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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
मैं आत्मा, मैं चेतना, मैं हूं सचित्रूप। गणाधिपति गुरु साधुहूं, अनुशास्ता अनुरूप॥ गण में हूंगण का ऋणी, गणहित चिंतनयुक्त।
करूं व्यक्तिगत साधना, तब गण चिंतामुक्त॥ निश्चय में आत्मा ही सत्य है, वह शुद्ध है उसे कोई परिस्थिति विकृत या मलिन नहीं बना सकती किन्तु व्यवहार के धरातल पर व्यक्ति समाज से प्रभावित होता है, सुख-दुःख के निमित्तों से आक्रान्त होता है तथा आत्मा भी विभावों से आवृत एवं मलिन होती है। निश्चय-व्यवहार की इस दार्शनिक गुत्थी को अनेक आचार्यों ने सुलझाने का प्रयत्न किया लेकिन उन्होंने इनकी दार्शनिक व्याख्या अधिक की। पूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक धरातल पर इसे सुलझाने का प्रयत्न किया। उनके ये वक्तव्य इस दिशा में हमारी सोच को परिष्कृत करने वाले हैं
"हमारा काम है निश्चय और व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करना। यह काम कुछ कठिन है पर इसे कठिन मानकर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। हम क्या, स्वयं तीर्थंकर भी इनमें सामंजस्य स्थापित करते हैं। जब तक वे तीर्थ की स्थापना नहीं करते, तब तक तीर्थंकर नहीं हो सकते।"
"तीर्थंकरों जितना सामर्थ्य साधारण आदमी में नहीं होता। फिर भी यथाशक्ति सामंजस्य बिठाने की बात की जा सकती है क्योंकि निश्चय को भुलाना एक भूलं है तो व्यवहार को भूलना दूसरी भूल है। मंजिल तक पहुंचने के लिए पड़ावों पर ठहरना वर्जित नहीं है किन्तु पड़ाव को ही मंजिल मान लिया जाए तो आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।"
* "व्यवहार के धरातल पर कोई व्यक्ति यह आग्रह कर सकता है कि वह किसी दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकता या सहन नहीं कर सकता। पर निश्चय नय के अनुसार छोटे-बड़े हर प्राणी का स्वतंत्र अस्तित्व है।"
'अर्हद्वाणी' के ये पद्य भी निश्चय और व्यवहार में संतुलन बिठाने वाले हैं
* निश्चय में नर एक है, दो होना व्यवहार।
भीतर में निश्चय रहे, ऊपर संव्यवहार॥