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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी लाडनूं प्रवास में गुरुदेव ने संतों से अन्ययोगव्यवच्छेदिका का 'सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता' का अर्थ पूछा। बालमुनि उसका अर्थ नहीं कर पाए। पूज्य गुरुदेव ने प्रेरणा देते हुए कहा- 'कंठस्थ ग्रंथ तो ऐसे हृदयंगम होने चाहिए कि बोलते ही उनका अर्थज्ञान हो जाए।' प्रेरणा के लिए महाश्रमणजी (युवाचार्य महाश्रमण) का उदाहरण देते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'महाश्रमण अर्थ जल्दी पकड़ता है। तुम लोग अर्थ पर कम ध्यान देते हो।' एक मुनि ने अपना बचाव करते हुए कहा- 'महाश्रमणजी का ज्ञान तो विशाल है।' गुरुदेव ने संतों की आत्मशक्ति को जगाते हुए प्रतिबोध दिया- 'तुम लोग कम हो क्या? पुरुषार्थ और लगन हो तो कुछ भी हो सकता है। ज्ञान बाहर से थोड़े ही आता है। व्यक्ति जितना पुरुषार्थ करता है, उतना ही अंतर का आवरण हटता जाता है। जिस प्रकार सिर, मुंह आदि के केश बाहर से नहीं आते, वैसे ही जितना पुरुषार्थ होता है, उतना ही ज्ञान का क्षयोपशम होता है अत: अवधानपूर्वक पुरुषार्थ करते रहो, अर्थ की अनुप्रेक्षा करते रहो, जीवन में ज्ञान के नए-नए स्रोत स्वतः खुलते जाएंगे।'
__ आगम अध्यात्म के शिरोमणि ग्रंथ हैं। आगम का पारायण एक नास्तिक व्यक्ति को भी अध्यात्म से सराबोर कर सकता है। गुरुदेव के रोम-रोम में आगमों के प्रति अटूट आस्था रमी हुई थी। वे मानते थे यदि हम आगम कार्य को हाथ में नहीं लेते तो अध्यात्म एवं साधना की दृष्टि से रिक्त रह जाते। साधना की विविध दृष्टियों का जागरण आगमों के आलोक में ही संभव हो सका है।आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक आदि आगम-ग्रंथों के पद्यों का जब वे स्वाध्याय करते तब उनका आनंद और तल्लीनता देखते ही बनती थी। अनेक बार वे आगम-सूक्तों के . माध्यम से ही साधु-साध्वियों को विशेष दिशादर्शन देते– “बितिया मंदस्स बालया', 'इयाणिं नो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं', 'जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया', खणं जाणाहि पंडिए', किमेगरायं करिस्सइ आदि आगम-सूक्त समय-समय पर अनेक बार उनके मुखारविंद से सुने जाते थे।
वेदना के क्षणों में पूज्य गुरुदेव आगम गाथाओं के स्वाध्याय को