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साधना की निष्पत्तियां
लगा कि गुरुदेव मंदिर भी जाते हैं । दूसरे ने कहा- 'गुरुदेव मंदिर नहीं जाते हैं ।' पक्ष और विपक्ष के रूप में दोनों भाई अपनी-अपनी बात पर डटे हुए थे। आखिर समझौते के लिए वे गुरुदेव के पास पहुँचे और उनको मंदिर में जाने की प्रार्थना की । यद्यपि गुरुदेव साधुचर्या के कारण काफी व्यस्त थे, फिर भी तत्काल उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मंदिर जाने की स्वीकृति पाकर मूर्तिपूजक दिगम्बर श्रावक ने विवाद को श्रीचरणों में प्रस्तुत करते हुए कहा- 'आज आपने मेरी बात रख दी। आज मंदिर में चर्चा चली कि आचार्य तुलसी केवल समन्वय की बातें करते हैं पर वास्तव में वे कट्टर हैं मंदिर में पैर तक नहीं रखते। मैंने कहा - 'नहीं ऐसी बात नहीं है। वे मंदिर में भी प्रवचन करते हैं । उनकी भ्रांति दूर करने के लिए मैंने आपको मंदिर में जाने के लिए निवेदन किया।' उनकी बात सुनकर गुरुदेव ने कहा- " यह बात मुझे मालूम होती तो मैं एक के बजाय सात बार मंदिर चला जाता। मैं नहीं चाहता कि मैं किसी के आग्रह का विषय बनूं। यह बात सत्य है कि मूर्तिपूजा में मेरा विश्वास नहीं है। एक अमूर्तिपूजक धर्मसंघ का आचार्य होते हुए भी मैं समन्वय और वस्तुस्थिति के अंकन की दृष्टि से अनुदार नहीं हूँ । मैं इस तथ्य को स्वीकार | करता हूँ कि मूर्ति कला की प्रतीक होती है, एकाग्रता में सहायक बनती है. तथा ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती है । इन्हीं गुणों के कारण मैं समय-समय पर मंदिरों में जाता हूं, ध्यान करता हूं, वहां भजन गाता हूं और प्रवचन भी करता हूं। मैं मानता हूं कि विचारों के द्वैध में भी मैत्री और शालीनता का परिचय दिया जा सकता है। ऐसी बातों में उलझना साम्प्रदायिक अभिनिवेश को बढ़ावा देना है।'
पूज्य गुरुदेव का चिंतन था कि उपासना-पद्धति सबकी भिन्न हो सकती है लेकिन अपनी ही उपासना-पद्धति को श्रेष्ठ साबित करना आग्रह है। एक बार कुछ विद्यार्थी साधु चर्चा में उलझ गए। कुछ का कहना था ध्यान श्रेष्ठ है तथा कुछ स्वाध्याय की महत्ता पर जोर दे रहे थे । गुरुदेव ने इस वार्ता को सुना और उद्बोधन देते हुए कहा- "एक साधक ध्यान करता है और दूसरा स्वाध्याय करता है। ध्यान और स्वाध्याय दोनों साधना के अंग हैं तथा निर्जरा के भेद हैं। तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो दोनों एक
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