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अध्यात्म के प्रयोक्ता
अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ साधक ही दूसरों को अध्यात्म की प्रेरणा दे सकता है। गुरुदेव तुलसी का नेतृत्व इतना जागृत था कि कहाँ, किसको, कब और कितनी प्रेरणा देनी है, इसमें वे कभी नहीं चूकते थे। साधना में उत्कर्ष एवं तेजस्विता लाने हेतु वे अनेक उपक्रम एवं प्रेरणाएं संघ के समक्ष प्रस्तुत करते रहते थे। वे अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते थे–'नए प्रयोगों की जानकारी करना और उन्हें अमल में लाना मेरी रुचि का विषय रहा है। मैं स्वयं प्रायोगिक जीवन जीना चाहता हूँ और संघ में वैसा ही देखना चाहता हूँ। मेरी यह आंतरिक तड़प है कि जो साधुसाध्वियाँ विशेष साधना में लगना चाहते हैं, उन्हें मैं विशेष अवसर और विशेष सुविधा दं। सेवा केन्द्र की भाँति साधना केन्द्र की कल्पना भी मेरे मन में है। व्यवस्था ऐसी हो जिससे संघ पर भी ज्यादा भार न पड़े और विशेष साधना के इच्छुक साधकों को मौका भी मिलता रहे।'
बीकानेर चोखले में पूज्य गुरुदेव ने ८ साधुओं को साधना के विशिष्ट प्रयोग करने की अनुमति दी। मुनि सुखलालजी, किशनलालजी आदि संतों ने दस दिन तक अलग रहकर मौन और ध्यान की साधना की। पूज्य गुरुदेव साधक संतों का उत्साह बढ़ाने के लिए एक दिन उनके स्थान पर पधारे। सबको मौन और साधना में मस्त देखकर गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए।
पूज्य गुरुदेव समय-समय पर विशिष्ट साधना करने वाले साधुसाध्वियों को पत्र के माध्यम से भी प्रेरणा और प्रोत्साहन देते रहते थे। साथ ही उनके अग्रिम पथ को प्रशस्त करने का मार्गदर्शन भी प्रस्तुत कर देते थे। यहां साध्वी प्रमुखा लाडांजी, साध्वी श्री राजकुमारी जी 'नोहर,' साध्वी आशावतीजी एवं मुनि हर्षलालजी को दिए गए पत्रों की कुछ पंक्तियां क्रमशः उद्धरणीय हैं
* लाडांजी! अपनी आत्मा को अपने विचारों को इतना पवित्र बनाना है कि कहीं कोई मलिनता की बू तक न रहने पाए। क्षांति, मुक्ति आर्जव, मार्दव से आत्मा को भावित करके भावितात्मा बनना है। 'जीवियासामरणभयविप्पमुक्का' बनकर सर्वथा निर्विचार बनकर अनशनपूर्वक समाधि सम्पन्न पण्डित मरण प्राप्त करेंगे, तब ही हम कृतकृत्य होंगे।