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अध्यात्म के प्रयोक्ता "क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः" कालिदास की यह उक्ति गुरुदेव का आदर्श सूत्र थी इसीलिये वे सदैव मनोहारी और रमणीय बने रहे। धर्म, अध्यात्म और समाज के क्षेत्र में उनके प्रयोगों की लम्बी सूची देखकर पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने कहा'ये नए प्रयोग आचार्य तुलसी ही क्यों कर रहे हैं ? अणुव्रत, आगमसंपादन, साहित्य-सृजन, समणश्रेणी आदि कितने प्रयोग उन्होंने समाज के सामने प्रस्तुत कर दिए। अन्य सम्प्रदायों में ऐसा क्यों नहीं हुआ?' इस प्रश्न का उत्तर गुरुदेव की इस अभिव्यक्ति में खोजा जा सकता है-'निरन्तर प्रयोग करने का उत्साह प्रगति का पहला सूत्र है, इसलिए मैं प्रयोग में अधिक विश्वास करता हूँ। मैंने अपने जीवन में और धर्मसंघ में अनेक प्रकार के प्रयोग किये हैं। प्रत्येक प्रयोग से मुझे नई दिशा और नया प्रकाश मिलता रहा है।'
. शारीरिक स्वास्थ्य की प्रतिकूलता में भी गुरुदेव साधना परक प्रयोगों को प्रमुखता देते थे। कलकत्ता से राजस्थान लौटते हुए पूज्य गुरुदेव के घुटनों में दर्द हो गया। लगभग तीन हजार किलोमीटर की यात्रा थी। गुरुदेव का मनोबल अत्यन्त प्रबल था। लेकिन घुटनों में दर्द के कारण चलना कठिन लगने लगा। मदनचंदजी गोठी ने गुरुदेव को निवेदन किया"आप प्रयोग के लिए जयाचार्य विरचित विघनहरण गीत का स्वाध्याय एवं अभि रा शि को नमः मंत्र का प्रतिदिन जप करें, इससे आपको लाभ मिलेगा।" गीत एवं जप के स्वाध्याय का यह प्रयोग गुरुदेव को रुचिकर लगा। श्रमण सागर द्वारा प्रतिलिपि किए गए गीत का उन्होंने प्रतिदिन स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया। स्वाध्याय शुरु होने के दो चार दिनों में ही दर्द कपूर की भांति गायब हो गया। पूरी यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो गयी।
पूज्य गुरुदेव के एक आध्यात्मिक प्रयोग की चर्चा उन्हीं के शब्दों में पठनीय है-'सन् १९९३ के राजलदेसर चातुर्मास में मेरे पाँव में साइटिका का दर्द हो गया। डॉक्टर ने पूर्ण विश्राम का परामर्श दिया। उस रूप में विश्राम का निर्देश मेरे जीवन का पहला प्रसंग था। दिन भर सोने की कल्पना ने मुझे निराश कर दिया किन्तु मैं शीघ्र ही संभल गया। मैंने सोचा–'निराशा किस बात की? डॉक्टर कहता है कि और कोई समस्या