________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३० करूं। वह अवधि पांच वर्ष की हो। किसी एक योग्य शिष्य पर पाडिहारिय रूप में शासन-संचालन का भार रखकर वैसा करूं। ऐसी शिष्य सम्पदा मेरे पास है जरूर, पर यह काम सर्वथा नया है। ऐसा करने में कहीं गण का अहित तो नहीं है ? यह सब चिन्तन का विषय है।
__ पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि साधना का प्रयोग मनुष्य पर न. करके यदि पशुओं पर किया जाए तो अधिक सफल हो सकता है क्योंकि पशु की अपनी कोई धारणा नहीं होती। उन्हें जो कुछ समझाया जाता है, वे उसी का अनुकरण करते हैं। पर पता नहीं इस मनुष्य की खोपड़ी में क्या भरा है, जो वह इतना ग्रहणशील नहीं हो पा रहा है।
पूज्य गुरुदेव सफल प्रयोक्ता थे, इसलिए रूढ़ता उन्हें किसी क्षेत्र में प्रिय नहीं थी। वे कहते थे–'रूढ़ जीवन जीने में आनंद की उपलब्धि नहीं हो सकती। मेरे अभिमत से साधना के क्षेत्र में तो किसी प्रकार की रूढ़ता होनी ही नहीं चाहिए। रूढ़ पद्धति से भावी प्रगति में अवरोध आ जाता है। इसलिए प्रयोग और अनुभव के क्षेत्र को खुला रखकर स्वीकृत पद्धति के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए।....जीवन के हर क्षेत्र में नवीनता
और नये उन्मेष देखना मेरी अभिरुचि का विषय है।' पूज्य गुरुदेव ने एक गोष्ठी में संतों को प्रतिबोध देते हुए कहा- "जैसे पातञ्जल योग के अनेक अभ्यासी और प्रयोक्ता साधक मिलते हैं, वैसे ही मैं चाहता हूँ कि जैन योग के भी साधक पैदा हो।" मुनि श्री मीठालालजी स्वामी को संघ मुक्त होकर विशेष साधना करने की अनुमति देना भी उनके उदार एवं क्रांतिकारी प्रयोगों में एक प्रयोग कहा जा सकता है। उस समय गुरुदेव ने आशीर्वाद देते हुए कहा- 'दूर होते हुए भी मेरा आशीर्वाद सतत तेरे साथ है। तेरी साधना का यह क्रम शताब्दियों में भी नहीं हुआ है। तेरी साधना शीघ्र फलवती बने तथा इस भौतिक चकाचौंध के युग में आध्यात्मिकता का आलोक जगे। इससे संघ का ही नहीं किन्तु आत्म-धर्म का विकास भी सम्भव है।" आचार्यश्री ने पुनः दोहे की भाषा में कहा
अभय अरुज अविकार मन, निर्विकल्प संकल्प। लो सौ-सौ शुभ कामना, तुलसी हर्ष अनल्प। स्वस्वरूप की साधना, तेरी अतुल अभीष्ट। 'तुलसी' निश्चित सफलता, महामना मुनि मिष्ट॥