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साधना की निष्पत्तियां जो आज तक प्रमादवश करता आया हं। महावीर की यह आर्ष-वाणी उसके कण-कण में व्याप्त रहती है। स्खलना होने पर संशोधन का लक्ष्य रहे तो साधक उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहां से स्खलित होने की संभावना कम या क्षीण हो जाती है और विकास की रेखाएं स्वत: उद्घाटित हो जाती हैं।
गुरुदेव श्री तुलसी अपनी हर अच्छी-बुरी प्रवृत्ति के प्रति जागरूक थे।अपनी हर कमजोरी को वे इतनी सहजता से जनता के समक्ष प्रस्तुत करते कि सुनने वाला हर श्रोता विस्मयविमुग्ध हो जाता। हर स्खलना या घटना उनको नया प्रतिबोध दे जाती थी। उनका मानना था कि हर व्यक्ति के पास एक ऐसी आंख होनी चाहिए, जिससे वह अपनी त्रुटियों को, कमियों को देख सके और करणीय के प्रति सचेत हो सके।' इस संदर्भ में ५ अगस्त १९६३ की डायरी का पन्ना उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जो अनेक लोगों के हृदय में अभिनव प्रकाश भरने वाला है- "मैं एक साधक हूं, मेरा लक्ष्य है वीतरागता। मैं अपने लक्ष्य की दिशा में निरंतर गतिशील रहना चाहता हूं। मेरा प्रस्थान सही दिशा में है या नहीं? मेरी गति में निरंतरता है या नहीं? अपनी साधना से मुझे संतोष है या नहीं? लक्ष्य की दूरी कम हो रही है या नहीं? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करते समय कभी-कभी मैं बहुत उत्साहित हो जाता हूं।संघीय दायित्व, व्यापक जनसंपर्क आदि कारणों से कई बार मेरी व्यक्तिगत साधना में शैथिल्य आ जाता है, उसे देखकर कभी-कभी निराश भी होता है। .....जीवन के शुक्ल पक्ष को देखना बहुत अच्छा लगता है पर मैं यह भी जानता हूं कि साधनाकाल में कोई भी साधक सिद्ध नहीं होता। यदि साधक अपने कृष्णपक्ष को नहीं देखेगा तो जीवन में पूर्णता नहीं आ पाएगी।....मेरी कमियों को बताने में लोग संकोच करते हैं, इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने अपने आपको देखना शुरू किया। आत्मनिरीक्षण के समय मेरे आंतरिक जीवन का जो चित्र निर्मित हुआ वह इस प्रकार है- "लोगों की दृष्टि में मैं बहुत ऊँचा हो सकता हूं, पर अपनी खुद की दृष्टि से जब मैं अपना चित्र खींचता हूं, तब प्रतीत होता है कि भीतर और बाहर में कितना अंतर है? जिस दिन यह अंतर सिमटेगा, भीतर और बाहर में एकता हो जाएगी, तभी जीवन सार्थक होगा।" निम्न घटना प्रसंग उनकी इसी परिष्कृत दृष्टि को उजागर करने वाले हैं।