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अध्यात्म के प्रयोक्ता
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प्रांगण में हुआ। शिविर के दौरान अनेक नए प्रयोग करवाए गए। यह शिविर प्रेक्षाध्यान की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। प्रयोगों की ऐतिहासिक सुरक्षा की दृष्टि से शिविर की मुख्य दिनचर्या का यहां उल्लेख किया जा रहा है४.३०-५.३० अर्हम् जप एवं श्वासदर्शन का ध्यान ६.३०-७.३० आसन-प्राणायाम
योग सम्बन्धी चर्चा ९-१० अर्हम् जप एवं ध्यान १०-११ कायोत्सर्ग २-३ जैन तत्त्व-विद्या का प्रशिक्षण ३-४ योग विषयक प्रवचन ८.३०-९.३० अर्हम् जप एवं ध्यान - व्यस्तता एवं संघीय दायित्व से आबद्ध होते हुए भी पूज्य गुरुदेव ने लगभग सभी कार्यक्रमों में अपनी सन्निधि एवं मार्गदर्शन प्रदान किया। शिविर का संचालन मुख्य रूप से मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) एवं मुनि किशनलालजी ने किया। उपासक दीक्षा
.. मुमुक्षु दीक्षा एवं समण दीक्षा की भांति सन् १९८५ में आध्यात्मिक विकास की एक और नयी श्रेणी की कल्पना गुरुदेव ने समाज के समक्ष प्रस्तुत की। सन् १९८५ में पर्युषण पर्व के दौरान उपासक दीक्षा का आध्यात्मिक प्रयोग प्रारम्भ किया गया। प्रथम प्रयोग में समाज के अनेक भाई-बहिनों ने इसमें अपनी सहभागिता दिखाई। उपासक दीक्षा के लिए अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन दोनों विधान रखे गए। दीक्षा स्वीकृति की अवधि में नियमित दिनचर्या के साथ साधना के विशेष प्रयोगों का प्रावधान रखा गया। इस साधना के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट अभिमत था कि यह साधना व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित बनाकर उसे सामाजिक क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका निभाने की क्षमता और विश्वास देती है।" उपासक दीक्षा की योजना इस प्रकार रखी गयी
१. उपासनांकाल-कम से कम एक सप्ताह से जीवन भर । २. वेशभूषा-श्वेत भारतीय गणवेश तथा ऊपर उत्तरीय।