रस्तुत की जा रही है। ये संकल्प केवल वैयक्तिक ही नहीं, सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं। इन संकल्पों में पूज्य गुरुदेव की साधना और आत्मनिष्ठ चैतन्य का आलोक प्रतिबिम्बित हो रहा है। हर आत्मार्थी साधक के लिए ये संकल्प मील के पत्थर ही नहीं, अखूट पाथेय भी प्रस्तुत करने वाले हैं। विशिष्ट दिनों में संकल्पों को दोहराने से अनुयायियों की चेतना में भी उत्साह की लहर दौड़ जाती थी। ... ४७वें जन्मदिन पर पूज्य गुरुदेव ने तीन कार्यों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करने का संकल्प व्यक्त किया था * जैन आगमों का व्यवस्थित संपादन। * अणुव्रत आंदोलन को और अधिक व्यापक बनाना। * जनोपयोगी साहित्य का निर्माण। सन् १९६३ में ५०वें जन्मदिन पर जन्मस्थली लाडनूं में अग्रिम वर्ष के लिए कुछ संकल्प करते हुए गुरुदेव ने कहा- "मैं अपना जन्मदिन इन संकल्पों को स्वीकार करते हुए मनाना चाहता हूं सूत्रों के पद्यों का सार्थ चिन्तन करना। ध्यान अनिवार्य रूप से करना। * शाम के अतिरिक्त सुबह भी मौन करना। * मितभाषिता। बहम की वृत्ति को अधिक प्रश्रय न देना। * दूध सर्वसुलभ न हो तो महीने में अमुक दिनों तक नहीं लेना। * शाम के भोजन में ऊणोदरी अवश्य करना। * दो बार से अधिक नहीं खाना और उसमें भी मिठाई व तेल की वस्तुओं से यथासंभव दूर रहना।" Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २८८ इतिहास के पृष्ठ बताते हैं कि यह पहला ही अवसर था जब गुरुदेव ने परिषद् के सम्मुख अपने संकल्पों को दोहराया। इन संकल्पों ने उपस्थित जनमेदिनी को प्रभावित किया क्योंकि वाणी तभी जादू बनती है, जब वह आचरण के साथ बाहर निकलती है। जैन समाज शक्तिसम्पन्न और वैभवसम्पन्न होते हुए भी टुकड़ों में बंटा हुआ है। इस बात की गुरुदेव के मन में बहुत पीड़ा थी। उन्होंने जैन समाज की एकता, अखंडता और समन्वय के लिए बहुत प्रयत्न किए। अपने ५१वें जन्मदिवस पर जनता के समक्ष अपनी भावना व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'प्रगति के बाधक तत्त्वों का निराकरण कर आगे बढ़ने का संकल्प दोहराएं- यही जन्मदिन मनाने की सार्थकता है। बीकानेर के जैन समाज के समक्ष मैं अपने अग्रिम वर्ष के लिए तीन संकल्प दोहराना चाहता - सपा * संवत्सरी पर्व एक हो। * जैनों का एक प्रतिनिधि संगठन हो। * महावीर की निर्वाण सदी सभी सम्प्रदायों द्वारा मिलकर मनाई जाए।' ये तीन संकल्प जहां उनकी उदारता एवं विराटता को अभिव्यक्त करते हैं, वहां उनके असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण की व्यापकता भी प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही व्यक्तिगत साधना को तेजस्वी बनाने हेतु उन्होंने इन संकल्पों का उच्चारण किया * नौ द्रव्यों से अधिक न खाना। * तली हुई वस्तुएं न खाना। . * ५० वर्ष बाद दिन में लेटकर नींद ले सकते हैं पर अग्रिम वर्ष में सहजतया दिन में लेटकर नींद नहीं लेना। * भिक्षा के निमित्त किसी के घर नहीं जाना।" सन् १९६५ में ५२वां जन्मदिन भारत की राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक स्थल में मनाया गया। हजारों की उपस्थिति में गुरुदेव श्री तुलसी ने फरमाया- "बहुत बार मेरे मन में विकल्प उठता है कि मेरे Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ साधना की निष्पत्तियां जन्मदिन को किसी विशेष रूप में परिवर्तित कर दिया जाए। इतने दिनों का चिंतन आज सक्रिय रूप में हमारे सामने आया है। आज का दिन आध्यात्मिक शिक्षा दिवस' के रूप में मनाया जा रहा है, इस बात की मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। इस वर्ष जन्मदिन के उपलक्ष में गुरुदेव ने पिछले संकल्पों को दोहराते हुए तले हुए खाद्य पदार्थों तथा ११ द्रव्यों से अधिक न खाने का संकल्प ग्रहण किया। १९६६ में ५३वें जन्मदिन पर बीदासर की वीरभूमि में पूज्य गुरुदेव ने इन चारों कार्यों की सम्पूर्ति का वज्र संकल्प ग्रहण किया * साहित्य के अन्तर्गत आगम-संपादन। * समाजशुद्धि के लिए अणुव्रत आंदोलन का तीव्रगति से प्रचार । * साधना के विकास हेतु आसन, ध्यान, योग आदि। * समन्वय के क्षेत्र में जैन एकता के लिए प्रयास। इन चारों कार्यक्रमों को तेजस्वी बनाने में मैं स्वयं अपनी शक्ति का नियोजन करूंगा और सम्पूर्ण संघ को भी इस दिशा में प्रेरित करूंगा। सन् १९६७ में अहमदाबाद की उर्वर भूमि पर ५४वें बसन्त के उपलक्ष में गुरुदेव ने अपने अनुभवों को व्यक्त करते हुए कहा- '५४वें वर्ष में भी मैं ताजगी का अनुभव कर रहा हूं। यह ताजगी जीवन पर्यन्त बनी रहे और हम समन्वय की नीति को दोहराते रहें। हम जो करना चाहते हैं उसे दृढ़ता से करें, यह मेरी हार्दिक कामना है।' इस वर्ष गुरुदेव ने अग्रिम वर्ष के लिए पूर्व संकल्पों को ही दृढ़ता से पालन करने का संकल्प करते हुए दो संकल्प और जोड़ दिए प्रतिदिन दो घंटे का मौन करना। * एक माला एक दृष्टि से फेरना। ५५वें वर्ष में प्रवेश करते हुए तमिलनाडु की राजधानी मद्रास में पूज्य गुरुदेव ने अपने संदेश में आत्मतोष व्यक्त करते हुए कहा- 'वर्ष पूरा करने का तात्पर्य है कुछ खो देना लेकिन मैंने तो इन वर्षों में पाया ही पाया है। स्वास्थ्य, शिक्षा, उत्साह आदि अनेक दृष्टिकोणों से देखता हूं तो मैं अपने आप में निश्चिंत हूं।' इस आत्मतोष की अभिव्यक्ति प्रतिक्षण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २९० जागरूक और अप्रमत्त साधक ही कर सकता है तथा जो हर क्षण को जीता हो, उसमें से कुछ सार निकाल लेने की शक्ति रखता हो, वही इतने आत्मविश्वास के साथ अपने अस्तित्व को अभिव्यक्ति दे सकता है। सन् १९६९ में ५६वें जन्मदिन पर बेंगलोर की सुरम्यस्थली में भावी वर्ष की कार्यनीति प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'अब मैं बहुत अधिक यात्राएं न कर अपनी शक्तियों को केंद्रित करके अध्यात्म को तेजस्वी बनाने का कार्य करना चाहता हूं" यह संकल्प दीखने में छोटा और सामान्य लगता है पर इस हिमालयी संकल्प को करने वाला अमित मनोबली और आत्मदर्शी साधक ही हो सकता है। ५७वां जन्मदिन रायपुर की ऐतिहासिक धरती पर मनाया गया। रायपुर के अग्नि परीक्षा कांड में गुरुदेव श्री तुलसी अग्नि में स्वर्ण की भांति निखर कर जनता के सामने उभरे। विरोध की प्रचण्डता इतनी थी कि सामान्य व्यक्ति का मनोबल तो कभी का धराशायी हो जाता । ५७ वें जीवन - बसंत के स्वर्णिम प्रभात में प्रदत्त ऐतिहासिक प्रवचन का कुछ अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे सामान्य सी बात पर प्रतिक्रिया करने वाले तथा तिल को ताड़ बनाने वाले मनोवृत्ति के लोग कुछ प्रेरणा ले सकें- 'आज मैं ५७वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूं। मेरा धर्मसंघ कई वर्षों से मेरा जन्मदिन मनाता आ रहा है पर इस वर्ष मुझे वह अधिक सुहावना लग रहा है। आज का प्रभात मेरे लिए नवीन संदेश लेकर आया है। कुछ ज्योतिर्विदों ने मुझे कहा है कि अब तक आपने जो प्रगति की है, वह तो भूमिका मात्र है, सही प्रगति का प्रारम्भ तो अब होगा। पर ज्योतिष में मेरा विश्वास कुछ भी नहीं है। मैं तो पुरुषार्थ में विश्वास करता हूं । पुरुषार्थहीन व्यक्ति की कोई देव भी रक्षा नहीं कर सकता। इस वर्ष हमें प्रकृति और पुरुष दोनों से मुकाबला करना पड़ा है। उड़ीसा से लौटते समय भयंकर बाढ़ का सामना हुआ, जिसकी स्मृति मात्र से रोमांच होता है। रायपुर में हम जिस विरोध का मुकाबला कर रहे हैं, वह भी विचित्र है । यह इतिहास की अनोखी घटना है। अभी तक हम महापुरुषों के संघर्षों की कहानियां पुस्तकों में पढ़ते थे, किन्तु आज हमारा संघ तकलीफों से गुजर रहा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी कठिनाई हमें विचलित नहीं कर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ साधना की निष्पत्तियां सकेगी। यह संघर्ष हमारे भविष्य के लिए शुभसूचक है। आज मैं इस विषम स्थिति में अपने शुभचिंतकों को पूर्णरूप से संयमित रहने का निर्देश देता हूं। मुझे विश्वास है कि वे किसी भी स्थिति में अहिंसा को नहीं भूलेंगे। आज जन्मदिन पर मैं उन लोगों के प्रति भी शुभकामना करता हूं, जिन्होंने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है। समता, सहिष्णुता और एकाग्रता- इन तीनों के बिना ऊपरी साधना केवल भारभूत रहेगी। मेरे भावी जीवन में मैं इन तीनों बातों के लिए संकल्पबद्ध होकर आगे बढ़ना चाहता हूं।' यह सहिष्णुता का अमर संदेश आने वाली पीढ़ियों को भी समता का आलोक देता रहेगा तथा अहिंसात्मक प्रतिरोध का पाठ पढ़ाता रहेगा। सन् १९७१ में ५८वें जन्मदिन पर लाडनूं नगरी में अपनी ओजस्वी वाणी को प्रस्फुटित करते हुए पूज्य गुरुदेव ने उद्घोषणा की- 'आगामी वर्ष में मैं निष्काम कर्म की प्रेरणा देने के लिए अपने आपको सक्रिय रूप में प्रस्तुत करना चाहता हूं।' आज के युग में जहां "काम कम, नाम अधिक" का नारा बुलंद है, वहां सर्वथा निष्काम कर्म का प्रयोग अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ व्यक्ति द्वारा ही संभव है। इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद साधक प्रतिक्षण समाधि में रहता है क्योंकि आकांक्षा और कामना ही साधना के सबसे बड़े विघ्न हैं। सन् १९७२ में यशस्वी जीवन के ५९वें जन्मदिन पर चूरू की ऐतिहासिक भूमि में गुरुदेव ने समता की साधना का विशेष रूप से संकल्प किया तथा संघ में निर्माण कार्य के साथ-साथ परिमार्जन और संशोधन का बीड़ा उठाने का भी संकल्प लिया। ___ साठवें जन्मदिन पर प्रातः पंचमी समिति के पश्चात् गुरुदेव ने खड़े-खड़े सूर्याभिमुख होकर ध्यान किया। ज्योतिषियों ने घोषणा करते हुए कहा कि यह वर्ष आपके लिए बहुत शुभ है। गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- "मुझे तो सभी वर्ष अच्छे लगते हैं। वर्ष क्या हर वर्ष का प्रत्येक महीना और प्रत्येक दिन शुभ हो, यह मेरी कामना है। मेरी दृष्टि में शुभ का अर्थ है- कार्यकारी। स्वीकृत संकल्पों को पूर्ण करने में यह वर्ष जितना कार्यकारी होगा, मन उतना ही संतुष्ट रहेगा।" Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी पूज्य गुरुदेव सृजन के देवता थे। उनका हर स्वर सृजन का संगीत था। हर संकेत सृजन का आलोक था। उन्होंने अपने जन्मदिन को केवल प्रशस्ति का समारोह न बनाकर उसे संकल्पों के द्वारा रचनात्मक एवं सृजनात्मक रूप दिया। पिछले अनेक वर्षों तक वे अपने जन्मदिन को अणुव्रत दिवस के रूप में मनाते रहे। इस दिन तेरापंथ धर्मसंघ का सर्वोच्च पुरस्कार "अणुव्रत पुरस्कार" की घोषणा भी की जाती थी। जीवन के सांध्यकाल में उनके संकल्प वैयक्तिक न होकर व्यापक अधिक होते थे। उनके संकल्प की धुरी पर पूरी मानव जाति केन्द्रित रहती थी। ६३वें जन्मदिन पर जनमेदिनी को सम्बोधित करते हुए उन्होंने संकल्प ग्रहण किए * प्रेक्षाध्यान का संघ में अधिक से अधिक विकास। * वैयक्तिक स्तर पर प्रेक्षा का नियमित अभ्यास। * आगम-संपादन के कार्य में नियमितता। * प्रतिदिन दो घंटा मौन। * खाद्य संयम के विशेष प्रयोग। ६७वें जन्मदिन पर उनकी दृढ़ संकल्पनिष्ठा ने एक नए संन्यास की सृष्टि की। समण श्रेणी का महान् अवदान इसी दिन जिन-शासन की सेवा में समर्पित हुआ। समण श्रेणी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने कहा- 'इस नयी श्रेणी की स्थापना आचार्य तुलसी जैसे दृढ़ मनोबली आचार्य ही कर सकते हैं। अनेक आचार्य इस बारे में सोचते हैं पर कर नहीं पाते। कुछ नया करने का श्रेय आचार्य तुलसी के संकल्प-बल को ही जाता है। मैं उनकी संकल्प-निष्ठा और अप्रमत्तता से बहुत प्रभावित हूं।' ६९वें जन्मदिन पर पूज्य गुरुदेव की नींद जल्दी ही खुल गई। संतों ने पुनः लेटने का निवेदन किया लेकिन गुरुदेव ने फरमाया-"अब उठने के बाद क्या सोना? संतों को प्रेरणा देकर गुरुदेव ने अपने भावी जीवन के लिए संकल्प प्रस्तुत किए * यह वर्ष मेरे लिए शुभ हो। * अध्यात्म मेरे जीवन का आदर्श बना रहे। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ साधना की निष्पत्तियां * अणुव्रत जन-जीवन को चरित्रवान् बनाने का सक्षम माध्यम · बना रहे, इसके लिए प्रयत्न करना। * प्रेक्षा ध्यान भाव-परिवर्तन की विशेष प्रक्रिया बनी रहे। * प्रगति सदैव मेरी सहगामिनी बनी रहे। * मैं जब तक रहूं, नए-नए स्वप्न संजोता रहूं और अतीत की भांति उन्हें सफल देखता रहूं। * मैं अपनी मानसिक प्रसन्नता को सदैव प्रवर्धमान रखू। * मेरा समग्र धर्म-परिवार अध्यात्मनिष्ठा के क्षेत्र में गतिशील रहे। जन्मदिन पर ही नहीं, हर पट्टोत्सव एवं महावीर-निर्वाण दिन आदि विशिष्ट अवसरों पर भी वे भावी जीवन के लिए कुछ न कुछ संकल्प अवश्य ग्रहण करते थे। यहां उदाहरण स्वरूप दीपावली एवं पट्टोत्सव पर उनके द्वारा किए गए संकल्पों की एक झलक मात्र प्रस्तुत की जा रही है। लोग दीप जलाकर दीपावली मनाते हैं पर पूज्य गुरुदेव संकल्पों के दीप जलाकर दीपावली मनाते थे * सप्ताह में एक एकासन करना। * ऐलोपैथिक दवा का प्रयोग नहीं करना। * प्रतिदिन आत्मालोचन करना। * दस हजार पद्य परिमाण नए साहित्य का स्वाध्याय करना। * किसी प्रसंग में आवेश आ जाए तो दीर्घश्वास का प्रयोग कर - उसे अविलम्ब शान्त कर देना। '३०वें पट्टोत्सव के अवसर पर किए गए भावी संकल्प की रूपरेखा उनकी अतीन्द्रिय चेतना की स्पष्ट अभिव्यक्ति है- 'भविष्य में मैं योग साधना को प्रमुख स्थान देना चाहता हूं। चार ही तीर्थ को मेरा आह्वान है कि वे इस दिशा में विशेष प्रगति करें। मेरे विचार से आने वाले युग की श्रद्धा इस ओर विशेष केन्द्रित होने वाली है।' अनुशासन वर्ष के उपलक्ष में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने तीन संकल्प प्रस्तुत किए, जिनमें सम्पूर्ण मानवजाति का उज्ज्वल भविष्य प्रतिबिम्बित है Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी -२९४ मैं कथनी और करनी की समानता में विश्वास करता हूं । कथनी और करनी में समानता नहीं है, यह वर्तमान युग की बहुत बड़ी समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिये आवश्यक मानता हूं कि यह समस्या मिटे | मैं सहिष्णुता में विश्वास करता हूं। मनुष्य एक-दूसरे के अस्तित्व को सहन नहीं कर पा रहा है, यह विकट समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिये आवश्यक मानता हूं कि यह असहिष्णुता मिटे । *मैं समस्या के समाधान के लिए अहिंसा के विकल्प को सर्वश्रेष्ठ मानता हूं । समस्या को सुलझाने के लिए आज हिंसा के विकल्प को प्राथमिकता दी जा रही है, यह बहुत बड़ी समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिए आवश्यक मानता हूं कि अहिंसा के विकल्प को प्राथमिकता मिले तथा संतुलन, सहअस्तित्व और सापेक्षता का मूल्य प्रस्थापित हो ।" महापुरुषों का जीवन संकल्प और आस्था की धुरी पर चलता है। वे अपने जीवन के प्रांगण में सद्संकल्पों की अल्पनाएं सजाते हैं और आस्था के नये-नये स्वस्तिक रचते रहते हैं । पूज्य गुरुदेव अपनी सफलता एवं दृढ़ता का राज बताते हुए कहते थे कि मेरा हर प्रयत्न भीतरी संकल्प के साथ होता है इसलिए उसकी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं होता । पूज्य गुरुदेव ने अपनी दृढ़ संकल्पनिष्ठा से इस बात को सिद्ध किया था कि सुख-सुविधाएं मिलें या नहीं पर प्रबल पुरुषार्थ सदैव सफल होता है। पूज्य गुरुदेव की यह दृढ़ संकल्प - निष्ठा जीवन-रण से हारे, हताश एवं निराश व्यक्ति में एक नया आत्मविश्वास भरने वाली है । प्रदीप्त पौरुष साधक कभी थकता नहीं, रुकता नहीं यही कारण है कि वह अपने वीर्य का गोपन नहीं करता । " णो णीहेज्ज वीरियं" महावीर की यह आर्ष-वाणी सदैव आचार्य तुलसी के स्मृति पटल पर तैरती रहती थी । प्रखर आत्मबल के कारण उनका पुरुषार्थ सदैव प्रदीप्त रहता था । पूज्य गुरुदेव पौरुष के प्रतीक थे । कर्मयोग को उन्होंने अपनी साधना का माध्यम बनाया था। इस संदर्भ में उनका मंतव्य था- 'मैं जो कर्म करता हूं, वह मेरी मुक्ति का साधन है अतः उसमें मुझे श्रम का अनुभव नहीं होता। लोग Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ साधना की निष्पत्तियां कहते हैं आपको परिश्रम बहुत करना पड़ता है। मैं परिश्रम करता हूं, किन्तु उसमें मुझे थकान नहीं आती क्योंकि जो श्रम मन से किया जाता है, उसमें थकान की अपेक्षा शान्ति अधिक मिलती है। जहां बलात् परिश्रम करना पड़ता है, उसमें हानि की संभावना रहती है ।' अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी के ये विचार उनके फौलादी और कर्मठ व्यक्तित्व के सूचक हैं। पूज्य गुरुदेव के पुरुषार्थी जीवन को देखकर प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- 'आपके श्रम और जनकल्याण की भावना देखकर लगता है सचमुच आप तीर्थंकर परम्परा के संवाहक हैं ।' वर्तमान में ऐसा महसूस होता है कि उनका जनकल्याण एवं सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु आचार्य पद को छोड़ना