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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३६ *"तुम्हारी मौन एवं ध्यान-साधना वर्षों से अबाध गति से चल रही है, वह प्रशस्य है। यह साधना मुझे इसलिए पसंद है कि इसमें अकर्मण्यता नहीं है। साधना को कर्म के साथ जोड़ दिया गया है। तपस्या भी साथ-साथ चल रही है। ऐसी साधना हमारे संघ को शक्तिशाली बनाती है। मैं अपनी ओर से तुम्हारी साधना के प्रति पुनः पुनः शुभकामना करता
*"साधु जीवन में उपशम का सबसे बड़ा स्थान है अतः उसकी उपासना होनी चाहिए। जब कभी भी आवेग आए तो 'उवसमेण हणे कोहं' इसका चिन्तन करना चाहिए और आवेग को शांत करते रहना चाहिए। प्राणायाम और संकल्प शक्ति से मन को एकाग्र करने का प्रयास करते रहना चाहिए।"
"लक्ष्य को सफल बनाने में प्रयत्नशील रहो। मन को समाधिस्थ, तन को स्वस्थ एवं वचन को संयत रखो, यही साधना का मार्ग है।" (आचार्य तुलसी के पत्र भाग २ पृ. ३)
कभी-कभी प्रसंग विशेष पर गुरुदेव पत्रों में जप और ध्यान के प्रयोग का निर्देश भी देते रहते थे।"तुम्हारे इकचालीसवें जन्मदिन के उपलक्ष में शुभाशीष। ॐ अ. सि. आ. उ. सा. नमः'-यह सिद्ध मंत्र-जाप तुम्हारे मनोबल को मजबूत बनाएगा। आत्मविश्वास, स्मृति एवं शक्ति को समृद्ध बनाएगा। तुम अपने दृढ़ संकल्प से गंतव्य पथ पर बढ़ती चलो, यही मेरा संदेश है।
. अध्यात्म की जो संपदा उन्हें विरासत में मिली, उसका प्रायोगिक रूप वे अपने धर्मसंघ एवं सम्पूर्ण मानव जाति में साकार देखना चाहते थे। वे किसी साधक पर साधना का कोई प्रयोग थोपते नहीं, प्रत्युत् हार्दिक भाव से हृदयंगम करवा देते थे। इस संदर्भ में उनका मंतव्य था कि मैं अपनी साधना को किसी पर लादना नहीं चाहता इसलिये मुझे कभी निराशा नहीं होती। उनके द्वारा दिये गये प्रतिबोधों की ये झलकियाँ अनेक साधकों को सक्रियता से कुछ प्रयोग करने की प्रेरणा देने वाली हैं
* 'साधु जीवन साधना का जीवन है। साधुत्व स्वीकृति के साथ ही साधना का प्रारम्भ हो जाता है। साधक को याद रहे कि तब साधना का