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________________ ३७ अध्यात्म के प्रयोक्ता अथ होता है, इति नहीं। अथ को इति मानने का ही परिणाम है कि साधक-साधिकाएँ अपने को कृतार्थ मानने लगते हैं। फलस्वरूप प्रगति तो दूर, गति भी अगति हो जाती है और पचासों वर्ष पश्चात् भी वे वहीं खड़े प्रतीत होते हैं, जहाँ कि साधना के प्रथम दिन खड़े थे।' * 'मैं अनेक बार सोचता हूँ कि जीवन में कोई ऐसा परिवर्तन आना चाहिए जो स्वयं मेरे लिये तथा दूसरों के लिये भी प्रेरणादायी हो। केवल ढर्रे का जीवन जीना, यंत्र की तरह निश्चित दिनचर्या का होना किसी भी चिंतनशील व्यक्ति को प्रिय नहीं होता। इस दृष्टि से मैंने अपने जीवन को उत्तरोत्तर संशोधित पाया है।' *'मैं भारतीय जनता से अनुरोध करूँगा कि वह आध्यात्मिकता को पुरानी पुस्तकों में, पुट्ठों में ही बन्द न रखे। उसे जीवन-व्यवहार में उतारने का प्रयत्न करे। जैसे भोजन के भजन मात्र से पेट नहीं भरता है, वैसे ही केवल साधना एवं अध्यात्म के रटन मात्र से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। उसे प्रयोग में उतारना आवश्यक है।' * 'यदि आप बदलना चाहते हैं तो प्रयोग के पीछे पड़ जाओ, पागल हो जाओ, धुन में खो जाओ, अन्यथा बदलाव होना मुश्किल है।' * 'मैं सभी शिविर-साधकों से कहना चाहता हूँ कि आप स्वयं समर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, फिर स्वयं को दुर्बल क्यों बना रहे हैं? आप भूल जाइए इस बात को कि सत्य की खोज हम क्यों करें? उसे तो तीर्थंकरों ने पहले ही खोज लिया। हम क्यों प्रयत्न करें? हमारे पूज्य अर्हतों ने जो कुछ खोजा और पाया, हम तो उसी के सहारे चलते रहेंगे। आप ऐसा सोच सकते हैं किन्तु मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि तीर्थंकरों ने कितना भी खोज लिया हो पर आपकी खोज बाकी है। आपके सामने तो अभी भी सघन तिमिर है। आप प्रयत्न करें, किसी के खोजे हुये सत्य पर रुकें नहीं। वह आपके काम नहीं आएगा। आपको अपने पुरुषार्थ से खोज करनी है। इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि आप स्वयं सत्य खोजें।' ___ आचार्य-पद का विसर्जन उनके जीवन का अनुपम आध्यात्मिक प्रयोग कहा जा सकता है। इस संदर्भ में उनके ये विचार पठनीय हैं * 'मैंने अपने जीवनकाल में आचार्यपद का विसर्जन कर किसी
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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