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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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साथ आएगी, वह भयभीत होगी।' इस संदर्भ में राणावास का निम्न प्रसंग उनके साहस, अभय एवं आत्मजयी वृत्ति को प्रकट करने वाला है। कलकत्ता निवासी माणकचंद जी चोरड़िया का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने परिवार वालों को दरसाव देते हुए कहा- - 'तुम लोग २२ जुलाई, १९८२ से पूर्व गुरुदेव के दर्शन कर लो, अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा।' बात की अफवाह सभी जगह इतनी फैली कि श्रद्धालु मानस उद्वेलित हो उठे। उनका खाना, पीना, सोना दूभर हो गया । २२ जुलाई के पहले अनेक लोग गुरुदेव की सेवा में राणावास पहुंच गए। साधु-साध्वियों ने तपस्या, जप आदि के अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिए।
कलकत्ता, बम्बई से अनेक लोग राणावास पहुंच गए। श्रद्धालु व्यक्तियों के मन में अस्थिरता एवं बेचैनी थी किन्तु गुरुदेव की दिनचर्या एवं मुखमुद्रा में कोई अन्तर परिलक्षित नहीं हुआ । २२ जुलाई के दिन ९ बजे संयम समवसरण खचाखच भर गया । निश्चित समय पर गुरुदेव पण्डाल में पधार गए। लोगों की उत्सुकता को देखकर जनसमूह को सम्बोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा- "पिछले कई दिनों से समाज में हलचल है। जो कुछ हुआ, उसको हम अच्छे रूप में लें। मैं सोचता हूं, मेरे लिए तो यह बहुत शुभ हुआ । मैं प्रतिदिन सोचा करता था कि मैंने साधना
क्षेत्र में कहां तक प्रगति की है, इसकी कभी परीक्षा होनी चाहिए। इस बार अनायास ही यह प्रसंग उपस्थित हो गया। घटना सुनने के बाद तब से अब तक मेरे असंख्य आत्मप्रदेशों के एक प्रदेश में, एक रोम में, एक क्षण के लिए भी भय जैसी बात नहीं आई। मौत के भय से ऊपर उठना साधना की एक बहुत बड़ी कसौटी है। मैं इस कसौटी पर खरा उतरा, यह मेरा अहं नहीं पर कभी सत्य को व्यक्त करना भी आवश्यक हो जाता है। अगर मुझे मृत्यु का भय होता तो मैं कुछ अतिरिक्त काम करता पर मैंने इस प्रसंग को लेकर न नींद खोयी, न तपस्या की और न जाप-ध्यान आदि किया। शयन, जागरण, वाचन, अध्यापन, प्रवचन, जप, ध्यान आदि में कहीं कोई अतिरिक्तता नहीं आने दी । आगमों में लिखा है कि साधक को काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए। मैं प्रतीक्षा करता रहा- कब आता है वह क्षण ? कब आता है २२ जुलाई का दिन ? कब आता है नौ बजे का समय ? आज