तीर्थंकरत्व की ओर प्रयाण करना था । आत्मकर्तृत्व की लौ को मंद कर भाग्य के भरोसे बैठना उन्हें पंसद नहीं था । जो लोग मात्र भाग्य भरोसे बैठकर अकर्मण्य जीवन जीते हैं, वे कभी नवनिर्माण का स्वप्न नहीं ले सकते। उनका विश्वास सदैव इस भाषा बोलता था कि भाग्य की ओर मत देखो, उस पुरुषार्थ की ओर झांको, जो हमारे भाग्य की रचना करता है । यही कारण है कि वे कठोर से कठोर कार्य को अपने मनोबल के आधार पर पूरा कर देते थे । असंभव जैसा शब्द तो कभी उनके मस्तिष्क के दरवाजे को खटखटाता ही नहीं था । उनका मंतव्य था कि पुरुषार्थ वह तत्त्व है, जो कठिन से कठिन और असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को भी सरल और संभव बना देता है। अकर्मण्य लोगों को देखकर गुरुदेव का दिल करुणा से भर जाता था। वे अपने अनुयायियों को बार-बार प्रेरणा देते रहते थे - " व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। कुछ न कर सकने की हीनभावना मन में आना जीवन की सबसे बड़ी असफलता है ।' पदयात्रा के दौरान गुरुदेव एक मंदिर में पधारे। वहां एक पुजारी आया और बोला- 'कृपया मेरा हाथ देखकर बताएं कि जीवन में उन्नति मिलेगी या नहीं ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- 'मैं ज्योतिषी नहीं हूं। मैं तो प्रबल पुरुषार्थवादी हूं। यदि सम्यक् पुरुषार्थ है तो भविष्य कभी बुरा नहीं हो सकता ।' ईश्वर के भरोसे अपने भाग्य को छोड़कर अकर्मण्य या निष्क्रिय बन जाने वाले लोगों की Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी चेतना को वे बार-बार झकझोरते रहते थे *"यदि ईश्वर ही किसी को उन्नत या सुखी बना सकता है तो संसार में कोई सुखी और कोई दुःखी क्यों? उसे तो सबको सुखी ही बनाना चाहिए था। भगवान् ही हमारे लिए सब कुछ करेंगे, हम कुछ भी क्यों करें? यह कायर व्यक्तियों की वाणी है। शक्तिहीन और विगतसत्त्व प्राणियों के लिए प्रभु तो क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकेगा।" *"कोई व्यक्ति यह सोचे कि मुझे कोई भी दूसरी शक्ति परमात्मा बना देगी, यह असंभव बात है क्योंकि परमात्मपद दिया नहीं जाता, पाया जा सकता है।" इसी प्रसंग में उनका यह उद्धरण भी क्रांतिकारी है- "मैं मनुष्य की खोज में निकला हूं। देवताओं का सहयोग मुझे नहीं चाहिए। लोग हर कार्य के लिए देवताओं का मुंह ताकते रहते हैं, क्या हमारे देवता इतने बेकार बैठे हैं कि वे हमारा कार्य करने के लिए दौड़े आएंगे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कोई भी देवता या परमात्मा स्वर्ग से हमारा कार्य करने नहीं आयेगा। धरती पर रहने वालों को ही परमात्मा बनना पड़ेगा।' मात्र ईश्वर के भरोसे बैठे रहने वाले लोग गुरुदेव की दृष्टि में स्वतंत्र नहीं अपितु यांत्रिक जीवन जीते हैं। एक बार गुरुदेव किसी क्लब में प्रवचन करने पधारे। प्रवचन-हॉल प्रबुद्ध लोगों से भरा था। प्रवचन के दौरान गुरुदेव ने क्लब के सदस्यों से प्रश्न किया- 'आप यंत्र हैं या स्वतंत्र? हॉल में बैठे प्रायः सभी लोगों ने एक स्वर से कहा- 'हम स्वतंत्र हैं।' पूज्य गुरुदेव ने पुनः प्रश्न किया- 'आप ईश्वरवादी हैं या आत्मकर्तृत्ववादी?' इस दार्शनिक प्रश्न को सुनकर वे एक बार सहमे और बोले- "ईश्वर में हमारी आस्था है, हम ईश्वरवादी हैं। पूज्य गुरुदेव ने अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा- 'ईश्वरवादी होने का मतलब है ईश्वर के हाथ का खिलौना बनना। जो ईश्वर के खिलौने हैं, वे यंत्र हो सकते हैं. स्वतंत्र नहीं।' गुरुदेव के इस कथन ने सबको चौंका दिया और सब सोचने . को मजबूर हो गए। अकर्मण्यता अथवा मात्र याचना की बात यदि धार्मिक ग्रंथों में भी Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ साधना की निष्पत्तियां मिलती है तो उसमें भी अपने पुरुषार्थ की पुट मिलाकर उसे नए रूप में प्रस्तुत कर देना गुरुदेव के लिए सहज कार्य था । वेद के ये सूक्त उनकी पुरुषार्थी चेतना को सुहाए नहीं इसलिए उसको नई भाषा के साथ प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योः मा अमृतं गमय 'मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो'- ये तीनों ही मांगें बहुत सुन्दर हैं। सत्, प्रकाश और अमरत्व प्राप्त होने के बाद मनुष्य को चाहिए ही क्या ? मैं इन वाक्यों को थोड़ा बदलना चाहता हूं । याचना के स्थान पर पुरुषार्थ को जोड़ना चाहता हूं । पुरुषार्थ में विश्वास रखने वाले व्यक्ति की भाषा होगी - " मैं असत् से सत् की ओर जाऊं, मैं अंधकार से प्रकाश की ओर जाऊं, मैं मृत्यु से अमरत्व की ओर जाऊं। इसमें व्यक्ति का अपना कर्तृत्व उजागर होता है । आस्थाप्रधान संस्कृति में याचना की बात अस्वाभाविक नहीं है, फिर भी उसमें पुरुषार्थहीनता नहीं होनी चाहिए ।' पुरुषार्थी व्यक्ति अपने इष्ट का सम्बल या आलम्बन प्राप्त कर सकता है। उसका संकल्प होता है " अमग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि" मैं अमार्ग को छोड़ता हूं और मार्ग को स्वीकार करता हूं। मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को स्वीकार करता हूं। मैं मिथ्यात्व को छोड़ता हूं और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूं। इस प्रकार सोचने वाला व्यक्ति ईश्वर प्रतिस्थाशील रहता हुआ भी लक्ष्यप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ का उपयोग करेगा।' ये पंक्तियां उनके अजेय आत्मबल और अमित आत्मकर्तृत्व की भावना को प्रकट कर रही हैं। 'सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २९८ को ही सबका नियामक मानता हूं। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है।' जयशंकरप्रसाद की ये पंक्तियां उनके मानस में हर पल झंकृत होती रहती थीं। इसीलिए वे बार-बार जनता को उद्बोधित करते रहते थे कि चाह करने मात्र से राह नहीं मिलती। उसके साथ उत्साह और पुरुषार्थ का योग होने पर ही सफलता मिलती है। यही कारण है कि गुरुदेव तुलसी अपने पौरुष से हर विपदा को सम्पदा में बदल देते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी के पुरुषार्थ की गति आत्मविकास, संघविकास और राष्ट्रविकास की ओर अग्रसर थी। निर्लक्ष्य या बिना प्रयोजन कुछ भी करना उनकी जागृत चेतना को स्वीकार्य नहीं था। किसी साधु या संत को अनावश्यक क्रिया करते देख वे तत्काल उसे सावधान कर देते थे। कभी-कभी तो सामान्य घटना के माध्यम से भी एक नया बोध-पाठ दे देते थे। एक बार साधु-साध्वियों को ग्रन्थ-वाचन कराते समय गुरुदेव की दृष्टि ऊपर बैठे दो कबूतरों पर अटक गई। उनको बिना प्रयोजन इधर-उधर उड़ते देख गुरुदेव ने शिक्षा देते हुए कहा- 'इनका भी कोई जीवन है ? न कोई काम, न कोई प्रयोजन। निष्प्रयोजन जीवन कबूतर के समान है, जो केवल खाने-पीने और इधरउधर दौड़ने में ही बीत जाता है।' __ अणुव्रत अनुशास्ता की अप्रमत्तता और क्रियाशीलता इस बात से जानी जा सकती थी कि वे प्रथम क्षण में एक कार्य समाप्त करते और अगले क्षण दूसरा कार्य प्रारम्भ कर देते। न प्रथम कार्य की अधिकता का भार महसूस करते और न दूसरे कार्य की पूर्ति में उतावलापन । सहज भाव से निष्कामयोगी की भांति कार्य करते चले जाते। आश्चर्य तो इस बात का होता कि वे जनहित के प्रति जितने सक्रिय थे, शरीर-सुख या अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उतने ही निष्क्रिय थे। लम्बी-लम्बी यात्राओं के दौरान १५-२० मील के पादविहार करने तथा दिन में तीन-चार बार व्याख्यान देने पर भी उन्होंने कभी थकान की अनुभूति व्यक्त नहीं की। मेवाड़ में थोरिया से गजपुर जाते हुए ७२ वर्ष की उम्र में दिन में पांच बार प्रवचन किया। पर न सुस्ती, न अलसाहट और न अहसान का ज्ञापन। पूज्य गुरुदेव की इस अति कार्यशीलता को देखकर Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साधना की निष्पत्तियां कभी-कभी जब संत विश्राम की प्रार्थना करते तो वे मुस्करा उठते और यह कहकर टाल देते कि मेरी कुंडली में योग ही ऐसा है। गुरुदेव तुलसी की दृष्टि में शयन विश्राम नहीं, अपितु कार्य परिवर्तन ही विश्राम था। वे बहुत बार साधुओं को प्रतिबोध देते हुए कहते थे— 'निष्क्रिय बनकर बैठे रहना विश्राम नहीं, समय का अपव्यय है । ऐसा विश्राम मेरी प्रकृति के प्रतिकूल है। मुझे कार्य के सामने भूख और प्यास नहीं सताती । २४ घंटों में केवल आहार और शयन का समय मेरा है, यदि कोई इस समय का उपयोग करना चाहे तो मैं इसे भी दे सकता हूं।" लोगों को जब वे आलस्य और अकर्मण्यता का जीवन जीते देखते तो उनका मानस उद्वेलित हो उठता । उनकी यह पीड़ा अनेक बार इन शब्दों में निकल पड़ती- 'जीवन के कीमती क्षणों आलस्य में खोना बहुत बड़ी निधि को हाथ से खोना है। जो लोग ऐसी जिन्दगी जीते हैं, उन्हें देखकर कई बार मन में आता है क्या ही अच्छा हो कि इनका समय मुझे मिल जाए क्योंकि मेरे पास इतने काम हैं कि दिनरात व्यस्त रहने के बावजूद भी वे आगे से आगे तैयार रहते हैं । ' २९९ कार्य के प्रति गुरुदेव की निष्ठा एवं लगन अवस्था के साथ भी कम नहीं प्रत्युत् वृद्धिंगत हुई। अंतिम समय तक अपने हर जन्म-दिवस पर वे अपने आपको तरोताजा अनुभव करते और बाल्यकाल की ओर बढ़ जाते थे । अवस्था के साथ मन को कुंठित करना या निष्क्रिय जीवन जीना उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं था । इसीलिए वे अपने जीवन से जन-जीवन को प्रेरणा देते रहते थे। ये कथन उनके जीवट और फौलादी व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करते हैं 'लोग कह रहे हैं कि मैं सत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूं। मुझे लगता है कि कहीं यह मेरा सतरहवां वर्ष तो नहीं है क्योंकि मैं आज भी अपने आपको पूरी तरह से तरोताजा अनुभव कर रहा हूं। मुझमें उत्साह, स्फूर्ति, लगन व विकास की महत्त्वाकांक्षा अभी भी १७ वर्ष जैसी है । ' 'बहत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने के बावजूद मुझे भरोसा है कि आज भी मेरी कार्यजा शक्ति में कोई कमी नहीं आयी है। मैं १८ घंटे बिना काम कर सकता हूं। रात को तीन घंटे नींद लेकर भी उठता हूं तो कभी नींद की पूर्ति करने की इच्छा नहीं रहती ।' Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०० जो लोग ४० वर्ष की अवस्था में ही स्वयं को वृद्ध मानकर हतोत्साहित हो जाते हैं तथा शरीर को कष्ट नहीं देने की बात सोचते हैं, उन तथाकथित वृद्धों को जागृत और पुनः उत्साहित करते हुए अपने ७५वें वर्ष के उपलक्ष्य में उन्होंने कहा- "पहले मैं कहता था सत्तर वर्ष से पूर्व कोई अपने को बूढ़ा न माने पर ऐसा लगता है कि इसमें संशोधन कर लेना चाहिए। अब ८० वर्ष से पूर्व कोई अपने आपको बूढ़ा न माने। सत्तर वर्ष से तो उसका प्रारम्भ मात्र होता है।' अहमदाबाद में हजारों की परिषद् में तेजस्वी भाषा में अपना संकल्प अभिव्यक्त करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा- 'मुझे अन्तिम समय तक काम करना है। जितना हो सकेगा, जितना कर सकूँगा, उतना अवश्य करूंगा। काम करना है, यह निश्चित है। कितना कर सकूँगा, यह नहीं कह सकता।' इन अभिव्यक्तियों में उनके निरन्तर कर्मशील रहने की मनोभावना प्रकट हो रही है। कभी-कभी तो उनका आत्मबल और पौरुष इतना प्रखर हो उठता था कि उसके सामने हिमालय ही ऊंचाई भी बौनी प्रतीत होने लगती थी। चलने वाला व्यक्ति सतयुग में जीता है, इस वैदिक सूक्त को वे अपने जीवन में परिपूर्ण देखना चाहते थे। इसलिए अनेक बार वे अपनी पुरुषार्थी आस्था इन शब्दों में व्यक्त करते थे- 'सूर्य या पृथ्वी घूमे या नहीं, हमें तो घूमना है और काम करना है।' यह अभिव्यक्ति उनके जीवट व्यक्तित्व की जीवंत झलक प्रस्तुत करती है तथा इस तथ्य को प्रकट करती है कि उत्साह और निरंतर गतिशीलता ही उनके यौवन का राज था। गुरुदेव का तारुण्य इतना प्रबल था कि किसी भी अच्छे कठिन कार्य को प्रारम्भ करने में उन्हें हिचक नहीं होती थी। उनका सुलझा हुआ चिंतन इस बात को स्वीकारता था कि जहां उल्लास और पुरुषार्थ अठखेलियां करे, वहां बुढ़ापा कैसे आए? वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास और पौरुष नहीं होता।' यही कारण है कि गुरुदेव की किसी भी क्रिया में उम्र का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था। प्रौढ़ शिक्षा की प्रेरणा-यात्रा के दौरान हमने अनेक स्थानों पर अनुभव किया कि २५ वर्ष की युवतियां भी स्वयं को वृद्धा मानती हुई कहती थीं Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ साधना की निष्पत्तियां 'अब क्या पढ़ें महाराज! आधी तो गई अब तो श्मशान में ही पढ़ेंगे। वहां ७५ वर्ष की अवस्था में भी गुरुदेव तुलसी कुछ न कुछ नया ग्रहण करने के लिए सदैव समुत्सुक रहते थे। गुरुदेव के पास अंग्रेजी का समाचार-पत्र पड़ा था। उसमें अहिंसा दिवस पर विद्वानों के भाषण थे। पत्र उठाकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए खेदपूर्ण शब्दों में गुरुदेव कहने लगे'अंग्रेजी न पढ़ना भी एक कमी है। मन में आता है अब भी पढ़ लूं पर समय के अभाव के कारण संभव नहीं लगता।' गुरुदेव तुलसी के गतिशील एवं अस्खलित पौरुष का ही यह परिणाम था कि अवस्था से जवान व्यक्ति जिस कार्य को करने में झिझकते थे, उसे वे सहजता से कर डालते थे। मेवाड़ यात्रा में कमेड़ी से सेलागुड़ा जाते समय रास्ते में एक बड़ी चट्टान आई। चट्टान का पथ थोड़ा छोटा था जबकि सड़क का पथ सरल होते हुए भी लम्बा था। लोगों ने बाल संतों को कहा- 'आप तो बच्चे हैं अतः इस चट्टान पर चढ़ जाइए।' वे गुरुदेव के इंगित को देखने का प्रयत्न करने लगे। सहसा अपने सधे कदमों से गुरुदेव ने चट्टान की उस ऊंचाई को माप लिया। वहां चट्टान पर उन्होंने दो क्षण विश्राम किया। तत्काल उनका कवि मानस बोल उठा- चढ़ बैठ्या चट्टान, छोड़ सरल पथ सड़क रो। म्है हां अजब जवान, वय उणसत्तर बरस में। यहां पर मेवाड़ की एक और घटना को प्रस्तुत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। काली घाटी की चढ़ाई प्रारम्भ हो गई। बीहड़ रास्ता, उस पर तेज तूफान और बरसात, चिकनी मिट्टी, पग-पग पर फिसलन। हवा प्रतिकूल दिशा में बह रही थी। उसका प्रवाह इतना तीव्र था कि एक साध्वी की मुखवस्त्रिका भी उड़ गई। किसी के कपड़े तो किसी के लंकार उड़कर दूर चले गये। उस रास्ते चलते हुए गुरुदेव स्वयं बोल उठे- 'ऐसी हवाएं और तूफान तो जीवन में कभी नहीं देखे। लोगों के निवेदन पर भी गुरुदेव रुके नहीं, प्रत्युत बढ़ते ही रहे। अपनी सहिष्णुता और पुरुषार्थ से काली घाटी को भी उन्होंने अभय घाटी बना दिया। इस घटना को उन्होंने तत्काल काव्यबद्ध भी कर दिया मग नवमी घाटे चढ्या, कालीघाटी नाम। तूफानी ऊफान रो, भारी भरकम काम॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०२ घाटी पार करने के बाद गुरुदेव का स्वागत करते हुए विधायक लक्ष्मी कुमारी चुंडावत बोली- 'आज आचार्यश्री को यहां पधारने में जो कष्ट हुआ, उसका स्मरण करने मात्र से दिल कांप उठता है। मैंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा है। ये तूफानी हवाएं, वर्षा और कड़ाके की सर्दी। ऐसे में काली घाटी की चढ़ाई। आपने ६८ वर्ष की उम्र में हंसते-हंसते यह बीहड़ मार्ग तय कर लिया। मुझे अगर यह रास्ता तय करना पड़े तो कम से कम चार दिन लग जाएं। आपके इस पुरुषार्थ को बार-बार नमन।' इतना श्रम करने पर भी अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था। इस कार्यशीलता को भी वे अपने पूर्वजों की देन तथा गुरुकृपा मानते थे। अपनी भक्ति-पूरित भावना को वे बार-बार लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे- . * 'मेरे गुरुदेव ने दो बातें सिखलाईं-पहली यह कि अकर्मण्य जीवन नहीं जीना और दूसरी विलासिता एवं सुविधाओं भरा जीवन नहीं जीना। इसी का परिणाम है कि आज भी मैं बिना श्रम किए नहीं रह सकता। मैं सुविधा नहीं, श्रम पसन्द करता हूं।' * 'मैं इसे स्वयं पर गुरुओं की कृपा मानता हूं कि कितना ही श्रम करूं, मन या दिमाग पर कोई भार नहीं होता।' निराशा से तो गुरुदेव का जन्मजात विरोध था। