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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२६० इस गीत को सुनकर सब झूम उठे पर कॉलेज के प्रिंसिपल शास्त्रीय संगीत के प्रेमी थे। उन्हें यह गीत अखरा। उन्होंने गुरुदेव को कहा'आपके मुख से ऐसी फिल्मी रागों में गीत शोभा नहीं देते। पूज्य गुरुदेव 'संस्मरणों के वातायन' में लिखते हैं कि उस दिन के बाद मैंने उस गीत को कभी काम में नहीं लिया और भविष्य के लिए एक बोधपाठ ले लिया कि कभी फिल्मी गीतों की धुनों को काम में नहीं लेना है। प्रस्तुत घटनाप्रसंग उनकी ग्रहणशील चेतना की ओर संकेत करता है।
- व्यक्ति को अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए स्वाभिमान रखना आवश्यक है पर अभिमान अस्तित्व के लिए खतरा है। पूज्य गुरुदेव कहते थे कि व्यक्ति अपने आपको ऊंचा और दूसरों को हीन मानकर आत्मोत्कर्ष करता है, यह उसका अभिमान है, आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। प्रेक्षा वर्ष में प्रवचन श्रृंखला के दौरान अभिव्यक्त उनके विचार हर किसी की अहं चेतना पर चोट करने में सक्षम हैं- मेरे चित्त पर कभीकभी अभिमान की छाया आ जाती है। मैं चौंककर उसे देखता हूं और सोचता हूं कि मैं अभिमान किस बात का करूं? ज्ञान का? संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जो अनेक क्षेत्रों में मेरे से अधिक ज्ञानी हैं। कुछ विषय ऐसे भी हैं, जिनका मैं ककहरा भी नहीं जानता। यदि मेरे पास केवलज्ञान होता तो संभवतः अभिमान का प्रसंग हो सकता था पर केवलज्ञानी अभिमानमुक्त होते हैं। तो क्या तप का अभिमान करूं? मैंने तो बेले-तेले ही किए हैं? भगवान् महावीर तो छह-छह माह की तपस्या सहज ही कर लेते थे। यह भी नहीं तो क्या बुद्धि का अभिमान करूं? अभयकुमार जैसी बुद्धि हो तो भले ही अभिमान किया जा सके पर अभयकुमार और स्थूलिभद्र की सात बहिनों जैसी बुद्धि कहां? इसी प्रकार बाहुबलि जैसा बल होता तो बल पर अभिमान करने का प्रसंग हो सकता था। दर्शन की दृष्टि से क्षायक सम्यक्त्व और चारित्र की दृष्टि से क्षायक चारित्र होता तो अभिमान का विषय बनता। इसी प्रकार सनत्कुमार और मघवागणी जैसा मेरा रूप होता तो अभिमान का हेतु बनता। अन्यथा रूप का अभिमान क्या करना? ऐश्वर्य का भी कैसा अभिमान? शालिभद्र जैसा ऐश्वर्य कहां? मैं तो सोचता रहता हूं कि जिन लोगों के पास यह सब था उन्हें भी अभिमान नहीं हुआ तो मेरे