SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता ___ मंत्र-जप तभी फलदायी बनता है, जब वह तन्मयता एवं भावना से विधिपूर्वक किया जाए। जब जप और जपने वाले में अभेद एवं तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तभी मंत्र का अधिष्ठाता देवता शक्ति के रूप में प्रकट होता है। जो व्यक्ति अविधि से, अस्थिर मन से जल्दबाजी में जप करते हैं, उन्हें जप का समुचित लाभ नहीं मिल पाता। प्रेक्षा-संगान में पूज्य गुरुदेव ने इसी सत्य का संगान किया है जीवन भर जपता रहे, केवल शाब्दिक जाप। शाश्वत सुख उसको कहां?, होता क्रिया-कलाप॥ तन्मय हो तच्चित्त हो, और तदध्यवसाय। तदुपयुक्त तद्भावना, भावित हो व्यवसाय॥ जप-साधना में सबसे बड़े विक्षेप हैं-प्रमाद, आलस्य एवं मानसिक चंचलता। आलस्य और प्रमाद को तो गुरुदेव ने अपने पास फटकने तक नहीं दिया। यदि कभी उन्हें जप में प्रमाद का अनुभव हुआ तो तत्काल उनका आत्मबल और पौरुष जागरूक प्रहरी की भांति सजग हो जाता। प्रस्तुत उद्धरण जप के दौरान उनकी अप्रमत्तता और जागरूकता की अकथ कथा कह रहा है- 'आज मैंने जप-अनुष्ठान में जिस समय आलस्य का अनुभव किया, मैं खड़ा हो गया। खड़ा होने के बाद भी स्फुरणा नहीं आई। मन स्फूर्त नहीं होता है तो शरीर शिथिल हो जाता है। शरीर की श्लथता मन को प्रभावित करती है। शरीर की शिथिलता और मन की अस्थिरता समाप्त करने के लिए मैंने अपने इष्ट को प्रतीक रूप में खड़ा कर लिया। परिकल्पित इष्ट पर मन टिकाया और जप एकदम जम गया। पूरे जप में मन केन्द्रित रहा। शिथिलता और अस्थिरता समाप्त हो गई। पहले की अपेक्षा अधिक स्फूर्ति का अनुभव हुआ और अतिरिक्त आनंद की अनुभूति हुई।' __ पूज्य गुरुदेव का मंत्र-जाप का महत्त्व बताने का तरीका भी विलक्षण था। एक कुशल अध्यापक होने के नाते किसी भी वस्तु का प्रतिपादन कर उसे हृदयंगम करवाने में वे सिद्धहस्त थे। सन् १९७९ का घटना प्रसंग है। डल्ला नगर में कुछ बालमुनि गुरुदेव की सन्निधि में बैठे थे। गुरुदेव ने मुनियों को संबोधित करते हुए कहा- 'एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावपणासणो'- अर्थात् यह नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy