SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ७४ ज्ञान के स्थिरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग है-परावर्तना। कंठस्थ ज्ञान का यदि बार-बार परावर्तन नहीं होता है तो उसके विस्मृत होने की संभावना बनी रहती है। सामान्यतः कंठस्थ करने में उत्साह रहता है किन्तु पुनरावर्तन के अभाव में उसमें स्थायित्व नहीं रह पाता। पूज्य गुरुदेव ने अनेक बार प्रेरणा देते हुए कहा- 'कंठस्थ ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए पुनरावर्तन आवश्यक है। पुनरावर्तन के अभाव में कंठस्थ ज्ञान को भूलना कठोर श्रम से कमाई हुई पूंजी को अपने प्रमाद से खोने के बराबर है। ज्ञान के पुनरावर्तन से मन की स्थिरता बढ़ती है, आत्मलीनता की स्थिति बनती है। कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी यदि बार-बार पुनरावर्तन करे तो विद्वान् बन सकता है।' ८३ वर्ष की उम्र में भी पूज्य गुरुदेव प्रतिदिन १००० गाथाओं का पुनरावर्तन कर लेते थे। व्यस्त जीवन में भी वे भक्तामर, कल्याणमंदिर, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोगव्यवच्छेदिका, चतुर्विंशतिगुणगेयगीतिः, रत्नाकरपंचविंशिका, उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन तथा शान्तसुधारसइन ग्रंथों का स्वाध्याय तो नियमित रूप से करते ही थे। बचपन में कंठाग्र किए हुए ग्रंथ जीवन के अंत समय तक भी उनको अपने नाम की भांति याद थे। इसका कारण पूज्य गुरुदेव के बाल्यकालीन अनुभवों में ही पठनीय है- "मैं दिन में जितने पद्य या सूत्र कंठस्थ करता, रात्रि में उनका पारायण अवश्य करता। जब तक वे अच्छी तरह आत्मसात् नहीं हो जाते, उनको प्रतिदिन दोहराता, अनेक बार रात्रि में सम्पूर्ण चंद्रिका का स्वाध्याय हो जाता, जिस दिन किसी कारण से स्वाध्याय नहीं हो पाता, मुझे लगता है कि कोई करणीय कार्य छूट गया है। ( मेरा जीवन : मेरा दर्शन, पृ. १०७)" सैकड़ों-हजारों संस्कृत एवं हिन्दी के स्फुटकर सुभाषित श्लोक एवं दोहे उनको वैसे ही याद थे, जैसे तत्काल ही कंठस्थ किए हों। अध्यापन के दौरान एक कालांश में ही प्रासंगिक रूप ये चार-पांच संस्कृत के पद्यों का उल्लेख करना उनके लिए सहज था। स्वाध्याय की ऐसी जीती-जागती मशाल मिलना दुर्लभ है। अस्वास्थ्य की स्थिति में वे अपना अधिकांश समय पुनरावर्तन एवं अनुप्रेक्षा में ही बिताते। वि.सं. २०५० राजलदेसर चातुर्मास में उनके पैर में साइटिका का भयंकर दर्द उठा। डाक्टरों ने बेड रेस्ट की सलाह दी पर गुरुदेव ने उसे कायोत्सर्ग में परिणत
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy