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________________ साधना की निष्पत्तियां लचीलेपन की विरल विशेषता ने उम्र के नवें दशक में भी गुरुदेव को सरस बनाए रखा। पूज्य गुरुदेव के जीवन में आग्रह और अनाग्रह का समन्वय था । खिंचाव और ढील दोनों में उनका समान विश्वास था । वे समय के साथ बदलते थे और नित नवीन प्रतीत होते थे। साथ ही यह भी सत्य था कि वे उसी परिवर्तन को मान्य करते, जिसमें मौलिकता सुरक्षित रहे । वे कहते थे - " मैं जितना नवीनता का संग्राहक हूं, उतना ही प्राचीनता का संपोषक हूं।" मूल को खोकर प्रगति के पथ पर बढ़ना उनकी दृष्टि में बहुत बड़ी भूल थी । इस विषय में उनका यह वक्तव्य अत्यन्त मार्मिक है- 'मैं परम्परा का विरोधी नहीं हूं । किन्तु उसमें बहना भी नहीं चाहता क्योंकि बहना तो अपने आपको खोना है। अच्छी परम्पराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रांत होती रहें, यह आवश्यक है । जिस देश या समाज में `परम्परा को कांच का बर्तन मानकर एक झटके से तोड़ दिया जाता है, वह देश और समाज अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को सुरक्षित नहीं रख सकता । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वांछित एवं अवांछित— सभी प्रवृत्तियों की परम्परा आगे बढ़ाई जाए या उनका अनुकरण किया जाए ।' १८७ अनाग्रही वृत्ति व्यक्ति को सदैव ग्रहणशील बनाए रखती है । ग्रहणशील व्यक्ति के लिए बदलाव का रास्ता दुरूह नहीं होता । पूज्य गुरुदेव की ग्रहणशीलता उल्लेखनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी थी। स्वयं के बारे में यह स्वीकारोक्ति और संस्मरण इसका सशक्त प्रमाण है- "मैं यह लक्ष्य रखता हूं कि अच्छी बात कहीं से भी मिले, उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। इस वृत्ति से मुझे बहुत लाभ हुआ है। एक घटना का यहां उल्लेख कर रहा हूं बहुत वर्षों पहले की बात है। मैं उपवास करता । उपवास ठीक हो जाता। पारणा कष्टप्रद होता । मैं इसका कारण नहीं समझ पाया। मैंने सोचा कि किसी अनुभवी श्रावक से बात करनी चाहिए। सुजानगढ़ के श्रावक छगनमलजी सेठिया बहुत अनुभवी व्यक्ति थे। मैंने उनसे बात की। उन्होंने पूछा- 'आप पारणे में क्या लेते हैं ?' मैं: सबसे पहले कच्चा पापड़ उसके बाद काली मिर्च और मिश्री
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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