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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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मैं कथनी और करनी की समानता में विश्वास करता हूं । कथनी और करनी में समानता नहीं है, यह वर्तमान युग की बहुत बड़ी समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिये आवश्यक मानता हूं कि यह समस्या मिटे | मैं सहिष्णुता में विश्वास करता हूं। मनुष्य एक-दूसरे के अस्तित्व को सहन नहीं कर पा रहा है, यह विकट समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिये आवश्यक मानता हूं कि यह असहिष्णुता मिटे ।
*मैं समस्या के समाधान के लिए अहिंसा के विकल्प को सर्वश्रेष्ठ मानता हूं । समस्या को सुलझाने के लिए आज हिंसा के विकल्प को प्राथमिकता दी जा रही है, यह बहुत बड़ी समस्या है। मैं अनुशासन को इसलिए आवश्यक मानता हूं कि अहिंसा के विकल्प को प्राथमिकता मिले तथा संतुलन, सहअस्तित्व और सापेक्षता का मूल्य प्रस्थापित हो ।"
महापुरुषों का जीवन संकल्प और आस्था की धुरी पर चलता है। वे अपने जीवन के प्रांगण में सद्संकल्पों की अल्पनाएं सजाते हैं और आस्था के नये-नये स्वस्तिक रचते रहते हैं । पूज्य गुरुदेव अपनी सफलता एवं दृढ़ता का राज बताते हुए कहते थे कि मेरा हर प्रयत्न भीतरी संकल्प के साथ होता है इसलिए उसकी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं होता । पूज्य गुरुदेव ने अपनी दृढ़ संकल्पनिष्ठा से इस बात को सिद्ध किया था कि सुख-सुविधाएं मिलें या नहीं पर प्रबल पुरुषार्थ सदैव सफल होता है। पूज्य गुरुदेव की यह दृढ़ संकल्प - निष्ठा जीवन-रण से हारे, हताश एवं निराश व्यक्ति में एक नया आत्मविश्वास भरने वाली है ।
प्रदीप्त पौरुष
साधक कभी थकता नहीं, रुकता नहीं यही कारण है कि वह अपने वीर्य का गोपन नहीं करता । " णो णीहेज्ज वीरियं" महावीर की यह आर्ष-वाणी सदैव आचार्य तुलसी के स्मृति पटल पर तैरती रहती थी । प्रखर आत्मबल के कारण उनका पुरुषार्थ सदैव प्रदीप्त रहता था । पूज्य गुरुदेव पौरुष के प्रतीक थे । कर्मयोग को उन्होंने अपनी साधना का माध्यम बनाया था। इस संदर्भ में उनका मंतव्य था- 'मैं जो कर्म करता हूं, वह मेरी मुक्ति का साधन है अतः उसमें मुझे श्रम का अनुभव नहीं होता। लोग