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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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संप्रदाय की कुछ प्रवृत्तियों की उनके सामने कड़ी आलोचना की है, लेकिन उन्होंने हमेशा ही आत्मीयता से समझाने की कोशिश की । "
विरोधियों एवं आलोचकों के सन्मुख अनाग्रह से प्रस्तुत होने वाला साधक जीवन में मधुरता एवं सरसता बनाए रखता है। एक बार एक बौद्ध भिक्षु गुरुदेव के पास चर्चा करने के लिए उपस्थित हुआ। आचार्य-. परम्परा के विधि-विधान के अनुसार गुरुदेव पट्ट पर विराज रहे थे । बौद्ध भिक्षु ने कहा - " मैं आपसे बात करना चाहता हूं लेकिन यह तभी संभव है, जब आप भी मेरे बराबर नीचे बैठें। " गुरुदेव तत्काल पट्ट से उतरकर
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बैठ गए। बौद्ध भिक्षु गुरुदेव के इस अनाग्रही, निरभिमानी व्यक्तित्व प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । यदि कोई आग्रही व्यक्ति होता तो वह इसे मानापमान का प्रश्न बना सकता था पर गुरुदेव का साधक मानस इतनी संकीर्ण बात में उलझकर तनाव पैदा करना नहीं चाहता था । कोई भी घटना-प्रसंग उनके अनाग्रही व्यक्तित्व के आगे उलझ नहीं पाता था।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार देवेन्द्र सत्यार्थी दिल्ली में गुरुदेव के पास आए। अनेक विषयों पर विचार-विनिमय चला। चर्चा के अन्त में उन्होंने गुरुदेव को निवेदन करते हुए कहा- 'आचार्यजी ! और तो सब कुछ ठीक है पर यह मुखपट्टी जो आपने बांध रखी है, वह आपके और हमारे बीच एक दीवार है ।' पूज्य गुरुदेव ने उसी क्षण मुखवस्त्रिका को अपने मुख से उतार कर हाथ में लेकर कहा - 'इस दीवार को तो मैं अभी मिटा देता हूं। अब तो कोई दीवार नहीं है ?' गुरुदेव की सहजता और अनाग्रही वृत्ति देखकर सत्यार्थीजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। अभी तक वे दार्शनिक विषयों पर चर्चा कर रहे थे लेकिन गुरुदेव के इस नए रूप को देखकर वे स्तम्भित एवं श्रद्धाप्रणत हो गए। बद्धाञ्जलि होकर वे गुरुदेव को कहने लगे'नहीं, अब कोई दीवार नहीं है।' गुरुदेव ने आत्मविश्वास के साथ कहा'मुखवस्त्रिका हमारा चिह्न नहीं है। इसे हम सुविधानुसार खोल भी सकते हैं। यह हमारी अहिंसा-साधना में सहयोगी उपकरण है। वायु के सूक्ष्म जीवों के प्रतिघात से बचने के लिये हम इसे मुख पर धारण करते हैं । ' देवेन्द्रजी बोले- 'आचार्यजी ! अब हमेशा के लिए यह दीवार मिट गयी । अब मैं इसके लिए आपको कभी बाध्य नहीं करूंगा।' उक्त घटना-प्रसंग उनकी अनाग्रही एवं लचीली सोच का स्पष्ट निदर्शन है।
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