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साधना की निष्पत्तियां
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विहार के दौरान गुरुदेव ढाबधाम गांव पधारे। ढाबधाम गांव में चार- पांच घरों की ही बस्ती थी । २० फुट लम्बे और सात फुट चौड़े एक कमरे में गुरुदेव का विराजना हुआ। गोबर से लिपे छोटे से कमरे में भी गुरुदेव का मुखारविंद अलौकिक प्रसन्नता से दीप्त हो रहा था । एक साधु के मुख से सहसा निकल पड़ा कि स्थान बहुत छोटा है, ठीक से बैठने की जगह भी नहीं है। यह बात गुरुदेव के कानों में भी पड़ गई। गुरुदेव ने इसका प्रतिकार करते हुए कहा- " आचार्य भिक्षु को प्रथम निवास के लिए जो स्थान मिला था, क्या यह उससे छोटा है ? साधु जीवन में सहज रूप से जो कुछ मिले, उसी में आनंद मनाना चाहिए । इस प्रतिबोध ने सबकी चेतना को झंकृत कर दिया। अब वह संकीर्ण स्थान भी सबको बड़ा और सुविधाजनक नजर आने लगा । इन्दौर निवासी गृहस्थयोगी नेमीचंदजी मोदी की ये पंक्तियां गुरुदेव के जीवन में मूर्तिमान् दिखाई पड़ती थींसहजे - सहजे सहजानंद, अन्तर्दृष्टि परमानंद । जहां देखूं तहां आत्मानंद, सहजे छूटे विषयानंद ॥ 'कृत्रिमता में मेरा किंचित् भी आकर्षण नहीं है। मैं प्रकृति का उपासक हूं । प्रकृति से मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है' - पूज्य गुरुदेव के इस अनुभव से स्पष्ट है कि सहजता प्रकृति में जीने वालों को ही उपलब्ध हो सकती है। कृत्रिम जीवन जीने वाला प्रकृति का आनंद नहीं ले सकता । गुरुदेव को प्रकृति से प्रेम था । आज के यांत्रिकीकरण के युग में मानव की कृत्रिम दिनचर्या को देखकर उनका बेचैन मन कह उठा- 'आदमी जितना प्रबुद्ध और सम्पन्न होता जा रहा है, प्रकृति में जीने की आदत बदल रहा है। न वह प्राकृतिक हवा में सोता है, न प्राकृतिक ईंधन से बना खाना खाता है, न प्रकृति के साथ क्रीड़ा करता है। शायद इसी कारण प्रकृति अपने तेवर बदल रही है और मनुष्य को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है।'
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एक बार आचार्य महाप्रज्ञजी के समक्ष अपनी मनोभावना प्रकट करते हुए गुरुदेव ने कहा- "हम कुछ लेट हो गए। यदि प्रारंभ से ही प्राकृतिक जीवन जीते तो शतजीवी बनते । खैर 'जब जागे तभी सवेरा'जब से हमें ज्ञान हुआ, हमारा दृष्टिकोण बदल गया । अस्वास्थ्य की अवस्था