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अध्यात्म के प्रयोक्ता साधना का प्रारम्भ प्रयोग से होता है। नित नए प्रयोग करने वाला साधक अपने जीवन में नये-नये उन्मेषों का उद्घाटन करता रहता है। वेश बदलकर संन्यास ग्रहण करने मात्र से कोई भी व्यक्ति अध्यात्म की ऊंचाइयों पर आरोहण नहीं कर लेता। कोई भी सिद्धान्त तभी फलदायी बनता है, जब उसका प्रयोग किया जाता है। प्रयोग विहीन सिद्धान्त प्रभावहीन एवं अर्थशून्य बन जाता है। सिद्धान्त का प्रयोग करके परीक्षण करने से वह अपना अनुभव बन जाता है अतः पूज्य गुरुदेव का अभिमत था कि धर्म में यदि प्रयोग नहीं जुड़ेंगे तो वह निष्प्राण और रूढ़ हो जायेगा। धर्म को नित्य नवीन और आकर्षक बनाए रखने के लिए उसे प्रायोगिक बनाना आवश्यक है। धर्म को प्रायोगिक बनाने के संबंध में उनकी यह चेतावनी तथाकथित धार्मिकों को भी कुछ सोचने को मजबूर करती है-'धर्म के क्षेत्र में आज प्रयोग की सर्वाधिक आवश्यकता है। अन्यथा उसके टिकने की संभावना क्षीण होती जा रही है। केवल घिसे-पिटे परम्परावादी सिद्धान्तों के आधार पर अब धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। एक धार्मिक को या धर्माधिकारी को यह स्पष्ट रूप से सिद्ध करना होगा कि धर्म से अमुक-अमुक लाभ होता है। अन्यथा आगे आने वाली पीढ़ी धर्म से मुख मोड़ लेगी।' . महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी गुरुदेव के प्रायोगिक जीवन से बहुत प्रभावित हैं। उनका कहना है कि पूज्य गुरुदेव की अध्यात्म निष्ठा असाधारण थी। संघ-संचालन की महती जिम्मेवारियों के बीच जब भी उन्हें एकांत मिलता, वे अपने अनुभव के खजाने को बढ़ाने के लिये निरन्तर प्रयोग करते रहते थे। प्रायोगिक जीवन उनकी निजी पसंद था। वे किस समय कौन-सा प्रयोग कर लेते, यह उनके निकट रहने वाले भी नहीं जान पाते।" प्रशासनिक और आध्यात्मिक- दोनों क्षेत्रों में उन्होंने नये प्रयोग किये और नये अनुभव पाये। उर्वर चिन्तन, प्रायोगिक सोच एवं साधना की गहरी तड़प के संदर्भ में 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में व्यक्त निम्न वक्तव्य अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है- "२२ मार्च, १९६५ को पश्चिम निशा में एक चिन्तन आया, सहज आया, जो सर्वथा नया था। वह यह कि कुछ काल की अवधि तक मैं गण के भार से मुक्त होकर अबाध साधना