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________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता कर दिया। उस समय भक्तामर, कल्याणमंदिर, चतुर्विंशतिगुणगेयगीति: एवं रत्नाकर पच्चीसी आदि को दिन में कई बार अनुप्रेक्षा के रूप में दोहराया। उनका अनुभव था कि वेदना के क्षणों में स्वाध्याय करने से उसकी अनुभूति को कम किया जा सकता है। . __स्वाध्याय तभी फलदायी बनता है, जब वह तन्मयता से किया जाए। बिना भावक्रिया के केवल वाचिक उच्चारणपूर्वक जल्दी-जल्दी किए जाने वाले स्वाध्याय से न नए तथ्यों की अवगति हो सकती है और न ही एकाग्रता सधती है। पूज्य गुरुदेव की हर क्रिया तन्मयता के साथ जुड़ी हुई थी। बिना तन्मयता से की गयी किसी भी क्रिया को वे मूर्छा का प्रतीक मानते थे। जब वे मंदगति से लयबद्ध स्वाध्याय करते तो आसपास का वातावरण झंकृत हो उठता था। प्रमादी व्यक्ति को भी जागृति एवं रूपान्तरण की नयी स्फुरणा मिल जाती थी। तेरापंथ के चतर्थ आचार्य जयाचार्य स्वाध्यायप्रिय आचार्य थे। वे खड़े-खड़े पूरे उत्तराध्ययन का तल्लीनता से स्वाध्याय करते और अनेक बार अपने आनंद को अभिव्यक्ति देते हुए युवाचार्य मघराजजी से कहते'मघजी! आज एक रत्न हाथ लगा है।' तन्मयता से स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति प्रतिपल नए-नए तत्त्वों को हस्तगत करता रहता है। - तल्लीनता के साथ अर्थ की अनुप्रेक्षा सहित किया जाने वाला स्वाध्याय ही अधिक लाभप्रद होता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि बिना अर्थ की अनुप्रेक्षा के कंठस्थ ज्ञान भार बन जाता है। लाडनूं प्रवास में पश्चिम रात्रि में संतों को उन्होंने अनुग्रह भरे शब्दों में कहा- 'तुम लोगों को जो चीजें कंठस्थ हैं, उनका अर्थ मुझसे कर लिया करो।' संतों ने सेकचाते हए निवेदन किया- 'इससे आपके स्वाध्याय में विघ्न पडेगा।' गुरुदेव ने फरमाया- 'विघ्न किस बात का? दूसरों को अर्थ का ज्ञान कराना भी तो स्वाध्याय ही है। अध्यापन में मुझे जितना आनंद मिलता है, उतना किसी दूसरे कार्य में नहीं मिलता।' संत गुरुदेव की इस अमृतमयी वाणी को सुनकर कृतार्थता का अनुभव करने लगे। प्रतिदिन किसी न किसी प्राकृत या संस्कृत के श्लोक का अर्थ पूछना और फिर विधिवत् प्रशिक्षण देना तो उनके प्रतिदिन का क्रम था।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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