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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २५८ आई। शिकायत से सम्बन्धित संत गुरुदेव से दीक्षा-पर्याय में बड़े थे। गुरुदेव ने सम्बन्धित संत को याद किया और गलती के लिए कड़ा उपालम्भ दिया। मुनि ने उस उपालम्भ को बहुत समता, शांति और विनम्रता के साथ सहा। उनके मन में एक ही विचारसरणि प्रवाहित होती रही कि गुरु का उपालम्भ जीवन के लिए अमृत का प्याला होता है। किसी भाग्यशाली को ही गुरु के वचन सुनने को मिलते हैं, मुझे भी आज यह स्वर्णिम अवसर मिला है। दूसरे दिन मुनि गुरुदेव के चर में पहुंचे और विनम्रतापूर्वक निवेदन किया- 'आपने बहुत कृपा की, मेरे परिष्कार के लिए आपने कल शिक्षा फरमाई लेकिन वह गलती मैंने नहीं की थी। संभवत: किसी ने भ्रमवश आपको ऐसा निवेदन कर दिया है। उनकी विनम्रता और सत्यवादिता ने गुरुदेव को बहुत प्रभावित किया। रात को संतों की गोष्ठी बुलाई और घटना का उल्लेख करते हुए गुरुदेव ने कहा- 'कल मैंने इनको बिना गलती के इतना कड़ा उपालम्भ दे दिया और बिना पूरी जानकारी किए ही इन पर इतना कड़ा अनुशासन किया, यह मैं अपनी भूल मानता हूं। अब ये प्रायश्चित्त से मुक्त हैं। किन्तु इसके प्रायश्चित्तस्वरूप कल मैं एकासन करूंगा। संतों ने निवेदन किया आपने तो जानकारी के आधार पर कर्तव्यवश उपालम्भ दिया, इसमें प्रायश्चित्त की क्या बात है? गुरुदेव ने दृढ़ता से फरमाया- 'भूल तो भूल ही है। सबसे भूल होती है, मुझसे भी हो सकती है अत: कल मुझे इसका प्रायश्चित्त करना ही है।' यह विनम्रता किसी महान् अनुशास्ता में ही संभव है। सामान्य पद या दायित्व भी व्यक्ति को अतिरिक्त अनुभूति करा देता है। अपने समक्ष उसे सभी व्यक्ति बौने प्रतीत होते हैं। उसकी बोली और व्यवहार में स्पष्ट अंतर झलकने लगता है। संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन होने पर भी पूज्य गुरुदेव सदैव इस भाषा में सोचते थे कि पद बड़प्पन की भूमिका नहीं, अपितु कार्य की कसौटी है। पद अहंपूर्ति का साधन नहीं अपितु और अधिक विनम्र एवं सहिष्णु बनने का मौका है। सुजानगढ़ का घटना प्रसंग है। गुरुदेव पंचमी से वापिस पधार रहे थे। मार्ग में एक किसान ऊंट पर लकड़ियां लादे जा रहा था। एक साथ सभी श्रावक उसे तेजी से एक ओर हटने के लिए कहने लगे। उनके स्वरों
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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