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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१९० दूसरे के पूरक हैं। लेकिन स्वयं की अहंमन्यता से एक को ही प्रधानता दी जाए, यह अभिनिवेश साधना में विघ्न है।" इस विवाद का हल योगक्षेम वर्ष के इन प्रवचनांशों में भी खोजा जा सकता है
* "कुछ व्यक्तियों की अवधारणा में तपस्या ही साधना है। कुछ लोग स्वाध्याय, जप आदि में साधना का दर्शन करते हैं तो कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो सेवा को साधना के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करते हैं। मेरा अभिमत इन मंतव्यों से कुछ भिन्न है। मैं यह मानता हूं कि एकांगी दृष्टि से की जाने वाली साधना अधूरी होती है। एक व्यक्ति ध्यान करता है। ध्यान करना अच्छी बात है पर स्वाध्याय के बिना ध्यान में नया विकास कैसे होगा? इसी प्रकार केवल जप या केवल स्वाध्याय के द्वारा अन्तर्दृष्टि का जागरण कैसे होगा?"
* रुचिभेद की बात को मैं अस्वीकार नहीं करता। रुचि के आधार पर मुख्यता और गौणता की स्थिति को मान्यता दी जा सकती है पर किसी एक अंग को पकड़कर अन्य सभी अंगों से निरपेक्ष हो जाना बड़े लाभ से वंचित होना है। ध्यान साधना है तो स्वाध्याय, जप, पदयात्रा, प्रवचन, जन-सम्पर्क, सेवा आदि प्रवृत्तियां भी साधना है। अपेक्षा एक ही है कि इन सब प्रवृत्तियों के पीछे साधना का दृष्टिकोण रहे। दृष्टिकोण सम्यक् न हो तो ध्यान को साधना मानने का आधार भी लड़खड़ा जाता
पूज्य गुरुदेव ने अनाग्रहवृत्ति के वैशिष्ट्य से संघ में तथा अपने जीवन में नए-नए उन्मेषों का उद्घाटन किया तथा अपने व्यक्तित्व को व्यापक बनाया। उनकी अनाग्रही वृत्ति उन सब रूढ़ एवं स्थिति-पालक लोगों को प्रेरणा देने वाली है, जिनके चिंतन में दूसरों के चिंतन का या नए चिंतन का कोई स्थान नहीं रहता। अपनी कमजोरी स्वीकार करने की क्षमता
__ चलने वाला व्यक्ति गिर सकता है, स्खलित हो सकता है पर साधक वह है, जो स्खलित होकर भी अपनी गलती का अहसास करता है
और भविष्य में उससे प्रेरणा लेकर सावधान हो जाता है। 'इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं'- अब मैं वह गलती पुन: नहीं दोहराऊंगा,