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे निराश होना नहीं जानते थे। उनका मानना था कि पुरुषार्थ का दीप निरंतर जलकर ही निराशा के सघन तिमिर को मिटा सकता है। जो व्यक्ति अपने पौरुष बल से समस्या का समाधान करना नहीं जानता वह पशु की भांति अपने जीवन को व्यर्थ खो देता है। सन् १९५७ में कहे गए उनके ये वाक्य आज भी अकर्मण्य व्यक्ति को झकझोरने में समर्थ हैं- 'पशुओं के सामने जब समस्या आती है तो वे मर जाते हैं, समस्या से लड़ना नहीं जानते। ज्योंही घास आडी नहीं हुई कि वे मर जाते हैं। मनुष्य मरना नहीं चाहता वह समस्या से लड़ता है, इसीलिए नित नए विकास के आयाम खोलता रहता है।" गुरुदेव तुलसी का विश्वास यांत्रिक जीवन में नहीं, अपितु स्वतंत्र कर्तृत्व को करते हुए जीवन जीने में था। जैनदर्शन सम्मत आत्मकर्तृत्व का Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ साधना की निष्पत्तियां सिद्धान्त उनके रग-रग में समाया हुआ था। आज के यांत्रिकीकरण को देखकर बहुधा उनका मन पीड़ा से भर जाता था। वे अनेक बार लोगों की चेतना झकझोरते हुए कहते थे- 'मनुष्यत्व की सफलता यंत्र बनने में नहीं, बल्कि स्वतंत्र रहने में है। स्वतंत्रता का तात्पर्य अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि आंतरिक बंधनों को तोड़ने से है।' बीकानेर के प्रसिद्ध डॉक्टर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने भावभीनी वंदना करते हुए निवेदन किया- 'गुरुदेव! हम डॉक्टर लोग तो बाह्य चिकित्सा करके व्यक्ति को ठीक करते हैं लेकिन आप अहर्निश आंतरिक शल्य-चिकित्सा कर रहे हैं। गांधी महात्मा कहलाते हैं। उन्होंने देश को बाह्य स्वतंत्रता दिलाई लेकिन आप तो हर क्षण आत्मयुद्ध की प्रेरणा देकर आंतरिक स्वतंत्रता दिला रहे हैं। हम आपके कर्तृत्व एवं पौरुष का मूल्यांकन विशेषणों से आंके, यह ठीक नहीं, आप तो निर्विशेषण 'तुलसी' ही रहिए। 'राम' राम के रूप में ही भारतीय मानस में प्रतिष्ठित हैं। उन्हें बलवान् राम कहकर कोई नहीं पुकारता। पूज्य गुरुदेव परिश्रम और श्रम के साकार प्रतिरूप थे। उनका कर्मकौशल असाधारण और अनुकरणीय था। साधारण व्यक्ति न तो उनकी भांति अविराम श्रम कर सकता है और न ही परिश्रम करने के बाद इतनी सहज और अक्लान्त मुस्कान ही बिखेर सकता है। संतुलन साधना की कसौटी है- हर परिस्थिति में भावनात्मक स्तर पर संतुलन बनाए रखना। मानसिक संतुलन सधने के बाद साधक के सामने कोई भी समस्या ऐसी नहीं रहती, जिसका वह समाधान न खोज सके। पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्नता एवं उत्साह के साथ अपने श्रेयपथ पर सतत गतिशील रहा जा सकता है क्योंकि कोई भी परिस्थिति या व्यक्ति किसी को सुखी या दुःखी नहीं बना सकता। सुख-दुःख का उत्स है उसका अपना संतुलन और असंतुलन। संतुलित व्यक्ति भोजन न मिलने पर सोचता है कि सहज तप का अवसर मिल रहा है। कोई गाली देता है तो उसमें उसे अपनी कसौटी दिखाई देती है और सम्मान पाने पर वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक हो जाता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०४ उच्चता और हीनता के प्रसंग उसे संतुलित रहने की सीख देते हैं। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह अनुभव अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरणास्पद है- 'मैं स्वयं को बड़ा सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अपने जीवन में एक ओर भरपूर प्रशंसा मिली तो दूसरी ओर निन्दा एवं आलोचना की भी कमी नहीं रही। एक ओर बड़े से बड़ा सत्कार तो दूसरी ओर भयंकर तिरस्कार । इसे मैं अपने लिये वरदान मानता हूं क्योंकि मुझे संतुलित रहने का अवसर मिला है। प्रशंसा की तुलना में मेरी आलोचना नहीं होती तो मैं अहंकार से भर सकता था पर दोनों पलडे बराबर हैं। ऐसी स्थिति में दर्द किस बात का हो? हमें प्रसन्नता है कि हम स्वागत में फूले नहीं और विरोध में घबराए नहीं इसलिए हमारे सामने उपस्थित होने वाली समस्याओं का यथासंभव स्वयं समाधान निकल आया। असंतुलन होता है तो व्यक्ति की प्रसन्नता और रुष्टता अपने हाथ में न रहकर पराए हाथ में चली जाती है।' _ पूज्य गुरुदेव विहार करते हुए चौमू पधारे। वहां पहुंचने पर पता चला कि ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला। पूज्य गुरुदेव बिना किसी प्रतिक्रिया के एक मकान के बाहर बनी चौकी पर विराज गए। साधु एवं श्रावक स्थान की खोज में लगे हुए थे पर स्थान न मिलने पर गुरुदेव वहां एक घंटा विराजे। पास खड़े लोगों ने कहा- "एक धर्मसंघ के महान् आचार्य स्थान न मिलने पर भी कितने प्रसन्न हैं ?' पूज्य गुरुदेव ने फरमाया'स्थान, भोजन या वस्तु कुछ भी हो, इन पर हमारा कोई अधिकार तो है नहीं। गृहस्थ सुविधा से प्रसन्नता के साथ देते हैं, तभी हम इनका उपयोग करते हैं। साधु जीवन में ऐसे प्रसंग आ सकते हैं, जब गृहस्थ स्थान आदि के लिए निषेध कर दे। पर हम उन पर आक्रोश कैसे कर सकते हैं ? हमारी साधना की सफलता तो यही है कि हम लाभ और अलाभ-'दोनों परिस्थितियों में संतुलित रहें।' आधुनिक युग की सबसे बड़ी मनोव्याधि है-तनाव। तनाव मानसिक संतुलन का प्रबल शत्रु है। विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता होने के कारण उनके सामने अनेक विकट समस्याएं आती थीं पर संतुलन के कारण कोई भी समस्या उनको तनावग्रस्त नहीं कर पाती थी। इस संदर्भ में उनकी ये अनुभवपूत अभिव्यक्तियां अनेक व्यक्तियों का मार्गदर्शन करने वाली हैं Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ साधना की निष्पत्तियां * 'बचपन में मैंने कभी तनाव का नाम ही नहीं सुना। उम्र के नौवें दशक में पहुंचने पर भी मैं तनाव के बारे में बहुत कम जानता हूं। इसे अपनी साधना मानूं, प्रकृति का वरदान मानूं या गुरुओं की कृपा, वास्तविकता यही है कि मैं तनाव को नहीं जानता।' *'एक धर्मसंघ का दायित्व संभालते समय मेरे सामने विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां आती हैं। परिस्थिति की विकटता एक बार मुझे विचलित कर सकती है पर मैं तत्काल संभल जाता हूं। इसी कारण मैं हर समय मानसिक दृष्टि से स्वस्थ और संतुलित रहता हूं। इस संदर्भ में मैं अपने अनुभवों का उपयोग करते हुए यह कह सकता हूं कि तनाव उनको होता है, जिनका स्वयं पर अनुशासन नहीं है। तनाव उन्हें सताता है, जिनका अपनी वृत्तियों पर कंट्रोल नहीं है। तनाव की समस्या उनके सामने है, जो स्वतंत्र नहीं, यंत्र हैं। उनके यान्त्रिक जीवन की पहचान है दूसरों के मूल्यांकन पर अपना अंकन। किसी के कहने मात्र से अपने कार्य को अच्छा या बुरा मानने वाले व्यक्ति कभी तटस्थ चिन्तन नहीं कर सकते और न ही संतुलित रह सकते हैं।' . मानसिक असंतुलन का एक बहुत बड़ा कारण है-एकांगी दृष्टिकोण । केवल भौतिकता व्यक्ति को विलासिता की ओर ढकेलकर असंतुलित बना देती है। जीवन रूपी तराजू के पलड़े को सम रखने के लिए भौतिकता के साथ अध्यात्म का संतुलन आवश्यक है। भौतिकता की अंधी दौड़ में भागती मनुष्य जाति को प्रतिबोधित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- 'भौतिक साधना में श्रम, शक्ति और बुद्धि का जितना व्यय होता है, उसका आधा भाग भी आत्मसाधना में लग जाए तो व्यक्ति योगी भले ही न बने पर मानसिक असंतुलन मिट जाएगा।" धर्म का क्षेत्र हो या कर्म का, जिस व्यक्ति का चित्त समाहित और संतुलित होता है, वही हर क्षेत्र में सफल हो सकता है। मानसिक विक्षेप की स्थिति सामान्य घटना में भी व्यक्ति को उद्वेलित और असंतुलित कर देती है। वह छोटी-सी समस्या से आहत होकर टूट जाता है। समस्याओं से जूझने की शक्ति नहीं जुटा पाता। पूज्य गुरुदेव अपने मस्तिष्क को तनाव एवं विक्षेपों से कोसों दूर रखते थे अत: उनके सामने किसी भी समस्या का Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०६ अस्तित्व टिक नहीं पाता था। वे स्वयं इस बात को अंगीकार करते थे'समस्या हो और समाधान न हो, इस बात में मेरी आस्था नहीं है। समस्या किसी भी क्षेत्र की हो, उसका समाधान अवश्य है। उसे खोजने वाला चाहिए।" मेरा विश्वास है कि डटकर मुकाबला करने से बड़ी से बड़ी समस्याएं अपने आप मार्ग से हट जाती हैं। इसी आस्था से पूज्य गुरुदेव ने सैकड़ों-हजारों समस्याओं को समाधान तक पहुंचाया था। ___ लाडनूं का घटना प्रसंग है। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी एक घर गोचरी हेतु पधारीं । बहिन ने भक्तिपूर्वक निवेदन किया- 'महाराज! यह रस्सी उलझी हुई है पर मजबूत है। यदि साधु-साध्वियों के काम आ जाए तो मैं निहाल हो जाऊंगी। महाश्रमणीजी ने उस बहिन की भावना को साकार कर दिया। वे रस्सी लेकर गुरुदेव के उपपात में पहुंचीं। उन्होंने गुरुदेव को करबद्ध निवेदन किया- 'अगर यह रस्सी संतों के काम आ जाए तो हम इसे सुलझा दें।' पास खड़े संतों ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। नवदीक्षित साध्वियां रस्सी को सुलझाने में दत्तचित्त हो गईं। महाश्रमणीजी ने साध्वियों से कहा- 'थोड़ी रस्सी मुझे भी दे दो, मैं भी सुलझाऊंगी।' थोड़ी ही देर में बहुत सारी रस्सी सुलझ गई। सुलझी हुई रस्सी को देखकर गुरुदेव ने वहां उपस्थित साधु-साध्वियों को शिक्षा देते हुए कहा- "जीवन की हर समस्या को इसी तरह उत्साह और संतुलन से सुलझाना सीखो। समस्या का समाधान करने के लिए आकाश से कोई देवता नहीं आएगा, पृथ्वी पर ही किसी को भगवान् बनना होगा।' पूज्य गुरुदेव का यह प्रतिबोध सबके लिए जीवन का विशेष पाथेय बन गया। . गुरुदेव के संतुलित व्यक्तित्व की ही फलश्रुति थी कि समाधायक होने का अहं उनके मन में कभी पनप नहीं पाया। वे कहते थे- 'मैं सारे संसार को सुखी एवं समाहित करने की अतिकल्पना नहीं करता तो कुछ न कर सकने की दीनता भी मेरे मन में नहीं है। हीनता और गर्व के बीच मैं सदैव मध्यस्थ एवं संतुलित रहना चाहता हूं।' पूज्य गुरुदेव के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए पर उनका मानसिक संतुलन कभी नहीं बिगड़ा। कोई भी असत् विचार या व्यवहार उनको स्पर्श नहीं कर सका क्योंकि वे इस सत्य को स्वीकार करके चलते Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ साधना की निष्पत्तियां थे कि समूह चेतना से जुड़ा हुआ एक भी व्यक्ति यदि असंतुलित होता है तो उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सब पर पड़ता है। यात्रा के दौरान सैकड़ों ऐसे प्रसंग हैं, जब साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण पूर्व स्वीकृति के बावजूद भी समय पर लोगों ने स्थान देने से इंकार कर दिया। पर गुरुदेव ऐसे प्रसंगों को प्रेरणा मानकर उसे अच्छे रूप में स्वीकार कर लेते थे। किसी भी प्रकार के मानसिक विचलन का अनुभव नहीं करते क्योंकि उनका सिद्धान्त था कि सुख-दुःख दोनों में सम एवं संतुलित रहने वाला साधक ही विजयश्री का वरण कर सकता है। उनके संतुलन का रहस्य उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'मैं परिस्थितियों का कायल नहीं हूं इसलिए मैंने कष्टों से घबराना नहीं, मुकाबला करना सीखा है। हम विरोध को विरोध से काटना चाहते तो हमें कभी सफलता नहीं मिलती। हमने उसे विनोद में परिणत कर लिया, उसका प्रतिवाद नहीं किया। इसलिए कई वर्षों तक निरंतर चलने वाला विरोध का वह क्रम एक दिन अपने आप शिथिल हो गया।' संतुलन के साथ धैर्य का निकटतम अनुबंध है। बिना धैर्य के व्यक्ति बहुत जल्दी बिखर जाता है। पूज्य गुरुदेव मानते थे कि साधना की सफलता का आदि बिन्दु एवं अंतिम बिंदु धैर्य है। जीवन के लम्बे सफर में धैर्य जैसे महान् साथी को छोड़कर चलना भयंकर भूल है। टॉलस्टाय ने जीवन की उन्नति का सारा श्रेय धैर्य को दिया। उन्होंने कहा- 'तब तक धैर्य रखो जब तक पानी जमकर बर्फ न बन जाए। धैर्य छलनी में भी पानी को टिकाकर रख सकेगा।' पूज्य गुरुदेव का धैर्य मेरु की भांति अडोल था। इसीलिए उनके जीवन में असंतुलन के क्षण बहुत कम उपस्थित हुए। आत्मजागृति _ 'मैं मानता हूं, मेरे पास न रेडियो, न अखबार और न आज के प्रचार योग्य वैज्ञानिक साधन हैं और न मैं इन सबका उपयोग ही करता हूं। लेकिन मेरी वाणी में आत्मबल है, आत्मा की तीव्र शक्ति है और मुझे अपने संदेश के प्रति आत्म-विश्वास है। फिर कोई कारण नहीं कि मेरी यह आवाज जनता के कानों से नहीं टकराए।' यह आत्मबल किसी विरले साधक को ही प्राप्त होता है। पूज्य गुरुदेव आत्मबल को व्यक्ति का सबसे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी बड़ा शस्त्र मानते थे। साधन-सामग्री के अभाव में भी आत्मबल जगाने पर दुनिया में असंभव जैसा कुछ नहीं रहता। पूज्य गुरुदेव का आत्मबल और साहस बचपन से ही उत्कर्ष पर था। बड़े भाई द्वारा दीक्षा की अनुमति न मिलने पर ग्यारह वर्ष की अवस्था में सभा के मध्य खड़े होकर उन्होंने स्वयं आजीवन विवाह न करने एवं व्यापारार्थ परदेश न जाने का संकल्प ले लिया। बिना प्रबल आत्मविश्वास एवं आत्मबल के ऐसा संभव नहीं हो सकता था। . बीदासर २०२७ का घटना प्रसंग है। गुरुदेव शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थता का अनुभव कर रहे थे। उस स्थिति में गुरुदेव के कपड़े अपने आप जल गए। सबके मन भयभीत एवं चिन्तातुर हो गए लेकिन गुरुदेव के मन पर उस घटना का कोई असर नहीं हुआ। लोगों को सांत्वना देते हुए उन्होंने कहा- 'यदि हमारा आत्मबल प्रबल है तो कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता अतः चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।' . जब आत्मबल प्रबल होता है, तब परिस्थिति पराजित हो जाती है। जब आत्मबल दुर्बल होता है तब परिस्थितियां अस्तित्व पर हावी होने लगती हैं। पूज्य गुरुदेव परिस्थितियों को आत्मबल पर हावी नहीं होने देते थे क्योंकि वे इस सत्य को स्वीकार करके चलते थे कि सत्य को जीवन में उतारने तथा संसार में फैलाने में जो भी बाधाएं आएं उनसे परास्त न होकर उन्हें चीरकर आगे बढ़ते जाना इसी में साधक जीवन की सफलता है। सन् १९६२ का प्रसंग है। गुरुदेव ने उदासर से बीकानेर की ओर प्रस्थान किया। उस दिन शरीर को चीरने वाली शीतलहर चल रही थी। विहार के समय तीव्र वर्षा भी हो गई। मौसम की प्रतिकूलता के कारण साधु-साध्वियों को चलने में काफी कठिनाई रही। गुरुदेव ने संतों को प्रेरणा देते हुए कहा"साधु जीवन में कभी प्रकृति जनित कठिनाइयां सामने आती हैं तो कभी पुरुष जनित । साधु का काम है- हर परिस्थिति में संतुलित रहकर आत्मबल बढ़ाना। अनुकूलताओं में प्रसन्नता और प्रतिकूलताओं में खिन्नता आत्मबल को क्षीण कर देती है। साधु इनसे अप्रभावित रहे तो उसकी साधना का विकास होता है और आत्मबल जागृत होता है।" पूज्य गुरुदेव के आत्मबल को दिनकर की इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा सकता है Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ साधना की निष्पत्तियां बाहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे, धंस जाएगी यह धरा, अगर चाहेंगे। तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे, हम जहां कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे। बम्बई यात्रा की घोषणा पर लिखा गया डायरी का पृष्ठ उनके आत्मबल एवं श्रद्धाबल का जीवन्त निदर्शन है- 'इतनी लम्बी यात्रा, ६०० मील चलना, वह भी तीन महीनों में, बीच-बीच में कई गांवों एवं शहरों में रुकना भी आवश्यक है और स्वास्थ्य का ध्यान भी रखना है। इन सबके बावजूद भी मेरी अन्तरात्मा कह रही है कि मुझे इस वर्ष बम्बई पहुंचना चाहिए। मेरी इस तीव्र भावना के साथ मेरा आत्मबल है, शासन का बल है और लोकहित की भावना का प्रबल बल है। निश्चित ही हम इस बार बम्बई पहुंचेंगे। कालूगुरु की कृपा मेरे साथ हैं।' पूज्य गुरुदेव का तीव्र आत्मबल कमजोर मनोबल वाले व्यक्तियों में भी विशिष्ट शक्ति एवं ऊर्जा का संचार करता रहता था। उनका मानना था कि कोई भी बाधा, रुकावट या मुसीबत आत्मबल के सम्मुख टिक नहीं पाएगी। वह हार मानकर अपना समर्पण कर देगी। जन-जन की सोयी आत्म-शक्ति को जगाने के लिए उनका कवि मानस बोल उठा जिसने ब्रह्म पा लिया, उसने सब कुछ पाया, त्वरित असंभव को भी, संभव कर दिखलाया। शूली को सिंहासन, अहि को हार बनाया, वज्र कपाटों को, पल भर में तोड़ गिराया॥ तत्क्षण ही सहकार बिना बोए फलता है, आत्मशक्ति का स्रोत, जिधर भी बह चलता है। उधर निरंतर हरा-भरा उपवन खिलता है। विकास परिषद् की इकाइयों की योजना पर चिन्तन चल रहा था। उसी सिलसिले में एक भाई ने कार्य में आने वाली कुछ कठिनाइयों का जिक्र किया। कठिनाइयों को सुनने के बाद पूज्य गुरुदेव ने सबमें आत्मबल भरते हुए कहा- 'कठिनाइयां न आएं, वह कार्य ही क्या? कठिनाइयों से तो हमें प्रेरणा मिलती है। मेरा सबसे लम्बा कार्यकाल रहा, अगर कठिनाइयों Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३१० से घबरा जाता तो इतना काम कभी नहीं होता। हो सकता है काम करतेकरते कोई भूल भी हो जाए, ध्यान में आने के बाद उसमें संशोधन हो जाना चाहिए, यह स्वस्थ परम्परा है पर कठिनाइयों से घबरा कर कार्य से विमख होना कायरता है। निषेधात्मक भावों से आक्रान्त एवं प्रमादी व्यक्ति कभी सफलता की दिशा में चरणन्यास नहीं कर सकता। बड़ी से बड़ी समस्या के समय यदि हिम्मत और आत्मबल से काम लिया जाए तो समाधान का पथ मिल सकता है। अविश्रांत भाव से चलने वाला साधक ही मंजिल की दूरी को कम करता हुआ अपने गंतव्य को प्राप्त करता है।' आत्मबल का बोध होने पर ही आत्मजागृति का मार्ग प्रशस्त होता है, जब तक आत्मा की अनन्त शक्तियों की पहचान नहीं होती, साधक का सारा ध्यान केवल पदार्थ तक ही सीमित रहता है। आत्मजागरण की दिशा अनजानी ही बनी रहती है। पूज्य गुरुदेव अनेक बार प्रेरणा देते रहते थे'अपने भीतर असीम ऊर्जा और शक्ति का अनुभव करो, एक स्वर्णिम प्रभात स्वत: तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा।' . पूज्य गुरुदेव भीतर से जितने जागृत थे, उतने ही बाहर से हर पल जागृत दिखाई पड़ते थे। भूत्यै जागरणम्, अभूत्यै स्वपनम्' यजुर्वेद के इस सूक्त में उनकी पूरी आस्था थी। आचार्यकाल में अनेक बार रात्रिजागरण का काम पड़ता लेकिन उनके चार बजे उठने के क्रम में कोई अन्तर नहीं आता। उनका यह वक्तव्य उन लोगों को अवश्य प्रेरणा देने वाला है, जो ९-१० बजे तक सोते ही रहते हैं- 'मेरी प्रकृति ही कुछ ऐसी बन गई है कि चार बजे के बाद तो मेरा सोने का मन ही नहीं करता। भले मैं रात को दस बजे सोऊं, बारह बजे सोऊं या दो बजे, चार बजे तो प्रायः उठ ही जाता हूं। मैं नींद का जमा खर्च भी नहीं रखता। कल देर से सोया तो आज दिन में दो घंटे सोकर उसकी पूर्ति करूं, यह मेरे मन को नहीं भाता।' पूज्य गुरुदेव का मानस हर घटना से आत्मजागृति का सबक लेता रहता था। नर्मदा नदी को पार करते हुए सहसा उनके मुख से प्रेरणा की अजस्र धारा प्रवाहित होने लगी- 'जिस प्रकार आज हमने नौका द्वारा नदी को पार किया है, उसी प्रकार संसार-समुद्र को भी हंसते-हंसते पार कर Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ साधना की निष्पत्तियां जाएं। जैसे हम पार करें वैसे ही दूसरों को भी पार उतारें, तभी जीवन की सार्थकता है।' व्यक्ति-व्यक्ति में आत्म-जागृति की प्रेरणा देना उनका दैनंदिन का क्रम था। यह क्रम कभी पत्र के माध्यम से होता तो कभी संदेश-संप्रेषण के माध्यम से। कभी प्रवचन की अमृत-धारा से तो कभी काव्य की मधुर स्वरलहरी से। मनोहरी देवी आंचलिया को प्रेषित पत्र की पंक्तियां इसी बात की साक्षी हैं- "शरीर नाशवान है, यह रहे या जाए, कोई चिन्ता नहीं है केवल आत्मा का ध्यान, आत्मा की स्मृति और आत्मा का ही अध्यवसाय बना रहे।" बाह्य चमत्कारों से दूर सदैव आत्मलीन रहना उनका जीवन-व्रत था। गुरुदेव ने अपने आत्मबल का प्रयोग अध्यात्म-शक्ति के संचय एवं उसके विकास में किया था। उन्होंने अपने पुरुषार्थ का प्रयोग जन-जन को अंतरात्मा बनाने में किया। अंतरात्मा और बहिरात्मा में बाह्य रूप से कोई विशेष अंतर नहीं होता क्योंकि दोनों ही जीवन-निर्वाह योग्य सभी क्रियाकलापों को करते हैं लेकिन उनके व्यवहार में बहुत अंतर होता है। एक जागृत जीवन जीता है, दूसरा सुप्त जीवन व्यतीत करता है। पूज्य गुरुदेव अंतरात्मा और बहिरात्मा की भेदरेखा बहुत सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'ध्यान का प्रयोग अन्तरात्मा है, उसमें नींद लेना बहिरात्मा है। जागरूक रहना अन्तरात्मा है, गलती करना बहिरात्मा है। गलती होने पर कोई कुछ कह दे, उसे सहना अन्तरात्मा है। कहने वाले पर आक्रोश करना बहिरात्मा है। गलती का अनुभव करना अन्तरात्मा है, गलती न स्वीकारना बहिरात्मा है। इस प्रकार न जाने कितनी कसौटियां हैं, जो अन्तरात्मा और बहिरात्मा के बीच साफ-साफ भेद-रेखा खींच सकती हैं।' एक दीपक जैसे लाखों दीपकों को प्रकाशित कर सकता है, वैसे ही पूज्य गुरुदेव की जागृत आत्मा ने लाखों लोगों में आत्मजागृति का संचार किया। आत्मजागृति का बोध देने वाली काव्य की इन पंक्तियों के माध्यम से पूज्य गुरुदेव जन-जन की चेतना को झकझोरना चाहते थे सुंदरं सत्यं शिवं तू, परमुखापेक्षी बना क्यों? सहज आत्मानंदमय तू, विविध कष्टों से सना क्यों? Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३१२ तू समुज्वल विमल उत्पल, पंक में हा! क्यों फंसा है? सर्वतंत्र स्वतंत्र बंदी, सोच यह कैसी दशा है? जीवन के विशिष्ट अवसरों पर वे अपने अनुयायियों को आत्मजागृति की विशेष प्रेरणा देते थे। अपने ४१वें जन्मदिन पर वे आत्मविभोर होकर कहने लगे- 'आप लोग मेरा जन्मदिन मनाते हैं, उसका एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए- आत्मजागरण की प्रेरणा लेना और जीवन-विकास के पथ पर आगे बढ़ना। मेरी दृष्टि में आपके उल्लास और उत्साह की सार्थकता तभी होगी, जब आप अपने जीवन को त्याग और संयम की साधना में आगे बढ़ाएंगे।' व्यक्तिगत पत्रों के माध्यम से भी पूज्य गुरुदेव आत्मजागृति एवं आत्म-प्रकाश की प्रेरणा देते रहते थे। मुनि श्री लोकप्रकाश जी को दिए गए पत्र की कुछ पंक्तियां अत्यन्त मार्मिक हैं शिष्य लोकप्रकाश! कितना सुंदर नाम है तुम्हारा। लोक को प्रकाशित करने वाला। पर स्मरण रहे, लोक-प्रकाश से पहले आत्म-प्रकाश बनना पड़ता है। आत्मप्रकाशी ही लोकप्रकाशी होता है। वैसा बनने के लिए तीन विशेष गुण ग्रहणीय होते हैं १. समता, २. शमशीलता, ३. श्रमशीलता। जिसने इस त्रयी को आत्मसात कर लिया, वह निश्चय ही आत्मप्रकाशी बन गया। (आचार्य तुलसी के पत्र भाग २ पृ. ९५) पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि जागरण का अंतिम बिंदु ही आत्मदर्शन का प्रथम बिंदु है। जहां केवल प्रकाश है, आनन्द है, शान्ति है और है चेतना का समग्र अस्तित्व। यह दुर्लभ क्षण किसी भाग्यशाली व्यक्ति को ही उपलब्ध होता है। उस उपलब्ध क्षण के प्रति सचेत रहना तो और भी अधिक दुर्लभतम योग है। १७ फरवरी १९८७ का घटना प्रसंग उनकी आत्मजागृति एवं आत्मानुभव का अद्भुत एवं प्रेरक प्रसंग कहा जा सकता है। पूर्ण जागृति की अवस्था में प्राप्त आध्यात्मिक अनुभव उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'लगभग साढ़े नौ बजे का समय था। मैं पूर्ण जागृत अवस्था में था। अचानक ऐसा अहसास हुआ कि कोई मुझे उठकर बैठने Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ साधना की निष्पत्तियां की प्रेरणा दे रहा है। आंखें खोलकर इधर-उधर देखा। कुछ भी दिखाई नहीं दिया। सब संत लेटे हुए थे। मुनि बालचन्द पट्ट के पास बैठा था। शायद मुझे भ्रम हो गया, यह सोच मैंने पुनः आंखें बंद कर लीं। फिर वैसा ही अहसास हुआ। मैं उठकर बैठ गया और नमस्कार महामन्त्र का जप करने लगा। जप करते-करते मैं उसी में लीन हो गया। मुझे अतिरिक्त आनन्द का अनुभव हुआ। एक ओर मुझे आश्चर्य हो रहा था तो दूसरी ओर मैं बार-बार कुछ पद्यों का स्मरण कर रहा था "सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति।".. या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः॥" इन पद्यों का स्मरण करते समय मुझे नींद न आने की बिल्कुल चिन्ता नहीं थी। चिन्तन था तो इतना ही कि यह सब हो क्या रहा है? मैं फिर जप में तल्लीन हो गया। . इसी बीच मुनि बालचन्द बोला- "ग्यारह बज रहे हैं।" मैंने जप छोड़कर ध्यान करना शुरू कर दिया। ध्यान शुरू करते ही एक बार मैंने सोचा-आज नींद न आने का क्या कारण हो सकता है? शरीर पर ध्यान केन्द्रित किया तो सब कुछ सामान्य था। न श्वास लेने में किसी प्रकार का अवरोध, न सिर में भारीपन, न शरीर में दर्द और न कोई अन्य कारण। फिर भी आंखों में नींद नहीं थी। मैं श्वास-प्रेक्षा करने लगा। ध्यान में मन अच्छी तरह रम गया। एक घण्टे का समय कब पूरा हो गया, पता ही नहीं चला। आंखें खोली तो कमरे में मौन व्याप्त था। बड़ा अच्छा लगा। उस मौन को तोड़ते हुए मुनि बालजी ने कहा- "क्या बात है? स्वास्थ्य कैसा है? मुनि मधुकरजी को जगा दूं?" मैंने कहा- “चिन्ता की कोई बात नहीं है। स्वास्थ्य ठीक है। मुझे अभी ध्यान करना है।" ध्यान में एक क्षण का व्यवधान भी अच्छा नहीं लगा। इस बार मैं पद्मासन लगाकर ध्यान में बैठ गया। ध्यान जमा तो ऐसा जमा कि मानो मन के सारे विकल्प समाप्त हो गए। निर्विकल्प समाधि की अवस्था। मैं अभिभूत हो गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है? पर कुछ न कुछ ऐसा घटित हो रहा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी था, जिसकी अभिव्यक्ति मौन से अधिक कुछ नहीं हो सकती। सातड़ा गांव की उस रात्रि में मैंने जिस अपूर्व और अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव किया, उसकी स्मृति मात्र से रोमांच हो आता है। लगभग एक घंटा पद्मासन में बैठने के बाद मैंने आंखें खोलकर चारों ओर देखा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई अदृश्य शक्ति मेरा सहयोग कर रही है। मैंने मन ही मन कहा- कौन है? क्या है? कुछ प्रत्यक्ष दिखाई क्यों नहीं दे रहा है ? मुझे लगता है कि कोई सहारा दे रहा है, पर वह दिखाई क्यों नहीं दे रहा है? यह समाधि की स्थिति है अथवा और कुछ है? मेरे द्वारा क्या होने वाला है? कम से कम कोई ऐसा चिह्न ही प्रकट हो जाए, जो मुझे प्रत्यक्ष आभास दे सके। मन ही मन बहुत पुकारा, पर कोई सामने नहीं आया। शब्दों की कुछ ऐसी आकृतियां उभरकर आईं कि गहराई में जाओ, आज संसार में जो मानवीय समस्याएं हैं, उनका समाधान करो।" क्या मेरे द्वारा कोई समाधान होगा? इस प्रश्नचिह्न को विराम मिला, अपने ही भीतर से उठकर वहीं विलीन होने वाले नाद से- "हां, समाधान होगा, समाधान होगा।" ये शब्द कहां से आए और कहां गए, कुछ ज्ञात नहीं। बस इतना-सा याद है कि मैं उस समय बिल्कुल हल्का हो गया था और ऐसा लग रहा था मानो मैं पट्ट से ऊपर उठ रहा हूं। मन में इच्छा जगी कि सारी रात ऐसे ही बिता दूं। पर पता नहीं क्यों मैंने ध्यान समाप्त कर दिया और महाप्रज्ञजी को बुला लाने का निर्देश दिया। तब तक मनि मधुकर भी जाग चुका था। वह महाप्रज्ञजी को बलाने गया।असमय में नींद से जगाने पर वे घबरा गए। उनका पहला प्रश्न था"आचार्यश्री का स्वास्थ्य कैसा है? स्वास्थ्य ठीक है, यह सुनकर वे आश्वस्त हो गए। उनके आने पर मैंने पूरा घटनाक्रम उनको सुना दिया। पूरी बात सुनकर वे बोले- "आप में अर्जित शक्तियां बहुत हैं। उनका उद्घाटन कभी-कभी ऐसे ही होता है। आप जिस निर्विकल्पता की स्थिति में हैं, वही आनन्द की अवस्था है। अब तो काफी समय हो चुका है। थोड़ी देर आप लेट जाइए।" .. मैंने कहा लेटने की इच्छा ही नहीं हो रही है। मैं फिर ध्यान में Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ साधना की निष्पत्तियां बैलूंगा। तुम भी साथ-साथ ध्यान करो। वहां जो अन्य साधु थे, उन्हें भी निर्देश दिया कि ध्यान करना हो तो बैठ जाओ, अन्यथा दूसरे कमरे में जाकर लेट जाओ। इस निर्देश पर मुनि मधुकर, मुनि बालचंद, मुनि हीरालाल, मुनि मुदितकुमार आदि ध्यान में बैठने के लिए तैयार हो गए। मैं पट्ट से नीचे उतरा और बैठ गया। सोचा-मुंह किधर किया जाए? जिस ओर पहले मुंह था, उसी दिशा में, यानी उत्तराभिमुख होकर मैंने इस बार सामूहिक ध्यान किया। डेढ़ से सवा दो-ढाई बजे तक यह क्रम चला। आनन्द की श्रृंखला अब तक टूटी नहीं थी, फिर भी मैंने ध्यान पूरा किया। महाप्रज्ञजी को लेटने का निर्देश देकर भेज दिया। उनके आग्रह पर मैं भी थोड़ी देर लेट गया। लेटने के बाद भी नींद नहीं आई। प्रातः चार बजे उठा तो नींद न आने का बिलकुल भी भार नहीं था। . १८ फरवरी को प्रात: "सातड़ा" से चले और आठ कि.मी. चलकर बीनासर पहुंचे। विगत तीन दिनों में चलने से जितनी थकान का अनुभव हुआ, उस दिन नहीं हुआ।मन पूरी तरह प्रसन्न रहा। शरीर में भी हल्कापन रहा। यह सब क्या था? नहीं बता सकता। पूज्य गुरुदेव कालूगणी की स्मृति के कई चमत्कार अनुभव में हैं। उस दिन बिना स्मृति के अनायास ही जो चमत्कार हुआ, वह विलक्षण है। सातड़ा' की वह अपूर्व रात फिर कब आएगी, इस प्रतीक्षा में श्रीमद राजचन्द्र की एक पंक्ति कानों में गूंजने लगी है- "अपूर्व अवसर एहवो क्या रे आवशे।" ____ आत्मशक्ति का जागरण शक्तियों का अजस्र प्रवाह होता है। जिस व्यक्ति को जागरण का अवबोध हो जाता है, उसका प्रत्येक अनुभव और चिंतन आत्मा की परिक्रमा करता है। पूज्य गुरुदेव ने साधना के विविध प्रयोगों से अपनी आत्मशक्ति को जगाने का प्रयत्न किया था। अपनी जागृत आत्मा के सहारे उन्होंने जन-जन में आत्म-जागरण का शंखनाद किया था। आत्मसंयम साधकों के अनुभव की कहानी संयम की स्याही से लिखी जाती है। असंयमी व्यक्ति की आत्मशक्ति चुक जाती है। संयम और दमन को एक नहीं माना जा सकता। संयम में उपशम होता है पर दमन में उत्ताप होता है। संयम में व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है, जबकि दमन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३१६ विवशता से किया जाता है। संयम में सदैव सुरक्षा का भाव अन्तर्निहित रहता है, जबकि दमन में भय, पीड़ा एवं तनाव की बेचैनी रहती है। अस्वीकार की शक्ति का नाम संयम है। दूसरे शब्दों में मन, वाणी और शरीर पर अपना नियंत्रण ही संयम है। संयम बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार के प्रदूषण से बचाव करता है। बढ़ती हुई अनंत भौतिक आकांक्षा को शान्त करने का एकमात्र उपाय संयम है। एक समस्या समाप्त होती है दूसरी अपना सिर उठा लेती है अत: पूज्य गुरुदेव कहते थे कि इच्छाएं अनंत हैं यह बात जितनी सही है उतनी ही सही यह बात भी है कि व्यक्ति में इच्छाओं के निरोध की शक्ति भी अनंत है। हमने इच्छाओं को पकड़ लिया और निरोध या संयम की शक्ति को उपेक्षित कर दिया, यह अधूरी समझ है।' साधना और संयम दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। साधना के बिना संयम को नहीं साधा जा सकता तथा संयम के बिना साधना तेजस्वी और फलदायी नहीं बनती। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि संयम न हो तो कितनी ही यौगिक क्रियाएं की जाएं, कितने ही अनुष्ठान किए जाएं, कितना ही तप तपा जाए, कितना ही जप किया जाए, कितना ही स्वाध्याय किया जाए, कितना ही भ्रमण किया जाए, दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता। दुःख-मुक्ति का एक मात्र उपाय है- संयम।' चेतना के दरवाजे पर संयम पहरेदारी का कार्य करता है, जिससे विकारों की रोकथाम की जा सके। . 'संयम के प्रति मेरे मन में प्रारम्भ से ही आकर्षण रहा है। मैंने संयम को जीकर देखा है और उसका सुफल भी चखा है। मेरे मन का विश्वास बोल रहा है कि संयम के द्वारा ही विश्व की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। संयम के शिखर तक आरोहण करना मेरा लक्ष्य है। मैं चाहता हैं कि इस दिशा में कुछ विशेष प्रयोग करूं।' पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनकी संयम के प्रति गहरी निष्ठा को व्यक्त करने वाला है। उनके जीवन के कण-कण से संयम झलकता था। उनकी हर क्रिया संयम से अनुप्राणित होती थी। वे संयम को जीवन का सर्वोत्तम क्रियात्मक पक्ष मानते थे। लगभग साढ़े सात दशक तक वे संयम-साधना में संलग्न रहे। उनका मानना था कि वैसे तो मेरा जन्म वि.सं. १९७१ कार्तिक शुक्ला २ (२१ अक्टूबर १९१४) को हुआ था। किन्तु वास्तव में संयमी जीवन के Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ साधना की निष्पत्तियां प्रारम्भ को ही मैं अपना जन्म-दिन मानता हूं।' संयम-साधना में अनुभूत आनंद उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'संयम की साधना से आनंद मिलता है, पदार्थ का आकर्षण छूटता है, तृप्ति का अनुभव होता है और संकल्पविकल्पों से छुटकारा मिलता है। जब तक संयम में रस नहीं आता, इसकी साधना बहुत कष्टप्रद प्रतीत होती है। इसमें रस आ जाए तो अन्य सभी रस फीके हो जाते हैं।' काव्य की इन पंक्तियों में भी उन्होंने इसी सत्य को उजागर किया है अपने से अपना सुनियंत्रण। सच्चे सुख को है आमंत्रण॥ हर क्षण जागरूक व्यक्ति ही संयम की साधना कर सकता है और दूसरों को उस दिशा में प्रस्थित कर सकता है। गुजरात यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव के पैरों में मोमायमोरा गांव में रण की मिट्टी गहरी चिपक गई। मिट्टी साफ करने हेतु एक मुनि टोपसी भरकर पैरों पर पानी गिराने लगे। पूज्य गुरुदेव ने तत्काल उसे टोकते हुए कहा- 'इस प्रकार टोपसी से पानी गिराकर पैर साफ करने से कितना पानी लगेगा? टोपसी से चुल्लू भरकर पानी गिराने से बहुत थोड़े पानी से पैर साफ हो जाएंगे। पानी का अपव्यय पर्यावरण को प्रदूषित करता है।' घटना छोटी-सी है पर इससे पूज्य गुरुदेव की जागरूकता एवं संयम के प्रति असीम निष्ठा व्यक्त हो रही है। पर्यावरणप्रदूषण की सारी समस्या संयम के द्वारा ही समाहित हो सकती है क्योंकि सृष्टि का संतुलन संयम के आधार पर ही टिका हुआ है। . संयम का सम्बन्ध वस्तु के भाव या अभाव से नहीं, आकांक्षा और इच्छाओं के अभाव से है। जिसकी आकांक्षाएं समाप्त हो जाती हैं, वही व्यक्ति संयम के राजमार्ग पर प्रस्थान कर सकता है। वस्तु प्राप्त न होने पर सहज संयम हो जाए वस्तुत: वह संयम नहीं है। संयम फलित होता है इच्छा का निरोध करके प्राप्त वस्तु को अस्वीकार करने से। