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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२०६ अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्। अभयं नक्तं अभयं दिवा, सर्वा आशा मम मित्राणि संतु॥
मैं मित्रों से अभय हूं, दुश्मनों से अभय हूं, प्रत्यक्ष में अभय हूं, परोक्ष में अभय हूं। रात में अभय हूं, दिन में अभय हूं। सब दिशाएं मेरी मित्र हों।
____ अनुशास्ता होने के कारण उनको कहीं-कहीं दूसरों को भय भी दिखाना पड़ता था पर बिना मतलब किसी को भयभीत बनाना उनकी दृष्टि में हिंसा थी। उनकी अभय-दान की चेतना का प्रकर्ष इस घटना के आलोक में देखा जा सकता है- "सरदारशहर प्रवास में गुरुदेव के निवास-स्थान में छज्जे पर एक कपोत युगल बैठा था। एक साधु भूल से उस ओर जाने लगा।आहट सुनकर कपोत युगल कुछ भयभीत एवं विचलित हो गया और अपने पंख फड़फड़ाने लगा। गुरुदेव की दृष्टि इस दृश्य पर पड़ी। तत्काल उन्होंने साधु को रोकते हुए कहा- "इधर आओ, उधर क्यों जाते हो? एक अहिंसक को अपनी किसी प्रवृत्ति से दूसरे को भयभीय नहीं करना चाहिए।" यह घटना छोटी सी है पर बहुत बड़ी प्रेरणा देने वाली है।
संसार में अनेक भय हैं। कुछ को प्रतिष्ठा का भय सताता है तो कुछ को सम्पत्ति की सुरक्षा का। किसी को प्रिय के वियोग का तो किसी को अप्रिय के संयोग का भय रहता है। रोग, बुढ़ापा और मृत्यु-ये तीन संसार के व्यापक भय हैं। गुरुदेव तुलसी इन सभी भयों से ऊपर उठ चुके थे। उनका मानना था कि विज्ञान और तकनीकी का कितना ही विकास हो जाए पर बुढ़ापा, मौत, बीमारी या दूसरी प्रतिकूल स्थितियां टलने की नहीं हैं अतः इनमें निराश या भयाक्रान्त होना दुर्बलता है। ऐसी स्थिति में तो आनन्द का अनुभव ही साधकता का लक्षण है।
__ गुरुदेव के शरीर का कोई अवयव ऐसा नहीं था, जिसकी भयंकर पीड़ा का अनुभव उन्हें नहीं हुआ हो पर हर वेदना को उन्होंने प्रसन्नता एवं समभाव से सहा। उनके मनोबल का ही प्रभाव था कि बुढ़ापा उनके पास आने से ही डरता था। मृत्यु का भय उन्होंने इस चिंतन से जीता- 'काम करते-करते यदि मर जाएं तो क्या चिन्ता है और यदि काम न करते निकम्मे