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साधना की निष्पत्तियां में मृदुता भी नहीं थी। किसान दिग्मूढ़ होकर चारों ओर देखने लगा। एक व्यक्ति ने ऊंट की नकेल पकड़कर उसे एक ओर कर दिया। यह दृश्य देखकर गुरुदेव ने श्रावकों को उलाहना देते हुए कहा- 'तुम लोगों की यह क्या आदत है? किसी को कोई बात कहनी हो तो शांति से क्यों नहीं कहते? मैं कोई बादशाह तो हूं नहीं जो एक ओर से नहीं निकल सकता। मैं तो साइड से भी निकल सकता हूं। इसके लिए किसान को कष्ट क्यों देना चाहिए?' पूज्य गुरुदेव की इस अमृतमयी वाणी को सुनकर निष्कपट किसान आनंदविभोर होकर गुरुदेव के चरणों में प्रणत हो गया। जहां पद को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है, वहां व्यक्ति और संघ का बहुत बड़ा अहित हो जाता है। 'संस्कारबोध' के माध्यम से वे यही प्रतिबोध समाज को देना चाहते थे
* पद आए जाए भले, रहें सदा मध्यस्थ।
साधे बनकर सतयुगी, सदा साधुता स्वस्थ॥ * प्रतिष्ठा पद से नहीं, पद तो व्यवस्था मात्र है।
ध्यान रखना चाहिए, हम स्वयं कितने पात्र हैं।
जो व्यक्ति लचीला होता है, समय पर झुकना जानता है, उसे कोई तोड़ नहीं सकता। जिस व्यक्ति का अहं पुष्ट होता है, वह ग्रहणशील नहीं हो सकता। प्रयत्न करके भी वह कुछ पा नहीं सकता क्योंकि कुछ न जानने पर भी वह स्वयं को पूर्ण मानता है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का मानना था कि लचीला व्यक्ति अपने चिंतन के वातायन को सदैव खुला रखता है। वह अपनी ग्रहणशीलता के कारण विशिष्ट से विशिष्टतम बन जाता है। पूज्य गुरुदेव ने अपने लचीलेपन से अनेक अवसरों को प्रतिबोध का माध्यम बनाया था। यदि उनका अहं प्रबल होता तो वे उसे अपनी मानहानि का प्रश्न भी बना सकते थे।
जयपुर के मेडीकल कॉलेज में प्रवचन का कार्यक्रम था। छात्र, अध्यापक और प्रिंसिपल सभी उपस्थित थे। गुरुदेव के वक्तव्य से सभी बहुत प्रसन्न हुए। प्रवचन के अंत में गुरुदेव ने एक गीत का संगान किया
देश के विद्यार्थियों से कहनी दो बात है। बड़ी करामात है, जी बड़ी करामात है।