SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २२८ में प्रकट करते थे- "बहुत बार सोचता हूं कि साधना करनी ही न पड़े वह सहज हो जाए, यह स्थिति सुन्दर है।" इसी संकल्प की फलश्रुति है कि उनकी किसी क्रिया एवं व्यवहार में कृत्रिमता या औपचारिकता नहीं झलकती थी। उन्हें अनुकूलता मिलती थी तो निस्पृह भाव से उसका उपयोग कर लेते, प्रतिकूलता आती तो बिना द्वेष के उसे सहन कर लेते। साधकों को भी वे यही प्रतिबोध देते- "सुखद और दुःखद जो भी स्थिति सामने आए, उसे स्वीकार करें। कभी हर्ष और कभी विषाद न करें। सहज रहें। कोई भी स्थिति आपको प्रभावित नहीं कर पाएगी।" कलकत्ता यात्रा के दौरान एक गांव में पट्ट आदि की व्यवस्था नहीं होने के कारण संतों ने अवसाद व्यक्त करते हुए कहा- 'आज पट्ट की व्यवस्था नहीं हो पाई है।' गुरुदेव ने तत्काल सामने वाले शिलाखंड की ओर इशारा करते हुए कहा- 'अरे! प्राकृतिक पट्ट विद्यमान है, फिर कृत्रिम पट्ट की क्या आवश्यकता है? प्राकृतिक वस्तुओं में जो आनंद मिलता है, वह कृत्रिम में कहां है?' एक बार भयंकर गर्मी का मौसम था। रात को प्रायः हवा ने कायोत्सर्ग का अभ्यास कर लिया। गर्मी के कारण रात में गुरुदेव को बेचैनी महसूस होने लगी। पूज्य गुरुदेव पट्ट से उतरे और नीचे दरवाजे के सामने सो गए। सवेरे संतों ने पूज्य गुरुदेव को जमीन पर शयन करते देख आश्चर्य किया। सभी संत अनुताप का अनुभव कर रहे थे कि हमें ज्ञात ही नहीं हुआ कि गुरुदेव कब बिछौने को उठाकर स्वयं ही नीचे पधार गए। संतों के मानसिक विषाद को हल्का करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया- "जीवन में सहजता होनी चाहिए। आचार्य से पूर्व मैं स्वयं को साधु मानता हूं। वैसे तो मुझे कभी काम पड़ता ही नहीं लेकिन मौका मिलने पर स्वावलम्बन और निर्जरा के अवसर को नहीं चूकना चाहिए।" सहजता हर स्थिति में व्यक्ति को व्यवस्थित एवं संतुलित रखती है। यदि सहजता नहीं है तो थोड़ी सी कमी भी व्यक्ति को उद्वेलित कर देती है, सहज वृत्ति होने के कारण गुरुदेव प्रकृति में होने वाली हर घटना को अच्छे रूप में ग्रहण करते थे। उनकी प्रसन्नता बाह्य निमित्तों से प्रभावित होकर विषण्णता में परिणत नहीं होती थी। सन् १९५९ का घटना प्रसंग है।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy