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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २६४ निर्माण बहुत अपेक्षित है। आस्था के अभाव में बहुत सारे प्रवचन, वाचन, शिक्षण एवं प्रशिक्षण भी उतने प्रभावी नहीं हो सकते। गणाधिपति तुलसी की आद्यप्रवर्तक आचार्य भिक्षु एवं अपने गुरु कालूगणी के प्रति इतनी प्रगाढ़ आस्था थी कि हर प्रतिकूल परिस्थिति में उनकी स्मृति उन्हें मेरु की भांति अडोल रखती थी। वे इस सत्य को स्वीकारते थे कि मेरी आस्था ज्ञान से ज्यादा श्रद्धा पर आकर टिकी है क्योंकि श्रद्धा से होने वाले काम ज्ञान से नहीं हो सकते। मेरे जीवन में कितने अंतरंग और बहिरंग विरोध आए। चाहे-अनचाहे उनका मुकाबला करना पड़ा। उस विषम परिस्थिति में एक क्षण के लिए भी हृदय से उस अदृश्य शक्ति को नहीं भूला इसीलिए आत्मबल बढ़ता गया और मैंने अपने आपको कभी कमजोर महसूस नहीं किया। गुरु का अनुग्रह प्राप्त हो तो कष्ट की स्थिति में भी आनन्द का अनुभव हो सकता है, यह मेरा भोगा हुआ सत्य है।" अपने परम उपकारी महामना पूज्य गुरुदेव कालूगणी को वे अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक याद करते रहते थे। पूज्य गुरुदेव का अपने गुरु कालूगणी के साथ इतना तादात्म्य था कि वे उनके उपकार को एक क्षण भी अपनी स्मृति से अलग नहीं कर पाते थे। यहां गुरुदेव की रूसी विद्वान् के साथ हुई एक चर्चा का कुछ अंश प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। लाडनूं-प्रवास के दौरान एक रूसी विद्वान् गुरुदेव की सन्निधि में पहुंचा। प्रवचन सुनने के बाद उसने गुरुदेव से पूछा- 'आपके शक्तिकेन्द्र पूज्य कालूगणी हैं तो क्या अब भी आपका उनसे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है?' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- 'ऐसा कोई भी दिन खाली नहीं जाता जब वे मेरी स्मृति में न आएं।' पुनः उस रूसी भाई ने जिज्ञासा प्रस्तुत की- 'कालूगणी से आपका कभी साक्षात्कार हुआ?' गुरुदेव ने उसकी आंखों में झांकते हुए उत्तर दिया- 'प्रत्यक्ष तो नहीं पर मुझे ऐसा लगता है कि वे मेरे हर कार्य में सहयोगी रहते हैं। उनसे मुझे हर पल प्रेरणा और ऊर्जा मिलती रहती है।' यह सुनकर वह विदेशी भाई भावविभोर होकर बोला- 'गुरुदेव! आपकी भक्ति और आस्था देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कालूगणी से आपका अनेक भवों (जन्मों) का संबंध है। क्या आपको भी ऐसा आभास होता है?' गुरुदेव ने स्वीकृति में अपना सिर
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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