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में पदार्थ उपलब्ध होने पर भी उसके भोग की इच्छा ही न जगे, यह संयम का उत्कृष्ट रूप है। पूज्य गुरुदेव का खाद्य-संयम इतना पुष्ट था कि वह न तो मनुहारों से टूटता था और न मनोबल की कमी से। एक बार पूज्य गुरुदेव आहार करवा रहे थे। प्रतिश्याय होने के कारण उन्होंने बहुत हल्का Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३१८ आहार किया। भोजन परोसने वाले साधु ने चुपड़ी हुई बाजरे की रोटी के लिए निवेदन किया किन्तु गुरुदेव ने इंकार कर दिया। अन्य दो तीन पदार्थों की मनुहार होने पर भी गुरुदेव ने उसे स्वीकार नहीं किया। उसी समय एक साधु खीर लेकर आया । निवेदन किया गया कि यह गर्म है अतः सर्दी के लिए उपयुक्त है । गुरुदेव ने दृढ़ता के साथ कहा- 'क्या गर्म होने पर गरिष्ठता कम हो जाती है ? रोग की अवस्था में संयम अधिक लाभप्रद है ।' संयम की भावना पुष्ट होती है तो हर स्थिति में व्यक्ति खाद्य-संयम के अभ्यास को नहीं छोड़ सकता। मैं पेट को नाराज करके जीभ को प्रसन्न करने की बात नहीं सोच सकता। खाद्य-संयम के बारे में पूज्य गुरुदेव की अनुभवपूत वाणी उन सबके लिए प्रेरक है, जो खाने को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलते हैं— 'मैं मानता हूं खाने-पीने के असंयम से मोक्ष और स्वर्ग का सुख तो दूर, इस जीवन में भी सुख नहीं मिल सकता। दो चार दिन कम भोजन करने अथवा बिलकुल न करने से किसी का कोई नुकसान नहीं होता। एक दिन भी अधिक खा लिया तो नुकसान हो सकता है । नहीं खाने से व्यक्ति नहीं मरता पर खाने के असंयम से मौत का वरण कर सकता है । ' पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन से पूरी मानव जाति को संयम का सक्रिय प्रशिक्षण दिया तथा अणुव्रत के माध्यम से 'संयम ही जीवन है' का घोष मुखर करके अनेक सामाजिक, राजनैतिक एवं जागतिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया। आत्मानुशासन 'मैं न तो राजनैतिक नेता हूं और न मेरे पास कानून और डंडे का बल है। मैं तो अपनी आत्मा का नेता हूं। मेरे पास केवल आत्मानुशासन का आध्यात्मिक बल है।' गणाधिपति तुलसी के मुख से निःसृत ये पंक्तियां उनके अपरिमेय आत्मबल एवं आत्मानुशासन की चेतना के जागरण की सूचना दे रही हैं। हर व्यक्ति की आत्मा में शक्ति का अखूट खजाना है पर बिना आत्मानुशासन के उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति इंद्रिय, मन या परिस्थिति की अनुचित मांग को अस्वीकार करना नहीं जानता, वह अपनी शक्ति का संवर्धन एवं संरक्षण नहीं कर सकता । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ साधना की निष्पत्तियां आत्मानुशासन के अभाव में पदार्थ व्यक्ति पर हावी होने लगते हैं। पूज्य गुरुदेव का आत्मानुशासन इतना पुष्ट था कि उन्होंने अस्वीकार की शक्ति को आजमाकर देखा था। वे कहते थे कि अस्वीकार की क्षमता जागने पर भी बुराई टिककर रहे तो योग-साधना व्यर्थ हो जाएगी? मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अस्वीकार की शक्ति से हर असंभव को संभव करके दिखाया जा सकता है।' संसार में आत्मानुशासन से बड़ा कोई सुख नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है कि इंद्रिय और मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सुंदर रूप देखते ही व्यक्ति की आंखें उसमें अटक जाती हैं। स्वादु पदार्थ उपस्थित होते ही वह खाने को ललक उठता है। "एक शेर या दैत्य पर नियंत्रण करना सरल है पर उत्तेजना के क्षणों में अपने आप पर नियंत्रण या अनुशासन कर पाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। जो अपनी वृत्तियों और इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, वही सच्चा विजेता हो सकता है।' ___अनुशासन के निम्न पड़ाव हैं- इच्छा, आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वास और भाषा। जब तक इन छहों पर अनुशासन नहीं होता, इनको वश में नहीं किया जा सकता। साधना का संकल्प स्वीकार करने पर भी बार-बार विचलन एवं अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती रहती है। प्रशिक्षित और नियंत्रित होने के बाद ये ही साधना और विकास के वाहक बन जाते हैं। पूज्य गुरुदेव ने एक-एक पड़ावों को पार करके मन को साधा तथा उसे अमन बनाने का प्रयत्न किया था। दशवैकालिक का यह भावानुवाद उनकी आत्मानुशासी चेतना की ओर संकेत है..जो संकल्प-विकल्पों के वश, काम-निवारण नहीं करे। ' कैसे श्रमण धर्म का पालन, पग-पग जो अवसाद वरे॥ पूज्य गुरुदेव का मानना था कि आत्मा को परमात्मा बनाने का सीधा सा उपक्रम है- अपने मन को आत्मा में स्थापित करना। मन आत्मा का अनुचर है। यह जिस दिन सही अर्थ में आत्मा का अनुचर बन जाता है, आत्मा विकास की सीढ़ियों पर आरोहण करना शुरू कर देती है। प्रेक्षासंगान में भी पूज्य गुरुदेव मनोनुशासन की महत्ता उजागर करते हुए कहते हैं मन साधे आत्मा सधे, सध जाए संसार। समाधान हर बात का, रहे न कोई भार॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३२० आत्मानुशासन जगाने के लिए दृढ़ संकल्प एवं आत्मा की अनंत शक्ति पर विश्वास अपेक्षित है। अनियंत्रित मन वाले व्यक्तियों को प्रतिबोध देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- 'मेरे अभिमत से हर व्यक्ति निरोध की शक्ति से सम्पन्न है। उस शक्ति के उपयोग की क्षमता विकसित हो जाए तो फिर यह विवशता सामने नहीं आएगी कि अनंत इच्छाओं पर अनुशासन कैसे किया जाए?' साधक इच्छा और आवश्यकता में भेद-रेखा खींचना जानता है अतः वह शरीर और मन की उचित अपेक्षा को जानकर ही उसकी पूर्ति करता है। वह जानता है कि साधना को सिद्धि तक पहुंचाने के लिए इच्छाओं पर नियंत्रण करना अत्यंत अनिवार्य है क्योंकि इच्छाओं का नियंत्रण करने वाला ही स्वतंत्रता का मूल्य आंक सकता है। पूज्य गुरुदेव का आत्मानुशासन इतना सधा हुआ था कि इंद्रियां कभी अनीप्सित विषय की ओर दौड़ती ही नहीं थीं। हिसार में एकान्तवास के दौरान साधनाकालीन अनुभव उनकी इसी विशेषता को उजागर करने वाला है- 'मेरा अनुभव बताता है कि इन्द्रिय और मन की मांग को समाप्त किया जा सकता है। अपने जीवन में पहली बार एक प्रयोग कर रहा हूं। इस समय इन्द्रियां निश्चिंत हैं और मन शान्त है। खान-पान, शयन, जागरण, देखना, बोलना किसी भी प्रवृत्ति के लिए मन पर बाध्यता नहीं है। पहले भोजन में कुछ पदार्थों की अपेक्षा अनुभव होती थी अब इस स्थिति के भाव और अभाव में कोई अंतर नहीं लगता है। साधना के विविध प्रयोगों के माध्यम से साधक अपनी इन्द्रियों और मन को साधने का अभ्यास करता रहे, यह अपेक्षित है।' जिसका आत्मबल प्रबल होता है, वही नियंत्रण या अनुशासन की क्षमता का विकास कर सकता है। स्वच्छंद व्यक्ति स्वतंत्रता और स्वाधीनता का मूल्य नहीं समझ सकता क्योंकि अध्यात्मशून्य स्वतंत्रता के कारण वह उच्छृखल बन जाता है। कभी वह मन के अधीन होता है तो कभी वाक्.. पारुष्य के कारण दंडित होता है। कभी शरीर से गलत प्रवृत्ति करता है तो कभी आवेश आदि वृत्तियों के अधीन हो जाता है। पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रस्तुत आत्मानुशासन का प्रतिबोध देने वाले ये प्रश्न हर आत्मार्थी को कुछ सोचने के लिए मजबूर करते हैं- "हर व्यक्ति अपने भाग्य की लिपि लिखने से पहले एक क्षण रुककर सोचे कि वह यंत्र है या स्वतंत्र? यदि वह स्वतंत्र Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ साधना की निष्पत्तियां है तो किसी क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं करेगा, एक क्षण में प्रसन्न और एक क्षण में नाराज नहीं होगा, एक क्षण में विरक्त और एक क्षण में वासना का दास नहीं बनेगा। ये सब स्थितियां तभी घटित होती हैं, जब व्यक्ति यंत्र होता है, दूसरों के चलाने पर चलता है। भगवान् महावीर का दर्शन स्वतंत्रता का दर्शन है, आत्मकर्तृत्व का दर्शन है। इस दर्शन के परिप्रेक्ष्य में हर व्यक्ति अपने आपसे पूछे कि वह यंत्र कितना है और स्वतंत्र कितना है?' गीत के इस पद्य में प्रकारान्तर से उन्होंने इसी तथ्य को उजागर किया है अच्छा हो अपने नियमों से, हम अपना संकोच करें। नहीं दूसरे वध-बंधन से, मानवता की शान हरें॥ अनुशासन का उत्कृष्ट रूप है- अपने द्वारा अपना अनुशासन, अपने द्वारा अपना शासन। आत्मानुशासन का बोध देने के लिए सम्पूर्ण मानव जाति को पूज्य गुरुदेव ने "निज पर शासन : फिर अनुशासन" का घोष दिया। उन्होंने स्वयं अनुशासित जीवन जीया फिर दूसरों पर उसका प्रयोग किया। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का अनुभव पठनीय है'अनुशासन का मेरे जीवन में शुरू से गहरा स्थान था, स्वयं अनुशासित रहना तथा अपने से छोटों को अनुशासन में रखना मुझे सहज भाता था।' बचपन में ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चम्पालालजी का कठोर अनुशासन उन्होंने सहर्ष झेला। इस संदर्भ में गुरुदेव के ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चम्पालालजी का यह अनुभव पठनीय है 'मैं कभी-कभी तुलसी मुनि की त्रुटियां ढूंढ़ने के लिए लुक-छिप कर जाया करता। मेरा आशय स्पष्ट था- मैं अपने भाई को नितान्त निर्दोष देखना चाहता था। एक दिन तुलसी मुनि मेरे पास आये और बोले- क्या आपको मेरे प्रति अविश्वास है, आप लुक-छिप कर क्या देखा करते हैं?' इतना पूछने का साहस सम्भवतः उन्होंने कई दिनों के चिन्तन के बाद किया होगा। मैंने अधिकार की भाषा में कहा- "तुम्हें यह पूछने की कोई जरूरत नहीं। मुझे जैसा उचित जंचेगा, करूंगा, देखूगा, पूलूंगा। स्पष्ट आऊं या लुक-छिप कर, तुम्हें क्या प्रयोजन? मैं मानता हूं तुलसी मुनि ने मेरा जो सम्मान रखा आज का विद्यार्थी क्या अपने बड़े का रखेगा? उन्होंने जो मेरा कड़ा अनुशासन झेला, वह हर कोई नहीं झेल सकता। न विशेष मैं Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी बोलता और न वे। ऊपर में बीस-बीस छात्र उनके छात्रावास में रहे पर तुलसी के प्रति सबमें समान आदर भाव और श्रद्धा देखी।' पूज्य गुरुदेव का मानना था कि जो व्यक्ति स्वयं पर अनुशासन नहीं कर सकता उसे दूसरों पर अनुशासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मचिंतन के क्षणों में उनके मुख से निःसृत ये पंक्तियां इसी सत्य की द्योतक हैं- "मेरे कंधों पर संघ के अनुशासन की पूरी जिम्मेवारी है। मेरी आत्मा जितनी उज्ज्वल और अनुशासित होगी, शासन भी उतना ही समुज्वल होगा।' वे बाल साधुओं को अनेक बार प्रशिक्षण देते हुए कहते थे- 'जो बचपन में कठोर अनुशासन में रहना नहीं जानता, उसे जीवन भर दूसरों के अनुशासन में रहना पड़ता है।' 'पंचसूत्रम्' में उन्होंने इसी सत्य को उद्गीर्ण किया है पुरा स्वातंत्र्यमिच्छंति, ते नार्हन्ति स्वतंत्रताम्। पुरानुशास्तिमिच्छंति तेऽर्हन्ति सुस्वतंत्रताम्॥ पूज्य गुरुदेव ने ६० साल की लम्बी अवधि तक एक विशाल धर्मसंघ पर अनुशासन किया। इससे पूर्व भी मुनि अवस्था में उनके अधीन बाल मुनियों पर उनका कड़ा अनुशासन था। बाद में वे आचार्यपद के दायित्व से मुक्त हो गए पर अनुशासन करने से मुक्त नहीं हुए। वे कहते थे- "मैं आचार्य पद से मुक्त हुआ हूं पर अनुशासन करने से नहीं। गलती होने पर मैं किसी को भी आंख दिखा सकता हूं।" उनके अनुशासन का वैशिष्ट्य था कि वे किसी पर बलात् अनुशासन थोपना नहीं चाहते थे। उनकी हार्दिक अभीप्सा थी कि हर शिष्य का आत्मानुशासन जागे। उनका यह वक्तव्य इसी बात की संपुष्टि करता है'मैं किसी को नियम में बांधना नहीं चाहता। जो नियम ऊपर से लादे जाते हैं, उन पर मेरा स्वयं का विश्वास नहीं है। मैं व्यक्ति के अधिकार को कुचलना नहीं चाहता। मैं आत्मानुशासन में विश्वास करता हूं अतः सबको आत्मानुशासित एवं स्वावलम्बी बनाना चाहता हूं।' 'पंचसूत्रम्' में भी उन्होंने इसी सत्य को प्रस्तुति दी है गुरुर्वाञ्छति शिष्येषु, विकसेदात्मशासनम्। न वाञ्छति भवेयुस्ते, नित्यं संप्रेरिताः परैः॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां आत्मानुशासन जगने के बाद बाह्य अनुशासन कृतार्थ हो जाता है । आस्था, संकल्प और अभ्यास- इन तत्त्वों का अभ्यास होने पर आत्मानुशासन स्वतः प्रकट होने लगता है। तब अनुशासन को आरोपित नहीं करना पड़ता, वह हार्दिक और सहज स्वीकृत होता है। अमेरिकन लोगों के समक्ष स्वामी विवेकानन्द का दिया गया प्रतिबोध इसी सत्य का संवादी है - 'आत्मानुशासन जगने के बाद किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रहती। मन पर विजय प्राप्त करने के बाद संसार सुखमय हो जाता है। फिर हमारे ऊपर किसी भी अच्छे बुरे भाव का असर नहीं होता। हमें सब कुछ यथास्थान और सामंजस्यपूर्ण दिखलाई पड़ेगा ।' पूज्य गुरुदेव आत्मानुशासन के उस शिखर पर स्थित थे, जहां उनकी हर क्रिया दूसरों के लिए अनुशासन का सहज बोधपाठ बन गयी । अहिंसक वृत्ति एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण - 'ज्ञानी होने का सार यही है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। इस वाक्य को इस रूप भी कहा जा सकता है कि साधक होने का सार यही है कि वह अपनी असत् प्रवृत्ति से किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाता। अहिंसा किसी भी महापुरुष की सबसे बड़ी शक्ति होती है। अहिंसा चिरंतन जीवन-म‍ - मूल्य है अतः किसी भी देश और काल में इसकी मूल्यवत्ता को कम नहीं किया जा सकता । ३२३ पूज्य गुरुदेव का सम्पूर्ण जीवन अहिंसा की जीती जागती मशाल रहा। बचपन में ही उन्होंने अहिंसा के राजमार्ग पर अपना चरणन्यास कर दिया था । अहिंसा के प्रति व्यक्त निष्ठा की एक झलक उन्हीं के शब्दों में पठनीय है * मैं अहिंसा की अन्तर्यात्रा में विश्वास करता हूं । * बचपन से ही अहिंसा के प्रति मेरी आस्था पुष्ट हो गयी थी । आस्था की वह प्रतिमा आज तक कभी खंडित नहीं हुई । * अहिंसा में मेरा अंधविश्वास नहीं है । वह मेरे जीवन की प्रकाश - रेखा है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३२४ अहिंसा सार्वभौम के माध्यम से उसके प्रशिक्षण की बात कहकर गुरुदेव तुलसी ने अहिंसा को सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयत्न किया। अहिंसा प्रशिक्षण का परिणाम उनके आत्मविश्वास की भाषा में पठनीय है- 'जिस दिन सामूहिक रूप से अहिंसा के प्रशिक्षण एवं प्रयोग की बात संभव होगी, हिंसा की सारी शक्तियों का प्रभाव क्षीण हो जाएगा।' उनके अहिंसक व्यक्तित्व का आकलन यशपाल जैन के शब्दों में इस प्रकार है- 'आचार्य तुलसी के पास कोई भौतिक बल नहीं, फिर भी वे प्रेम, करुणा एवं सद्भावना द्वारा अहिंसक क्रांति का सिंहनाद कर रहे हैं। विनोबा तो अंतिम समय में एकान्त साधना में लग गये पर आचार्य तुलसी के चरण इस उम्र में भी गतिमान हैं। उनकी अहिंसक साधना अविराम गति से लोगों को सही इंसान बनाने का कार्य कर रही है।' पूज्य गुरुदेव ने अहिंसा को सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक गुत्थियों से बाहर निकालकर जीवन-व्यवहार के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया। अहिंसा के संदर्भ में व्यक्त प्रस्तुत अभिव्यक्तियां इसी रहस्य को प्रकट करने वाली * यदि छोटी-छोटी बातों पर तू-तू, मैं-मैं होती है तो समझना चाहिए, अहिंसा का नाम केवल अधरों पर है, जीवन में नहीं। * अहिंसा के जगत् में इस चिंतन की कोई भाषा नहीं होती कि मैं ही रहूं, मैं ही बचूं या अंतिम जीत मेरी ही हो। वहां की भाषा यही होती है- अपने अस्तित्व में सब हों और सबके अस्तित्व का विकास हो। * आप लोग न मारें तो मैं भी आपको नहीं मारूं, आप यदि गाली नहीं दें तो मैं भी गाली न दं, ऐसा विनिमय अहिंसा में नहीं होता। * प्रतिकूल परिस्थिति या प्रतिकूल सामग्री के कारण किसी के मन में अशांति हो जाती है तो यह उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। * मैं मानता हूं अहिंसा केवल मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा तक ही सीमित न रहे, जीवन-व्यवहार में उसका प्रयोग हो। अहिंसा का पहला प्रयोगस्थल है-व्यापारिक क्षेत्र, दूसरा क्षेत्र है- राजनीति। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ साधना की निष्पत्तियां * दूसरों की सम्पत्ति, ऐश्वर्य और सत्ता देखकर मुंह में पानी नहीं भर आता, यह अहिंसा का ही प्रभाव है। * घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, वासना और दुराग्रह-ये सब जीवन में पलते रहें और अहिंसा भी सधती रहे, यह कभी संभव नहीं है। _पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन से जनता को अहिंसा का सक्रिय प्रशिक्षण दिया। प्रबल हिंसा एवं विरोध के वातावरण में भी उनकी अहिंसा के प्रति निष्ठा कम नहीं हुई। वे कहते थे- 'मेरे जीवन में अनेक प्रसंग आए हैं, जहां कुछ लोगों ने मेरे प्रति हिंसा का वातावरण तैयार किया। वे लोग चाहते थे कि मैं अपनी अहिंसात्मक नीति को छोड़कर हिंसा के मैदान में उतर जाऊं पर मेरे अंतःकरण ने कभी भी उनका साथ नहीं दिया और मैंने हर हिंसात्मक प्रहार का प्रतिरोध अहिंसा से किया।' - कोयम्बटूर में पूज्य गुरुदेव जेल में कार्यक्रम पूरा करके वापिस पधार रहे थे। मोड़ पर घूमते समय अचानक दो लड़के सामने तेजी से साइकिल पर आ रहे थे। लोगों ने रोकना.