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साधना की निष्पत्तियां
* निश्चय को कर गौण जो, हो व्यवहार-प्रधान।
खोकर वह नवनीत को, करे तक्र का पान॥ * पचे नहीं मंदाग्नि से, ज्यों नवनीत गरिष्ठ।
तक्र सुपचं प्रारम्भ में, त्यों व्यवहार अभीष्ट ॥ मन निश्चय में लीन हो, साधे तन व्यवहार। सप्रण पनिहारी गति, होगी कभी न हार॥ निश्चय तो श्री वीतराग ही साध सकेगा। उससे पहले बस केवल व्यवहार टिकेगा॥ यह कोरी मन की उड़ान है, भूल न जाना।
दोनों को ही साधक, साथ-साथ रख पाना॥ पूज्य गुरुदेव का जीवन निश्चय और व्यवहार का निकुञ्ज था। वे जितने व्यावहारिक थे, उतने ही आत्मोन्मुखी थे। व्यवहार को कुशलता से . निभाते हुए भी वे सदैव आत्मा में रमण करते रहते थे। व्यवहार के धरातल पर परमार्थ का प्रयोग करने वाले पूज्य गुरुदेव का जीवन सबके लिए प्रेरणा और आदर्श की नयी मिसाल था। आस्था-बल
साधक की सच्ची सम्पत्ति श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ है-सत्य को धारण करना। सत्य के प्रति आस्थाशील व्यक्ति ही श्रद्धाशील बन सकता है। श्रद्धा और आस्था के बिना अहं से अहम् तक पहुंचने की यात्रा में आने वाली बाधाओं का मुकाबला नहीं किया जा सकता। जिस साधक की श्रद्धा डांवाडोल होती है, वह किसी भी सिद्धान्त या नियम के प्रति सजग नहीं रह सकता। श्रद्धा को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं- 'जिस साधना-पथ को चुन लिया, उस पर कदम बढ़ाते समय हजार कठिनाइयां उपस्थित हो जाएं पर एक क्षण के लिए भी मानस विचलित न हो, इसका नाम है-श्रद्धा।' श्रद्धाबल के सहारे व्यक्ति हर अंधेरी घाटी को पार कर लेता है। महात्मा गांधी कहते हैं- 'आस्था तर्क से परे की चीज है। जब चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है और मनुष्य की बुद्धि काम करना बंद कर देती है, उस समय आस्था की ज्योति प्रखर रूप से चमकती है और हमारी मदद को आती है।' साधना के क्षेत्र में व्यक्तिगत आस्था का