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साधना की निष्पत्तियां
कहते हैं आपको परिश्रम बहुत करना पड़ता है। मैं परिश्रम करता हूं, किन्तु उसमें मुझे थकान नहीं आती क्योंकि जो श्रम मन से किया जाता है, उसमें थकान की अपेक्षा शान्ति अधिक मिलती है। जहां बलात् परिश्रम करना पड़ता है, उसमें हानि की संभावना रहती है ।' अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी के ये विचार उनके फौलादी और कर्मठ व्यक्तित्व के सूचक हैं। पूज्य गुरुदेव के पुरुषार्थी जीवन को देखकर प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- 'आपके श्रम और जनकल्याण की भावना देखकर लगता है सचमुच आप तीर्थंकर परम्परा के संवाहक हैं ।' वर्तमान में ऐसा महसूस होता है कि उनका जनकल्याण एवं सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु आचार्य पद को छोड़ना तीर्थंकरत्व की ओर
प्रयाण करना था ।
आत्मकर्तृत्व की लौ को मंद कर भाग्य के भरोसे बैठना उन्हें पंसद नहीं था । जो लोग मात्र भाग्य भरोसे बैठकर अकर्मण्य जीवन जीते हैं, वे कभी नवनिर्माण का स्वप्न नहीं ले सकते। उनका विश्वास सदैव इस भाषा
बोलता था कि भाग्य की ओर मत देखो, उस पुरुषार्थ की ओर झांको, जो हमारे भाग्य की रचना करता है । यही कारण है कि वे कठोर से कठोर कार्य को अपने मनोबल के आधार पर पूरा कर देते थे । असंभव जैसा शब्द तो कभी उनके मस्तिष्क के दरवाजे को खटखटाता ही नहीं था । उनका मंतव्य था कि पुरुषार्थ वह तत्त्व है, जो कठिन से कठिन और असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को भी सरल और संभव बना देता है। अकर्मण्य लोगों को देखकर गुरुदेव का दिल करुणा से भर जाता था। वे अपने अनुयायियों को बार-बार प्रेरणा देते रहते थे - " व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। कुछ न कर सकने की हीनभावना मन में आना जीवन की सबसे बड़ी असफलता है ।' पदयात्रा के दौरान गुरुदेव एक मंदिर में पधारे। वहां एक पुजारी आया और बोला- 'कृपया मेरा हाथ देखकर बताएं कि जीवन में उन्नति मिलेगी या नहीं ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- 'मैं ज्योतिषी नहीं हूं। मैं तो प्रबल पुरुषार्थवादी हूं। यदि सम्यक् पुरुषार्थ है तो भविष्य कभी बुरा नहीं हो सकता ।' ईश्वर के भरोसे अपने भाग्य को छोड़कर अकर्मण्य या निष्क्रिय बन जाने वाले लोगों की