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साधना की निष्पत्तियां पड़े हैं तो कल न मरकर आज मरें तो भी क्या चिन्ता है ?' जिस व्यक्ति के मन में अपने शरीर के प्रति आसक्ति या ममत्व की भावना नहीं होगी, उसे मौत के कोई दरवाजे भयभीत नहीं कर सकते।' मृत्युदर्शन की बात समझ में आने के बाद जीवन-दर्शन स्वतः शुद्ध हो जाता है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का यह वक्तव्य उद्धरणीय है-"जो मरना जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता। लोग उसे ही मारने की बात सोचते हैं, जो मरना नहीं जानता, मरना नहीं चाहता तथा जो मौत के नाम से डरता है। जो व्यक्ति जीने की कला जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता।"
____रायपुर पण्डाल में आग लगने पर सबने गुरुदेव से आग्रहपूर्ण भाषा में निवेदन किया कि आग बहुत निकट है अत: आप यहां से उठकर दूसरी ओर पधार जाएं; किन्तु गुरुदेव के मन और चेहरे पर भय की कोई रेखा दिखाई नहीं पड़ी। वे वहीं अविचल बैठे रहे और साहस के साथ कहा- "मैं आग से भयभीत होकर यहां से उठकर नहीं जाऊंगा क्योंकि अहिंसक कायर नहीं हो सकता। जो मरने से डरता है, वह अहिंसा का अंचल भी नहीं छू सकता। मैं यहीं बैठा हूं, यहां से एक इंच भी नहीं उठेंगा, देखें क्या होता है।' उस भयावह स्थिति में भी उनके मानस में कंपन नहीं हुआ, उनके अविकम्प मानस को देखकर अग्नि भी भयभीत हो गई और उसने अपनी दिशा बदल दी। इसी प्रकार गुजरात के लाकोदर गांव में गुरुदेव संतों की गोष्ठी को उद्बोधित कर रहे थे। बाहर से कोलाहल एवं हलचल की आवाज सुनाई दी। गुरुदेव को सूचना मिली कि सर्प के दिख जाने से जनता में हलचल एवं भगदड़ मच गयी है। गुरुदेव तत्काल बाहर पधारे और जनता को अभय का संदेश देते हुए यह पद्य फरमाया
रह्या रात लाकोदरे, उरपुर रो उपसर्ग। श्रमण गोष्ठी भीतर सझी, बहिरातुर जनवर्ग।
मृत्यु के भय को जीतना सबसे बड़ी साधना है। बिना अभय का विकास हुए व्यक्ति पग-पग पर मौत से भयभीत होता रहता है। पूज्य गुरुदेव का यह संबोध अनेक लोगों को मौत के समक्ष अभीत रहने की प्रेरणा देने वाला है- 'मौत एक दिन निश्चित है, डरेंगे तो भी और न डरेंगे तो भी। डर के बिना जो मौत आएगी, वह दुःखद नहीं होगी। जो डर के