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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी नहीं है, केवल एक नस दबती है। विश्राम करने से यह स्थिति बदल जाएगी। ऐसे समय में मैं निषेधात्मक भावों में चला जाऊंगा तो दूसरों से क्या कहूंगा? मुझे इस स्थिति को स्वीकार करना है, विधायक भावों के साथ स्वीकार करना है। अपने चिन्तन को विधायक बनाने के लिए मैंने संस्कृत में एक पद्य की रचना की
आनन्दो मे रोमणि रोम्णि, प्रवहतु, सततं मनःप्रसत्ति। स्वस्थः स्वस्थोऽहमिति च मन्ये,
कायोत्सर्गे सुखं शयानः॥ - 'मेरे रोम-रोम में आनन्द प्रवाहित हो। हर पल मेरी मानसिक प्रसन्नता बनी रहे। यह पूर्ण विश्राम का समय मेरे लिए कायोत्सर्ग की विशेष साधना का समय है। कायोत्सर्ग में सुखपूर्वक शयन करता हुआ मैं स्वयं को स्वस्थ अनुभव कर रहा हूँ। स्वस्थता के इस अनुचिन्तन में मेरा धर्मसंघ भी सहभागी बना। स्वास्थ्य के प्रति की गई संघ की मंगलकामनाओं से मुझे पूरा बल मिला। मैं स्वस्थ हो गया। आध्यात्मिक प्रयोग के प्रति मेरी आस्था अधिक पुष्ट हो गई।'
कायोत्सर्ग की भाँति मौन के प्रयोग का अनुभव भी उनकी डायरी के पृष्ठों में पठनीय है-'परिश्रम की अधिकता के कारण सिर में भार,
आँखों में गर्मी, आज काफी बढ़ गई है। रात्रि के विश्राम से भी आराम नहीं मिला, तब सवेरे डेढ़ घण्टे का मौन किया और नाक से लंबे श्वास लिये। इससे बहुत आराम मिला। पुनः शक्ति-संचय सा होने लगा। चित्त प्रसन्न हुआ। मेरा विश्वास है कि मौन साधना मेरी आत्मा के लिए, मेरे स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छी खुराक है। बहुत बार ऐसे अनुभव भी होते रहते हैं। यह मौन साधना मुझे नहीं मिलती तो स्वास्थ्य संबंधी बड़ी कठिनाई होती। पर वैसा क्यों हो? स्वाभाविक मौन चाहे पाँच घंटे का हो, उससे उतना आराम नहीं मिलता, जितना कि संकल्पपूर्वक किए गए एक घंटे के मौन से मिलता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि संकल्प में कितना बल है। साधारणतया मनुष्य यह नहीं समझ सकता पर तत्त्वत: संकल्प में बहुत बड़ी आत्म-शक्ति निहित है। इससे आत्म-शक्ति का विकास होता है।