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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १४६ ३. श्रम-कम से कम तीन घंटा-संस्था का दायित्व। ४. कार्य-संगठन, संस्कार, सेवा, अणुव्रत ग्राम-निर्माण, प्रचार-प्रसार आदि। ५. व्यवस्था-जैन विश्व भारती, तुलसी अध्यात्म नीडम् से। विशेष स्थिति में अपना खर्च भी किया जा सकता है। ६. साधना - बारह व्रतों का स्वीकरण। - उपासनाकाल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन। - गृहकार्यों से मुक्ति। - अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा प्रामाणिकता की विशेष साधना । उपासना काल में व्यक्तिगत संग्रह के रूप में साधक के पास संपत्ति नहीं रह सकेगी। वर्तमान में प्रतिवर्ष पर्युषण के दौरान उपासक-साधना का क्रम अनवरत चलता है, जिसमें अनेक साधक भाग लेते हैं और आध्यात्मिक दिशा-दर्शन प्राप्त करते हैं। योगक्षेम वर्ष सन् १९८७ में पूज्य गुरुदेव ने एक महान् स्वप्न देखा। इस आयोजन की पृष्ठभूमि में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी के निवेदन एवं आचार्य महाप्रज्ञजी के चिंतन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी के शब्दों में इस देश की धरती पर एक ऐसा वर्ष मनाया गया, जो न संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा घोषित था न किसी राजनीतिक संगठन द्वारा प्रेरित था और न किसी महान् पुरुष की स्मृति से जुड़ा हुआ था। उस वर्ष को मनाने का एक उद्देश्य था सर्वांगीण व्यक्तित्व-निर्माण।" सन् १९८९-९० में पूरे साल चतुर्विध धर्मसंघ को सामूहिक रूप से लाडनूं जैन विश्व भारती में अध्यात्म का प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया गया। इस वर्ष को योगक्षेम वर्ष के रूप में घोषित किया गया। इसके कार्यक्रमों को 'प्रज्ञापर्व' नाम से अभिहित किया गया क्योंकि प्रज्ञा का जागरण इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था। "पण्णा समिक्खए" इस आगम-सूक्त को प्रतीक के रूप में रखा गया। इस सांवत्सरिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण के
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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