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साधना का उद्देश्य इतनी एकाग्रता सध जाए तो कल्याण का रास्ता बहुत जल्दी प्रशस्त हो सकता है।' एक आत्मलक्षी साधक ही घटना प्रसंग से ऐसी प्रेरणा ले सकता है। पापभीरुता का विकास
परोऽपेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि।परेहि न त्वा कामये "ओ मन के पाप! चल दूर हट, मुझे क्यों निन्दित सलाह दे रहा है ? मैं तुझे नहीं चाहता।" अथर्ववेद का यह सूक्त हर साधक के लिए प्रेरणा दीप है। गुरुदेव श्री तुलसी कहते हैं-'जिस व्यक्ति के मन में पाप के प्रति ग्लानि हो, पाप हो जाने पर मन में टीस पैदा होती हो, जो यह अनुभव करता हो कि मैंने कुछ खो दिया है, वह आध्यात्मिक है।' पाप को पाप मानने वाला व्यक्ति निश्चित ही एक दिन पाप से मुक्त हो जाएगा किन्तु छिपकर किया
गया पाप जिंदगी भर काँटे की भाँति चुभता रहता है। ... पापभीरुता साधक को कृत पापों के प्रति अनुताप से भरती है, जिससे वह भविष्य में असत् एवं अकरणीय से निवृत्त हो सके। भारतीय ऋषि-महर्षियों का स्पष्ट अभिमत रहा है कि पाप के प्रति ग्लानि के अभाव में आत्म-विकास का स्वप्न ही नहीं लिया जा सकता। खोखली जड़ वाले वृक्षों की भाँति पाप में आसक्त साधक चिरकाल तक प्रतिष्ठा और सम्मान का जीवन नहीं जी सकता। इसलिए पापभीरु साधक सदैव इस भाषा में सोचता है कि कोई मेरे गलत कार्य को देखे या न देखे, पर मैं स्वयं तो अपने पाप को देख ही रहा हूँ अत: मुझे कोई ऐसा कार्य नहीं करना है, जिससे मेरी आत्मा का पतन या अहित हो। "आयंकदंसी न करेड पावं"- पाप में आतंक देखने वाला कभी पाप नहीं करता। महावीर की यह प्रेरक वाणी सदैव उसके स्मृतिपटल पर गूंजती रहती है।
पापभीरुता का फलित है- अहिंसा, करुणा और आत्मौपम्य : : भाव का विकास। पापभीरु व्यक्ति दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर किसी के अहित की कल्पना भी नहीं कर सकता। षड्जीवनिकाय के जीवों के प्रति उसका गहरा तादात्म्य जुड़ने के कारण उनके कष्ट की कल्पना भी उसे रोमांचित कर देती है। काव्य की इन पंक्तियों के माध्यम से गुरुदेव तुलसी यही प्रतिबोध देना चाहते हैं