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साधना की निष्पत्तियां
करता हूं पर अभी तक सफलता हासिल नहीं हुई। अब आप ही कुछ मार्गदर्शन दिखाएं।' गुरुदेव ने उसको समाहित करते हुए कहा- "सहजता में विश्वास रखो। मन के साथ जबरदस्ती क्यों करते हो? क्या मन को साधने का एक ही तरीका है ? तपस्या, स्वाध्याय, जप, सेवा आदि अनेक प्रक्रियाएं हैं, जो मन को एकाग्र बनाती हैं। किसी का मन सेवा या स्वाध्याय में लगता है, वह यदि उसे तपस्या में लगाता है तो उसका परिश्रम सफल नहीं होता। आप भी हर क्रिया में सहजता, विवेक-जागृति और संयम को महत्त्व दें। आपका जीवन शांत और पवित्र बन जाएगा।" मैनेजर को समस्या का समाधान मिल गया।
. सहज साधक बाहर और भीतर से एक रूप होता है। उसकी कथनी और करनी में द्वैध नहीं होता। गुरुदेव ने अपने जीवन में कथनी और करनी की एकरूपता को साधने का प्रयत्न किया। वे मानते थे कि सोचने और करने में जब तक एकात्मकता नहीं होती, न आत्म साक्षात्कार हो सकता है और न ही दूसरा काम सिद्ध हो सकता है।" सहजता के कारण वे अपनी हर मानसिक स्थिति को एक बच्चे की भांति प्रकट कर देते थे। उनके जीवन के सैकड़ों घटना प्रसंग आज उनकी महानता के प्रतीक बन गए हैं। वि. सं. १९९८ का चातुर्मास राजलदेसर में घोषित था। विहार के दौरान पूज्य गुरुदेव चाड़वास में विराज रहे थे। उन दिनों गुरुदेव संतों को स्याद्वाद मंजरी का अध्यापन करवाते थे। आचार्य मल्लिषेण ने व्याख्या के दौरान एक बात लिखी कि गुरु का उपदेश कितना ही हितकर और लाभकारी क्यों न हो, वह अभव्य के कानों में वैसे ही खटकता है, जैसे कान में गया हुआ शुद्ध जल कर्णशूल बनकर कष्ट देता है। गुरुदेव का मन आचार्य की इस बात पर अटक गया कि कान में गया पानी शूल का काम कैसे कर सकता है?
तीसरे दिन गुरुदेव ने मुंह का लुंचन करवाया। सफाई करते हुए थोड़ा पानी कान में चला गया। बचपन में गुरुदेव का एक कान क्षतिग्रस्त हो गया था, उसी में पानी चला गया। थोड़ी देर में वह शूल की भांति खटकने लगा। सुनने में कठिनाई होने के साथ उनके मुंह का स्वाद भी बदल गया। पानी का प्रतिकूल प्रभाव देखकर गुरुदेव ने चिंतन किया"परसों स्याद्वादमंजरी में जो बात पढ़ी, उसके प्रति अवज्ञा का भाव आ