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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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लेता हूं। फिर दूध-दलिया, मोगर - पापड़ आदि जो चीजें उपलब्ध हो
जाती हैं।
सेठियाजी: ये चीजें आप कितनी मात्रा में लेते हैं ? मैं: उपलब्ध हो तो पेट भरकर ।
सेठियाजी: यह क्रम ठीक नहीं है। अधिकांश लोग पारणे में पहले दिन की कसर निकालना चाहते हैं। एक दिन उणा दूसरे दिन दूणाइस प्रकार भोजन करना ठीक नहीं है।
मैं: पारणे का क्या क्रम होना चाहिए ?
सेठियाजी: केवल पाव भर दूध लेना चाहिए। इससे पेट हल्का रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा और किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी ।
मैंने मन ही मन सोचा कि फिर पारणा ही क्या होगा ? इस सोच के बावजूद मैंने पारणे का क्रम बदल लिया । उपवास की तरह पारणा भी ठीक होने लगा । ऐसा क्यों हुआ ?" एत्थं पि अग्गहे चरे" - इस सूत्र को याद कर मैंने किसी प्रकार का आग्रह नहीं रखा, पकड़ नहीं रखी, मुझे समाधान मिल गया । "
पूज्य गुरुदेव अनेक बार जनभावना को महत्त्व देने के लिए अपनी भावनाओं एवं विचारों को बदल लेते थे । एकांतवास के अवसर पर निःसृत ये पंक्तियां उनके उदार एवं निराग्रही व्यक्तित्व का स्पष्ट संकेत है - " मेरी इच्छा थी कि मैं साधना काल में दिन-रात मौन रखूं तथा सर्वदा एकांत में रहूं, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। जनता के विशेष आग्रह को मैं नहीं सका और आधा घण्टा प्रवचन करने की स्वीकृति दे दी । प्रातः और सायं कुछ समय लोगों के बीच बैठता हूं । प्रातः नौ बजे से चार बजे तक गृहस्थों से मौन रखता हूं।"
जो व्यक्ति जितना अधिक तनाव में रहता है, उतना ही आग्रही होता है । आग्रही व्यक्ति हर बात को इतनी तान देता है कि समस्या को सुलझाना कठिन हो जाता है। गुरुदेव स्वयं तो आग्रह से कोसों दूर थे ही दूसरों को भी समय-समय पर आग्रह एवं अभिनिवेश से मुक्त होने की प्रेरणा देते रहते थे। जब कभी उनके सामने समाज, परिवार या व्यक्तिगत विवाद के मामले आते, वे दोनों पक्षों को सापेक्ष एवं अनाग्रही बनने की बात कहते। एक बार दो भाइयों में विवाद उत्पन्न हो गया। एक भाई कहने