चाहा पर उन्होंने दुस्साहस किया और साइकिल आगे बढ़ा दी। साइकिल सीधी गुरुदेव के पैर से टकरायी। गुरुदेव ने तत्काल हैंडिल पकड़ लिया फिर भी अगूंठे और घुटने में चोट आ गई। भक्त लोग साइकिल वाले लड़के पर उबल पड़े पर गुरुदेव स्थितप्रज्ञ की भांति ऐसे खड़े थे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। लोगों ने साइकिल वाले लड़के को पकड़कर पीटना चाहा लेकिन गुरुदेव ने उन्हें शान्त करते हुए कहा- 'जो होना था वह हो गया अब इसे पीटने से क्या होगा? एक व्यक्ति गलती करे उसके साथ दूसरा भी गलती करने लगे तो फिर उसकी महानता क्या हुई? हमें तो हर परिस्थिति में संतुलन और धैर्य रखना चाहिए। हमारी अहिंसा इतनी प्रभावी होनी चाहिए कि क्रूर से क्रूर आक्रान्ता का हृदय बदल जाए।' गुरुदेव के ये उद्गार सुनते ही श्रावक शान्त हो गए और साइकिल पर सवार लड़का गुरुदेव के चरणों में प्रणत हो गया। __ अहिंसा के राजमार्ग पर चलने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं सताता। अहिंसा की एकनिष्ठ साधना से पूज्य गुरुदेव का व्यक्तित्व इतना प्रभावी हो गया था कि कोई भी वैर-विरोध या भय उनके सामने टिक नहीं Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३२६ पाता था तथा उनकी सन्निधि सबको भयमुक्त बनाए रखती थी। "अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः" पतञ्जलि का यह सूक्त गुरुदेव के जीवन में पूर्णतया चरितार्थ होता था। पूज्य गुरुदेव एक गांव में विराज रहे थे। वहां ऊंचे टीले पर टीनों का छपरा बना हुआ था। गुरुदेव के साथ संत भी उसी छपरे में सोने की तैयारी कर रहे थे। चारों ओर जंगल होने से जंगली जानवरों एवं सर्पो का भय था। बिच्छुओं को तो अनेक बार संतों ने आते-जाते देखा पर गुरुदेव के आभामण्डल के प्रभाव से किसी के मन में भय की एक रेखा भी नहीं उतरी। सबने निश्चिन्तता की नींद ली। समाचार पत्रों में जब गुरुदेव आतंकवादियों की हिंसक वारदातों के बारे में सनते या पढ़ते तो उनका मन बेचैन हो उठता। उनकी करुणा कभीकभी इन शब्दों में प्रस्फुटित होती थी- 'मेरे मन में अनेक बार यह विकल्प उठता है कि उपद्रवी और हिंसकों की भीड़ के बीच में खड़ा हो जाऊं और उन लोगों से कहूं कि तुम कौन होते हो निर्दोष एवं निरपराध प्राणियों को मौत के घाट उतारने वाले? बिना साहस या आत्मबल के अहिंसात्मक प्रतिरोध की कल्पना भी मन में नहीं उभर सकती। जाति, रंग आदि के आधार पर किसी को हीन मानकर अपमान करना उनकी दृष्टि में सबसे बड़ी हिंसा और मानवीय अपराध था। मानवमानव में आत्मा की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है अत: प्राणिमात्र के प्रति मानवीय व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने अपने प्रवचन-स्थल में हरिजनमहाजन की भेद-रेखा को मिटाने का प्रयत्न किया। यद्यपि इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष झेलना पड़ा लेकिन उनके अथक प्रयास से जातिवाद की जड़ें हिलने लगीं। जातिवाद पर व्यंग्य करता हुआ उनका यह वक्तव्य अनेकों तथाकथित धर्माचार्यों की चेतना को झकझोरने वाला है- 'अगर कोई भगवान् मनुष्य को जातियों में बांटेगा, एक व्यक्ति को जन्म से ऊंचा और एक को जन्म से नीचा बनाएगा तो कम से कम मैं तो उसे भगवान् मानने के लिए तैयार नहीं हूं।...मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा में हं जब समस्त मानव समाज में भावात्मक एकता स्थापित होगी और बिना किसी जातिभेद के मानव-मानव धर्मपथ पर आरूढ़ होंगे।' एक गांव में गुरुदेव का प्रवास मंदिर में था। उनके साथ जुलूस में Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ साधना की निष्पत्तियां कुछ हरिजन भी थे । उन्होंने भी गुरुदेव के साथ मंदिर में प्रवेश कर लिया। पुजारिन हरिजनों को मंदिर में देखकर क्रोध में आकर गालियां बकने लगी । गुरुदेव को जब यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने संतों को निर्देश देते हुए कहा - "हम दूसरी जगह ठहरेंगे यहां मन्दिर में भगवान् नहीं, चंडाल (क्रोध) रहता है। हम इस अपवित्रता में ठहरकर क्या करेंगे ? पुजारिन ने जब गुरुदेव के ये शब्द सुने तो वह शान्त हो गयी और बोली - " आप यहां से क्यों जा रहे हैं? मैं तो इन लोगों को मना कर रही हूं।' गुरुदेव ने फरमाया- 'तुम जब हमको ठहरा रही हो तो हमारे साथ आने वाले लोगों को कैसे रोक सकती हो? हम मानव-मानव में कोई भेद नहीं करते हैं । सबकी आत्मा समान है ।' गुरुदेव की ओजपूर्ण वाणी सुनकर पुजारिन चुपचाप दूसरी ओर चली गयी। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, जब उन्होंने जातिवाद की जड़ों पर क्रियात्मक प्रहार किया । गुरुदेव श्री तुलसी की अहिंसा विषयक मौलिक सोच एवं उनके अहिंसक प्रयोगों की चर्चा एक स्वतंत्र पुस्तक में की जाएगी। लाघव साधना और भार ये दोनों ३६ के अंक की भांति विपरीत दिशोन्मुखी हैं। साधक भीतर और बाहर से हर क्षण हल्केपन की अनुभूति करता है क्योंकि लघुता की साधना करने वाला साधक ही प्रभुता का वरण कर सकता है। भारीपन व्यक्ति को नीचे की ओर ले जाता है। इस संदर्भ में भगवती में वर्णित उपासिका जयंती और महावीर के प्रश्नोत्तर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । आध्यात्मिक विकास हेतु हल्कापन अनिवार्य शर्त है। आचार्य तुलसी ने इसी सत्य को काव्य में निबद्ध कर दिया 1 हल्कापन तन में रहे, मन में स्फूर्ति अपार । आध्यात्मिक चिंतन स्वयं, पाता है विस्तार ॥ भारीपन शरीर का हो, वस्तु का या विचारों का, वह व्यक्ति के मन बेचैन बनाता है। पूज्य गुरुदेव सभी प्रकार के भार की अनुभूति से मुक्त थे । वे अनावश्यक चिन्ता का भार नहीं ढोते थे । वे चिन्ता और चिंतन में भेदरेखा खींचना जानते थे । अनावश्यक चिन्ता करने वालों को उनका प्रतिबोध था - ' चिन्ता नहीं, चिंतन करो, व्यथा नहीं, व्यवस्था करो, Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी प्रशंसा नहीं, प्रशस्ति करो।' दिल्ली में जयाचार्य शताब्दी के अवसर पर गुरुदेव के पास एक व्यक्ति आया और चिंतित स्वरों में बोला- 'इतने लोग यहां पहुंच रहे हैं। दिल्ली जैसे शहर में उनकी व्यवस्था कैसी होगी? उनको कैसे संभाला जाएगा?' बहुत भय दिखाने पर भी गुरुदेव के साधक मानस पर भार की अनुभूति नहीं हुई। उन्होंने भाई को समाहित करते हुए कहा- 'समय पर सब व्यवस्था ठीक हो जायेगी। परिस्थिति आने से पहले ही व्यर्थ चिन्ता का भार क्यों ढोया जाए? चिंता के भार से आधी कार्यजा शक्ति तो पहले ही नष्ट हो जाती है।' समय पर जयाचार्य शताब्दी का ऐतिहासिक समारोह इतने व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न हुआ कि कई दिनों तक उसकी गूंज दिल्ली के जनमानस पर गूंजती रही। ___ लघुता आकिंचन्य का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग है। जिसका किसी पर स्वामित्व नहीं, वह पूरे जगत् का सम्राट बन जाता है। रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में स्वामी के पास ही वैभव आता है, गुलाम को कभी कुछ नहीं मिलता। स्वामी वह है, जो बिना उन सबके रह सके। जिसका जीवन संसार की क्षुद्र, सारहीन वस्तु पर अवलम्बित नहीं रहता।' पूज्य गुरुदेव ने 'व्यवहारबोध' में इसी सत्य का संगान किया है अंगलाघव संगलाघव, अकिंचनता जो मिले। त्रिलोकी का विभव पाया, हृदय की वनिका खिले॥ . वर्तमान में तथाकथित साधु समुदाय के परिग्रह और ठाटबाट को देखकर साधुता भी शर्म से झुक जाती है। सारी सुख-सुविधा उपलब्ध होने पर भी गुरुदेव न किसी स्थान से बंधे और न किसी वैभव-संपदा से। उनके इस लघुता के भाव ने सहज ही सारे संसार को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया तथा उनको प्रभुतासम्पन्न बना दिया। वे मानते थे कि साधक का मन इतना निर्लोभ होना चाहिए कि उसके सामने कितना ही बड़ा आकर्षण उपस्थित होने पर भी वह सर्वथा निराशंस और निराकुल रहे। ऐसी मनोवृत्ति वाला साधक सदा सुखशय्या में सोता है। ___सादड़ी में वहां के ठाकुर गुमानसिंहजी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। दर्शन करते ही उन्होंने कुछ रुपये गुरुदेव के चरणों में रख दिए । रुपयों को देखकर गुरुदेव मन ही मन मुस्कराए और बोले- 'ठाकुर साहब! हम Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां लघुभूतविहारी हैं । परिग्रह के नाम पर हमारे पास बैंक बेलेंस नहीं है अतः इन कागज के टुकड़ों का हम क्या करें ? इनसे अधिक तो हमारे लिए कागज ही मूल्यवान हैं, जो लिखने के काम तो आते हैं। हम तो त्यागतपस्या की भेंट लेते हैं, नोटों की नहीं । ठाकुर साहब ने भावविह्वल होकर गुरुदेव की अभ्यर्थना करते हुए कहा - 'साधु तो बहुत आते हैं लेकिन आपके पदार्पण से हमें अतिरिक्त प्रसन्नता हुई है क्योंकि आपका किसी प्रकार का भार नहीं है। न आपको पलंग चाहिए, न दरी । न ही भिक्षा में आप कोई वस्तु मांगकर लेते हैं।' आज के तथाकथित साधुओं की स्थिति पर व्यंग्य करती पूज्य गुरुदेव की ये पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं ३२९ दंभी पाखण्डी मुनियों से, यह साधु नाम बदनाम हुआ । उनकी काली करतूतों का, हा ! कितना दुष्परिणाम हुआ । उनके कारण सच्चे त्यागी संतों पर भी लगता लांछन । निर्दोष सदोष कहलाते हैं, मोठों में पीसे जाते घुन ॥ निम्न घटना प्रसंग भी उनकी लाघव-साधना का स्पष्ट निदर्शन है । सन् १९६७ में विलीमोरा गांव में एम. एच. ए. टाटा हाई स्कूल के छात्रों के बीच गुरुदेव का प्रवचन निर्धारित था । स्कूल के अध्यापकों ने बड़े-बड़े तख्तों पर गद्दी, कालीन एवं तकिए लगाकर उसे सिंहासन का रूप दे दिया। स्वागत की जोरदार तैयारियां देखकर गुरुदेव ने फरमाया 'संत और सिंहासन का क्या मेल ? संत तो अकिंचन होता है। जो बाह्य सुख-सुविधा में प्रतिबद्ध हो जाता है, वह साधुता का आनन्द नहीं उठा सकता ।' व्यवस्थापकों ने तत्काल गद्दी, कालीन तथा तकिए आदि उठा दिए और एक कुर्सी रख दी। गुरुदेव ने उसी पर बैठकर प्रवचन किया। अध्यापक लोगों ने ऐसे अकिंचन और मुक्तविहारी संत के प्रथम बार ही दर्शन किये थे इसलिए आश्चर्य होना स्वाभाविक था । - गुरुदेव का अभिमत था कि जो व्यक्ति जितना लघुतासम्पन्न होगा, प्रभुता स्वयं उसके दरवाजे पर दस्तक देगी। प्रभुता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'प्रभुता औरों पर शासन करने, अधिक से अधिक सुख-सुविधा भोगने, वैयक्तिक स्वार्थ साधने अथवा प्रतिष्ठा के शिखर पर चढ़ने के लिए नहीं होती । प्रभुता वह होती है, जो मनुष्य को Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३३० स्वयं से परिचित कराती है, स्वयं पर अनुशासन करना सिखाती है और स्वयं के भीतर छिपी हुई ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की समृद्धि बढ़ाने की क्षमता प्रदान करती है। अब मनुष्य स्वयं सोचे कि उसे लघुता से प्रभुता की दिशा में आगे बढ़ना है या प्रभुता के दर्प से लघुता की ओर फिसलना है।' विदेह - साधना साधना का प्रथम और अन्तिम बिन्दु भेदविज्ञान है । भारतीय ऋषियों ने विद्या और अविद्या का सम्बन्ध भी भेदविज्ञान से जोड़ा है। सैकड़ों पुस्तकों का ज्ञाता भी विद्यावान् नहीं है, यदि उसे देह और आत्मा की भिन्नता का बोध न हो। यदि भेदविज्ञान का अनुभव है तो पुस्तकीय ज्ञान न होने पर भी वह सबसे बड़ा ज्ञानी है। देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्येति प्रकीर्तिता । नाहं देहश्चिदात्मेति, बुद्धिं विद्येति भण्यते ॥ साधना के प्रथम चरण में साधक देहाध्यास से मुक्त होने के लिए प्रयोग करता है और अन्तिम चरण में चैतन्य के पूर्ण साक्षात्कार से वह कृतकृत्य हो जाता है। बिना भेदविज्ञान के न तो विदेह की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है और न ही आत्मविकास की दिशा में चरणन्यास हो सकता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि आत्मा का अनुभव सूक्ष्म सत्य का अनुभव है । यह अनुभव उनको ही हो सकता है, जो भेदविज्ञान की साधना करके शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझ लेते हैं। विदेह की स्थिति को प्राप्त करना प्रयत्नजन्य है क्योंकि आत्मा और पुद्गल का संयोग अनादिकालीन है पर कुछ व्यक्तियों को यह स्थिति सहज प्राप्त हो जाती विज्ञान की अनुप्रेक्षा के लिए पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्मित यह पद्य मन्त्र के रूप में जपा जा सकता है आत्मा भिन्न शरीर भिन्न है, एक नहीं संजोना । है मिट्टी से मिला-जुला, पर आखिर सोना सोना । शरीर के संवेदनों से प्रभावित होने वाला साधक भेदविज्ञान की गहराई में नहीं पैठ सकता। वह थोड़ी सी शारीरिक वेदना में हताश और निराश हो जाता है। भेदविज्ञान का अभ्यास सधने पर शरीर की कोई भी पीड़ा साधक के आनन्द में बाधक नहीं बन सकती क्योंकि सतत आत्मा या Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ साधना की निष्पत्तियां चैतन्य का अनुभव करने के कारण वह शरीर की पकड़ से मुक्त हो जाता है। कष्ट की अनुभूति तब होती है, जब शरीर को आत्मा मान लिया जाता है। साधक को यह अनुभूति होती रहती है कि वेदना शरीर को होती है, चेतना को नहीं। मैं शुद्ध चैतन्यरूप आत्मा हूं। शरीर का आत्मा के साथ केवल संयोग मात्र है। भेदविज्ञान के सघन प्रयोग से ही गुरुदेव श्री तुलसी ने हर वेदना को अपना मित्र मानकर उसका स्वागत किया। हर बीमारी या वेदना को उन्होंने दीनता से नहीं, अपितु वीरता से सहा। अनेक बार प्रवचनों में वे अपनी अनुभूति को शाब्दिक बाना भी देते रहते थे- 'मैं ४५ वर्ष से श्वास रोग का मरीज हूं, पर कभी भी इस बीमारी को लेकर मेरे मन में निराशा, हीनता या दीनता के भाव नहीं आए। गुरुओं की ऐसी शक्ति मेरे साथ है कि किसी भी पीड़ा में मेरा मनोबल डोलता नहीं। अब तो मैं आनन्द के साथ कहता हूं, श्वास रोग! पधारो, आपका स्वागत है। मैं आपको नहीं सताऊंगा आप मुझे न सताएं।' यह वक्तव्य उसी साधक के मुख से निकल सकता है, जिसने अपनी चेतना को दर्द की अनुभूति से हटा लिया हो तथा जो देहाध्यास से मुक्त हो। शरीर से प्रतिबद्ध व्यक्ति सामान्य बीमारी की स्थिति में अधीर होकर अनेक प्रकार के औषधि-सेवन की ओर प्रवृत्त हो जाता है पर गुरुदेव अधिक औषधि-प्रयोग के विरोधी थे। उनका चिन्तन था कि दर्दशामक दवा का प्रयोग करने की अपेक्षा पीड़ा को सहन करने में अधिक आनन्द की अनुभूति होती है। सन् १९६२ का घटना-प्रसंग है। दिन में गुरुदेव का स्वास्थ्य कुछ नरम था। विहार में बार-बार उल्टियों एवं दस्तों का प्रकोप रहा। विहार के दौरान गुरुदेव को शारीरिक शिथिलता का अनुभव हो रहा था। संतों ने रात को जल्दी विश्राम के लिए निवेदन किया लेकिन विश्राम की बात तो दूर गुरुदेव वेदना में सहजतया दिनचर्या में परिवर्तन करना भी पसन्द नहीं करते थे। उस दिन लम्बे समय तक गुरुदेव ने रात्रिकालीन प्रवचन किया। हजारों की संख्या में उपस्थित जनता गुरुमुख से अमृतवाणी सुनकर तृप्त हो गई। उनके जीवन के ऐसे अनेक घटना-प्रसंग हैं, जो उनकी भेदविज्ञान Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३३२ की चेतना को प्रकट करने वाले हैं। इस सन्दर्भ में उनका चिन्तन था कि जब तक शरीर है, पग-पग पर बीमारी की संभावना बनी रहती है पर उससे भयभीत होकर हताश, निराश या अकर्मण्य हो जाएं तो जीना कठिन हो जाता है तथा दर्द की अनुभूति भी बढ़ जाती है। लाडनूं प्रवास में गुरुदेव को एक रात्रि में श्वास का प्रकोप हो गया। दूसरे दिन श्रीचन्दजी रामपुरिया के प्रपौत्र अशोक ने गुरुदेव के स्वास्थ्य की सुखपृच्छा की। गुरुदेव ने फरमाया- 'जहां शरीर है, वहां छोटी-मोटी बीमारियां तो आती ही रहती हैं। शरीर में उत्पन्न वेदना से घबराना नहीं चाहिए। पथ में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कोई उनसे भयभीत होकर चले ही नहीं, वह मंजिल कैसे पा सकता है? वैसे ही रोग शरीर का धर्म है, इसमें भी उतार-चढाव आते रहते हैं। इनसे घबराने से काम कैसे चलेगा?' पूज्य गुरुदेव की इस विदेहसाधना से अशोक दंग रह गया। इस अवस्था में इतना मनोबल उसके लिए आश्चर्य का विषय था। अन्य सन्तों के पास इस घटना का जिक्र करते हुए वह बोला- 'मैं गया था गुरुदेव की सुखपृच्छा के लिए लेकिन गुरुदेव के मानस पर तो अस्वास्थ्य का कोई असर ही नहीं है। आज मुझे जीवन का शाश्वत बोध मिल गया कि शारीरिक कष्ट आत्मिक आनन्द को मन्द नहीं कर सकता, यदि व्यक्ति देह की प्रतिबद्धता से मुक्त होकर विदेह की साधना कर ले।" लाडनूं से दक्षिण यात्रा की ओर प्रस्थान करते समय गुरुदेव तीव्र ज्वर से आक्रान्त हो गए। सबका चिन्तन था कि इतने तेज बुखार में विहार नहीं होना चाहिए पर गुरुदेव के तीव्र संकल्प एवं मनोबल ने हार नहीं मानी और विहार कर दिया। अनेक ग्रामीण लोग भी गुरुदेव के साथ चल रहे थे। अन्य दिनों की अपेक्षा आज बुखार के कारण गुरुदेव की चाल थोड़ी धीमी थी फिर भी लोग उनके साथ चलने में असमर्थता का अनुभव कर रहे थे। विहार के दौरान हांफते हुए एक चौधरी बोल उठा- 'ये गुरुजी बुखार में भी इतने तेज चल रहे हैं। हम तो दौड़ने पर भी इनका साथ नहीं निभा पा रहे हैं। हम तो बुखार में पैदल चलने की बात सोच भी नहीं सकते पर इनके चेहरे पर वेदना