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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१४४ - भक्ति और श्रद्धा का विकास। - सहअस्तित्व की उपयोगिता। - वाक्संयम। - अनुशासन का महत्त्व।
उपासक संघ का दूसरा शिविर १३ अक्टूबर १९६४ को बीकानेर में प्रारम्भ हुआ। जिसमें मोहनलालजी बांठिया, संतोषचंदजी बरडिया, जयचंदलालजी दफ्तरी, श्रीचंदजी रामपुरिया, जेठाभाई जवेरी एवं मोहनलालजी कठौतिया आदि विशिष्ट कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। पूज्य गुरुदेव ने शिविर का उद्देश्य स्पष्ट करके उपासकों को प्रतिबोध देते हुए कहा- "इस साधना शिविर में मैं छुटपुट संघर्षों की बातों को लेना नहीं चाहता और न उन्हें बीच में लाना ही चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि कार्यकर्ताओं में क्षमता की वृद्धि हो। उसका स्वरूप यह हो
१. अतीत की विस्मृति की क्षमता।
२. अपनी दुर्बलता और दूसरों की विशेषता स्वीकार करने की क्षमता।
३. समाजहित के लिए सामंजस्यपूर्ण विचारों की क्षमता।..
४. व्यक्तिगत विचारों को एक सीमा तक ही महत्त्व देने की क्षमता।
___ उक्त सूत्रों का विकास तभी हो सकेगा, जब दिमाग स्वच्छ व रिक्त होगा। स्लेट पर तभी लिखा जा सकेगा, जब वह साफ होगी।
मुझे आशा है कि आप लोग इस शिविर-साधना द्वारा लक्षित दिशा में अधिकाधिक विकास करेंगे और अपना आत्मबल जगाएंगे। इस दृष्टि से मैं भी साधना के कुछ विशेष प्रयोग करना चाहता हूं। जैसे
• प्रतिदिन एकाशन करना। • भोजन में नौ द्रव्यों से अधिक नहीं खाना। • दूध के अतिरिक्त कोई विगय नहीं खाना। • जप के विशेष प्रयोग करना। • ध्यान व अनुप्रेक्षा (चिन्तन) करना।
पुनः लाडनूं प्रवास में १ मई १९७२ से एकमासीय साधना-सत्र का प्रारम्भ हुआ। इस शिविर का आयोजन पारमार्थिक शिक्षण संस्था के