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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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गया था संभवतः यह उसी का फल है। ज्ञान के प्रति अविश्वास या अवज्ञा का फल मुझे दीर्घकाल तक भोगना पड़ा । " गुरुदेव की सहजता और सरलता ने तत्काल अपनी सूक्ष्म मानसिक अवज्ञा को भी पहचान लिया और उससे एक प्रतिबोध ले लिया।
व्यवहार में अपने-पराए की भेदरेखा खींचने वाला साधक अपनी सहजता को खो देता है । पूज्य गुरुदेव का 'स्व' पर ' मैं इतना आत्मसात् हो चुका था कि उन्हें कभी 'पर' की अनुभूति हुई ही नहीं। उनका सुख-दुःख भी इतना विराट् हो गया था कि व्यक्तिगत सुख-दुःख की बात गौण हो गई थी । सहिष्णुता
" जो चोटों को नहीं सह सकता, वह प्रतिमा नहीं बन सकता । हम सहन करें, हमारा जीवन एक लयात्मक संगीत बन जाएगा' – पूज्य गुरुदेव की यह आर्षवाणी जीवन - विकास की अमूल्य थाती है। सहनशीलता साधना की प्रथम एवं अंतिम सीढ़ी है। साधनाकाल में आए कष्टों को सहन नहीं करना लक्ष्य से विमुख होना है। जिस व्यक्ति में कष्ट सहने की क्षमता नहीं होती, वह साधारण लक्ष्य को भी नहीं पा सकता, महान् लक्ष्य तो बहुत दूर की बात है । यदि साधक परवशता से सहन करता है तो कुण्ठा आदि मानसिक विकृतियां उभर सकती हैं। स्ववशता से सहने वाला साधक शक्ति को बढ़ाता हुआ प्रत्येक परिस्थिति को अपनी साधना का अंग मानकर सहन करता है और उससे प्राप्त होने वाले आनन्द का अनुभव करता है। इस तथ्य को पूज्य गुरुदेव ने इस रूपक से प्रकट किया है" दीपक से प्रकाशित होने की चाह सबमें रहती है किन्तु तिल-तिल दीपक को जलना पड़ता है। जलना दीपक का धर्म है, उसी प्रकार सहना साधक का आत्मधर्म है। सहना दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए हितकर है। इस सिद्धान्त में विश्वास रखने वाला साधक हर परिस्थिति को सहने की मानसिकता बना लेता है । "
पूज्य गुरुदेव ने उपदेश एवं प्रवचन के माध्यम से ही नहीं, अपितु अपने जीवन से सहनशीलता का जागृत सन्देश दिया। जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों एवं परिस्थितियों में उन्होंने अपनी सहिष्णुता को अक्षुण्ण रखा था क्योंकि सहिष्णुता को वे आत्मधर्म मानते थे । प्रबल विरोध की