________________
५०
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी किलोमीटर का विहार तो किया ही पारणे के दिन भी विहार के क्रम में कोई अंतर नहीं आया। लगभग ३-४ किलोमीटर का विहार करके नवकारसी आने के बाद ही गुरुदेव रास्ते में पारणा करते फिर आगे की ओर चल पड़ते।
सन् १९५० में उन्होंने अष्टमी चतुर्दशी को एकाशन का प्रयोग आरम्भ किया। लम्बे-लम्बे विहार, दिन में तीन-चार बार प्रवचन फिर भी महीने के चार एकाशन का क्रम नियमित चलता रहा। साधु-साध्वियों का अनुरोध रहता कि यात्रा के दौरान श्रम बहुत होता है अतः एकाशन का प्रयोग छोड़ दिया जाए लेकिन गुरुदेव का संकल्पबल परिस्थिति के आगे घुटने टेकने को मजबूर नहीं होता।
सन् १९६० का घटना प्रसंग है। अष्टमी का दिन था। दो विहार का क्रम निर्धारित था। संतों और साध्वियों ने निवेदन किया-'आज आपको एकाशन नहीं करना चाहिए। विहार के साथ तीन बार प्रवचन भी किया है, लोगों की भीड़ के कारण भी आपको अतिरिक्त श्रम हुआ है।' गुरुदेव ने दृढ़ता से कहा-'संकल्प को निर्बल नहीं बनाना चाहिए। परीक्षा के क्षण कभी-कभी आते हैं। फिसलन के निमित्त पग-पग पर हैं पर संकल्प तभी फलवान् बनता है, जब उसमें दृढ़ता आती है।' सन् १९७५
और १९७६ में जयपुर और लाडनूं चातुर्मास के सावन मास में गुरुदेव ने एक मासिक एकाशन का प्रयोग किया।
तपस्या के प्रति उनका मानसिक उत्साह प्रवर्धमान रहा। चतुर्विध संघ की भावना को देखते हुए वे लम्बी तपस्या नहीं करते पर उनकी तपस्या के प्रति उत्कट इच्छा समय-समय पर प्रकट होती रहती थी। सन् १९९६ लाडनूं चातुर्मास में दो मुनि अठाई का तप कर रहे थे। प्रात:काल वे गुरुदेव की सन्निधि में प्रस्तुत हुए। उनकी तपस्या पर हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया-'मैंने तेले के ऊपर तपस्या नहीं की है किन्तु इच्छा होती है कि एक अठाई मैं भी करूं। महाश्रमणीजी के अठाई की हुई है। जयाचार्य ने भी बारह की तपस्या की थी। लोग मासखमण कर लेते हैं, वर्षीतप कर लेते हैं, गजब करते हैं । तपस्या भी क्षयोपशम के बिना संभव नहीं है।