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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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ही लकीर से हटकर कुछ कार्य करने की बात सोच सकता है। पूज्य गुरुदेव की संकल्पशक्ति और मनोबल इतना प्रबल था कि वे जिस पथ पर चरण बढ़ा देते फिर भयभीत होकर पीछे मुड़ने की बात नहीं सोचते । वे अनावश्यक वीरता दिखाने के पक्षपाती नहीं थे पर परिस्थिति के सामने कायरता या ... दीनता दिखाना भी उन्हें काम्य नहीं था । वे अपने आदर्श को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते थे- 'हम जिस रास्ते पर चलते हैं, उसमें बाधा न आए, ऐसी कल्पना करने वाले हम कौन होते हैं ? रास्ता खुला है, उस पर हम भी आ रहे हैं, बाधाएं भी आ रही हैं। उनको देखकर हम भयभीत क्यों बनें ? हमारी क्षमता इतनी अधिक हो, हमारी धृति इतनी प्रगाढ़ हो कि विघ्न-बाधाओं की उपस्थिति में भी किसी प्रकार की विचलन न हो। "
पूज्य गुरुदेव कहते थे - " जब तक संभव होता है, मैं विरोधों और संघर्षों से बचता रहता हूं । किन्तु जब वे सामने आ जाते हैं तब मुझे अज्ञात शक्ति मिलती है और मैं उन्हें पूरी शक्ति से प्रतिहत करने का प्रयत्न करता हूं।' इस आदर्श के पीछे संस्कृत का यह सुभाषित उनके मानसपटल पर अधिक सक्रिय रहा
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तावद् भयाद्धि भेतव्यं यावद् भयमनागतम् । आगतं तु भयं वीक्ष्य, प्रहर्त्तव्यमशंकया ॥
भय से तभी तक डरना चाहिए, जब तक वह सम्मुख उपस्थित न हो । भय से सामना होने पर निःशंक होकर उसका मुकाबला करना चाहिए । एक पाश्चात्त्य विद्वान् का कहना है कि मूर्ख भय से पहले डरता है, कायर भय के समय तथा साहसी भय के बाद डरता है । कहने का तात्पर्य यह है कि साहसी व्यक्ति हर घटना से नयी प्रेरणा ग्रहण करता है, जिससे वैसी परिस्थिति पुनः उपस्थित न हो ।
जैन विश्व भारती में एक रूसी दम्पत्ति गुरुदेव की उपासना में उपस्थित हुए। बातचीत के दौरान उन्होंने गुरुदेव से पूछा - 'जिस समय आप दक्षिण में गए, उस समय हिन्दी का भयंकर विरोध चल रहा था। क्या आपको दक्षिण यात्रा के दौरान भय की अनुभूति नहीं हुई ?' गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'भय किस बात का ? हम तो अपने तरीके से कार्य कर रहे थे। हमारी भाषा प्रेम की भाषा थी अतः विरोध होने का प्रश्न ही नहीं उठता।' रूसी दम्पत्ति आश्चर्यचकित होकर गुरुदेव की साहसी मुखमुद्रा
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