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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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भी उनके द्वारा आमंत्रित कार्यक्रमों में भाग लेते थे । पूज्य गुरुदेव का कहना था कि मैं सम्प्रदाय में रहता हूं पर सम्प्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता, यही कारण है कि जहां साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं, वह कार्यक्रम किसी भी सम्प्रदाय द्वारा आयोजित हो, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए मैं उनके साथ हूं और रहूंगा। मैं अपने सम्प्रदाय को मानवता से अलग नहीं मानता हूं। जहां भी मुझे संम्प्रदाय में कोई बात मानवता से अलग प्रतीत होती है, वहां पर मैं उसे मोड़ दे देता हूं।'
उनकी साम्प्रदायिक अप्रतिबद्धता का मूर्त रूप अणुव्रत में देखा जा सकता है। अणुव्रत जाति, वर्ण, लिंग, रंग एवं सम्प्रदाय सबसे अप्रतिबद्ध है । पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके सार्वभौम एवं सार्वजनिक स्वरूप को प्रकट करने वाला है - 'किसी भी सम्प्रदाय में रहता हुआ व्यक्ति अणुव्रती बन सकता है। किसी भी जाति या भाषा से जुड़ा हुआ व्यक्ति अणुव्रतों की साधना कर सकता है। किसी भी रूप में परमात्मा को मानने वाला व्यक्ति अणुव्रत का आचरण कर सकता है और परमात्मा की सत्ता में विश्वास न करने वाला व्यक्ति भी अणुव्रती बनने का गौरव अर्जित कर सकता है।
अप्रतिबद्ध होते हुए भी पूज्य गुरुदेव सृजनधर्मिता से सदैव प्रतिबद्ध रहे । नवनिर्माण के प्रति उनका आकर्षण सदैव बढ़ता रहा। सृजनधर्मिता के प्रति तीव्र अनुबंध उन्हीं की अभिव्यक्ति में पठनीय है- "सृजन मेरी अभिरुचि है। मैं प्रारंभ से ही सृजनधर्मिता से प्रतिबद्ध रहा हूं । मेरी यह प्रतिबद्धता अक्षरविन्यास से शुरू होकर व्यक्ति निर्माण तक पहुंच गई है ।"
अभय
साधक का सबसे बड़ा सुरक्षाकवच है - अभय । इस कवच को पहनकर वह हर खतरे से स्वयं को सुरक्षित रख सकता है, किन्तु बिना शक्ति एवं सहिष्णुता के व्यक्ति अभय का विकास नहीं कर सकता । 'भीतं खु भया अइंति लहुयं, 'भीतो भूतेहिं घेप्पइ' इत्यादि आर्षवाणी स्पष्ट करती है कि भयभीत को ही भय सताता है तथा भूत भी उसे ही पकड़ते हैं, जो भयभीत होता है ।