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साधना की निष्पत्तियां पास तो अभिमान करने लायक कुछ है ही नहीं, फिर अहंकार किस बात का करूं? मेरी स्पष्ट मान्यता है कि मैं महान् हूं, आकर्षक वक्ता हूं, प्रमुख लेखक हूं, कवि हूं- ये सब अभिमान के चिह्न हैं। साधक को इन सब अहंमन्यताओं से ऊपर उठना चाहिए।' पूज्य गुरुदेव की आत्मतेज युक्त यह अनुभवपूत वाणी अहंकार की जड़ों पर प्रहार कर विनम्रता की नयी पौध लगाने में सक्षम होगी, ऐसा विश्वास है। निश्चय और व्यवहार का समन्वय
निश्चय और व्यवहार ये दो सत्य हैं। इन दोनों का अपने-अपने स्थान पर मूल्य है। साधक निश्चय और व्यवहार इन दोनों भूमिकाओं के मध्य जीता है। एकान्त निश्चय या एकान्त व्यवहार का आग्रह व्यक्ति को लक्ष्य से भटका देता है। इनमें उलझने वाला आत्मस्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाता अत: व्यवहार के दरवाजे से निश्चय में प्रवेश करने वाला साधक इन दोनों का समन्वय करता हुआ चलता है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की दृष्टि में व्यवहार से सर्वथा कटकर निश्चय अपनी उपयोगिता के आगे प्रश्नचिह्न लगा देता है तथा निश्चय से कटकर कोरा व्यवहार छलावा मात्र रह जाता है। साधक कितना ही समझदार या विवेकशील क्यों न हो, केवल व्यवहार के धरातल पर वह कभी स्वयं से परिचित नहीं हो सकता। आत्मबोध के लिए उसे निश्चय में रहना होगा। साधक समूह में रहता है, इसलिए व्यवहार निभाना आवश्यक होता है तथा आत्मा में निवास करता है इसलिए निश्चय का महत्त्व है। पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में निश्चय और व्यवहार में सामंजस्य बिठाया। उनकी यह अभिव्यक्ति इसी बात की साक्षी है
. * "निश्चय की दृष्टि से मैं अकेला हूं। दूसरा कोई भी मेरा अपना नहीं है। व्यवहार के धरातल पर खड़ा होकर देखता हूं तो प्रतीत होता है कि धर्मसंघ के सात सौ साधु-साध्वियां मेरे हैं। मैं इनके सुख में सुखी होता हूं
और दुःख में दु:खी हो जाता हूं। ऐसी मनःस्थिति में मैं अकेला कहां रहा हूं?' 'अर्हद्वाणी' में भी उनकी यही भावना व्यक्त हुई है
निश्चय में मैं एक हूं, ज्ञान दर्शनाकार। विविध रूप व्यवहार में, क्यों हो अस्वीकार॥