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साधना की निष्पत्तियां
को देख रहे थे। उन्होंने फिर प्रश्न पूछते हुए कहा- 'आपको इतनी शक्ति कहां से मिलती है ? क्या प्रथम गुरु आचार्य भिक्षु से मिलती है ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'भिक्षु से तो मिलती ही हैं । मेरे परमगुरु कालूगणी से भी मुझे प्रेरणा मिलती रहती है।' रूसी दम्पत्ति इस उत्तर से . पूर्ण संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने फिर प्रतिप्रश्न करते हुए कहा - 'इस अभयसाधना का दूसरा भी कोई रहस्य होना चाहिए क्योंकि हम तो थोड़ी सी विपरीत स्थिति में घबरा जाते हैं।' गुरुदेव ने फरमाया- - गुरुओं की शक्ति के साथ मैं अपने मनोबल और हृदय को मजबूत रखता हूं। जब भय की या प्रतिकूल परिस्थिति सामने आ जाती है तो मैं उसका मुकाबला करने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाता हूं।'
पूज्य गुरुदेव के इसी साहसी व्यक्तित्व का रेखांकन सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने इन शब्दों में किया है - 'एक अपराजेय वृत्ति उनमें पाई गई, जो परिस्थिति की ओर से अपने में शैथिल्य लेने को तैयार नहीं है। बल्कि अपने आस्था, संकल्प - बल पर उन्हें बदल डालने को तत्पर है। धर्म के परिग्रहहीन आकिंचन्य के साथ इस पराक्रमपूर्ण सिंहवृत्ति का योग अधिक नहीं मिलता । साधुता निवृत्त और निष्क्रिय हो जाती है, वही जब प्रवृत्त और सक्रिय हो तो निश्चय ही मन में आशा उत्पन्न होती है । '
जो व्यक्ति कभी प्रमाद नहीं करता, वही अभय की साधना कर सकता है क्योंकि प्रमादी व्यक्ति पग-पग पर स्खलित होता है, त्रुटियां करता है अतः वह भय मुक्त होने की कल्पना नहीं कर सकता । पूज्य गुरुदेव का जीवन हर प्रकार के प्रमाद से दूर था अतः स्खलना से होने वाले भय के प्रसंग उनके जीवन में कभी उपस्थित नहीं हुए।
जो व्यक्ति सबके प्रति करुणा एवं मैत्री से भरा हो, उसके मन में किसी के प्रति भय नहीं रहता। अभय वहीं सिद्ध होता है, जहां अहिंसा और मैत्री होती है। मन में हिंसा का भाव जागते ही व्यक्ति भयभीत हो जाता है। पूज्य गुरुदेव विरोधियों एवं निन्दकों से भी मैत्री सम्बन्ध स्थापित करना जानते थे। ऋग्वेद का यह सूक्त उनके जीवन में पूर्णरूपेण चरितार्थ होता था