के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते।' वेदना में सन्तुलित रहने की स्थिति गुरुदेव को भेदविज्ञान के अभ्यास Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ साधना की निष्पत्तियां से प्राप्त थी। शरीर के साथ आसक्ति का सम्बन्ध-विच्छेद होने के कारण ही वे प्रतिक्षण चैतन्य के जागरण का अनुभव करते रहते थे। एक केश भी शरीर से अलग करना कितना कष्टप्रद होता है किन्तु गुरुदेव जब अपने केशों का लुंचन करते थे तब उनकी प्रसन्न और स्थिर मुद्रा भेदविज्ञानसाधना की जीवन्त साक्षी बन जाती थी। बनारस में चर्चा के कारण रात्रिकालीन विश्राम काशी विश्वविद्यालय के प्रांगण में ही निर्धारित किया गया। उत्तर प्रदेश की कड़कड़ाती सर्दी में पूरे संघ के साथ गुरुदेव ने विश्वविद्यालय के बड़े-बड़े कमरों में शयन किया। रात भर नींद न आने पर भी गुरुदेव को अतिरिक्त प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी। उस रात का संस्मरण बताते हुए उन्होंने कहा कि रात्रि में सर्दी का काफी परीषह रहा। ठंड को सहने पर भी मन में संतोष था। साधु-जीवन में अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएं आती ही रहती हैं । यात्रा में कई स्थानों पर सर्दी का कष्ट रहता है पर बनारस की वह रात हमें सदा याद रहेगी।' विदेह हुए बिना व्यक्ति मौत के भय से ऊपर नहीं उठ सकता। विदेह की साधना में संलग्न साधक प्रतिक्षण इस बात की अनुभूति करता रहता है कि मृत्यु केवल शरीर को नष्ट कर सकती है पर आत्मा तो अजरअमर है। इसी सत्य का अनुभव करके सुकरात, गांधी और विनोबा ने मौत का हंसते-हंसते स्वागत किया। रायपुर में गुरुदेव के पुतले जलाए गए। विरोधियों द्वारा प्रतिक्षण मौत का भय था पर उनके मानस पर भय का कोई प्रकम्पन नहीं हुआ। जब तक शब्द, रूप, गंध आदि इंद्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति रहती है, तब तक भेदविज्ञान की दिशा में प्रस्थान नहीं हो सकता। शब्द, रूप आदि इंद्रिय-विषय आत्मतत्त्व से भिन्न पौद्गलिक हैं, जड़ हैं, यह अवबोध होते ही साधक की दिशा बदल जाती है। पूज्य गुरुदेव ने आयारो के सूक्त का अनुवाद करते हुए विदेह की स्थिति का मार्मिक चित्र खींचा जिसने शब्दादिक विषयों से भिन्न स्वयं को जान लिया उसने मूर्छा-संग त्याग Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी सविवेक भेदविज्ञान किया वह आत्मवान्-आत्मा को उसने पाया है वह ज्ञानवान्-उसने चैतन्य जगाया है वह वेदवान्-शास्त्रों का सही निचोड़ किया वह धर्मवान्-समता से नाता जोड़ लिया वह ब्रह्मवान्-उसने जग से मन मोड़ लिया वह परम-तत्त्व का है संगानी . आयारो की अर्हत् वाणी॥ विदेह साधना सधने पर वीतरागता की ओर स्वतः चरणन्यास हो जाता है क्योंकि तब साधक केवल अपने प्रति, अपने चैतन्य के प्रति जागता है। बाह्य क्रिया करते हुए भी उसका तादात्म्यभाव चेतना के साथ जुड़ा रहता है। एक बार वाउल फकीर से पूछा गया- 'मोह कैसे मिटता है?' उसने सहज मुस्कान के साथ रहस्यमय उत्तर दिया- 'एक के सिवाय सबके प्रति मरने से।' प्रवचन एवं बातचीत में अनेक बार वे दार्शनिक शैली में भेदविज्ञान का रहस्य जनता के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे। दक्षिण यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव एक बार जेल में पधारे। कैदियों को संबोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा- "आप जानते हैं जेल उसके लिए होती है, जो अपराधी होता है। एक दृष्टि से हमारा शरीर सबसे बड़ी जेल है। हमारी उन्मुक्तविहारी आत्मा शरीर रूपी जेल में कैद है। यह हमारे अपराध का परिणाम है। इससे मुक्त होना ही हमारे जीवन का सबसे बड़ा ध्येय है।' लाडनूं प्रवास में कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने गुरुदेव को कुछ प्रतिबोध देने के लिए निवेदन किया। गुरुदेव ने सहज रूप से संबोध देते हुए कहा- 'आत्मा और शरीर अनादिकालीन साथी हैं। एक को पूरी खुराक मिले और दूसरे को नहीं, क्या यह अच्छी बात है? व्यक्ति हमेशा शरीर को खुराक देता है, आत्मा को नहीं, क्या यह आत्मा के साथ अन्याय नहीं है ? शरीर की भांति आत्मा को खुराक देना भी आवश्यक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, सामायिक आदि आत्मा की खुराक हैं।' इस आध्यात्मिक उद्बोधन को सुनकर सभी श्रावक प्रसन्न हो उठे। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ साधना की निष्पत्तियां 'मैं आत्मा हूं, चेतनावान् हूं' यह स्मृति पूज्य गुरुदेव को सतत देह की प्रतिबद्धता एवं आसक्ति से मुक्ति दिलाती रहती थी। उनकी यह विदेह-साधना अनेक साधकों का मार्ग प्रशस्त करके उन्हें आत्मसाक्षात्कार की दिशा में प्रस्थित करती रहेगी। अतीन्द्रिय क्षमता विज्ञान के सामने ज्ञात तथ्यों का प्रकटीकरण कोई मूल्य नहीं रखता। जो अज्ञात और भविष्य के गर्त में छिपे रहस्यों को अनावृत करता है, वही जनमानस का श्रद्धेय बन सकता है। प्राचीनकाल में बड़े व्यक्तियों के हर कार्य में श्रद्धाभाव रहता था पर आज के तार्किक युग में हर कार्य को तर्क की कसौटी पर कसा जाता है अतः आज व्यक्ति के आधार पर उसके कार्य का मूल्यांकन नहीं होता, बल्कि कार्यों के आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व मापा जाता है। गणाधिपति तुलसी एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम था, जिसने अपनी दूरदर्शी कर्तृत्व की उजली रेखाओं से अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी एक अलग पहचान बनाई। गणाधिपति तुलसी उस कोटि के दूरद्रष्टा या भविष्यवक्ता थे, जिन्हें अपने साधना-बल, सूक्ष्म चिन्तन एवं दूरदर्शी अनुभूति के बल पर आने वाले युग की हर आहट का ज्ञान पहले ही हो जाता था। उनकी निर्मल प्रतिभा के दर्पण में भविष्य में होने वाली हर घटना पहले ही प्रतिबिम्बित हो जाती थी। यही कारण है कि गुरुदेव श्री तुलसी कोई भी कार्य केवल वर्तमान के क्षणिक प्रभाव से प्रेरित होकर नहीं करते, भविष्य के परिणामों का चिन्तन भी उसमें निहित रहता था। प्राचीन टीकाकारों ने आचार्य के अनेक गुणों में दूरदर्शिता को प्रमुख माना है। गुरुदेव के नेतृत्व का वैशिष्ट्य था कि कालक्षेप से आने वाली समस्याओं को, कठिनाइयों को वे वर्तमान में ही पकड़ लेते थे। यह निर्विवाद सत्य है कि अतीत के अनुभवों के आधार पर किसी संघ का संचालन तो किया जा सकता है पर उसमें नवोन्मेष नहीं उभरते और न ही वह संघ युग की समस्याओं के साथ जूझने का साहस और शक्ति ही जुटा पाता है। पहले पूर्वाभास को मनःशास्त्री नितांत काल्पनिक मानते थे पर अब अनुसंधान और अन्वेषण के दौरान उनको यह मानना पड़ा है कि बुद्धि में Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कभी-कभी अघटित के प्रतिबिम्ब भी पड़ जाते हैं । ३३६ पाश्चात्त्य मनोवैज्ञानिकों ने जो अतीन्द्रिय क्षमताएं खोजी हैं, उन्हें चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है: १. क्लेयरवायेन्स (दूरबोध) :- वस्तुओं और घटनाओं की वह जानकारी, जो ज्ञान-प्राप्ति के सामान्य आधारों के बिना ही उपलब्ध हो जाए । २. प्रीकाग्नीशन (भविष्यज्ञान ) :- बिना किसी मान्य आधार के भविष्य की घटनाओं का ज्ञान । ३. रेट्रोकाग्नीशन (भूतज्ञान) :- बिना किन्हीं मान्य साधनों से अविज्ञात भूतकालीन घटनाओं की जानकारी । ४. टेलीपैथी (विचार - संप्रेषण ) :- बिना किसी सहायता के अपने विचार दूसरों तक पहुंचाना और दूसरों के विचार ग्रहण करना । यहां गुरुदेव के जीवन की कुछ सफल भविष्यवाणियां एवं भविष्यदर्शन की झांकियां प्रस्तुत की जा रही हैं: -- पूज्य गुरुदेव के जीवन से सम्बन्धित दूरबोध की अनेक घटनाएं हैं, जब समाज को उन्होंने आने वाली स्थितियों की पहले ही चेतावनी दे दी। उस समय समाज उनकी दिव्य वाणी का मूल्य नहीं समझ सका लेकिन समय बीतने पर सबके मुंह से यही स्वर निकला - 'आपने हमें पहले ही सचेत कर दिया था अच्छा होता हम आपकी बात पहले ही मान लेते । ' दक्षिण यात्रा के दौरान पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने लोगों से अपील की - 'गिरवी का धंधा सामाजिक शोषण है। जो व्यक्ति चंद पैसों के लिए अपने भाई का खून पीता है वह धार्मिक तो हो ही नहीं सकता, मनुष्य कहलाने का भी वास्तविक हकदार नहीं है।' जो इस धंधे से जुड़े थे उन्हें यह बात पसन्द नहीं आई । तीव्र प्रतिक्रिया करते हुए उन्होंने कहा- 'आप इस ब्याज के धन्धे के बारे में कुछ न कहें अन्यथा हम आपका विरोध Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ साधना की निष्पत्तियां करेंगे।' अनेक आरोप-प्रत्यारोप एवं विरोधों के बावजूद गुरुदेव ने ओजस्वी वाणी में प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'यह कभी नहीं हो सकता कि अमानवीय धंधे की सुरक्षा के लिए आपके भय से मैं मौन साध लूं, बुराई मिटाने का कार्य न करूं । सत्य बात कहने में मुझे किसी तरह का संकोच या हिचकिचाहट नहीं है। जनता का विरोध मुझे सत्य बात कहने से नहीं रोक सकता।' कुछ समय बाद जब सरकार की ओर से इस कार्य के प्रति कड़ी कार्यवाही हुई तो वे ही व्यक्ति कहने लगे- 'गुरुदेव! यदि आपकी बात हम पहले मान लेते तो यह मुसीबत क्यों आती?' इसी प्रकार सन् १९६५ में गुरुदेव ने समाज को चेतावनी देते हुए सजग किया कि हमें श्रम से नहीं घबराना चाहिए। हमारी संस्कृति हमें पुरुषार्थी एवं परिश्रमी रहने के लिए प्रेरणा देती है। दास-प्रथा को भगवान महावीर ने समाप्त किया। अब नौकर की प्रथा भी शीघ्र ही समाप्त होने वाली है। निकम्मे रहकर नौकरों से काम कराना इस युग में अब सम्भव नहीं है क्योंकि शिक्षा के विकास के साथ आज घरेल नौकरी करके पेट भरने की मनोवृत्ति कम हो रही है। सब अपने मौलिक अधिकारों को समझने लगे हैं। आज प्रत्यक्षतः यह देखा जा रहा है कि नौकर बहुत कम मिलते हैं। जिनके पास नौकर हैं, वे भी भयभीत हैं कि कहीं वे धोखा देकर नं चले जाएं या दूसरे के प्रलोभन में आकर छोड़कर न भाग जाएं। ... गुरुदेव तुलसी सहजयोगी एवं सिद्धपुरुष थे अतः उनके मुख से सहज रूप से निकला शब्द भी उसी रूप में परिणत हो जाता था। ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जो उनकी वासिद्धि के चमत्कार को प्रस्तुत करती हैं। निदर्शन के रूप में कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत किया जा सकता है। सन् १९६० का घटना-प्रसंग है। गुरुदेव आडसर से मुनि सुखलालजी को दर्शन देने हेतु सरदारशहर की ओर विहार कर रहे थे। उस समय तपस्वी मुनिश्री सुखलालजी का अनशन चल रहा था। गुरुदेव ने स्वयंसेवक से पूछा- 'घड़ी में कितने बजे हैं ?' 'सात बजकर इक्कीस मिनिट हुए हैं'- ऐसा स्वयंसेवक ने बतलाया। तभी पूज्य गुरुदेव की वाणी मुखर हुई कि आज काम इक्कीस होगा। पचास कदम आगे चले होंगे कि सामने दाहिनी ओर सांड आता दिखाई दिया। गुरुदेव ने भविष्यवाणी करते हुए Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कहा- 'जाते ही तपस्वी का काम सिद्ध हो जाएगा, ऐसा लगता है।' फूलासर से कुछ आगे चलने पर गुरुदेव के मन में विचार आया कि अभी सरदारशहर से कोई आकर कहेगा कि जल्दी पहुंचे। इस चिन्तन के साथ ही भंवरलालजी दूगड़ आदि श्रावकों ने कहा- 'तपस्वी की स्थिति बड़ी गम्भीर है, आप शीघ्र पधारें।' बीच के पड़ाव को स्थगित कर गुरुदेव तीव्र गति से सरदारशहर पहुंचे। पूज्य गुरुदेव मध्याह्न साढ़े बारह बजे सरदारशहर' पहुंचे। गुरुदेव ने तपस्वी मुनि को दर्शन दिए, गीत गाया और वे प्रयाण कर गए। गुरुदेव की वाणी अक्षरशः सत्य हो गई। . ___योगक्षेम वर्ष का ऐतिहासिक प्रवास। लाडनूं में एक साथ ३०० साधु-साध्वियां आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व-निर्माण एवं प्रज्ञाजागरण के उपायों का प्रशिक्षण ले रहे थे। राजस्थान में प्रायः फाल्गुन में ही धूल भरी आंधियां प्रारम्भ हो जाती हैं पर इस वर्ष चैत्र के प्रथम सप्ताह में गुरुदेव के मुख से सहजतया यह भविष्यवाणी हो गयी कि इस बार अक्षय तृतीया तक लू और आंधी नहीं चलनी चाहिए। गुरुदेव की वासिद्धि का चमत्कार ही मानना चाहिए कि अक्षय-तृतीया तक लू और आंधी नहीं उठी। जैसे ही चतुर्थी का दिन आया आंधी-तूफान ने अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया। मेवाड़-यात्रा का प्रसंग है। अचानक संवाद मिला कि यात्रियों की गाड़ी बीच में कहीं रुक गयी है। बस में बच्चे एवं महिलाएं भी थीं अतः लोगों के मन पर चिन्ता के बादल छाने लगे। लोगों की चिन्तातुर आकृतियों को देखकर गुरुदेव ने दृढतापूर्वक सांत्वना भरे स्वरों में कहा- 'मेरा . विश्वास है कि गाड़ी रुकनी नहीं चाहिए।' १५ मिनिट बाद ही गाड़ी वहां पहुंच गयी। सभी गुरुदेव की इस दूरदृष्टि एवं वाक्सिद्धि पर आश्चर्यचकित थे। पाली चातुर्मास में त्रयोदशी की पूर्व संध्या में आसमान में काली कजरारी घटाएं उमड़ रही थीं। अणुव्रत नगर यात्रियों से भरा था पालीवासी इन घटाओं को देख घबरा उठे क्योंकि यदि वर्षा हुई तो पूरा अणुव्रत नगर पानी से भर जाएगा। फिर यात्री लोग क्या करेंगे? लोगों के धड़कते हृदय को शान्त करते हुए गुरुदेव ने सहज भाव से कहा- 'जिनका निर्वाण Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ साधना की निष्पत्तियां दिवस है, वे स्वयं चिन्ता वहन करेंगे। तुम क्यों चिन्ता करते हो? ऐसा लगा मानो इन शब्दों ने वर्षा को बांध दिया हो। आकाश में बादल मंडराते रहे, गरजते रहे पर बरसे नहीं। इसमें आचार्य भिक्षु के नाम का चमत्कार तो है ही पर गुरुदेव के शब्दों का चमत्कार भी कम नहीं है। गुरुदेव के मुख से निकली हर बात अधिकांशतया उसी रूप में परिणत हो जाती थी। इस प्रसंग में कुछ घटनाओं का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा। कल्याणमलजी बरड़िया को पारमार्थिक शिक्षण संस्था का पर्याय कहा जा सकता है। उन्होंने अपने खून-पसीने से इस संस्था को सींचा तथा हर मुमुक्षु बहिन का सर्वांगीण मार्गदर्शन किया। जीवन की संध्या में उनके पैर की हड्डी का फैक्चर हो गया। शारीरिक दुर्बलता भी चरम सीमा पर थी। वैसी स्थिति में उनके परिवार वाले उन्हें जयपुर ले जाना चाहते थे। गुरुदेव खाटू विराज रहे थे अत: उनके मानसिक संबल हेतु संस्था के व्यक्ति गुरुदेव का संदेश लेने गए। गुरुदेव के मुख से संदेश में सहजतया निकल गया- 'हम लाडनूं आ रहे हैं और कल्याणमलजी जा रहे हैं।' नियति का संयोग था या गुरुदेव के शब्दों का प्रभाव, जैसे ही गुरुदेव ने लाडनूं में प्रवेश किया, श्रीमान् कल्याणमलजी अन्तिम प्रयाण कर गए। लोग इस घटना पर आश्चर्यचकित थे कि गुरुदेव का सहजता में निकला वाक्य भी किस प्रकार फलीभूत हो गया। सन् १९९६ में लाडनूं का घटना प्रसंग है। पश्चिम रात्रि में गुरुदेव आगमेतर स्वाध्याय के साथ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों के कुछ अध्ययनों का स्वाध्याय अवश्य करते थे। साल में कुछ महीनों की तिथियां स्वाध्याय के लिए वर्जित मानी गई हैं। लाडनूं-प्रवास में वैशाख पूर्णिमा की रात्रि को गुरुदेव ने स्वाध्याय प्रारम्भ किया। आगम-स्वाध्याय से पूर्व गुरुदेव ने फरमाया- 'आज तो आगम की अस्वाध्यायिक है।' पार्श्वस्थित एक मुनि ने जिज्ञासा प्रस्तुत की- 'गुरुदेव आज अस्वाध्यायिक क्यों हैं?' गुरुदेव ने फरमाया- 'आज भाद्रवी पूर्णिमा है।' मुनि ने विनम्रतापूर्वक बद्धांजलि निवेदन किया- 'आज वैशाखी पूर्णिमा है।' वैशाखी पूर्णिमा की बात सुनकर गुरुदेव आगम-स्वाध्याय में तन्मय हो गए लेकिन उस मुनि का मन भाद्रवी पूर्णिमा में अटक गया। उन्होंने अन्य Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी . मुनियों को इस बात की अवगति दी कि आज गुरुदेव के मुख से सहज ही भाद्रवी पूर्णिमा शब्द निकला है अतः ऐसा लगता है कि इस बार लू का अधिक टिकना मुश्किल है क्योंकि कई बार गुरुदेव के मुख से निकले नैसर्गिक वचन के चमत्कार देखे गए हैं। यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ कि कुछ ही दिनों बाद मौसम इतना बदला कि वैशाख और जेठ के महीने में सबको भादवे का अहसास होने लगा। राजस्थान में इतनी वर्षा और ठंडी हवा सबके लिए आश्चर्य का विषय थी पर गुरुदेव को नैसर्गिक वचनसिद्धि प्राप्त थी। इसलिए सहज रूप में प्रकृति ने ज्येष्ठ मास को भाद्रपद में बदल दिया होगा। . गुरुदेव की टेलीपैथी की अनेक घटनाएं हैं, जिनको सुनकर आश्चर्य होता है। गुरुदेव जब किसी को याद करते तो अनेक बार हजारों किलोमीटर की दूरी पर बैठा व्यक्ति अचानक आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता। जब उससे अचानक आने का कारण पूछा जाता तो वह आने का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए यह कहता-'अचानक इच्छा हुई और चला आया।' सरदारशहर के चंदनमलजी बैद ने अनेक बार इस रूप में दर्शन किए। उनकी इस टेलीपैथी की शक्ति से पुरुष ही नहीं, प्रकृति भी प्रभावित होती थी। इस प्रसंग में कुछ घटनाओं का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा। ____परमाराध्य गुरुदेव अहिंसा समवसरण में उत्तराभिमुख विराजमान थे। गुरुदेव ने चिन्तन किया कि बचपन में उत्तर दिशा में उठती काली कजरारी घटाएं बहुत देखने को मिलती थीं। किन्तु इन वर्षों में ऐसी घटाएं नहीं देखीं। ऐसा सोचना ही मानो घटाओं को आह्वान करना था। कुछ समय बाद ही उत्तर दिशा में काली कजरारी घटाएं उमड़ पड़ीं। यह घटना उनके कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं कामकुंभ रूप मन की स्थिति का दिग्दर्शन करवा रही है। दक्षिण-यात्रा का प्रसंग है। गुरुदेव मंदामारी से कुछ ही आगे चले होंगे कि आकाश में एक बादल उठा और बड़ी-बड़ी बूंदे फेंकने लगा। यह असमय की वर्षा सबको भिगो रही थी। बूंदें शुरू होते ही गुरुदेव के मुख से निकला- 'समय पर बरसे तो जल और असमय पर बरसे तो जड़।' प्रकृति इस व्यंग्य को सह नहीं सकी। वह तत्काल संभली और बूंदें बंद हो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ साधना की निष्पत्तियां गईं। यह एक संयोग था कि जड़ शब्द का उच्चारण करते ही बादल ने बूंदें फेंकनी बन्द कर दीं। 