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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी परम्परा का सूत्रपात नहीं किया है। इस संबंध में मैं अनेक बार कह चुका हूं कि यह मेरा अपना प्रयोग है। इसे परम्परा न बनाया जाए। आचार्य पद का विसर्जन करने के बाद में मैं अपने आपको हल्का अनुभव कर रहा हूँ। शासननियन्ता होने के कारण धर्मसंघ की प्रत्येक गतिविधि पर मेरी नजर अवश्य रहती है। किन्तु मुझ पर जो दायित्व था, उससे मैं सर्वथा मुक्त हूँ।'
अनुशासन का भार आचार्य महाप्रज्ञ को देने के बावजूद आध्यात्मिक प्रेरणा देने के कार्य में वे कभी श्लथता का अनुभव नहीं करते थे। संघीय दायित्व से मुक्त होने के कारण वे इस कार्य में और अधिक समय लगाते थे। उनका यह संकल्प इसी बात की संपुष्टि करता है-'मैंने अपना दायित्व महाप्रज्ञजी को सौंप दिया है फिर भी ठहराव में मेरी रुचि नहीं है। मैं अब भी तत्परता से काम कर रहा हूँ। जीवन के आखिरी क्षण तक मैं इसी प्रकार काम करता रहूँ, आचार्य भिक्षु के पदचिह्नों पर चलता रहूँ और उनके द्वारा प्रज्वलित अध्यात्म की लौ का प्रकाश फैलाता रहूँ, यही अभीप्सा
पूज्य गुरुदेव की उदग्र आकांक्षा थी कि अध्यात्म के आलोक से समस्त मानव जाति अभिस्नात हो इसलिए उन्होंने साहित्य के माध्यम से भी आध्यात्मिक पाथेय एवं प्रेरणा देने का प्रयास किया। अध्यात्म के अनेक प्रयोग उनके साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। श्रावक संबोध' में वे असहिष्णुता की समस्या का प्रायोगिक समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
सहिष्णुता हो, सहिष्णुता हो केवल रट से, सहनशील सहसा कोई कैसे बन पाए। हो प्रयोग 'तुलसी' प्रेक्षा-प्रयोगशाला में, परमाधामी पति भी परमात्मा बन जाए॥
सन् १९६२ में गुरुदेव ने योग विषयक मनोनुशासनम् ग्रंथ की रचना की, जिसमें योग विषयक ज्ञान और प्रयोग दोनों का समावेश किया गया। इसके अतिरिक्त अर्हत्वाणी, प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा, अध्यात्म पदावली आदि ग्रंथ भी विशुद्ध आध्यात्मिक एवं साधनापरक ग्रंथ हैं। व्यवहार बोध में उन्होंने अध्यात्म का व्यावहारिक एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया है। उनके