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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२३० में जहां तक संभव हो गुरुदेव प्राकृतिक चिकित्सा को ही प्राथमिकता देते थे। दक्षिण यात्रा के दौरान अतिश्रम के कारण गुरुदेव ज्वर से आक्रान्त हो गए। डॉक्टर और वैद्यों ने दवा के लिए अनुरोध किया। उनकी प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए गुरुदेव ने उपवास कर लिया। दूसरे दिन साधारण पेय पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिया। परिणामतः ज्वर से मुक्ति मिल गयी।
पूज्य गुरुदेव अपने संघ में भी सहजता का प्रायोगिक प्रशिक्षण देना चाहते थे। प्रशिक्षण के क्रम में कभी वे अपने जीवन से प्रतिबोध देते तो कभी मौखिक रूप से। वे किसी घटना प्रसंग से भी शिक्षण देते थे। एक बार बाल साधुओं को संबोध देते हुए उन्होंने कहा- 'ध्यान आदि साधना प्रयत्नजन्य है, उसे सब कर सकें या नहीं, पर गति को तो सब जानते हैं। उसमें इतना तन्मय बन जाओ कि तुम स्वयं गति बन जाओ।'
डालमिया नगर से विहार के दौरान एक कुत्ता गुरुदेव के साथ हो गया। लोगों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि यह कुत्ता बहुत निश्चिंत है। सहज भाव से कोई रोटी देता है तो खा लेता है और नहीं देता तो झपटता नहीं, भूखा ही बैठा रहता है। इसके प्रति सहज ही लोगों की इतनी सहानुभूति जाग गयी है कि न जाने कहां-कहां से दूध और रोटी का ढेर लग जाता है। यह ताजी रोटी नहीं खाता इसलिए यहां के ठाकर ने अनेक रोटियां सखा रखी हैं। अनेक लोग इसके लिए दूध के रुपये दे जाते हैं। यह इतना मस्त है कि भूख होती है तो दूध पीता है, अन्यथा नहीं। इस घटना प्रसंग को सुनकर पूज्य गुरुदेव ने सहजता की प्रेरणा देते हुए कहा- 'जो प्राणी निश्चिंत और सहज होता है उसके लिए प्रायः किसी चीज की कमी नहीं रहती। पर कमी यही है कि व्यक्ति इतना निश्चिंत नहीं रह पाता। जीवन में यदि सहजता का अवतरण हो जाए तो परिस्थितियां भी अपने आप अनुकूल बन जाती हैं।'
मालवा यात्रा के दौरान उज्जैन में एक मैनेजर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुआ। उसने गुरुचरणों में अपनी व्यथा प्रस्तुत करते हुए कहा'मैं जब भजन या प्रार्थना करने बैठता हूं, तब कुछ समय स्थिर होता हूं फिर मन उचट जाता है। जबरदस्ती मन को खींचकर एकाग्र रखने का प्रयत्न