44 गुरुदेव लाडनूं से दक्षिण यात्रा हेतु प्रस्थान कर रहे थे । इस लम्बी यात्रा की सफलता हेतु चतुर्विध धर्मसंघ ने मंगल कामनाएं अर्पित कीं । गुरुदेव ने अपने विदाई - संदेश में कहा- 'आज मैं यहां से एक लम्बी यात्रा के लिए विदा हो रहा हूं। यात्रा की सफलता तो निश्चित ही है। इसमें कोई संदेह की आवश्यकता नहीं है। बहुत सी बाधाएं हमारे मार्ग में आएंगी। अच्छे काम में बाधाएं सदा विघ्न डालती ही हैं। हमें उनसे डरना नहीं है, उन्हें कुचलकर आगे बढ़ना है।" इस उद्बोधन से स्पष्ट है कि गुरुदेव के अवचेतन मन में रायपुर का घटनाकांड पहले ही तैर गया था । अग्निपरीक्षा का वह तीव्र विरोध उनकी पैनी दृष्टि ने पहले ही भांप लिया था । आचार्य तुलसी ऐसे व्यक्तित्व का नाम था, जो वर्तमान में जीते थे पर भविष्य पर अपनी गहरी नजरें टिकाएं रखते थे । वे ज्योतिषी की भांति भविष्यवाणियां नहीं करते और न ही उन पर अतिविश्वास करते थे । वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते थे - "मैं न तो भविष्यवक्ता हूं और न बनना चाहता हूं । किन्तु वस्तुस्थिति का व्याख्याता बनने में कोई कठिनाई नहीं है। दूरदर्शिता के फलस्वरूप आने वाले युग की विचारकिरणें गुरुदेव की पारदर्शी आंखें पहले की पढ़ लेती थीं । उन विचार - किरणों की कुछ झलक यहां प्रस्तुत की जा रही है १. 'जिस दिन विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वय होगा, वह दिन विश्व के लिए सुखद होगा। मुझे विश्वास है कि वह दिन जल्दी ही आएगा।' (१४ सितम्बर, १९६९ ) । ज्ञात रहे आचार्यश्री ने योगक्षेम वर्ष से आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व-निर्माण करने का प्रयास प्रारम्भ भी कर दिया था । २. 'आज नहीं तो कल या परसों शिक्षा की पूर्णता के लिए धर्म या आध्यात्मिक प्रशिक्षण को शिक्षा के साथ संयुक्त करना होगा ।' (२५.७.१९६२) इस भविष्यवाणी का फलित ही है कि आज हमारे समक्ष जीवन-विज्ञान की योजना है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३. 'मुझे लगता है कि आज वैज्ञानिक युग में आडम्बरप्रधान धर्मों का चलना बहुत कठिन है। आज के युग में तो वे ही धर्म चल सकेंगे, जो मनुष्य के जीवन-व्यवहार को शुद्ध करते हैं।' (७ सितम्बर, १९६८) ४. 'जैन विश्व भारती समाज की कामधेनु है। यहां पर धर्म और दर्शन का उच्चतर अध्ययन होगा और जैन-दर्शन पर शोधकार्य चलेंगे।'(जैन भारती १६ मई, १९७१)" उनका यह आभास २० वर्षों के अन्तराल में ' जैन विश्व भारती संस्थान के रूप में फलित हुआ है। ५. आज के हालात को देखते हुए इक्कीसवीं सदी के किशोर और अधिक संस्कारहीन एवं उद्दण्ड होंगे।' यह बात आज हस्तामलकवत् स्पष्ट देखी जा रही है। ६. 'आज जो जीवनशुद्धि के लिए अणुव्रत आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है, आगे चलकर सम्भव है कि वह अणुव्रत-दर्शन के रूप में व्यवस्थित दर्शन का रूप ले ले और अणुव्रत की नींव पर अहिंसक समाज की रचना तो बहुत सम्भव है।' (जैन भारती १५ अक्टूबर, १९५३) आज यूनिवर्सिटी एवं महाविद्यालयों में अणुव्रत-दर्शन व्यवस्थित रूप से पढ़ाया जा रहा है। ___७. सन् १९५० में भाईजी महाराज के साथ गुरुदेव ने मंत्री मुनि को अपना संदेश भिजवाया। उस संदेश की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं'मंत्रीमुने! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि एक बहुत बड़ी जाति होने वाली है।....मेरी मनोभावना इतनी तीव्र हो रही है कि युगप्रवर्तक भिक्षु द्वारा दिखाई गयी राह पर चलकर हम इतना आगे बढ़ सकते हैं, जिसकी कल्पना तक नहीं हो सकती। इतने वर्ष पूर्व किसने सोचा था कि वे 'इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार' से पुरस्कृत होंगे पर गुरुदेव के पारदर्शी व्यक्तित्व ने इसका अहसास पहले ही कर लिया था। ८. "वह दिन आने वाला है जबकि बल से उकताई हुई दुनिया आपसे (भारत से) अहिंसा और शांति की भीख मांगेगी।" (१९५०, नई दिल्ली)। ९. "मुझे विश्वास है कि दिल्ली की इस उर्वर भूमि में हम जो बीज बोयेंगे, वे बीज राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र तक फैलेंगे, बहुत काम होगा। लोग पुनः कहेंगे कि भारत अध्यात्मप्रधान देश है।" (जुलाई १९७०, दिल्ली)। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां गुरुदेव तुलसी भविष्यद्रष्टा थे, यह बात मानवजाति के लिए दिये गये उनके अवदानों से जानी जा सकती है। दिव्यदर्शन या भविष्यदर्शन के आधार पर किए गए उनके सभी कार्यों का चर्मचक्षुओं द्वारा भरपूर विरोध हुआ क्योंकि जो केवल वर्तमान को देखते हैं, वे भविष्य में होने वाली घटना को स्वीकार करने का साहस नहीं रख पाते। वे तो केवल अतीत और वर्तमान का अनुसरण करते हैं पर नया आविष्कार भविष्यदर्शन की क्षमता से ही संभव है । यही कारण है कि गुरुदेव हमेशा नई लकीरें खींचने का साहस करते रहे। चाहे वह नया मोड़ हो या अणुव्रत, चाहे वह मुमुक्षु श्रेणी की स्थापना हो या समणदीक्षा की परिकल्पना- इन सब अभियानों का प्रारम्भ विरोध से हुआ पर परिणति में सभी ने उनकी दूरदर्शिता का लोहा माना और मुक्त कण्ठ से उनके अवदानों की प्रशंसा की। ३४३ एक महान् साधक में उपर्युक्त क्षमताओं, विशेषताओं का पाया जाना स्वाभाविक है। ये असाधारण क्षमताएं ही महापुरुषों को सामान्य से ऊंचा एवं विशिष्ट बनाती हैं अतः हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनमें कहीं कुछ विशेष था, जो सबमें नहीं होता । अतीन्द्रिय चेतना की रश्मियों से आवेष्टित आभावलय असंभव को संभव बनाता है, कठिन को सरल बनाता है, अज्ञात को ज्ञात करता है और अप्राप्त को प्राप्त करता है। पूज्य गुरुदेव की निर्मल साधना के प्रभाव से उनकी चेतना के केन्द्र और परिधि में अतीन्द्रिय रश्मियों का दिव्य प्रकाश प्रकट हो गया था । उनकी जागृत चेतना का प्रभाव जन-साधारण के लिए चमत्कार हो सकता है पर गुरुदेव तुलसी के लिए यह सब सहज था । उपसंहार पूज्य गुरुदेव की साधना गिरि-कंदरा में बैठे किसी योगी की साधना नहीं अपितु व्यावहारिक एवं परिस्थितियों में अप्रभावित रहने की साधना थी । वे जीवन के हर उतार-चढ़ाव में स्थितप्रज्ञ बने रहे, इसलिए अध्यात्म उनके जीवन से मुखर होकर प्राणवान् बन गया। महात्मा गांधी कहते थे कि सच्चा साधक वही है, जो विपरीत परिस्थितियों में चट्टान की भांति अडिग रहे । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी प्रकृति एवं पुरुष के हर विरोध को विनोद मानकर सहते रहे, यह उनकी साधना का सर्वाधिक उज्ज्वल पक्ष था । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३४४ भगवान् महावीर के आत्मकर्तृत्व के सिद्धान्त को गुरुदेव ने अपने जीवन में जीवन्त करके दिखाया। "णो णीहेज वीरियं, परक्कमियव्वं" जैसे आगम-सूक्तों से सबमें नवप्राणों का संचार करना उनका नित्य का क्रम था। उनकी दृष्टि में जीवन लकड़ी नहीं, जिसके निर्माण के लिये किसी बढ़ई की आवश्यकता हो, जीवन पत्थर नहीं, जिसे घड़ने के लिए कारीगर की जरूरत हो, जीवन कागज भी नहीं, जिसे सजाने के लिए चित्रकार की अपेक्षा हो, लकड़ी, पत्थर और कागज जड़ वस्तुएं हैं। जीवन में चैतन्य होता है, उसका निर्माण स्वयं मनुष्य को करना है। पूज्य गुरुदेव का जागृत पौरुष किसी भी उपलब्धि को असंभव मानने को तैयार नहीं था। ये पंक्तियां उनके अतुल आत्मविश्वास एवं आत्मबल की मुखर अभिव्यक्तियां हैं *"कहा जाता है कि आज केवलज्ञान नहीं हो सकता। मनःपर्यव ज्ञान नहीं हो सकता। पूर्वो का ज्ञान नहीं हो सकता। क्षपक श्रेणी नहीं ली जा सकती। क्यों? मेरे अभिमत से यह मान लेना सबसे बड़ी दुर्बलता है। वर्तमान में उतनी उत्कृष्ट साधना की जाए तो इन उपलब्धियों को कौन रोक सकता है?" *"जब तक आपके सिर पर कलियुग का भूत सवार रहेगा, तब तक आप सत्य को सही रूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे। इसलिए आप यही सोचकर चलें कि अभी सतयुग है और हमें अभी सत्य की साधना करनी है।" यह आशावादिता, उत्साह और प्रबल पुरुषार्थ ही उन्हें हर क्षण तारुण्य की अनुभूति कराता रहता था तथा दूसरों में आत्मविश्वास का दीप प्रज्वलित करता रहता था। काव्य की पंक्तियों में भी उनकी असीम आत्मशक्ति एवं आत्मविश्वास समय-समय पर अभिव्यक्त होता रहता था- . जब स्वयं का सत्य ही धुव सत्यपथ अविवाद है, जब स्वयं की साधना में प्राप्त परमाह्लाद है। जब स्वयं के नेत्र सक्षम दिव्य दृश्य निहारने, तो भला क्यों किसलिए हम परमुखापेक्षी बनें। आचार्य तुलसी व्यक्ति नहीं, मूर्तिमान विचार थे। सिद्धान्त नहीं, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की निष्पत्तियां साधना थे। वे जड़कर्म नहीं, चेतन पुरुषार्थ थे। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को अध्यात्म की प्रयोगशाला बनाया था । उनका संवाद, चिंतन और कर्म सत्य की साधना से जुड़ा था। इसीलिए उनके जीए गए संदर्भों में पारदर्शिता के साथ सन्तता झांकती थी । उनका विश्वास उपदेश में नहीं, आचरण में था। उनका सम्पूर्ण वाड्मय अध्यात्म की गीता बनकर हम सबको संबोध दे रहा है। उनकी करुणा से भीगी चेतना ने जो कुछ पाया, उसे सिर्फ बटोरा ही नहीं अपितु सबके आत्म-कल्याणार्थ हर पल सबमें बांटा भी । ३४५ 1 गुरुदेव तुलसी इस सदी के अध्यात्म- प्रयोक्ता संत थे । उनका सधा हुआ मन, निष्कामकर्म, दूरदर्शी सोच स्वयं में एक अंत:प्रेरणा थी । वे भीड़ में भी अकेले रहते थे और अकेले में भी सबके कल्याण की बात सोचते थे। उनकी अध्यात्मचेतना ने उन सबको जगाया था, जो धूप चढ़ जाने के बाद भी सिर्फ यह सोचकर सोए रहते हैं कि अभी दस्तक तो किसी ने दी ही नहीं । गुरुदेव तुलसी प्रवक्ता थे, अनुभवों की भाषा में जीया गया सत्य बोलते थे । वे प्रचारक थे, स्वस्थ समाज की संरचना में विश्वास रखते थे । वे अनुशास्ता थे, व्यक्ति में नहीं, अनुशासन, मर्यादा और संयम में आत्मविकास की स्वतंत्रता देखते थे। पूज्य गुरुदेव में बालक सी सहजता, युवा सी ऊर्जा, प्रौढ़ सी चिन्तनप्रवणता और वृद्ध सी अनुभवशीलता थी इसीलिए वे जहां होते थे, उनकी साधना स्वयं सुरक्षा कवच बन जाती थी, बुराइयों का तमस कभी उनके आस-पास प्रवेश नहीं पा सकता था । . अनेक परिदृश्यों में गुरुदेव के जीवन की समीक्षा इस बात साक्षी है कि वे निर्विशेषण संत थे । अध्यात्म उनका साध्य था, अध्यात्मपथ पर संचरण ही उनकी साधना थी । ऐसे साधना के शलाकापुरुष को कोटिशः नमन । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची १. अंगुत्तरनिकाय (पालि प्रकाशन मंडल, बिहार) २. अणुव्रत (पाक्षिक) . ३. अणुव्रत के आलोक में-(आदर्श साहित्य संघ, द्वितीय सं. १९८६) . ४. अमरित बरसा अरावली में-(आदर्श साहित्य संघ, चूरू प्रथम सं., १९८९) ५. अर्हत् वाणी-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९९६) ६. आचार्य तुलसी के पत्र भाग-१-३-(आदर्श साहित्य संघ) ७. आचार्य तुलसी के संदेश भाग-१-३-(आदर्श साहित्य संघ) ८. आचार्यश्री तुलसी (जीवन पर एक दृष्टि)-(आदर्श साहित्य संघ) ९. आचार्यश्री तुलसी अभिनंदन ग्रंथ-(श्री जैन श्वे. तेरापंथी महासभा) १०. आयारो-(जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्रथम सं. वि. सं. २०३१) ११. इतस्ततः--(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं.,१९८८) १२. ऋग्वेद-(मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) १३. एक बंद : एक सागर-(जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्रथम सं. १९९१) १४. खोए सो पाए-(आदर्श साहित्य संघ, तृतीय सं. १९६५) १५. गीता-(गीता प्रेस, गोरखपुर) १६. घर का रास्ता-(जैन विश्व भारती, लाडनूं प्रथम सं. १९९३) १७. चेतना का आकाश: अध्यात्म का सूर्य (आदर्श साहित्य संघ, - चूरू) - १८. चेतना का ऊर्ध्वारोहण-(आदर्श साहित्य संघ, चूरू) १९. जब जागे तभी सवेरा-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं., १९९०) २०. जब महक उठी मरुधर माटी-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं., १९८४) Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ साधना की निष्पत्तियां २१. जाघरआए संत पाहुने-(आदर्श साहित्य संघ, द्वितीय सं., १९९५) २२. जीवन की सार्थक दिशाएं-(आदर्श साहित्य संघ, द्वितीय सं. १९९२) २३. जो सुख में सुमिरन करे-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं.) २४. जैन भारती (पत्रिका)-(श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी, महासभा) २५. ज्योति जलती रहे-(चंदनराज मेहता, जोधपुर) २६. ज्योति जले : मुक्ति मिले-(जैन विश्व भारती, लाडनूं) . २७. दशवैकालिक जिनदास चूर्णि-(ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् १९३३) २८. दीए से दीया जले-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९९५) २९. दीया जले अगम का-(वही, प्रथम सं. १९९१) ३०. धर्मचक्र का प्रवर्त्तन-(अमृत महोत्सव, राष्ट्रीय समिति, प्रथम सं., १९८६) ३१. नया समाज : नया दर्शन-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं., १९९६) ३२. नैतिक संजीवन-(आत्माराम एंड संस, दिल्ली) ३३. पदचिह्न-(आदर्श साहित्य संघ) . ३४. आत्मा के आसपास-(आदर्श साहित्य संघ, चूरू) ३५. परस पांव मुसकाई घाटी-(आदर्श साहित्य संघ) ३६. पांव पांव चलने वाला सूरज-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. ___ १९८२) ३७. पातञ्जल सूत्रम् (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ३८. प्रवचन पाथेय भाग ९ -(जैन विश्व भारती, लाडन, द्वितीय सं. . १९९०) ३९. प्रश्न व्याकरण-(जैन विश्व भारती, लाडनूं) ४०. प्रेक्षाः अनुप्रेक्षा-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं.१९८३) ४१. बहता पानी निरमला-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९८५) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ४२. बीती ताहि विसारि दे-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं.) ४३. मनहंसा मोती चुगे-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं.१९९२) - ४४. महात्मा गांधी (सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड ४०) ४५. मुखड़ा क्या देखेदरपन में-(आदर्श साहित्य संघ, तृतीय सं. १९९२) ४६. मेरा जीवन : मेरा दर्शन-(आदर्श साहित्य संघ) ४७. मेरा धर्मः केन्द्र और परिधि-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९८८) ४८. लघुता से प्रभुता मिले-(आदर्श साहित्य संघ, द्वितीय सं. १९९१) - ४९. विज्ञप्ति (साप्ताहिक)-(आदर्श साहित्य संघ, चूरू) . ५०. विवेकानंद साहित्य खंड ३-(अद्वैत आश्रम, ५ डिही एण्टाली .. रोड कलकत्ता १४, तृतीय सं. १९८१) ५१. सफर:आधी शताब्दी का-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९९१) ५२. सार्थकता संवाद की-(आदर्श साहित्य संघ) ५३. हस्ताक्षर-(आदर्श साहित्य संघ, प्रथम सं. १९८७) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणी कुसुमप्रज्ञा जन्म : सन् 1959, इन्दौर दीक्षा : सन् 1980, लाडनूं शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी. । आगम- सम्पादन : एकार्थक कोश व्यवहार भाष्य नियुक्ति पंचक व्यवहार नियुक्ति आवश्यक निर्युक्ति खण्ड-1 आवश्यक निर्युक्ति की कथाएं पिण्डनिर्युक्ति जीतकल्प सभाष्य देशी शब्दकोश (सह-संपादन) । साहित्य-सृजन एवं सम्पादन : साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आचार्य तुलसी की साहित्य-सम्पदा आचार्य तुलसी का अध्यापन कौशल (अप्रकाशित) आचार्य तुलसी का काव्य-वैभव आरोहण - उपन्यास (अप्रकाशित ) अर्हत् प्रज्ञप्ति (अप्रकाशित ) उपलब्धियाँ : 31 सालों से आगम-सम्पादन के कार्य में संलग्न तथा अनेक राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय सेमीनारों में पत्र - वाचन । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- _